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स्वच्छन्द प्रेमधारा के कवियों में घनानन्द का स्थान
स्वच्छन्द प्रेम धारा के कवियों की प्रेरणा का स्रोत
उन्मुक्त प्रेम के निरूपण की धारा भक्तिकाल से प्रवाहित हो रही थी। रसखान और आलम विशुद्ध प्रेम का निरूपण कर चुके थे। रसखान ने अपने काव्य में कृष्ण विषयक प्रेम की जो अनन्यता व्यक्त की, वही घनानन्द, बोधा और ठाकुर में मिलती है। घनानन्द आदि प्रेम के उन्मुक्त कवियों ने रीति-बद्ध कवियों की परम्परा और श्रृंगार को दूषित और उथली धारा को छोड़कर विशुद्ध प्रेम का निरूपण किया इनके प्रेम-वर्णन में प्रेम का उदात्त रूप ही मिलता है। उसमें सरलता और सन्यता है :
अति सूधो सनेह को मारग है,
जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ सूधे चलें तजि आपुन पै,
झिझकैं कपटी जे निसांक नहीं ।।
रीति-मुक्त इन स्वछन्द कवियों का प्रेम एकनिष्ठता पर आधारित है। जिस प्रकार रसखान ने गोपियों के अनन्य प्रेम को ही अपने प्रेम का आदर्श रखा उसी प्रकार इन कवियों ने भी ।
स्वच्छन्द प्रेमधारा के कवि और उनके प्रेम का स्वरूप- स्वच्छन्द प्रेमधारा के कवियों में घनानन्द, ठाकुर और बोधा प्रमुख हैं। इन तीनों के प्रेम का आदर्श उच्च और उदात्त है। ठाकुर ने निस्वार्थ और निष्काम प्रेम को ही आदर्श प्रेम की संज्ञा दी। इन सभी कवियों ने जीवन में प्रेम किया था, इस प्रेम की असफलता ने उनके हृदय को मार्मिक अनुभूति से भर दिया था। घनानन्द पर प्रेम का नशा बोधा और ठाकुर से अधिक बड़ा-चढ़ा था। वे तो प्रेम के दीवाने ही थे। बोधी भी प्रेम की मदिरा पी चुके थे। ठाकुर की कविता में भी प्रेम की अनुभूति की ऐसी स्थिति मिलती है। उन्होंने प्रेम के निर्वाह का महत्व प्रतिपादन करते हुए कहा है :
गति मेरी यही निसि बासर है,
चित तेरी गलीन के गाहनो है।
चित कीनौ कठोर कहा इतनो,
अब मोहि नहीं यह चाहनो है ।।
कवि ठाकुर नेक नहीं दरसौ,
कपटीन को काह सराहनो है।
मन भावैं सुजान सोई करियो,
हमैं नेह को तो नातो निबाहनो है ।
घनानन्द की प्रेम-जनित अभिव्यक्ति पर सूफी प्रभाव भी है परन्तु अधिक नहीं। ठाकुर पर घनानन्द से भी कम सूफियों का प्रभाव था। इसमें बोधा ही एक ऐसे थे जिन्होंने प्रेम की पीर का निरूपण सूफियों के अनुकरण पर किया :
जब तै बिछुरे कवि बोधा हितू
तब तै उर-दाह विरातौं नहीं।
हम कौन सो पीर कहें अपनी,
दिलदार तो कोड दिखात नहीं ।।
इन प्रेम कवियों का संयोग के वर्णन में मन नहीं लगा। तीनों ने विप्रलंभ शृंगार को ही महत्व दिया है, परन्तु घनानन्द का वियोग-वर्णन अधिक अनुभूतिपूर्ण, मार्मिक और मनोवैज्ञानिक है। ठाकुर ने गोपियों द्वारा प्रेम की दृढ़ता को स्पष्ट करते हुए कहा है :
धिक कान जो दूसरी बात सुनें,
अब एक ही रंग रहौं मिल डोरो।
दूसरो नाम कुजात कढ़ें,
रसना जु कहे तो हलाहल बोरो ॥
ठाकुर यों कहती ब्रजवाल,
सु ह्याँ बनितान को भाव है भोरो।
ऊधौ जी वे अंखियाँ जरि जाँय,
जो साँवरो छाड़ि त तनु गोरो ।।।
ठाकुर कवि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने विशुद्ध प्रेम के निरूपण के साथ-साथ लोक व्यवहार की बातों को भी स्थान दिया।
घनानन्द का महत्व – बोधा और ठाकुर से घनानन्द ने प्रेम के सच्चे उद्गारों को अपने काव्य में अधिक अपनाया है। वियोग-वर्णन के क्षेत्र में घनानन्द आगे हैं। वियोग की अनेक दशाओं का जैसा मार्मिक चित्रण घनानन्द ने किया है वैसा बोधा और ठाकुर न कर सके। कलापक्ष की प्रौढ़ता की दृष्टि से भी घनानन्द आगे हैं। ठाकुर और बोधा के काव्य में कलापक्ष का प्रौढ़ रूप नहीं मिलता। घनानन्द में वियोगिनी की दशा का वर्णन भावोत्कर्ष के साथ-साथ कलापक्ष के सौन्दर्य में चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया है। एक उदाहरण लीजिए :
सावन आगम हेरि सखी,
मन भावन आवन चोप बिसेखी।
छाय कहूँ घन आनन्द जान,
सम्हारि की ठौर लै भूलनि लेखी
बूँदें लगे सब अंग दगें,
उलटी गति आपनै पापनि पेखी।
पौन तैं जागति आग सुनीही,
पय पानि में लागति आँखिन देखी ।।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि घनानन्द अनुभूति की अभिव्यक्ति में ही नहीं अपितु प्रत्येक क्षेत्र में ही बोधा और ठाकुर से आगे हैं।
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