हिन्दी साहित्य

हिन्दी साहित्येतिहास परम्परा (इतिहासों का इतिहास और मूल दृष्टियाँ)

हिन्दी साहित्येतिहास परम्परा (इतिहासों का इतिहास और मूल दृष्टियाँ)
हिन्दी साहित्येतिहास परम्परा (इतिहासों का इतिहास और मूल दृष्टियाँ)

हिन्दी साहित्येतिहास परम्परा (इतिहासों का इतिहास और मूल दृष्टियाँ)

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक अनेक कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे प्रन्थों का निर्माण हुआ जिनमें हिन्दी साहित्य के निर्माताओं के व्यक्तित्व और कृतित्व का उल्लेख मिलता है किन्तु यह सब कुछ व्यष्टि रूप से हुआ, समष्टि रूप से नहीं। इसके अतिरिक्त उनमें समग्र ऐतिहासिक चेतना का भी अभाव है। उदाहरणार्थ ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ ‘भक्तमाल’ और ‘कविमाला’ आदि में कवियों का निर्देश किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय विशेष की भावना से किया गया है। व्यक्तित्व अथवा कृतित्व को ध्यान में रखकर नहीं। इनमें काल-क्रम तथा सन् सम्वत् आदि का भी अभाव है। अतः इन ग्रन्थों को सच्चे अर्थों में इतिहास कह सकना कठिन है।

यह एक आश्चर्य की बात है कि अब तक की जानकारी के अनुसार हिन्दी-साहित्य के इतिहास का सर्वप्रथम लेखक एक विदेशी फ्रेंच विद्वान् गार्सा द ताँसी ठहरते हैं। उन्होंने फ्रेंच भाषा में ‘इस्त्वार द ला लितेरात्युर एंदुई ए ऐंदुस्तानी’ नामक ग्रन्थ में अंग्रेजी वर्ण क्रमानुसार हिन्दी और उर्दू भाषा के अनेक कवियों और कवियित्रियों का परिचय दिया है। ग्रन्थ के आरंभ में लेखक ने 24 पृष्ठों की भूमिका में हिन्दी भाषा और उसके साहित्य के विषय में विचार प्रकट करते हुए उर्दू भाषा को हिन्दी के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया है। इससे ग्रन्थ का कलेवर अत्यधिक बढ़ गया है। लेखक ने अपने ग्रन्थ के आधे से भी अधिक पृष्ठ उर्दू कवियों की साहित्य साधना में व्यय किये हैं। निःसंदेह ताँसी का उक्त प्रयास भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से अनुचित नहीं है। लेखक ने हिन्दी के प्रधान कवियों की जीवनियों और उनके काव्य ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत किया है। साहित्यगत प्रवृत्तियों की चर्चा नहीं की है। ताँसी ने काल विभाजन का भी कोई प्रयास नहीं किया है। उपर्युक्त परिसीमाओं और न्यूनताओं के बावजूद भी ताँसी के इतिहास का साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्व है। भारत से बहुत दूर फ्रांस देश में बैठकर विदेशी भाषा में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखना कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है। ताँसी के ग्रन्थ का महत्व उसकी उपलब्धियों के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि नवीन दिशा की ओर अग्रसर होने के प्रारंभिक स्तुत्य प्रयास की दृष्टि से आंकना चाहिए। इस रूप से ताँसी हिन्दी साहित्येतिहास लेखक-परम्परा में इतिहास के श्रीगणेश कर्ता एवं प्रवर्तक के गौरवपूर्ण स्थान के अधिकारी ठहरते हैं। ताँसी के उक्त ग्रन्थ हिन्दी-साहित्य के सर्वप्रथम इतिहास का हिन्दी भाषा में अनुवाद हो चुका है।

इस परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ शिवसिंह सेंगर का ‘शिवसिंह सरोज’ है। इसमें लगभग एक हजार भाषा-कवियों के जीवन चरित्र और उनकी कविताओं के उदाहरण जुटाये गये हैं। कवियों के जन्मकाल तथा रचनाकाल आदि के भी संकेत कर दिये गये हैं। हालांकि वे अधिक विश्वसनीय नहीं हैं। ताँसी के ग्रन्थ में हिन्दी-कवियों की संख्या 70 के कुछ ऊपर थी किन्तु शिवसिंह सरोज में उक्त संख्या को हजार तक पहुंचाकर इस परम्परा को आगे बढ़ाया गया । इतिहास की दृष्टि से इस ग्रन्थ का अधिक महत्व नहीं है, फिर भी इसमें हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए उपयोगी सामग्री को व्यापक रूप से संकलित कर दिया गया है और यही इसकी विशेषता है।

जार्ज ग्रियर्सन के ‘द मॉडर्न वर्नेक्युलर लिट्रेचर ऑफ हिन्दोस्तान’ का प्रकाशन 1822 में एशियाटिक सोयायटी ऑफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में हुआ। यद्यपि प्रियर्सन ने मुख्यतः सरोज को ही आधार बनाया है। किन्तु उसने अपने ग्रन्थ में काल विभाजन के साथ समय-समय पर उठी हुई प्रवृत्तियों का भी दिग्दर्शन करा दिया है। अतः प्रियर्सन का प्रयास अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित व वैज्ञानिक है। इसमें कवियों की संख्या 952 है। यद्यपि इस ग्रन्थ के नाम से इतिहास के भाव का बोध नहीं होता किन्तु इसे सच्चे अर्थों में हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास माना जा सकता है। प्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य के स्वरूप और विकास से सम्बद्ध जिन मान्यताओं की स्थापना की वे आगे चलकर इतिहास लेखकों का किसी-न-किसी रूप में पथ-प्रदर्शन करती रहीं। जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी भाषा, उसके साहित्य तथा उसके क्षेत्र निर्धारण में जिस निश्चयात्मिका वैज्ञानिक बुद्धि का परिचय दिया वह नितान्त प्रशंसनीय है। उन्होंने हिन्दी भाषा की परिधि से संस्कृति, प्राकृत, अपभ्रंश तथा उर्दू भाषाओं को बाहर रखा। उन्होंने ताँसी और शिवसिंह सरोज के अतिरिक्त भक्तमाल, गोसाईं चरित्र, हजारा नामधारी प्रन्थों तथा अन्य काव्य ग्रन्थों की सामग्री का उपयोग करते हुए यथास्थान मूल आधारों के संदर्भों का भी संकेत कर दिया है। इससे उनके एक सच्चे इतिहास लेखक के लिए अत्यावश्यक गुण- तटस्थता, ईमानदारी, प्रामाणिकता, समन्वयात्मकता, ऐतिहासिक चेतना, समानुपातिकता तथा समयता आदि लक्षित होते हैं। उन्होंने उपलब्ध सामग्री को कालक्रमानुसार रखा। काल विभाजन करते हुए प्रत्येक अध्याय को काल विशेष का सूचक बताया और प्रत्येक अध्याय के अंत में उस काल के गौण कवियों का उल्लेख किया। प्रत्येक काल की परिस्थितियों, प्रवृत्तियों और प्रेरक स्रोतों का निर्देश किया। हिन्दी साहित्य के विकासक्रम को नाना प्रवृत्तियों के रूपों-चारणा काव्य, धार्मिक काव्य तथा दरबारी काव्य के रूप में रखकर भक्तिकाल को हिन्दी का स्वर्णकाल घोषित किया। सच यह है कि यदि एक विदेशी विद्वान ताँसी हिन्दी साहित्य के इतिहास के सर्वप्रथम लेखक ठहरते हैं तो हिन्दी साहित्य के इतिहास को वैज्ञानिक पद्धति पर सर्वप्रथम सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का श्रेय भी एक विदेशी विद्वान जार्ज ग्रियर्सन को है।

इतिहास लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाने के क्षेत्र में मिश्र बन्धुओं का महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने चार भागों में मिश्रबन्धुविनोद लिखा। इसमें 2250 पृष्ठ हैं। इसमें 5,000 से अधिक कवियों के विवरण दिये गये हैं। इसमें अनेक अज्ञात कवि प्रकाश में आये। मिश्रबन्धुविनोद में साहित्य के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालकर साहित्यकारों का साहित्यिक मूल्यांकन कर दिया गया है तथा उनकी श्रेणियाँ बना दी गई हैं। मिश्र बन्धुओं ने काव्य समीक्षा करते समय परम्परागत सिद्धांतों का अनुसरण किया है अतः उनमें आधुनिक समीक्षा दृष्टि का अभाव है। यद्यपि मिश्रबन्धुओं ने अपने ग्रन्थ को इतिहास का नाम नहीं दिया किन्तु इसे एक आदर्श इतिहास ग्रन्थ बनाने में उन्होंने भरसक प्रयत्न किया। निःसन्देह उन्हें इस दिशा में अपने पूर्ववर्ती इतिहास लेखकों से अधिक सफलता मिली। आचार्य शुक्ल ने मिश्रबन्धुओं के महत्व को स्वीकार करते हुए लिखा है-“कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्रायः मिश्रबन्धुविनोद से लिए हैं।” मिश्रबन्धुविनोद परवर्ती इतिहास लेखकों के लिए एक आधार ग्रन्थ का काम करता रहा है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रचित ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ का अतीव महत्वपूर्ण स्थान है। यह मूलतः ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ द्वारा प्रकाशित हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था। आगे चलकर इसके परिवर्धित रूप को स्वतंत्र पुस्तक का रूप मिला। आचार्य शुक्ल ने साहित्य को जनता की चित्तवृत्तियों का प्रतिबिम्ब स्वीकार कर उसकी उत्तरोत्तर विकासोन्मुख प्रवृत्तियों को तद्युगीन व्यापक परिस्थितियों- राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदि के व्यापक संदर्भों के आलोक में देखकर इतिहास के विकासवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया। उन्होंने कवियों की संख्या की अपेक्षा कवियों के साहित्यिक मूल्यांकन को अधिक महत्व दिया। कवियों के काव्य निरूपण में आधुनिक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को अपनाया। कालखंडों और काव्यधाराओं का सुनिश्चित वर्गीकर कर कवि और लेखकों की शैली- विशेष का वैज्ञानिक विश्लेषण कर उपयुक्त उदाहरण जुटाये और इस दिशा में उन्हें असाधारण सफलता मिली। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालखंडों- वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल तथा आधुनिक काल में विभक्त कर उनके दोहरे नाम भी जुटाये। भक्ति, रीति और आधुनिक काल को नाना शाखाओं, धाराओं और उपविभागों में विभक्त किया। सरलता, निश्चयात्मकता और स्पष्टता के कारण शुक्ल जी का उक्त काल विभाजन बहुत समय तक प्रचलित और मान्य रहा। इतना सब कुछ होते हुए भी आचार्य शुक्ल के इतिहास की कतिपय परिसीमायें हैं, जिन्हें आचार्य शुक्ल की परिसीमायें न समझ कर इतिहास की परिसीमायें समझना चाहिए। आज का बहुसाधन सम्पन्न प्रबुद्ध इतिहास लेखक शुक्ल जी के समूचे काल विभाजन, काल सीमा निर्धारण, काव्यधाराओं का वर्गीकरण, काव्यधाराओं के मूल स्रोतों के संकेतीकरण आदि को संदेह की दृष्टि से देखता है और उसका ऐसा व्यवहार समीचीन भी है। शुक्ल जी द्वारा इतिहास के तैयार करने के समय में हिन्दी का प्राचीन साहित्य प्रायः अज्ञात, अप्राप्त और अप्रकाशित था। उस समय आज के हिन्दी जगत का विकसित अनुसंधान अपनी शैशव अवस्था में भी नहीं था। अतः उनके सामने से सुवैज्ञानिक इतिहास के लिए अपेक्षित समृद्ध व सुपुष्ट आधारभुत सामग्री का अभाव था। अतः उन्हें कल्पना और अनुमान का आश्रय लेना पड़ा। इससे तथ्य निरूपण और तत्सम्बन्धी निष्कर्षो के प्रतिपादन में न्यूनताओं व त्रुटियों का रह जाना स्वाभाविक था। अपर्याप्त सामग्री के कारण उनके इतिहास में एकपक्षीयता का आ जाना। भी अनिवार्य था। इन परिसीमाओं के बावजूद भी हिन्दी-साहित्येतिहास-परम्परा में शुक्ल जी का इतिहास मील के पत्थर के समान है। यह अपने विषय का सर्वप्रथम इतिहास है जिसमें अत्यंत व्यापक सूक्ष्म दृष्टि, विकासवादी दृष्टिकोण, विशद विवेचन व विश्लेषण तथा तर्कानुमत निष्कर्ष एकत्र मिलते हैं। आज के हिन्दी साहित्य के इतिहास के विशाल भवन की सुदृढ़ नींव सशक्त आलोचक एवं समर्थ सक्षम इतिहासकार आचार्य शुक्ल ने रख दी थी।

हिन्दी साहित्येतिहास-शृंखला में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पन्थों-हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास तथा हिन्दी साहित्य का आदिकाल आदि एक नवीन दिशा को प्रस्तुत करते हैं। इनमें एक नवीन दृष्टि, नूतन सामग्री और अभिनव विवृत्ति है। आचार्य शुक्ल ने प्रत्येक युग के साहित्य की प्रवृत्तियों के निर्धारण में युगीन परिस्थितियों को प्रमुखता दी जबकि आचार्य द्विवेदी ने इस देश की प्राचीन परम्पराओं, एतद्देशीय संस्कृति के धारावाहक रूप, शास्त्रीय एवं लोक परम्पराओं के व्यापक संदर्भ में प्रत्येक युग के साहित्य का मूल्यांकन किया। उदाहरणार्थं द्विवेदी जी ने सप्रमाण सिद्ध किया कि हिन्दी साहित्य में भक्ति का आन्दोलन न तो निराशाजन्य परिस्थितियों का परिणाम है और न ही यह इस्लाम धर्म की प्रतिक्रिया की उपज है बल्कि भारत के दर्शन, धर्म व साधना का अजस्र क्रमात्मक प्रस्फुटन है। इसी प्रकार उन्होंने यह प्रमाणित किया कि सन्त मत पर विदेशी प्रभाव की कोई छाया नहीं है। प्रत्युत सन्त साहित्य का मूल नाथ और सिद्धों की वाणियों में निहित है। उन्होंने प्रेम काव्यों का स्रोत संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश काव्यों की प्रेमगाथात्मक काव्य रूढ़ियों और परम्पराओं में खोजा। हिन्दी साहित्य का आदिकाल द्वारा उन्होंने हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक काल को एक नई दिशा प्रदान की और इसके साथ-साथ समूचे मध्यकालीन साहित्य को एक नवीन व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण से देखने की प्रेरणा दी। अतः हम कह सकते हैं कि आचार्य द्विवेदी ने मध्यकालीन साहित्य के स्रोतों और परम्पराओं का महत्वपूर्ण गवेषणात्मक अध्ययन कर उनका मानवतावादी दृष्टि से अतीव सहानुभूतिपूर्वक पुनराख्यापन किया है। आचार्य शुक्ल ने युगीन प्रवृत्तियों का विश्लेषण केवल एकपक्षीय • परिस्थितियों के आधार पर किया जबकि द्विवेदी जी ने उन्हें संस्कृति और शास्त्र की पूर्व परम्पराओं का सुपुष्ट व सुसमृद्ध दृढ़ आधार प्रदान किया है। अतः द्विवेदी जी का इतिहास शुक्ल जी के इतिहास का पूरक है। आचार्य द्विवेदी अप्रतिम ऐतिहासिक चेतना तथा पूर्व परम्पराओं के बोध की पारदर्शिनी दृष्टि से सम्पन्न एक सशक्त इतिहासकार हैं।

इस परम्परा में आचार्य द्विवेदी के इतिहास ग्रन्थों के साथ-साथ प्रायः डॉ० रामकुमार वर्मा के हिन्दी साहित्य का आलोचनालक इतिहास का प्रकाशन हुआ। इसमें लेखक ने 693 से 1693 ई० की कालावधि को लेकर भक्तिकाल तक के इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन किया है। डा० वर्मा ने आचार्य शुक्ल की पद्धति का अनुकरण किया है। इन्होंने कालखंडों और काव्यधाराओं के नामकरण में थोड़ा परिवर्तन कर दिया है। वीरगाथा काल को चारण काल कहा है और इससे पूर्व संधि काल को जोड़ दिया है जिसमें अपभ्रंश भाषा के प्रायः सारे कवियों को समेट लिया है और अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयंभू को हिन्दी साहित्य का आदि कवि घोषित किया है जो कि ऐतिहासिक, साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से सर्वथा अवांछनीय है। काव्यधाराओं के नामकरण में लेखक ने ‘सन्त काव्य’ व ‘प्रेम काव्य’ आदि शीर्षकों का सार्थक प्रयोग किया है। साहित्यकारों के मूल्यांकन में लेखक ने कलात्मकता, सहृदयता एवं नैसर्गिक कवि हृदय का परिचय दिया है। परिणामतः शैली-प्रवाहपूर्ण, रोचक, सरस और हृदयग्राही है और यही इस ग्रन्थ की लोकप्रियता का मुख्य कारण है।

विभिन्न विद्वानों के सहयोग से लिखित एवं डा० धीरेन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी साहित्य’ कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। इसमें साहित्य के इतिहास को तीन कालखंडों- आदिकाल, मध्यकाल तथा आधुनिक काल में विभक्त किया गया है। समस्त काव्य परम्पराओं का वर्णन स्वतंत्रत रूप से किया गया है। ‘रासो काव्य परम्परा’ को नवीन रूप से जोड़ा गया है। काल-विभाजन, विषय- निरूपण एवं शैली आदि की दृष्टि से उक्त ग्रन्थ आचार्य शुक्ल के इतिहास से काफी भिन्न है। विभिन्न लेखकों द्वारा रचित होने के कारण इसमें एकरूपता और अन्विति का अभाव है।

इधर ‘नागरी प्रचारिणी सभा काशी’ ने हिन्दी साहित्य का ‘बृहत् इतिहास’ प्रकाशित किया है। योजनानुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास को 18 भागों में निकाला गया है। इसमें साहित्य के इतिहास लेखन की सैद्धान्तिक एवं वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाया गया है। इतिहास का प्रत्येक भाग विभिन्न अधिकारी विद्वानों के सम्पादन में लिखा गया है। इस दिशा में शताधिक विद्वानों ने अमूल्य सहयोग प्रदान किया है। इस श्रृंखला में प्रकाशित खंडों में डॉ० नगेन्द्र द्वारा सम्पादित षष्ठ भाग-रीतिकाल, अत्यंत महत्वपूर्ण बन पड़ा है। समूची योजना की सफलता का श्रेय समर्थ समपादन एवं विभिन्न विद्वानों की मूल्यवान विद्वत्तापूर्ण है गवेषणाओं को जाता है। हाल में डॉ० नगेन्द्र के कुशल संपादन में ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ तथा ‘हिन्दी वङ्मय बीसवीं शती’ इतिहास सम्बन्धी दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। इनमें अनेक अधिकारी विद्वानों ने इतिहास के विभिन्न पक्षों पर है व्यापक व गहन दृष्टिकोण से लिखा है। इनमें इतिहास के कई अज्ञात पक्षों को प्रकाश में लाया गया है तथा ज्ञात पक्षों को वैज्ञानिक तथा विकासवादी आलोक में प्रस्तुत किया गया है। इस दिशा में कृती संपादक तथा लेखक वर्ग का प्रयास स्तुत्य है।

उपर्युक्त इतिहास ग्रन्थों के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखंडों, काव्य रूपों और धाराओं पर अनेक शोध प्रबन्ध एवं समीक्षात्मक ग्रन्थ प्रकाश में आए हैं। इनमें साहित्य के अनेक अज्ञात तथ्यों और अनिर्णीत प्रश्नों को नवीन दृष्टिकोण से नवालोक में प्रस्तुत किया गया है। हिन्दी अनुसंधान जगत् के इन नवीन निष्कर्षो और परिणामों का अतीव सतर्कतापूर्वक समन्वयन एवं समाहितीकरण इतिहास-लेखन की दिशा में अभी शेष है। नवीन शोध परिणामों और विकसित साहित्य चेतना के आलोक में हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनर्गठन और लेखन आवश्यक है। निःसंदेह आज हिन्दी साहित्य के इतिहास से संबंधित शताधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं किन्तु अभी तक इस दिशा में उचित व संतोषजनक प्रगति नहीं हुई है। प्रस्तुत पुस्तक को उक्त उद्देश्य की पूर्ति का अर्थ समझना चाहिए।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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