हिन्दी साहित्य

19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण का आधुनिक हिन्दी साहित्य पर प्रभाव

19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण का आधुनिक हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण का आधुनिक हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण का आधुनिक हिन्दी साहित्य पर व्यापक प्रभाव है इस कथन की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।

भारतीय राष्ट्रीय नवचेतना : ‘सांस्कृतिक जागरण’

ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक नीति की सूक्ष्म कतर-व्योंतों और तत्पश्चात अंग्रेजी राज्य की स्थापना के फलस्वरूप भारत के धर्म, संस्कृति, अर्थनीति और सभ्यता को एक प्रवल आघात पहुँचा । यह आघात मुसलमानों के राज्य स्थापना के आघात से सर्वथा भिन्न था। उस समय सन्तों व भक्तों के द्वारा प्रवर्तित भक्ति आन्दोलन एक त्राण बना। उस आन्दोलन की पृष्ठभूमि में भावात्मक विह्वलता, क्षमासमवेत खेदात्मक स्वर व ईश्वर शरणागति काम कर रही थीं। हालांकि उसमें क्षमास्वर को प्रधानता थी और क्रान्ति की भावना की कमी थी, अतः पद्यात्मक भक्ति साहित्य उद्भूत हुआ। निसंदेह मुस्लिम शासन से हिन्दू धर्म व संस्कृति आहत हुई किन्तु ब्रिटिश राज्य की स्थापना से समूची हिन्दू जीवन व्यवस्था ही बुरी तरह से चरमरा गई। एक ओर अंग्रेजी शासन के निर्मम आर्थिक शोषण ने जन सामान्य को निपट गरीब बना दिया तो दूसरी ओर मिशनरी पादरियों के ईसाई धर्म के निष्ठुर आक्रामक प्रचार से हिन्दूधर्म, संस्कृति रहन-सहन व रीति नीति आदि बुरी तरह से प्रभावित हुई। सदियों से गुलामी का जीवन व्यतीत करने वाले हिन्दू समाज में अनेक अवांछनीय बुराइयाँ आत्महीनता की भावना, परास्त मानसिकता, अंधविश्वास, निरर्थक रूढ़ियां, जातिपांति, ऊँच-नीच का भेदभाव तथा पौराणिक धर्म की असंख्य थोथी मान्यतायें घर कर चुकी थीं। ईसाई मिशनरियों ने उक्त बुराइयों का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने स्वकल्पित तर्कों से हिन्दूधर्म की अर्थहीन पौराणिक परंपराओं की भी खूब खिल्ली उड़ाई तथा गरीब नीच जातियों को बहका कर और उन्हें आर्थिक प्रलोभन देकर उनका धर्म परिवर्तन किया। यद्यपि अंग्रेजी शासन का प्रत्यक्ष रूप से ईसाई मिशनरियों के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं था किन्तु उसकी ओर से ईसाई मिशनरियों के दुष्प्रचार और उनकी ओर से की गई द्रुतगति से धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया पर कोई अंकुश भी नहीं था। उस समय का हिन्दुत्व सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक रूप से एक विलक्षण मर्मन्तुद दौर से गुजर रहा था। अब हल्के-फुल्के सुधारात्मक प्रयासों से काम चलने वाला नहीं था क्योंकि अब उसके मूल अस्तित्व की सुरक्षा का प्रश्न था। अब उसे सांस्कृतिक आदि सब पहलुओं पर सुनिश्चित दृढ़ता प्रदान करने के लिए वैचारिक स्तर पर एक जबरदस्त क्रान्ति की आवश्यकता थी जो उसकी सुषुप्त चेतना को समयानुकूल प्रबुद्ध कर उसके यथार्थ स्वरूप को उसके सामने रख सके। इस पुनीत व महनीय कार्य की पूर्ति ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, रामकृष्णमिशन, आर्यसमाज थियोसोफी एवं अरविन्द दर्शन व स्वराज्य आन्दोलन आदि के प्रतिष्ठापन से हुई। संयोगवश, ईसाई धर्म प्रचार व धर्म परिवर्तन प्रक्रिया को निरस्त करने तथा हिन्दू समाज के प्रत्येक क्षेत्र में घनीभूत सड़ांध को ध्वस्त करने के लिए ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज रामकृष्ण मिशन व अरविन्द महर्षि ने वेदों तथा वेदान्त में चर्चित विशुद्ध हिन्दू धर्म का स्वरूप हिन्दू जनता के सामने रखा। इन सबका दृढ़ विश्वास था कि वैदिक और औपनिषदिक (वेदान्त) धर्म ही हिन्दू का सच्चा व सही धर्म है। वेदों या वेदान्त के धर्म- सिद्धान्तों के विरुद्ध जो कुछ भी स्मृतिग्रन्थों, तंत्रों, पुराणों व अन्य शास्त्रों में प्रतिपादित है वह सर्वथा अमान्य और मिथ्या है। अतः राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण के लिए उक्त संस्थाओं के पुरोधाओं ने वेद, उपनिषद, गीता तथा ब्रह्म सूत्र जैसे ग्रंथ रत्नों के सारभूत तत्वों को हिन्दू जनसमुदाय के सामने रखकर राष्ट्र में नवचेतना, संस्कृति में अभिनव स्फूर्ति तथा धर्म के यथार्थ व शाश्वत रूप को उपन्यस्त कर राष्ट्रीय चेतना के अभिनव जागरण का अभिनन्दनीय कार्य संपन्न किया। इस दिशा में स्वराज्य आन्दोलन का योगदान भी विशेष उल्लेखनीय है।

ब्रह्म समाज – ईसाइयों का व्यापक और संगठित धर्म प्रचार का कार्य हिन्दुओं को बहुत बुरा लगा क्योंकि इससे काफी संख्या में हिन्दुओं ने धर्म परिवर्तन कर लिया। ईसाई धर्म प्रचारकों ने हिन्दू धर्म की कर्मकांड, बहुदेवोपासना, बाह्याडंबर तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों की कड़ी निन्दा कर ईसाइयत के प्रचार के लिए अनुचित लाभ उठाया। बंगाल में इसकी घोर प्रतिक्रिया हुई। राजा राममोहन राय संस्कृति, अरबी, फारसी के बहुत बड़े विद्वान थे। वे अरबी के माध्यम से यूनानी विचारकों और दार्शनिक के विचारों से परिचित हुए। वे मुसलमानों के एकेश्वरवाद एवं ईसाई धर्म से प्रभावित हुए। उन्हें उक्त सभी धर्मों की विचारधाराओं का मूल उत्स वेदान्त अर्थात् उपनिषदों में मिला। अतः उन्होंने राष्ट्रीय जागरण व सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में सर्वप्रथम ब्रह्मसमाज (1828 ई०) की स्थापना की। वे निरन्तर अठारह वर्षों तक अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने जनसामान्य के सामने स्पष्ट रूप से यह तथ्य रखा कि प्राचीन भारतीय परंपरा का विशुद्ध रूप ब्रह्मोपासना है न कि मूर्ति पूजा । अतः उन्होंने कर्मकांड, अंध विश्वास, मूर्ति पूजा, बाह्याडंबर, अंध रूढ़िवादिता, जाति प्रथा तथा सती प्रथा का प्रबल विरोध किया तथा नर-नारी के समान अधिकारों और विधवा विवाह पर बल दिया। उनका यह दृढ विश्वास था कि धार्मिक व सामाजिक सुधारों की प्रक्रिया साथ-साथ चलनी चाहिए क्योंकि हिन्दू समाज मूलतः धर्म प्राण है। इन सुधारों का मूल रहस्य शिक्षा के व्यापक प्रचार व प्रसार में निहित है। अतः उन्होंने पाश्चात्य के ज्ञान-विज्ञान तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार- प्रसार में मूल्यवान योग दिया।

ब्रह्म समाज के प्रसार कार्य में देवेन्द्र नाथ टैगोर तथा केशवचन्द्र सेन ने पर्याप्त सहयोग दिया। केशवचन्द्र सेन ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सारे भारत वर्ष में दूर-दूर तक लंबी यात्रायें की। केशवचन्द्र ने राममोहन राय की बौद्धिकता और तार्किकता के साथ-साथ वैष्णवों की भजन-कीर्तन पद्धति को भी समाविष्ट कर लिया। देवेन्द्र नाथ की अंतः प्रज्ञा पर काफी आस्था थी । कवीन्द्र रवीन्द्र को बाह्य आर्य ज्ञान अपने पिता देवेन्द्र नाथ से विरासत के रूप में मिला। अतः उनकी समय-समय पर दुर्गापासना तथा वैष्णवी भाव पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। रवीन्द्र साहित्य का समस्त बंग साहित्य पर अमिट प्रभाव पड़ा। बंग साहित्य के संपर्क से उक्त भाव हिन्दी कविता तथा साहित्य के अन्य अंगों पर पड़ा। अतः इसमें कोई सन्देह नहीं कि बद्य समाज के इस सांस्कृतिक आन्दोलन और नवचेतना का प्रभाव परोक्ष रूप से हिन्दी साहित्य पर अनेक दिशाओं में पड़ा ।

प्रार्थना समाज- हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि ब्रह्म समाज के प्रचार व प्रसार के लिए केशवचन्द्र सेन ने देश में दूर-दूर तक लंबी यात्रायें की। इस दौरान में महाराष्ट्र में महादेव गोविन्द रानाडे, सेन के संपर्क में आये। परिणामतः रानाडे ने 1867 ई० में प्रार्थना समाज की स्थापना की। रानाडे ने निरन्तर चालीस वर्षों तक, सामाजिक रूढ़ियों, अधविश्वासों, निष्याण पुरातन परंपराओं और जाति पति के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया। इन्होंने अन्तर्जातीय विवाह मनुष्य की समानता तथा स्त्री शिक्षा पर अधिकाधिक बल दिया। इन्होंने भारतीय संस्कृति को वैज्ञानिक विचार पद्धति के अनुरूप ढालने का भरसक प्रयास किया। यद्यपि ये प्राचीनता के प्रेमी थे, और उन्हें हिन्दू धर्म का अपार गर्व था। भागवत धर्म के अनुयायी होने के नाते, इनकी मध्यकालीन मराठा भक्त सन्त कवियों के प्रति गहरी आस्था थी किन्तु फिर भी वे अतीत की मृतप्राय निरर्थक व समाजघातक परंपराओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। उनके लिये तर्कानुमोदित कोई भी वस्तु ग्राह्य थी चाहे वह पाश्चात्य जगत् की ही क्यों न हो । रानाडे एक उच्च कोटि के मेधावी विधि वेत्ता और तार्किक महापुरुष थे। वे धर्म और समाज, दोनों क्षेत्रों में प्रगति और विकास के पक्षधर थे, अतः उनकी चिन्तन पद्धति और विचारधारा में किसी भी प्रकार की संकीर्णता का अवकाश नहीं था। निरर्थक उनके लिए सर्वथा त्याज्य था तथा प्रगति और विकास सदैव स्वीकार्य थे।

आर्य समाज- इधर उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा वैदिक धर्म प्रचार और आर्यसमाज (1867) की स्थापना के रूप में ईसाई धर्म की घोर प्रतिक्रिया हुई। स्वामी दयानन्द ने हिन्दुस्तान को आर्यावर्त तथा हिन्दी को आर्य भाषा का नाम दिया तथा प्रत्येक आर्य के लिए आर्य भाषा का पढ़ना आवश्यक ठहराया। स्वामी दयानन्द तथा आर्य समाज ने हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार में जो महत्वपूर्ण कार्य किया, वह चिरस्मरणीय है। स्वामी दयानन्द की आलोचना में खंडनात्मकता की प्रवृत्ति प्रखर थी अतः वह कट्टरता से भी युक्त थी। उन्होंने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश’ में ईसाई व मुस्लिम धर्मों की भर्त्सनामयी आलोचना की। कुछ आलोचकों ने इसे स्वामी दयानन्द की प्रतिगामी प्रवृत्ति का सूचक बताया है जो कि कदाचित उस समय के ऐतिहासिक परिप्रेक्षय का ठीक जायजा न लेने का फल है। इसी प्रकार स्वामी जी द्वारा “वेदों को अपौरुषेय और अतर्क्स मान लेने पर उन पर मुक्त व्यक्तिगत चिन्तन के अभाव का आरोप भी समीचीन नहीं है, क्योंकि आर्यसमाज ने हिन्दी भाषा और साहित्य को वैज्ञानिक तर्क पद्धति दी है, वह सर्वविदित है। सच तो यह है कि आज की हिन्दी में जो तर्क शक्ति है उसका बहुत कुछ श्रेय स्वामी दयानन्द तथा उनके आर्यसमाज को है।” अस्तु । इसके अतिरिक्त इन्होंने वेदांग प्रकाश, संस्कार विधि, ऋग्वेद भाष्य भूमिका तथा वेदों के भाष्य आदि अनेक पुस्तकें लिखीं। आर्यसमाज के आन्दोलन ने उत्तरी भारत में हिन्दी प्रचारार्थ महत्त्वपूर्ण योग दिया है और दे रहा है। प्रत्येक स्तर की अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना के द्वारा प्रायः समस्त उत्तरी भारत में हिन्दी प्रचार का समूचा श्रेय आर्य समाज को ही है।

आर्य समाज ने राष्ट्रीयता की भावना के संचार तथा सामाजिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी सुधार करने की दिशा में भी उल्लेखनीय कार्य किया है। प्राचीन संस्कृति के प्रति अनुराग, वेदों के प्रति श्रद्धा, शिक्षण संस्थाओं की स्थापना द्वारा शिक्षा का देशव्यापी प्रचार व प्रसार, नारी जाति के प्रति समादर व समानता की भावना, निम्न जातियों के प्रति अस्पृश्यता की भावना का निवारण, पुरातन सारहीन रूढ़ियों का परित्याग, जातिभेद तथा वर्ण-व्यवस्था की अमान्यता आदि आर्य समाज की अविस्मरणीय देने है।

हिन्दी भाषा व साहित्य आर्य समाज से विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को ही प्रचार का माध्यम बनाया जो कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार की गई। इसके अतिरिक्त आर्य समाज का प्रभाव हिन्दी भाषा-भाषी प्रदेशों पर विशेष रूप से पड़ा, अतः इन प्रदेशों के साहित्यकारों का भी इससे प्रभावित होना स्वाभाविक था । वास्तव में महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग के बहुत से साहित्यकारों की आदर्शवादी भावनाओं की पृष्ठभूमि में आर्य समाज की नैतिकता और आदर्श काम कर रहे हैं।

रामकृष्ण मिशन- भारतीय राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक जागरण की प्रक्रिया में परमहंस रामकृष्ण और उनके परम सुयोग्य शिष्य विवेकानन्द का आविर्भाव एक अद्भुत चमत्कार समझना चाहिये । परमहंस वास्तविक अर्थों में समग्रतः परमहंस थे। वे एक परम उच्च कोटि के साधक, अद्भुत भक्त व अद्वितीय विचारक और ज्ञानी थे, जिन्होंने अपने समय में अपने अतीव विलक्षण व्यक्तित्व से सारे बंगदेश को हिलाकर रख दिया और विवेकानन्द वेदान्त दर्शन के सजीव मूर्तिमान प्रतीक थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति की सर्वश्रेष्ठतम उपलब्धि वेदान्त के उद्घोष से सारे पाश्चात्य जगत् को हिला कर रख दिया। प्रियदर्शी अशोक के पुत्र महेन्द्र और सर्वमित्रा की भांति, विवेकानन्द भारतीय संस्कृति के राजदूत थे, जिन्होंने 1893 ई० में अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित विश्व सर्व धर्म संसद में भाग लेकर भारतीय धर्म, दर्शन व संस्कृति के उच्च सिंहनाद से विश्व की सांस्कृतिक दिग्विजय का गौरव प्राप्त किया। विश्व धर्म संसद में इनके सारगर्भित व ओजस्वी वेदान्त संबन्धी भाषण को सुनकर न्यूयार्क की पत्र-पत्रिकाओं में छपा था- “विश्व धर्म संसद में विवेकानन्द सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति थे। उनको सुनने के बाद ऐसा लगता है कि उस (भारत जैसे) महान देश में धार्मिक मिशनों को भेजना कितनी बड़ी मूर्खता थी।” विश्व की इस सांस्कृतिक दिग्विजय के उपरान्त स्वामी विवेकानन्द का भारत के कोने कोने में भव्य स्वागत हुआ। परमहंस भीतर व बाहर से विशुद्ध व निर्लिप्त परम अत्मा के ज्वलन्त मूर्तिमान निदर्शन थे। उन्होंने अपने जीवन में हिन्दू मुस्लिम, सिख व ईसाई धर्मों को अपना कर विभिन्न धर्म साधनाओं व पद्धतियों का तद्धत आचरण कर सिद्ध कर दिया कि सब धर्मों का साध्य एक हैं भले ही उनकी साधन पद्धतियां अलग-अलग हो। इस प्रकार उन्होंने धर्म के सिद्धान्त और व्यवहार पक्षों में समन्वय दिखाकर सब धर्मों की सामंजस्यात्मकता को प्रस्तुत किया।

परमहंस यदि धर्म, संस्कृति व दर्शन के सिद्धान्त पक्ष हैं तो विवेकानन्द उसके व्यावहारिक पक्ष। विवेकानन्द जीवन भर अपने परम आराध्य रामकृष्ण के उपदेशों को प्रचार करते रहे। इसे संयोगवश योगेश्वर कृष्ण और धनुर्धर पार्थ का योग ही कहना चाहिए। इस काल के सांस्कृतिक जागरण के अन्य उन्नायकों के क्रिया-कलाप का दायरा भारत भू तक ही सीमित रहा जबकि विवेकानन्द ने भारत देश के अतिरिक्त विदेशों में भारतीय संस्कृति व धर्म की उज्ज्वल छवि को निखारा। परमहंस रामकृष्ण के देहावसान के बाद विवेकानन्द ने परमहंस के उपदेशों के प्रचार के लिए देश तथा विदेशों में प्रमुख केन्द्रों में रामकृष्ण मिशन स्थापित किये जो आज तक भी भारतीय संस्कृति, धर्म व दर्शन, सामाजिक सुधार तथा शिक्षा प्रसार जैसे पुण्य कार्यों को सम्पन्न कर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द की यह दृढ धारणा थी कि वेद और वेदान्त (उपनिषदों) में प्रतिपादित धर्म ही भारत का वास्तविक धर्म है। स्मृति ग्रंथों, पुराणों, शास्त्रों और तंत्र ग्रन्थों में चर्चित धर्म, यदि वेद और वेदान्त धर्म की अनुरूपता में नहीं हैं, तो वह सर्वथा अमान्य है।

रामकृष्ण मिशन ने एक ओर जहां राष्ट्रीयता का प्रचार किया वहां दूसरी ओर जनता के सामने धर्म के सच्चे स्वरूप को व्यावहारिक रूप में उपन्यस्त किया। स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त के अद्वैतवाद की नवीन व्यावहारिक व्याख्या विश्व के सामने रखी। उन्होंने देश और विदेशों में भारतीय धर्म व संस्कृति के विभिन्न रूपों-ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग तथा राजयोग को बोधगम्य पद्धति से प्रस्तुत किया। विदेशों में भारत के धर्म, संस्कृति व समाज की नाना रीतियों के बारे में बलपूर्वक फैलाई गई भ्रान्त धारणाओं का निर्मूलन किया।

स्वामी विवेकानन्द ने परमहंस के परलोक धाम गमन के पश्चात तथा अमेरिका और इंग्लैण्ड आदि विदेशों से लौटने के बाद सारे भारत देश का दो बार व्यापक भ्रमण किया। स्वधर्म और संस्कृति के प्रचार के दौरान में उन्होंने महसूस किया कि देश की अधिकतर जनता कितनी निपट गरीबी, अशिक्षा, नाना अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों तथा छुआछूत जैसी वृणित बुराइयों का कितनी बुरी तरह से शिकार हो चुकी है। अतः उन्होंने सामाजिक सुधार को भी धर्म व संस्कृति के प्रचार का अभिन्न अंग बना लिया। उनका मानवीय समता तथा नारी जाति के प्रति समादर की भावना में परम विश्वास था क्योंकि इसके बिना सामाजिक उन्नति असंभव है। उन्होंने जाति व संप्रदायगत भेद तथा अस्पृश्यता का घोर विरोध किया । परमहंस स्वयं तथाकथित म्लेच्छों, दलितों व पीड़ितों के घरों को बुहार दिया करते थे। विवेकानन्द का यह दृढ़ निश्चय था कि भारतवासियों ने जिस दिन म्लेच्छ (यवन) शब्द की निष्पत्ति या आविष्कार किया है उसी दिन से अपने लिए अधोगति को आमंत्रित किया है। गांव में बसे दरिद्रनारायणों की दीन-दशा से वे अतीव द्रवित हो जाते थे और कहा करते थे कि इनके उद्धार के लिए यदि उन्हें असंख्य जन्म लेने पड़े तो भी उन्हें स्वीकार्य है। भारत की अधिकतम अशिक्षित जनता को देखकर उन्हें मर्मन्तुद पीड़ा होती थी। अतः वे उच्च शिक्षित वर्ग को भर्त्सनामयी शब्दावली में कहा करते थे कि इन लोगों को शिक्षित किये बिना तुम अपने सामाजिक ऋण (दायित्व) और ऋषि ऋण से मुक्त नहीं हो सकते। इन्हें शिक्षित किये बगैर सब पूजा व उपासना व्यर्थ के आडंबर हैं। गरीबों के प्रति गहन सहानुभूति को अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं- “पूजा के सभी उपकरणों को फेंक दो, शंख, घंटा, घड़ियाल और दीप को प्रतिमा के सम्मुख डाल दो। वैयक्तिक मुक्ति के लिए की गई साधना, शास्त्रों के अध्ययन का अहंकार छोड़ दो। गांव-गांव जाओ और गरीबों की सेवा में अपने को न्यौछावर कर दो।”

विवेकानन्द ने भारतीय संस्कृति और धर्म की सर्वोत्तम उपलब्धि और सर्वश्रेष्ठ रूप को देश और विदेशों में उजागर कर भारतीय शिक्षित वर्ग के मानस में बद्धमूल हीनता की ग्रंथि को उखाड़ दूर फेंक दिया तथा भारतीयों को भारतीय होने के गौरव और गर्व का अनुभव कराया तथा उनमें नवजीवन, नव आशा और नव विश्वास का संचार किया। उन्होंने विश्व और भारत देश के सामने प्रमाणित किया कि “इस देश की संस्कृति अब भी अपनी श्रेष्ठता में अद्वितीय है, इस देश का आध्यात्मिक चिन्तन असमानान्तर है। आध्यात्मिक स्तर मनुष्य की समता, एकता, बन्धुत्व, और स्वतंत्रता की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया। पश्चिम की भौतिकता से चमत्कृत देशवासियों को पहली बार यह एहसास हुआ कि हमारी अपनी परंपरा में भी कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं, जिन्हें दुनिया के सामने गौरवपूर्ण ढंग से रखा जा सकता है।

भारतीय साहित्य पर स्वामी विवेकानन्द के अद्वैतवाद या वेदान्त दर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। हिन्दी की छायावादी काव्यधारा के मूर्ति में बहुत कुछ अंशों में उनकी अद्वैतवादी विचारधारा काम कर रही है। हमारी राष्ट्रीय एवं राजनीतिक चेतना भी विवेकानन्द से कम प्रभावित नहीं हुई। प्रतिवर्ष सारे देश में भारत सरकार द्वारा विवेकानन्द के जन्म दिवस को युवा दिवस के रूप में मनाया जाना इसका ठोस सबूत है। इसके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य में जहां राष्ट्रीयता के गौरव और पुरातन भारत के अतीत की महिमा का अनुगंजन सुनाई पड़ता है, वहां विवेकानन्द तथा रामकृष्ण मिशन के प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है।

थियोसोफिकल सोसाइटी (ब्रह्म विद्या समाज) – यह बड़ी अजब सी बात है कि भारतीय ब्रह्म विद्या (थियोसोफी) की स्थापना 1875 ई० में न्यूयार्क में दो अमेरिकन बन्धुओं के द्वारा की गई और शनैः शनैः इसकी शाखाओं का प्रवर्तन इंग्लैण्ड आदि विदेशों में हुआ। श्रीमती एनी बेसेन्ट 1888 में इंग्लैंड की थियोसोफी संस्था से संबद्ध हो गई। इस सोसाइटी के संस्थापक 1879 ई० में भारत में पहुंचे और 1882 ई० में अड्यार (चेन्नई) में इसकी शाखा खोल दी। श्रीमती एनी बेसेन्ट 1893 में भारत आई और उक्त सोसायटी के विकास व सेवा में सर्वस्व जुटाकर समर्पित हो गई। श्रीमती एनी बेसेन्ट का पवित्र नाम उक्त संस्था से इस प्रकार अभिन्न है, जैसे बहन निवेदिता का नाम रामकृष्ण मिशन तथा श्री माँ का नाम अरविन्द आश्रम से अभिन्न है। श्रीमती एनी बेसेन्ट जैसी पूज्या विदेशी नारी जो अपने आप को पूर्वजन्म की हिन्दू तथा हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानती थीं, ने पर्याप्त रूप में भारत देश की राष्ट्रीयता को जागृत किया। इसने पाश्चात्य जगत् की अति भौतिकता तथा विज्ञान की चरम बौद्धिकता का विरोध किया और साथ-साथ भारतीय आध्यात्मिकता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। ब्रिटिश होते हुए भी इन्होंने निर्भीकतापूर्वक घोषित कर भारतीयों को आश्वस्त किया कि मैं अपने विगत जन्म के संस्कारों के कारण हृदय से तुम्हारे साथ हूँ। इन्होंने समूचे देश का भ्रमण किया और स्थान-स्थान पर हिन्दू धर्म के महत्त्व और उसकी आध्यात्मिकता के गौरव के बारे में ओजस्वी भाषण दिये। इनके अद्भुत व आकर्षक व्यक्तित्व और वाग्मिता के कारण अनेक उच्च वर्ग के शिक्षित भारतीय इनकी ओर आकृष्ट हुए। शिक्षा के प्रचार व प्रसार के क्षेत्र में भी इन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया और अनेक शिक्षण संस्थायें खोलीं। हिन्दू धर्म, संस्कृति व उसके अध्यात्म के व्यापक प्रचार से इस संस्था ने भारत में उदार समन्वयात्मक दृष्टि का विकास किया। वे 1917 में भारतीय नेशनल कांग्रेस की अध्यक्षा निर्वाचित हुई। उनका दृढ़ विश्वास था कि राजनीतिक स्वतंत्रता के विना आर्थिक व आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है। इन्होंने 1916 में ही होम रूल का आन्दोलन आरंभ कर दिया जबकि उस समय के कांग्रेसी नेता इस विषय में संकोची थे। वे भारत आने पर वाराणसी में आजीवन अपने निवास शांति कुंज में रहीं। बनारस में जो इन्होंने सेन्ट्रल स्कूल और कालेज खोले थे वे आगे चल कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में बदले। वे 1894 से 1907 तक थियोसोफी सोसायटी की अध्यक्ष बनी रहीं। विश्वधर्म संसद में ये विवेकानन्द के बाद प्रभावी प्रवक्ता थीं। इनके भारतीय महिला संघ ने बाल विवाह का विरोध किया।

अरविन्द दर्शन- महर्षि अरविन्द का आस्तिकतापूर्ण मानवतावादी दृष्टिकोण तथा रहस्यवाद, परमहंस रामकृष्ण, विवेकानन्द तथा एनीबेसेन्ट से प्रभावित है, इन्हें ईसाइयों की देन कहना भ्रामक है। उक्त महापुरुषों की विचारधाराओं का हिन्दी के छायावादी काव्य पर भी प्रभाव पड़ा। महर्षि अरविन्द प्रारंभ में क्रांतिकारी राजनीति के नेता थे किन्तु बाद में वे तत्वद्रष्टा परम योगी बने। आप उच्च कोटि के कवि भी थे। इनकी रचनाओं में आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति है। इनके योग में कर्म, उपासना और ज्ञान का समन्वय है। इनके मानवतावाद में पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की भावना है। अरविन्द दर्शन का हिन्दी काव्य विशेषतः पन्त के लोकायतन पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। अरविन्द जी की वेदों के प्रति गहन आस्था थी तथा आध्यात्मिक आलोक में उनकी विस्तृत व्याख्यायें प्रस्तुत की पांडिचेरी स्थित अरविन्द आश्रम इनकी चिरसाधना, अन्तः प्रज्ञा व तात्विक दृष्टि का ज्वलन्त प्रतीक है।

स्वराज्य आन्दोलन- उपर्युक्त चर्चित आन्दोलनों ने जहां, धर्म, समाज और संस्कृति के क्षेत्रों में एक अभिनव जागरण लाया, वहां राजनीतिक चेतना ने भी एक नया मोड़ लिया। यद्यपि 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की विफलता से भारतीय जनमानस में अंग्रेजी सरकार के दमन का आतंक तथा गहरी निराशा थी किन्तु उक्त आन्दोलनों, उन्नायकों के प्रेरक विचारों और सतत् शुभ प्रेरणा के फलस्वरूप जनसामान्य में शक्ति, विश्वास व उत्साह का संचार हुआ, जिससे कि वह पुनः स्वतंत्रता प्राप्ति के कार्य में संघर्षरात हो सके। परिणामतः हाम महोदय की प्रेरणा से 1885 ई. में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। इसका प्रारंभिक उद्देश्य विभिन्न राजनीतिक कठिनाइयों को दूर कर भारतीयों को प्रशासन में अधिकाधिक अधिकार दिलाना था किन्तु धीरे-धीरे इसके कार्य क्षेत्र में व्यापकता आती गई। “दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लालपत राय एवं गोपाल कृष्ण गोखले” आदि जागरूक नेताओं के प्रगतिशील नेतृत्व के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति को ललक क क्रमशः तीव्रतर होती गई। 1920 ई० में कांग्रेस की बागडोर महात्मा गांधी ने संभाली। इसमें मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, मौलाना आजाद जैसे कर्मठ नेता सम्मिलित हुए। इस समय कांग्रेस को अनेक विकट दौरों से गुजरना पड़ा। जलियाँवाला बाग का हत्याकांड, खिलाफत आन्दोलन, गांधीजी का असहयोग आन्दोलन, स्वराज्य व गदर आदि पार्टियों की स्थापना, जिन्ना का कांग्रेस से अलग होकर मुस्लिम लीग में मिलना, कांग्रेस और अंग्रेजी सरकार के बीच अनेक पैक्टों और संधियों का होना, 1936-37 में निर्वाचन, अनेक प्रान्तों में कांग्रेस के मंत्रिमंडलों का गठन, 1939 में द्वितीय महायुद्ध का आरंभ तथा कांग्रेस मंत्रिमंडलों का त्यागपत्र, 1940 में पाकिस्तान की मांग, क्रिप्स महोदय का भारत आगमन, 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन, इंग्लैण्ड में मजदूर दल का विजयी होना, 1946 में भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना, मुस्लिम लीग को घृणोत्पादक नीति के फलस्वरूप बिहार, बंगाल तथा पंजाब में भयानक सांप्रदायिक दंगों का फूटना और अन्ततः महात्मा गांधी के नेतृत्व में 15 अगस्त 1947 में भारत का स्वतंत्र होना और साथ-साथ असंख्य निरीह लोगों के रक्त से रंजित पाकिस्तान (पवित्र स्थान) का बनना ।

स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में जहां तक एक और महात्मा गांधी, सत्य, अहिंसा व शान्ति आदि अमोध साधनों का आश्रय ले रहे थे, वहाँ दूसरी ओर उसके समानान्तर एक क्रान्तिकारी सशक्त विचारधारा भी पर्याप्त सक्रिय थी। खदीराम बोस, वीर सावरकर, महेन्द्र प्रताप, भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, अरविन्द घोष, योगेश चैटर्जी तथा सुभाष चन्द्र बोस” आदि नेताओं, क्रान्तिकारी उपायों और आजाद हिन्द फौज के गठन से अंग्रेजी सरकार के सामने एक सवल चुनौती खड़ी कर दी थी। यद्यपि ये क्रान्तिकारी प्रयास विफल रहे किन्तु फिर भी इन प्रयासों ने भारतीय जनता के हृदय में स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना और राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित और उद्दीप्त किया। इस प्रकार इन क्रान्तिकारी प्रयासों ने परोक्ष रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में गांधीवाद को निश्चित रूप से सहयोग दिया।

एक विशाल वटवृक्ष के समान महात्मा गांधी जी का व्यक्तित्व व कृतित्व बहुत व्यापक और विविधमुखी थे। वे केवल राजनीति के नेता ही नहीं थे बल्कि महान समाज सुधारक, अध्यात्म एवं नैतिकतावादी, धर्मेतत्त्वद्रष्टा, शिक्षाविद् मानवतावादी, सर्वोदय विश्वासी तथा सत्य और अहिंसा के परम साधक थे, जिन्हें गांधीवाद की भी संज्ञा दी जा सकती है। सामाजिक क्षेत्र में जाति-पांति भेद, वर्ग व संप्रदायगत भेद, ऊँच-नीच के भेद तथा अस्पृश्यता आदि विविध कुरीतियों का निवारण कर समता की स्थापना इसी प्रकार शिक्षा, धर्म संस्कृति आचार-विचार आदि के क्षेत्रों में आदर्शवादी भावनाओं की प्रतिष्ठा की, जिसका प्रभाव युग साहित्य पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। गांधी जी ने भारतीय जनता में आत्मबल, नैतिकता, दृढता, उदारता और चारित्रिक गुणों का विकास किया। द्विवेदी युग में गांधीवाद का स्पष्ट प्रभाव है। भारतेन्दु राष्ट्रीयतावादी है, गुप्त गांधीवादी, प्रसाद आनन्दवादी तथा पन्त गांधीवादी, साम्यवादी तथा अरविन्दवादी हैं।

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Anjali Yadav

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