सूरदास का संयोग श्रृंगार वर्णन
सूरदास ने अपने काव्य में संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों का चित्ताकर्षक और मार्मिक वर्णन किया है। उनके संयोग श्रृंगार के आलम्बन कृष्ण, राधा और गोपियाँ हैं। किन्तु गोपियों की अपनी अलग सत्ता कुछ भी नहीं है। वे राधा के व्यक्तित्व में समाहित हो गयी हैं। इसीलिये संयोग शृंगार के मुख्य एवं प्रधान आलम्बन राधा और कृष्ण ही हैं। राधा और कृष्ण के संयोग शृंगार में रूप लिप्सा और चिर साहचर्य दोनों का मणी कांचन योग हुआ है। बाल्य जीवन के ये दोनों साथी युवा होने पर न केवल एक-दूसरे की ओर आकृष्ट हुए वरन् ‘लरिकार्ड का प्रेम कहो अलि कैसे छूटे ?” के अनुसार इन दोनों का प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। वहीं प्रेम सम्बन्ध का चित्रात्मक वर्णन ही सूर के शृंगार का मुख्य आधार है।
शृंगार सभी रसों का राजा है। इसे रसराज कहते हैं। शृंगार का अर्थ है-कलात्मक साज-सज्जा । शास्त्रीय ढंग से जब साहित्य में इसका प्रयोग होता है तो कविराज विश्वनाथ के शब्दों में- “शृंग हिम-मथोद भेद’ अर्थात् काम के उद्भूति या प्रकटन को श्रृंग कहते हैं, उसे ‘आ’ (चारों ओर से) ‘र’ (लाने या देने वाला) ही शृंगार (शृंग + आ + र) कहा जाता है। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में शृंगार का परिचय इस प्रकार दिया गया है-यत किशिल्लो के शुचि में मेघ्यं दशनीय वा तच्छृंगारे णानुमीयते – अर्थात् संसार या लोक में जो वस्तु या जो कुछ स्वच्छ, पवित्र और देखने योग्य यानी सुन्दर होता है वह शृंगार समझा जाता है।
अथवा- ” श्रृंगारो नाम रति स्थाई भाव प्रभव उज्ज्वलवेषात्मकः” अर्थात् रति स्थायी भाव है जिसका वह स्वच्छ प्रकाश मानवेष वाला रस शृंगार है। तात्पर्य कहने का यह है कि जो मन को आकर्षित करे या अच्छा लगे (यौन विकार के माध्यम से इन्द्रिय सुख दाता) वहीं शृंगार है। रति कामोद्रेक से उत्पन्न आकर्षण की पवित्र भावना का नाम है। ‘रति का वाचक प्रेम’ शब्द भी है। इसमें शारीरिक व समन्वय विकार कम होता है, सात्विक अंश अधिक रहता है। रति और प्रेम की भावना मानव में ही नहीं पशुओं में भी अनिवार्य रूप में रहती है।
अन्य रसों की अपेक्षा इसके प्रभेद और भावों की संख्या बहुत अधिक है। इसमें संचायी भाव अधिक है। सात्विक भावों और विरह की कामदशाओं आदि को मिलाकर इसका बहुत बड़ा परिवार है। प्रेम या रति भाव जो शृंगार का स्थायी भाव है मानसिक प्रवृत्तियों के सन्तुलन और एकापता का संपोषण करता है। अतएव प्रेम के आधार पर मानव का सर्वस्व सर्वात्मना समर्पित होता है। प्रेम एक पवित्र नाता होता है। ईश्वर के साथ भी वह जुड़ता है और प्रेम के माध्यम से किया गया समर्पण अमोघ होता है। इसमें अपने लय अर्थात् अहं का विनाश हो जाता है और फिर ईश्वर तथा भक्त अद्वैत भाव से जुड़ जाते हैं। मधुर रस या प्रेम लक्षण भक्ति का आनन्दानुभव इसी रति या प्रेम के आधार पर ही होता है। इसीलिये कृष्ण-भक्ति-साहित्य में अनिवार्यतः शृंगार रस का आधिक्य है और रस राजा शिरोमणि श्रीकृष्ण तो स्वयं उसमें विराजमान हैं ही। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- “वात्सल्य और शृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया, उतना किसी अन्य कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आये थे। उक्त दोनों के प्रवर्तक रति भाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके उतनी का और कोई नहीं । हिन्दी साहित्य में शृंगार रस राजस्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया है तो सूर ने।”
वात्सल्य, शृंगार और भक्ति इन तीनों रसों का स्थायी भाव रति है । अन्तर इतना ही है कि वात्सल्य में सन्तान के प्रति श्रृंगार में प्रियतम या प्रियतमा के प्रति और भक्ति में परमात्मा के प्रति होती है। साहित्य के शृंगार में स्वीकीय या परकीय दोनों रति उचित है और नीच से ऊंच की रति और क्षुद्र जीवों की रति वर्णन रसाभास है। भक्ति रस की शृंगार परिपाटी में रसाभास नहीं होता। प्रीति चाहे काम रूपा हो चाहे सम्बन्ध रूपा उसका एक रूप स्त्री-पुरुष रति का भी होता है। भक्ति शास्त्र में इस रति भावजन्य आनन्द को मधुर रस कहा गया है और लोक पक्ष में शृंगार रस काव्य शास्त्र में स्त्री पुरुष की परस्पर प्रीति चाहे स्वकीय भाव की हो अथवा परकीय की। शृंगार रस का स्थायी भाव है और एकांगी अथवा अनौचित्य रति श्रृंगार रसाभास का कारण होती है। भक्ति में श्रृंगार रस तथा शृंगार रसाभास दोनों को मधुर रस की संज्ञा दी जाती है। काव्य शास्त्र में मधुर भावादि की भक्ति के आनन्द को रस की संज्ञा नहीं दी गयी। केवल भाव कोटि में ही इसे गिना गया है। जिस प्रकार की रस सामग्री भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव- शृंगार रस अथवा शृंगार रसाभाव की होती है उसी प्रकार की रस सामग्री मधुर रस की भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि मधुर रस में जो प्रेम पति अथवा प्यार भाव से किया जाता है उसका आलम्बन लोकनायक न होकर ईश्वर या ईश्वर का कोई अवतरित स्वरूप होता है। चैतन्य सम्प्रदाय के श्री रूप गोस्वामी जी ने ‘भक्ति रसा मृत सिन्धु’ में भक्ति रस का विवेचन करते हुए मधुर रस का भी निरुपाय किया है। ब्रज, कृष्ण तथा उनकी प्रियतमाएँ इस रस के आलम्बन हैं। मुरली का मधुर स्वर, सखा, सखी आदि इसके उद्दीपन विभाव हैं। स्वेद, रोमांच, प्रकम्प, स्वरभंग, वैवर्ण्य, अश्रु आदि इसके अनुभाव हैं तथा निर्वेद, हर्षादि मधुर रस के व्याभिचारी भाव हैं। कृष्ण में रति इस रस का स्थायी भाव है।
संयोग शृंगार- खेलने के लिये निकली राधा की नीली फरिया पर जब ध्यान अटकता है तो वे राधा के उस द्विगुणित सौन्दर्य में पूरी तरह विरोहित हो उठते हैं। जैसे-
खेलन हरि निकले ब्रजखोरी ।
गये श्याम रवितनया के तट अंगलसत चन्दन की खोरी।
औचक ही देख्यो वह राधा नैन विशाल माल दिये रोरी ॥
नील बसन फरिया कटि पहने चोटी पीठ रुवचि झकझोरी।
सूर श्याम देखत ही रीझे नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ॥
इस ओचक की भेट से कृष्ण के नेत्रों में राधा की सौन्दर्य छवि समाहित हो जाती है। उनके भीतर राधा का परिचय जानने की लालसा जागृत हो उठती है। वे राधा से परिचय पूछते हैं-
कहाँ रहति काकी है बेटी, देखी नहीं कबहुँ ब्रजखोरी।
राधा भी उसी अल्हड़ता से उत्तर देती है-
काहे को हम ब्रजतन आवति खेलति रहत आफ्नो पौरी।
सुनत रहहि श्रवनन नन्द छोटा करत फिरत माखन दधि चोरी ।।
इस पर कृष्ण अत्यन्त भोले बनकर बड़ी चतुराई से भोली-भाली राधिका को फुसलाते हुए कहते हैं-
तुम्हरो कहा चोरी हम लौहौं खेलन चलो संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी ।।
कृष्ण के इन चातुर्यपूर्ण बातों में भोली-भाली राधिका फँसे बिना नहीं रह पाती और कृष्ण के आकर्षक जाल में उलझ जाती है और समयानुसार उन दोनों का प्रेम धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता चलता है। राधा भी अब खेलने के बहाने अपने प्रिय कृष्ण के घर आने लगी-
खेलन के मिस कुवरि राधिका नन्द महल तक आई हो।
सकुचि सहित मधुरे स्वर बोली घर है कुँवर कन्हाई हो ।
राधा और कृष्ण का प्रेम व्यापार आगे बढ़ने लगा है। वे घर, गली, वन, उपवन एवं नदी के तट पर एक-दूसरे के साथ मिलने और रहने लगे। वह राधा के सुख साहचर्य से वंचित नहीं होना चाहते-
जमुना पुलिन पुनीत परम रुचि रची मण्डली बनाई।
राधा बाम अंग पर बैठे कर धरि कुँवर कन्हाई ।।
राधा का चंचल चित्त भी अब कृष्ण के साँवले सलोने रूप पर स्थित हो गया है। वे नित्य ही कृष्ण के पास आने लगी है और कृष्ण की छेड़खानी दूध दुहते समय भी चलती रहती है। इस संयोग चित्र का एक दृश्य प्रस्तुत है-
धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी।
एक धार दोहन पहुँचावत, एक घार जहाँ प्यारी ठाढ़ी।
मोहन कर तै धार चलति परि मोहनि-मुख अति ही छवि बाढ़ी।
घर में बार-बार युवती राधा का आगमन देखकर माता हृदय में शंका उत्पन्न होती है। वे बार-बार राधा से आने का कारण पूछती हैं। लेकिन राधा उस दोष से अपने को बरी होने के लिये सारा दोष प्रियतम कृष्ण पर डालती हुई कहती है-
मैं कहा करो सुतहि न बरजति, घरते मोहि बुलावै ॥
मोसो कहत तोहि बिन देखे, रहत न मेरे प्रान ।।
मुँह पावत तबहि लौ आवति और लावति मोह।
सूर समुझि जसुमति उर लाई, हँसत कहति हौ तोहि ।
परस्पर बार-बार मिलन से राधा-कृष्ण का प्रेम अब इतनी चरम सीमा पर पहुँच गया है कि एक-दूसरे से मिलने के लिये से रुक्मणी के साथ कुरुक्षेत्र जा पहुँचे हैं। गोपियों के समूह में नील वसन पहने गोरे वर्ण की राधा खड़ी हैं। उनकी चितवन वे आतुर रहने लगे। किन्तु राधा के जीवन में कृष्ण से एकान्त में मिलन का अवसर तब आता है जब कृष्ण घोर को सनि द्वारिका देखकर कृष्ण की मति भोरी हो जाती है। इसके बाद राधा माधव की भेंट होती है। दोनों एक दूसरे के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि दोनों का पार्थक्य मिट जाता है। लेकिन राधा इस अवसर पर कुछ बोल नहीं पातीं-
रुकमिनि राधा ऐसे भेंटी ।
जैसे बहुत दिनन की बिछुरी एक बाप की बेटी।
एक सुभाय एक वय दोऊ दोऊ हरि की प्यारी ।
सूरदास प्रभु तहाँ पग धारे जहाँ दोऊ ठकुरानी ।।
राधा की वाणी मूक हो जाती है और फिर विदा होने के बाद एक हूक बनकर उठती है-“सखी आज कुछ न कर सकी। हरि आये और मैं ठगी सी रह गयी। हर्षिता होकर उन्हें हृदय का आराम भी नहीं दे पायी और तो और कंचुकी से कुच कलश भी बन्ध तोड़कर प्रकट न हो सके मैं उन्हें अर्ध्य तक न दे पायी। मेरी मति ही मारी गई।” संयोग के चित्रण में सूर कहीं-कहीं इतना डूब गये हैं कि उनका शृंगार अश्लीलता का अतिक्रमण करने लगता है-
नवल गोपाल नवेली राधा नये प्रेम रस पाये ।
अन्तर वन-विहार दोन कीड़त आपु-आयु अनुरागे ।।
कबहुँक बैठि अंश भुज घरि के पीक कपोलनि पागे।
अति रस रासि लुटावति लूटत लाल लाल सुभागे ।।
राधा कृष्ण के साथ प्रेम-क्रीड़ा में निमग्न हैं। एकाएक माता यशोदा वहाँ पहुँच जाती हैं। राधा बड़ी विषम स्थिति में पड़ जाती है, लेकिन तुरन्त अपनी सफाई देती हुई कहती है-
नीवी ललित रहि जदुदाई।
कर सरोज सों बीफल परसत तब जसुमति राई आई ।
तन छन रुदन करत मन मोहन अरु ये सुधि उपजाई ।
देखो ठीठ देति नहीं माता राखी गेंद चुराई।
रति समय में राधा की शोभा का वर्णन करने में सूर ने उपमाओं का भी अन्त कर दिया। सूक्ष्म कटि विशाल नितम्ब भारी पयोधर वाली राधा जब कन्दुक केलि करती हैं तो उनका अंचल हट जाता है, फटी कंचुकी और सटे कुछ दिखाई देने लगते हैं। तभी दोनों के मिलाप से ऐसा जान पड़ता है मानो नव जलद ने विधु को बन्धु बना लिया है और नम में अनियारी कला का उदय हो गया है। इस तरह राधा कृष्ण के संयोग-संभोग के अनेक चित्र सूरदास के काव्य में दर्शित है चुम्बन के उपरान्त देवे रति क्रीड़ा में प्रवृत्त होते हैं। अन्त में दोनों के वस्त्र शिथिल हैं वे श्रम के सुख का अनुभव करते हुए कभी एक-दूसरे के कन्धे पर हाथ रखकर, कभी एक-दूसरे के पीक में अपने कपोल रखकर मदक की ज्वाला को फिर से जागृत करने का प्रयास करते हैं और अन्त में दोनों पुनः रति-क्रीड़ा में निमग्न सुख का अनुभव करते हैं-
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर, स्याम भुजा अपने उर धरिया ।
यो लपटाई रहे उर उरज्यो मरकत मनि कंचन में जरिया।
राधा कृष्ण के ऐकान्तिक सम्बन्धों के अतिरिक्त सूरदास ने संयोग शृंगार के कुछ मधुर चित्रों का अंकन प्रेम परिहास के प्रसंगों में भी किया है। इस दृष्टि से मुरली प्रसंग अधिक अनुकूल बन पड़ा है। राधा कृष्ण से परिहास करती है-
स्याम तेरी मुरली नैकु बजाऊं ।
जोई भाव भरी वंसी में सोइ सोइ सब गाऊं ।
हमरे भूषण तुम सब पहिरो, हौं तुम्हारे सब पाऊँ ।
हमारी बिन्दिया तुम जो लगावहु हैं तब मुकुट लगाऊं
तुम दधि बेचन जाहु वृन्दावन, हौं मरा रोकन आऊं ।
तुम्हरे सिर माखन की मटकी, हौं मिलि ग्वाल लुटाऊं
सूर स्याम तुम बनो राधिका हौं नन्द लाल कहाऊं ।
कृष्ण की मुरली का आकर्षण अत्यन्त प्रभावशाली है। मुरली की ध्वनि सुनकर गोपियों के भीतर कृष्ण के प्रति आकर्षण तथा प्रेम-भाव जागता है और खिंचती हुई चली जाती है-
जब हरि मुरली अधर घरी ।
गृह व्यापार तजो आरज पथ चलत न संक करी ।
पद रिपु पर अटक्यो न सम्हारति उलटि पलटि न खरीरी ।
इनके अतिरिक्त पनघट लीला, दान लीला, हिंडोला, बसन्त, फागुन, होली और जल क्रीड़ा में कृष्ण के साथ गोपियों और राधा के अनेक संयोग चित्र उभरे हैं। इन रास, वसन्त, फागुन, होली, जल कीड़ाओं में जहाँ कृष्ण और राधा ही भाग लेते हैं। गोपियाँ दर्शन से ही आनन्द प्राप्त करती है वहीं पनघट लीला, दान लीला में गोपियाँ अपना सर्वस्व अर्पण करती दिखाई पड़ती हैं। सूर ने शृंगार रस की भावना का उदय वात्सल्य के सहारे करके उसकी रति भूमि को अनोखा रंग प्रदान कर दिया है। वयः सन्धि की जो झिलमिलाहट नायक और नायिका में धूप छाँह की भाँति दिखाई पड़ती है वहीं वात्सल्य और शृंगार लरिकाई और तरुणाई की झिलमिलाहट सूर ने अपने शृंगार में दरसायी।
विरह वर्णन- सूर के विरह वर्णन की श्रेष्ठता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आचार्यों द्वारा मान्य एवं प्रतिपादित विरह को सभी अवस्थायें उनकी रचनाओं में मिलती हैं। वियोग श्रृंगार में 4 भेद माने जाते हैं- (1) पूर्वराग (2) मान, (3) प्रवास, (4) करुण। वास्तविक मिलन से पूर्व जो वियोग की अनुभूति होती है वह पूर्वराग कहलाता है। प्रिय के गुण, श्रवण और दशनादि के कारण ही उनसे मिलने की अभिलाषा होती है और न मिल सकने के कारण वेदना होती है। मिलन होने पर नायक या नायिका कभी-कभी किसी छोटी-मोटी बात पर परस्पर रूठ जाते हैं वही ‘मान’ कहलाता है। किसी कार्य अथवा श्राप के कारण नायक के परदेश चले जाने पर ‘प्रवास’ विरह होता है और जब नायक नायिका को परस्पर मिलने की कोई आशा नहीं रहतो तब उसे ‘करुण वियोग’ कहा जाता है। सुर का विरह-वर्णन ‘प्रवास के अन्तर्गत आता है। कृष्ण का मथुरा गमन ही विरह की उत्पत्ति का कारण बनता है और उनका पुनः बज लौटकर न आना प्रवास विरह को करुण विरह की सीमा तक ले जाता है। कृष्ण के वियोग में उनका तन-मन-यौवन, चारों ओर का वातावरण भारस्वरूप हो गया है। आँखों से निरन्तर अश्रु धारा बह रही है, चांदनी रात इसने वाली नागिन लग रही है।
(1) सखि इन नैननि तें धन हारे।
बिन ही रितु बरसत निसि वासर, सदा मलिन दोउ तारे।
(2) प्रिय विनु नागिनी कारी रात ।
जी कहुँ जामिनी उवति जुन्हैया इसि उलटी है जात।
मानव हृदय के भावों का प्रकृति के साथ सभी भारतीयों कवियों ने सामंजस्य स्थापित किया है। संयोग के दिनों में प्रकृति जो उपादान आनन्द, हर्ष और आह्लाद लाभ करने वाले हैं वही वियोग के दिनों में वेदना पीड़ा, दर्द, विशाद, क्षोभ और व्यथा का एहसास कराने वाले बन जाते हैं। विरहिणी के वीरान और नीरस जीवन से मेल न खाने के कारण प्रकृति उनके लिये दुखदायी बन जाती है और वह उसे हर प्रकार से कोसती है-
मधुवन तुम कत रहत हरे।
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाड़े क्यों न जरे ?
विरहावस्था में चित्त स्थिर नहीं रहता। फलतः एक ही वस्तु कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल दिखाई पड़ती है। अभी-अभी जो यमुना गोपियों के समान विरह के ज्वर से पीड़ित काले रंग की हो गई थी, जिसको माध्यम बनाकर गोपियों ने अपनी शारीरिक और मनस्थिति का चित्रण पथिक के माध्यम से कृष्ण के पास कहलवाया था-
देखियत कालिन्दी अति कारी ।
अहौ पथिक कहियाँ उन हरि साँ भई विरह जुर जारी ।
सूरदास प्रभु जो जमुना गति, सौ गति भई हमारी ।
चातक कभी तो जीवनदाता और स्वयं विरहिणी नारी के रूप में दिखाई पड़ता है तो कभी विरह से जली गोपियों को और भी जलाता हुआ प्रतीत होता है। पी पी रटने वाला चातक एक समय तो गोपियों को समान दुख वाला और उनकी व्यथा को व्यक्त करने वाला प्रतीत होता है, गोपियों के मन में उसके प्रति संवेदना और सहानुभूति है तो कभी उसकी वाणी सुनकर वह तिलमिला उठती है। तथापि स्थान-स्थान पर गोपियाँ चातक के प्रति स्नेहशील ही हैं क्योंकि दोनों ही की पीड़ा एक है, ‘प्रियतम से विछोह है इसलिये ये वे कहती हैं-
बहुत दिन जीवौ पपिहा प्यारे।
बासर रैनि नाम लै बोलत भयो विरह जुर कारौ।
इस विरह से मुक्त होने के लिये और एक बार ही सही कृष्ण से मिल लेने को गोपियाँ इतनी आकुल हैं कि जब भी जहाँ भी अवसर मिलता है वह मथुरा कृष्ण के पास सन्देश भेजती हैं। यही हाल यशोदा का यही हाल अन्य उन लोगों का भी है जो लेशमात्र भी कृष्ण से सम्बन्धित रहें, लेकिन न उत्तर ही आता है और न स्वयं ही-
संदेसनि मधुवन कूप भरे ।
अपने तौं पठवति नहि मोहन, हमने फिरि फिरे।
गोपियों के हृदय टूट रहे हैं। विरह विषाद की ज्वाला से बज जल रहा है। पथिकों ने मथुरा जाने के लिये गोकुल का मार्ग छोड़ दिया, पशु-पक्षी भी पलायन करने लगे। गोपियाँ बची हैं और उनका बज जो कृष्ण से बिछुद्ध कर उजाड़, सुनसान और भयावह प्रतीत होने लगा है। तभी उद्भव कृष्ण का सन्देश लेकर आते हैं। भ्रमरगीत को पढ़कर ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि कृष्ण भी यशोदा और गोपियों आदि से बिछुड़ कर कम दुखी नहीं हैं। जब कभी भी गोकुल, गोप, गोपियों के साथ की गई क्रीड़ायें, नन्द यशोदा के साथ बिताया गया शैशव तथा बाल्यावस्था की लीलायें याद आ जाती हैं तो दिल में टीसन और कचोटन होती है। उन क्षणों में कृष्ण भी अत्यन्त व्याकुल हो उठते हैं लेकिन कुछ मर्यादायें हैं वह स्वयं तो नहीं जा पाते। एक दिन जब गोकुल की याद उन्हें बहुत तड़पाती है जिससे मन ग्लानि से भर उठता है कि इतने सन्देश बज से आये मैंने किसी का उत्तर नहीं भेजा तो उन्होंने अपने प्रिय सखा उद्धव को बज भेजा। उस समय कृष्ण की मनोव्यथा का संकेत उनके सन्देश में व्यक्त हो जाता है-
ऊधौ इतनी कहियो जाई ।
हम आयेंगे दोऊ भैया, मैया जनि अकुलाई।
जद्यपि इहाँ अनेक भाँति सुख सदपि रह्यो नहि जाइ।
सूरदास देखो ब्रजवासिन, तबहीं हियो सिराइ ।
उद्धव कृष्ण का सन्देश ‘पाती’ के रूप में लेकर गये पाती देखकर गोपियाँ एक ओर हर्षोल्लास से भर उठीं तो वहीं दूसरी और वह अत्यन्त दुखी भी हो गई उनकी मनोव्यथा और पीड़ा और भी बढ़ गई क्योंकि-
कोऊ ब्रज वाँचत नाहि पाती।
कत शिखि लिखिपठवत् नन्द नन्दन कठिन विरह की काँती ।
नैन सजल कागद अति कोमल कर अंगुरी अति ताती ।
परसें जरै विलोकें भौंजे, दूहूँ भाँति दुख छाती।
अतएव विवशतावश गोपियाँ अनुनय करती हैं उद्धव से कि वह पाती में लिखा सन्देश सुना दे। उद्धव को स्वर्ण अवसर हाथ लगा और उन्होंने योग और ज्ञान की चर्चा तथा निर्गुण ब्रह्म का महात्म्य बताना शुरू कर दिया। सन्देश सुनकर गोपियाँ तिलमिला उठीं। कहाँ तो सन्देश से शीतलता मिलनी थी कहाँ इस सन्देश ने तो गोपियों की हृदय व्यथा और तड़फ को और बढ़ा दिया। उनकी स्थिति अत्यन्त ही दीन हो गई और अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहती हैं-
ऊधौ मन न भये दसबीस ।
एक हुतौ सो गयौ स्याम संग को अवराधे ईस।
गोपियाँ तो कृष्ण को ‘हारिल की लकरी’ के समान समझती हैं-
हमरे हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम वचन नन्द नन्दन उर दृढ़ करि पकरी ।
गोपियों के लिए ब्रज के कुञ्ज अग्निकुंज बन गये हैं। कृष्ण की उपस्थिति में जो वस्तुयें शीतलता प्रदान करती थी वहीं अब दाहक बन गयी हैं
वृथा बहति जमुना खग बोलत, वृथा कमल फूलनि अलि गुंजै।
पवन पानि धनसार कमल दै, दधि सुत किरनि भानु भइ भुजै।
इन्हीं गोपियों के बीच एक ओर मूक और अपनी पीड़ा को अपने अन्दर ही घोंट कर पी जाने वाली राधा भी है। गोपियों को तो विरह पीड़ा ने बहिर्मुखी बनाकर मुखर बना दिया है जबकि निरीह और बेचारी राधा मात्र उच्छवास लेकर रह जाती है-
अति मलीन वृषभ भानु कुमारी
हरि-त्रम जल भीज्यौ उर अंचल तिहि लालच घुवादति निसारी।
विरह की स्थिति में विरहिणी के मन में कतिपय भाव उठते हैं जिन्हें अन्तर्दशायें कहा गया है जिनकी संख्यायारह है। सूर के विरह वर्णन की यही उत्तमता, उदात्तता और उल्लेखनीय बात है कि सभी अन्तर्दशायें वर्णित हैं। नीचे उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है-
(1) अभिलाषा- प्रियतम से मिलन की इच्छा जागृत होना ही अभिलाषा है-
बारक जाइयौ मिलि माधौ।
का जाने कब छूटि जाइगौ स्वांस रहै जिय साधौ ।
(2) चिन्ता- प्रियतम कृष्ण से मिलन की अभिलाषा से चिन्ता की उत्पत्ति होती है और गोपियाँ सदैव कृष्ण के प्रति चिन्ता में रत रहती हैं
हमको सपनेहुँ मैं सोच ।
जादित तैं किछुरे नन्द नन्दन, तो दिन तैं यह पोंच।
(3) स्मृति— प्रकृति के सुन्दर और मनमोहन दृश्यों को देखकर अथवा विशेष परिस्थितियों के बीच गोपियों को कृष्ण की स्मृति हो आती है-
सखी इन नैनन तें घन हारे।
बिनु ही रत बरसत निसि-वासर सदा सजल दोउ तारे ।
(4) गुणकथन- जहाँ प्रियतम कृष्ण के गुणों का स्मरण कर वर्णन किया जाता है-
एहि बेरिया बनते ब्रज आवते।
दूरहि ते वे वेनु अधर धीर बारम्बार बजावते।
(5) उद्वेग- वियोग में सुखद वस्तुओं का दुखदायी लगना तथा व्याकुल हो जाना-
मधुबन तुम क्यों रहत हरे।
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरै।
(6) प्रलाप – असहनीय वियोग की स्थिति में अंट-संट बकना, प्रलाप करना-
उपमा नैन न एक रही।
कवि जन कहत कहत सब आये, सुधि करि नाहि कही।
प्रेम न होइ कौन विधि कहिये, झूठ ही तन जाड़त ।
सूरदास मीनका कछु इक जल भरि कबहूँ न छड़ित ॥
(7) उन्माद-इस अवस्था में प्रेमी का विवेक नष्ट हो जाता है। उसे सुखद वस्तुयें भयावह एवं पीड़ादायी प्रतीत होती है कुछ-कुछ पागलपन सा छा जाता है-
पिय बिनु नागिनी कारी रात ।
जौ कहुँ जामिनि उबति जुन्हैया इसि उलटी है जात ।
(8) व्याधि- रोग और वियोग से मन में जो सन्ताप उत्पन्न होता है उसे व्याधि कहते हैं। प्रस्वेद, कम्प, ताप आदि का अनुभव विरही को अवश्य होता है-
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।
(9) जड़ता-जड़ता की स्थिति में प्रेमी किंकत्तव्यविमूढ़ हो जाता है, जड़ हो जाता है, उस पर किसी भी बात या वस्तु का प्रभाव नहीं पड़ता-
जंत्र न फुरत मंत्र नहि लागत आयु सिरानी जात ।
सूर स्याम बिनु विकल विरहिनी मुरि मुरि लहरै खाति ।
(10) मूर्च्छा- जब विरहिणी बार-बार अपने प्रियतम का स्मरण एवं ध्यान करती हैं और अन्ततः संज्ञा शून्य हो जाती हैं-
गिरि प्रजक तैं गिरति धरनि घँसि तरंग तरफ तन भारी
तट बारु उपचार चूर जलपूर प्रस्वेद पनारी ।
(11) मरण – साहित्य में मरण दशा का वर्णन करना शोभनीय नहीं माना जाता; एक प्रकार से वर्जित है। केवल मरणासन्न दशा अथवा मन में मरण की कामना का उल्लेख कर ही इस दशा को इंगित कर दिया जाता है-
मेरे जिय में ऐसो आवत जमुना जाइ बहौं ।
अथवा
सूरदास अब मरन बन्यो है पाप तिहारे माथे ।
काव्य शास्त्र में विप्रलम्भ शृंगार के चार भेद किये गये हैं। (1) पूर्वराग, (2) मान, (3) प्रवास (4) करुण प्रवाह विरह के अन्तर्गत दस स्थितियाँ मानी गई हैं। सूर का विरह वर्णन प्रवास भेद के अन्तर्गत आता है, परिणामस्वरूप दसों स्थितियों का उल्लेख भी मिलता है जो निम्नलिखित हैं-
(1) मलीनता – अति मलीन वृषभानु कुमारी।
हरि समजल भीज्यो डर अंचल तिहि लालच न धुवावति सारी।
(2) सन्ताप – नैना भय अनाथ हमारे।
मदन गुपाल उहाँ तै सजनी सुनियत दूरि सिधारे।
(3) कृषता – ऊधो इतनी कहियो जाय ।
अति कृश गात भई है तुम बिनु बहुत दुःखारी गाय।
(4) पाण्डुता – ऊधो ! जो हरि हितू तुम्हारे।
तनु तरुवर उर स्याम पवन न विरह दवा अति जारे।
नहि सिरात नहि जात छार है सुलगि भय कारे ।।
(5) अरुचि – बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजे ।
तब वै लता लगति तनु सीतल अब भई विषम अनल की पुजै।
(6) अधृति – ऊधौ क्यों राखौं ये नैन ?
सुमिरि सुमिरि गुन अधिक तपत हैं सुनत तुम्हारे बैन।
(7) विवशता – ऊधौ बिरही प्रेम करै ।
ज्यों बिनु पुट पट गहत न रंगहि पुट गहि रसहि परै ।
(8) तन्मयता – हमको सपनेहुँ मैं सोच ।
मनु गुपाल आये मेरे गृह, हँसि करि भुजा गही ।
कहा कहाँ बैरिन भई निद्रा, निमिष न और रही।
(9) उन्माद – देखियत कालिन्दी अतिकारी ।
गिरि प्रजंक तैं गिरति धरनि धँसि तरंग तरफ तन भारी
(10) मूर्च्छा – सोचत अति पछाति राधिका मूर्छित धरनि ढही ।
गोपियों के इस विरह वर्णन में अत्यधिक मार्मिकता लाने के लिये सूर ने विरह को उद्दीप्त करने वाले अन्य साधनों का भी उपयुक्त प्रयोग किया है, जैसे- ऋतुओं और विरह का उद्दीपन वर्णन में ऊहात्मकता, विरह में व्यापकता आदि नीचे पुष्टयार्थ उदाहरण दिये जा रहे हैं-
(i) बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति शीतल अब भई विषम ज्वाल की पुंजै ।
वृथा बहति जमुना खग-बोलत, वृथा कमल फूलनि अलि गुंजै।
पवन पानि घनमार कमल दै, दधि सुत किरनि भानु भई भुंजै ॥
– ऋतुओं द्वारा विरह का उद्दीपन ।
(ii) ऊधो ! इतनी जाय कहो।
सब बल्लभी कहति हरि सो ये दिन मधुपुरी रहो ।
आज बालि तुमहूं देखत हौ तपत तरनिसम चन्द ।
सुन्दर स्याम परम कोमल तनु क्यों सहि है नन्द नन्द ॥
-वर्णन में उहात्मकता ।
(iii) ऊधो इतनी कहियो जाय।
अति कम गात भई हैं तुम बिन परम दुखारी गाय ।
परति पछार खाय तेहि तेहि थल अति व्याकुल है दीन।
मानह सूर कादि डारे है, वारि मध्य ते मीन।
-विरह की व्यापकता ।
सूर की दृष्टि से विरह वर्णन की कोई भी स्थिति छूटने नहीं पायी है। शास्त्रीय रूपों के अतिरिक्त वियोग की विभिन्न दशाओं का सर्वागपूर्ण एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण भी बड़े स्वाभाविक ढंग से किया गया है, जो उनके विरह वर्णन को विशिष्ट बनाते हैं।
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