हिन्दी साहित्य

हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का परिचय एंव इसकी प्रवृत्तियाँ

हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का परिचय एंव इसकी प्रवृत्तियाँ
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का परिचय एंव इसकी प्रवृत्तियाँ

हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का परिचय एंव इसकी प्रवृत्तियाँ

आधुनिक काल का प्रारम्भ- साहित्य के इतिहास में सर्वाधिक जटिल प्रश्न यही है कि किसी काल विशेष का प्रारम्भ कब से माना जाय ? सामान्यतः इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य में आधुनिक जीवन-बोध के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म उन्नीसवीं शती के ठीक मध्य में सन् 1850 में माना है। परिवर्तन शुरू हो ही चुका था। अतः प्रायः यह मान लिया गया कि आधुनिक युग का प्रारम्भिक समय भारतेन्दु का जन्म वर्ष ही है। डॉ० नगेन्द्र द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य के इतिहास में ” आधुनिक काल” “पूर्व पीठिका” शीर्षक के अन्तर्गत डॉ० बच्चनसिंह ने लिखा है कि “इतिहास की गतिमानता या बदलाव में यह वर्ष स्वयं किसी तरह की भूमिका अदा नहीं करता है। साहित्य के काल विभाजन की रेखा कम से कम दो विभिन्न सामन्तवादी प्रवृत्तियों को स्पष्टतः अलग करने वाली तथा इस अलगाव के लिए स्वयं भी बहुत कुछ उत्तरदायी होनी चाहिए। यदि सन् 1857 को आधुनिक काल का प्रारम्भिक बिन्दु मान लिया जाय तो उपर्युक्त दोनों शर्तें पूरी हो जाती हैं।” सन् 1857 का वर्ष दो विरोधी शक्तियों की टकराहट का काल था। ये दो शक्तियाँ थीं- पूँजीवादी और सामन्तवादी शक्ति जो प्रायः समाप्त हो गई थीं। इस समय प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने अपना चिन्तन प्रारम्भ कर दिया था और शासकों ने भी जान लिया था कि इस देश में परम्परा की जड़ें बड़ी गहरी हैं। अतः उन्हें एकदम तो मिटाया नहीं जा सकता था, किन्तु उनका नवीनीकरण अवश्य किया जा सकता था, हुआ भी यही ।

आधुनिक काल के प्रारम्भ के सम्बन्ध में डॉ० नगेन्द्र का मत है कि “सामान्यतः रीतिकाल के अन्त (1843) से आधुनिक काल का आरम्भ मानने की परम्परा रही है। नवीन सामाजिक और राजनीतिक चेतना के संवहन के फलस्वरूप सन् 1857 को यह गौरव दिया जाता है, किन्तु साहित्यिक क्षेत्र में नयी विचारधारा का प्रवेश वस्तुतः 1868 से हुआ।” आचार्य शुक्ल ने आधुनिक हिन्दी साहित्य का आरम्भ सम्वत् 1900 से या सन् 1843 से माना है, किन्तु नवीन शोधों के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाता है कि “ऐकांतिक रूप से इस साहित्य की प्रवृत्तियों का बीजवपन इससे भी 40-50 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था, कन्तु उसका “पल्लव” लगभग सम्वत् 1925 में हुआ, जबकि भारतेन्दु का आगमन हुआ। डॉ० शिवकुमार वर्मा ने लिखा है कि “सम्वत् 1850 से 1925 तक का समय आधुनिक हिन्दी साहित्य का संक्रान्ति या सन्धि काल है। यह 75 वर्ष की अवधि भारतेन्दु युग के आरम्भ से पूर्व की है, जिसका एक छोर “फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना से सम्बन्धित है और भारतेन्दु के युगारम्भ से।”

” दूसरा छोर इस प्रकार यही मानना उचित प्रतीत होता है कि आधुनिक काल की प्रारम्भिक सीमा रेखा सन् 1868 है। यह ठीक है कि सन् 1857 में नवीन चेतना स्पष्ट होने लग गई थी, किन्तु वह साहित्य में तो तभी अभिव्यक्त हुई, जब भारतेन्दु काव्य में सृजन प्रवृत्त हुए। हमारी धारणा भी यही है कि आधुनिक साहित्य का काल भारतेन्दु के रचना- काल से मानना ही ठीक है।

आधुनिक काल हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ

आधुनिक काल की हिन्दी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन इस प्रकार है-

1. पद्य के साथ गद्य का विकास- इस युग में पद्य के साथ गद्य का भी विकास हुआ, परन्तु गद्य के विकास से पद्य के विकास में कोई बाधा नहीं हुई। गद्य का अविर्भाव आर बहुमुखी विकास इस युग की प्रमुख विशेषता है। मुद्रण के अभाव में है साहित्य का कवल काव्यांग ही विकसित हुआ था और वस्तुतः आधुनिक काल से पूर्व साहित्य शब्द पद्य का पर्यायवाची भी था। आधुनिक काल की इस विशेषता को लक्ष्य करके आलोचकों ने इसका नामकरण गद्यकाल किया है।

2. खड़ी बोली का साहित्य क्षेत्र में एकाधिकार- आधुनिक काल में दूसरा परिवर्तन भाषा का दृष्टिगोचर होता है। यथार्थ की प्रवृत्ति का प्रभाव पद्य की भाषा-शैली के परिवर्तन में दृष्टिगत होता है। गद्य के लिए खड़ीबोली ही उपयुक्त भाषा थी धीरे-धीरे नवयुग की चेतना की अभिव्यक्ति के लिए काव्य में भी इसका व्यवहार होने लगा। धीरे-धीरे वर्तमान युग में यह खड़ीबोली हिन्दी राष्ट्रभाषा ही हो गई है, और उसका वैज्ञानिक विकास हो रहा हो। भाषा के सम्बन्ध में एक बात और स्मरण रखने योग्य है, और वह है- अंग्रेजी भाषा का प्रभाव खडीबोली का क्षेत्र व्यापक होने के साथ ही इसमें अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का समावेश भी हुआ। वर्तमान युग में सरकार द्वारा इसे संस्कृतगर्भित बनाने का प्रयत्न हो रहा है जिससे देश की अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साथ इसका सामंजस्य स्थापित हो सके। साथ ही लोक-साहित्य की परम्परा भी चलती रही।

3. राष्ट्रीय भावना का विकास- आधुनिक काल की तीसरी प्रमुख विशेषता राष्ट्रीय भावना की है, राजनीतिक चेतना इस युग की प्रमुख भावना रही है। इस चेतना का रूप प्रत्येक उत्थान में बदलता रहा है। प्रथम उत्थान में राजनीतिक चेतना के फलस्वरूप राज-भक्ति, देश भक्ति, भारत के अतीत गौरव का गान और उसकी अर्वाचीन शोचनीय दशा पर विलाप, जागृति का सन्देश और भारत के बचे गौरव की रक्षा करने का प्रयत्न है। द्वितीय उत्थान में कांग्रेस की स्थापना तथा उसका अस्तित्व दृढ होने के साथ ही साहित्य में नवीन राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव हुआ। इस उत्थान की देशभक्ति की कविता में अतीत के गौरव के गान के साथ ही सामान्य जनता का महत्व बढ़ गया। कवियों ने गरीब किसान और मजदूरों की चर्चा की, विद्यार्थी समाज के उत्थान का प्रयत्न किया और नवयुवकों में देशभक्ति का संचार किया। इसके साथ ही हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य भी राष्ट्रीय भावना का एक रूप बना। इस प्रकार द्विवेदी युग की देश भक्ति की कविता में विविधता है। प्रथम उत्थान देश की दुर्दशा का ज्ञान कराता है तो द्वितीय उत्थान में संगठन की सच्ची प्रेरणा है, तृतीय उत्थान में इस राष्ट्रीय भावना का और अधिक विकास हुआ। साहित्य में गाँधीजी का अहिंसात्मक राष्ट्र-प्रेम-सिद्धान्त प्रतिफलित हुआ, आत्म- बलिदान का महत्व बढ़ा, सत्याग्रहियों की गौरव गाथा का गान हुआ, साथ ही प्राचीन स्वतन्त्रता के पुजारियों का यश-गान भी मुख्य रूप से तृतीय उत्थान के राष्ट्रीय प्रेम भाव में वीर-पूजा, स्वतन्त्रता प्रेम, मानवता-प्रेम, मानवतावादी विचारधारा का पोषण मिलता है। कहीं कहीं अन्तर्राष्ट्रीयता और विश्व बन्धुत्व के स्वर भी मुखरित हैं। चतुर्थ उत्थान में हमें राष्ट्रीय भावना में कांग्रेस की प्रशंसा के साथ ही हरिजन, श्रमिक एवं कृषक वर्ग के महत्त्व का प्रतिपादन मिलता है और राष्ट्रीय एकता के सूत्र मिलते हैं। वर्तमान काल में राष्ट्रीय प्रेम अन्तर्राष्ट्रीय प्रेम से सम्बन्धित होकर विश्व शान्ति का तथा सह-अस्तित्व का प्रतीक बन गया है, पंचशील इसका आदर्श है। राष्ट्रीय भावना का यह विकास पद्य गद्य (नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध) सभी क्षेत्रों में दृष्टिगोचर होता है। श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा अनुशासन के जिस नवयुग का उद्घाटन किया है, इसके क्रान्तिकारी एवं दूरगामी प्रभाव होंगे।

4. सामाजिक क्षेत्र में नवयुग की चेतना मानवतावाद- आधुनिक काल चौथी विशेषता साहित्य में नवयुग की चेतना से अन्य रूपों का विकास है, जैसे- मानव का स्वरूप, सामाजिक अवस्था इत्यादि अब साहित्य का साध्य उच्च वर्ग रह गया है और साहित्य जनवादी विचारों से समन्वित होकर यथार्थ की भूमिका पर विकसित हो रहा है। वर्तमान युग में तो यथार्थ को यह अनुभूति और व्यापक हो गई और निम्न वर्ग तथा शोषितों की चेतना को व्यक्त करने में संलग्न हो गई। यहीं पर आकर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने नवयुग की चेतना को गति प्रदान की है और साहित्य में यथार्थ के अंकन को महत्व दिया है।

5. शैली के क्षेत्र में क्रान्ति-जन-शैली का विकास- आधुनिक काल की पाँचवीं विशेशता शैली के परिवर्तन की है। एक तो साहित्य में नई शैली का विकास हुआ जिसे हम गद्य के नाम से जानते हैं। दूसरे, पद्धति की शैली में भी विविधरूपी परिवर्तन हुआ। प्रथम उत्थान में हमें ग्राम साहित्य का स्वर कजरी, ठुमरी, लावनी इत्यादि में मिलता है। द्वितीय उत्थान काल की शैली में इतिवृत्तात्मकता का समावेश हुआ है। और तृतीय उत्थान की शैली का रूप छायावाद और रहस्यवाद के मिश्रण से उत्पन्न कोमलकान्त पदावली है। चतुर्थ उत्थान में एक बार कोमलकान्त और आलंकारिक शैली का फिर से विरोध हुआ और मार्क्सवाद से प्रभावित जनवादी विचारधारा व्यक्त करने के लिए सरल और अलंकाररहित शैली का प्रयोग किया गया। वैसे छायावाद-युग में ही मुक्त छन्द को महत्व प्रदान किया, पर फिर भी छायावादी कवि संगीतमयता को नहीं छोड़ सके, चतुर्थ उत्थान में उन्होंने छन्द के विधि-विधान को तोड़ दिया और नवीन नवीन छन्दों का उद्भावना की। कहने का तात्पर्य यह कि शैलीपक्ष या कला-पक्ष गौण नहीं हुआ अपितु जनवादी विचारधारा को व्यक्त करने के लिए सरल रूप में गढ़ा गया। वर्तमान युग में शैली-पक्ष के अन्तर्गत नवीन नवीन प्रयोग हो रहे हैं। इनमें शैली का यह प्रयोग पक्ष भावों को बनाने वाला है। साथ ही लोक-साहित्य अपनी सहजता में निर्मित हो रहा है।

6. शृंगार का सुष्ठ एवं स्वस्थ रूप- आधुनिक काल की छठी विशेषता शृंगार की भावना के विकास की है। श्रृंगारकालीन श्रृंगार-परम्परा का प्रथम उत्थान में विरोध हुआ, द्वितीय उत्थान में अश्लीलता के नाम से विख्यात हुई, किन्तु तृतीय उत्थानों में शृंगार का सुष्ठ और स्वस्थ रूप विकसित हुआ। छायावाद युग का काव्य उच्चकोटि का प्रेम-काव्य है। इसमें श्रृंगारकाल का शृंगार निखर कर और शुद्ध होकर आया है और उसमें काव्य में शास्त्र-स्थिति सम्पादन के स्थान पर गहरी सौन्दर्यानुभूति है। छायावाद युग में नारी वासना की मूर्ति नहीं है, वह सौन्दर्यशालिनी एवं शक्ति विधायिनी हैं। इसीलिए इस उत्थान का साहित्य सौन्दर्यानुभूति का साहित्य है, शृंगार का नहीं । चतुर्थ उत्थान में पाप पुण्य की परिभाषा प्रवर्तित हुई और यथार्थ की कटु कसौटी पर शृंगार की भावना कसी गई। कहने का तात्पर्य यह है कि शृंगार की परम्परा शुष्क हो गई। साथ ही उसमें फ्रायड के मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों का प्राधान्य हो गया। मनोविज्ञान ने शृंगार की प्राचीन परम्परा का स्वरूप ही बदल दिया। इसी प्रकार आगे भी धीरे-धीरे शृंगार का परम्परा रसविहीन होती गई।

7. प्रकृति के प्रति कवियों का आकर्षण – आधुनिक काल के साहित्य की सातवीं बड़ी विशेषता, प्रकृति के मधुर चित्रण की है। शृंगार युग में प्रकृति उद्दीपन रूप में व्यवहृत थी । भारतेन्दुयुग से ही प्रकृति स्वतन्त्र आलम्बन के रूप में प्रतिष्ठित हुई। देश-प्रेम के वर्णन में तो प्रकृति-चित्रण मिलते ही हैं, साथ ही प्राकृतिक सौन्दर्य के स्वतन्त्र कार्य भी प्राप्त होते हैं, जिनमें रहस्यवादी पुट भी मिलता है। छायावादी काल में प्रकृति के उम्र और सौम्य दोनों प्रकार के चित्र मिलते हैं और रहस्यवादी भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम बनकर आते हैं। छायावादी कविता का प्रकृति का मानवीकरण हुआ और प्रकृति तथा मानव के सनातन सम्बन्ध को पुनः महत्व दिया गया। वर्तमान युग में प्रकृति के साधारण रूपों में सौन्दर्य दर्शन की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।

8. साहित्य की सभी विधाओं में वादों की भरमार – आधुनिक काल की आठवीं महत्वपूर्ण विशेषता, साहित्य में ‘वादों’ की प्रधानता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के अन्य कालों की अपेक्षा इस युग में यह प्रवृत्ति बड़ी बलवती हो गई है। इन वादों से इस युग का साहित्य विशेष समृद्ध हुआ है। वादों में प्रमुख इस प्रकार है-छायावाद, रहस्यवाद, अभिव्यंजनावाद, स्वच्छन्दतावाद, आभिजात्यवाद, पलायनवाद, हालवाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद और प्रयोगशीलता को अभिव्यक्त करने वाला प्रयोगवाद। इन विचारधाराओं के संघर्ष से एक ओर बौद्धिक परिमार्जन हुआ तथा दूसरी ओर साहित्यिकों की संख्या बढ़ी। इस प्रकार इन वादों के कारण आधुनिक काल हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

9. हिन्दी साहित्य पर आंग्ल प्रभाव – आधुनिक काल की नवीं महत्वपूर्ण विशेषता हिन्दी साहित्य पर आंग्ल प्रभाव है। यह प्रभाव बड़ा व्यापक और बहुमुखी है। अंग्रेजी शिक्षा के विकास के साथ हमारा पाश्चात्य साहित्य से सम्पर्क बढ़ा। यह प्रभाव भावपक्ष और कलापक्ष दोनों पर ही पड़ा। भावपक्ष की दृष्टि से मुख्य प्रभाव गद्य-क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। गद्य के विविध रूपों का जैसा विविधरूपी विकास पाश्चात्य साहित्य में हुआ, उसका अनुकरण हिन्दी साहित्य के गद्य में भी हुआ। क्या नाटक, क्या उपन्यास, क्या कहानी, क्या निबन्ध, क्या संस्मरणात्मक गद्य-गद्य के सभी क्षेत्रों में पाश्चात्य प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। काव्य के भावपक्ष पर भी पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट ही परिलक्षित होता है। मुख्य रूप से रहस्यवाद और छायावाद पर यह प्रभाव महत्वपूर्ण है। काव्य के रूप और शैली पर भी आंग्ल प्रभाव बड़ा व्यापक है। हिन्दी काव्य के रूप में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन अतुकान्त छन्द का है। अंग्रेजी ‘सॉनेट’ का रूप भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग और छायावाद युग में स्पष्ट ही दृष्टिगोचर होता है। प्रगतिवाद युग और प्रयोगशील कविता में तो पाश्चात्य काव्य-शैलियों को लक्ष्य करके नवीन-नवीन प्रयोग हो रहे हैं। हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में जो विविध वाद, जैसे-छायावाद, रहस्यवाद, अभिव्यंजनावाद, स्वच्छन्दतावाद, पलायनवाद, प्रतीकवाद, प्रयोगवाद इत्यादि दिखलाई पड़ते हैं, इन पर आंग्ल प्रभाव स्पष्ट ही है।

10. सामान्य जीवन के विषयों का व्यापक ग्रहण- आधुनिक काल के साहित्य की एक विशेषता, साधारण विषयों पर रचना करने की है, जैसे- विधवा-विवाह, बुढ़ापा, विधि-विडम्बना, जगत-सचाई – सार, गो-रक्षा, माता का स्नेह, सपूत, क्रोध, बातचीत, करुण, भिखारी, मिल का भोंपू, किसान का घर, गली, कूड़ा-कर्कट, धोबियों का नाच, कुकुरमुत्ता, कृषक, रेल का इंजन इत्यादि । नवयुग की चेतना के साथ ही नवीन विषयों पर साहित्य रचना हुई। दहेज-प्रथा आदि सामाजिक समस्याओं का भी निरूपण हुआ है।

विविधमुखी विकास- आधुनिक काल को हम हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कह सकते हैं। यह काल बहुत विस्तृत है और विविधमुखी विकास की व्यंजना करता है। इस युग में नवीन साहित्य के साथ ही प्राचीन परम्परा वाला लोकसाहित्य भी नवयुग की भावनाओं से समन्वित हो रहा है।

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Anjali Yadav

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