राजनीति विज्ञान / Political Science

भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद | Regionalism in Indian Politics in Hindi

भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद

भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद (Regionalism in Indian Politics) 

भारतीय लोकतन्त्र की एक प्रमुख समस्या क्षेत्रवाद है। स्वाधीनता के पश्चात् देश के विभिन्न भागों में क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति उभरी। इस प्रवृत्ति के उभरने से हमारी राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो गया। हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने क्षेत्रवाद की समस्या को कुशलतापूर्वक हल किया तथा राष्ट्रीय एकता को भी सुरक्षित रखा। क्षेत्रवाद की भावना का उदय सन् 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् हुआ। क्षेत्रीय नेताओं ने लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर देश से पृथक् होने के लिए आन्दोलन चलाया, इस प्रकार क्षेत्रवाद के कारण पृथकतावादी प्रवृत्तियों को पनपने का अवसर प्राप्त हुआ।

क्षेत्रवाद से हमारा अभिप्राय राष्ट्र की अपेक्षा उस क्षेत्र के अन्तर्गत जिसमें आप रह रहे हों, अधिक निष्ठावान रहना है। यह स्वाभाविक भी है कि जो व्यक्ति जिस क्षेत्र में रहता है, उस क्षेत्र की प्रत्येक वस्तु से प्यार होता है, परन्तु जब यह प्यार देश के अन्य भागों अथवा देश के प्रति घृणा में बदल जाता है तो इससे राष्ट्रीय एकता को खतरा उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में इसे फिर राष्ट्रवादी शक्तियों द्वारा पृथकतावादी शक्तियों को दबाया जाता है। भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद चार रूपों में दिखाई पड़ा है—(1) केन्द्र से पृथक् होने की माँग, (2) पृथक् राज्य के निर्माण की माँग, (3) पूर्ण राज्य का दर्जा देने की माँग, (4) अन्तर्राष्ट्रीय विवाद । क्षेत्रवाद के उपर्युक्त स्वरूपों की अभिव्यंजना भारतीय राजनीति में निम्नलिखित क्षेत्रीय दलों द्वारा की गई—

(1) मद्रास में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम द्वारा पृथक् तमिलनाडु की माँग (DMK Demanded Separate Tamil Nadu in Madras) 

स्वाधीनता के पश्चात् क्षेत्रवाद की सर्वप्रथम चुनौती मद्रास में डी. एम. के. द्वारा दी गयी। डी. एम. के. ने केन्द्र से पृथक् होने का नारा दिया। 5 जून, 1960 को डी. एम. के. ने मद्रास को केन्द्र से पृथक् करने तथा तमिलनाडु के रूप में सम्प्रभु राज्य के निर्माण का आन्दोलन चलाया। कुछ समय पश्चात् डी. एम. के. ने मद्रास, आन्ध्र, केरल तथा मैसूर राज्य को केन्द्र से पृथक् करने तथा स्वतन्त्र डविडनाड गणतन्त्र की स्थापना का प्रस्ताव रखा, परन्तु डी. एम. के. के उस प्रस्ताव को मद्रास के बाहर अधिक समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। डी. एम. के. ने पृथक् तमिलनाडु की माँग के आधार पर सन् 1952, 1957 तथा 1962 के आम चुनावों में भाग लिया। इन चुनावों में क्षेत्रीय भावनाओं के आधार पर डी. एम. के. को विधानसभा चुनावों में भारी सफलता प्राप्त हुई। अक्टूबर, 1963 में केन्द्रीय संसद द्वारा 16वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित करने के पश्चात् डी. एम. के. ने पृथक् तथा स्वतन्त्र एवं सम्प्रभु तमिलराज्य की माँग को त्याग दिया, परन्तु इसके साथ-साथ डी. एम. के. द्वारा राज्यों को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करने की माँग लगातार चलती रही।

डी. एम. के. नेता तथा तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री श्री करुणानिधि ने केन्द्र सरकार से माँग की कि यदि लम्बे समय तक राज्य की स्वतन्त्रता की माँग की अपेक्षा की जाती रहे तो पृथक् तमिलनाडु की माँग अनिवार्य हो जायेगी। एक बार तो उन्होंने पृथक् तमिल झण्डे के लिए भी माँग कर दी, परन्तु केन्द्र का दृढ़ रुख रहने के कारण पृथक तमिलनाडु की माँग को अधिक बल नहीं मिल सका। क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर तथा उत्तर दक्षिण का सवाल पैदा करके डी. एम. के. ने सन् 1967 में तमिलनाडु विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त करके सरकार बनायी। इसी बीच डी. एम. के. नेतृत्व में फूट पड़ गयी। श्री एम. जी. रामचन्द्रन ने अन्ना डी. एम. के. का गठन किया। सन् 1972 के चुनावों में ए. डी. एम. के. को विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। सन् 1977 के चुनावों में ए. डी. एम. के. ने पुनः विधान सभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया।

सन् 1980 के लोकसभा चुनावों में डी. एम. के. तथा कांग्रेस (इ) ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा। इस चुनाव में डी. एम. के. तथा कांग्रेस (इ) को भारी सफलता प्राप्त हुई, परन्तु सन् 1980 के जून के विधानसभायी चुनावों में अन्ना. डी. एम. के. को भारी सफलता मिली। तमिलनाडु में डी. एम. के. हो अथवा ए. डी. एम. के, 16वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम पारित हो जाने के पश्चात् केन्द्र से पृथक् होने की माँग का कोई आधार नहीं रह गया है। यदि कोई भी दल इस प्रकार की माँग करता है तो केन्द्र उस राज्य के विरुद्ध कार्यवाही करने में सक्षम है।

(2) अकाली दल द्वारा पृथक् पंजाबी सूबे की माँग (Akali Dal’s Demand for a Separate Punjabi Suba)

उत्तरी भारत में क्षेत्रवाद तथा पृथकतावादी राजनीति को पंजाब में अकाली दल द्वारा बढ़ावा दिया गया। मास्टर तारासिंह के नेतृत्व में अकाली दल ने स्वतन्त्रता से पूर्व भी ‘कैबिनेट मिशन‘ (Cabinet Mission) तथा वायसराय माउन्टबेटन के आगे पृथक् सिक्ख राज्य की माँग को रखा। स्वाधीनता के पश्चात् मास्टर तारासिंह के नेतृत्व में अकाली दल ने पुनः पंजाबी सूबे की माँग को उठाया। सन् 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् पंजाब में पंजाबी भाषी क्षेत्र तथा हरियाणा के हिन्दी भाषी क्षेत्र थे। मास्टर तारासिंह के नेतृत्व में अकाली दल ने पृथक् पंजाबी सूबे की माँग को लेकर पंजाब में आन्दोलन किया। अन्त में केन्द्र ने अकाली दल की यह माँग स्वीकार कर ली। पंजाब का विभाजन करके हिन्दी भाषी जिलों को मिलाकर हरियाणा तथा पंजाबी भाषी जिलों को मिलाकर पंजाब राज्य बना दिया गया, परन्तु चण्डीगढ़ के ऊपर विवाद बना रहा। अकाली दल बराबर चण्डीगढ़ पर अपना दावा करता रहा। चण्डीगढ़ पर पंजाब के दावे के बारे में सिक्ख नेता दर्शनसिंह फेरूमान ने आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। फेरूमान की लम्बे उपवास के कारण मृत्यु हो गयी। पंजाब में हिंसक आन्दोलनों को बल मिलने के कारण तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी ने अपना फैसला देते हुए चण्डीगढ़ पंजाब को दिया और फाजिल्का व अबोहर के जिले हरियाणा को दिये।

केन्द्र द्वारा चण्डीगढ़ पंजाब को देने के बाद भी अकाली दल की क्षेत्रवादी राजनीति समाप्त नहीं हुई। क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर अकाली दल ने सन् 1967 में पंजाब विधानसभा में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की तथा जनसंघ एवं साम्यवादी दल के साथ मिलकर सरकार बनायी। सन् 1977 में अकाली दल ने जनता पार्टी के सहयोग से पंजाब में सरकार का गठन किया। अकाली दल के एक गुट के नेता डॉ. जगजीत सिंह ने सन् 1971 में सिक्खों के लिए पृथक् राज्य की माँग को उठाया। उन्होंने पृथक् सिक्ख राज्य की माँग को तेज करने के लिए कई उन देशों की भी यात्रा की जहाँ सिक्ख समुदाय बड़ी संख्या में रहता था, परन्तु इस माँग को व्यापक जन समर्थन नहीं मिल पाया।

सन् 1980 में लोकसभायी तथा विधानसभायी चुनावों में हार के पश्चात् सिक्खों ने पृथक् स्वतन्त्र राज्य ‘खालिस्तान’ (Khalistan) की माँग को उठाया। अकाली दल के दोनों धड़ों (लौंगोवाल-तलवन्डी धड़ों) ने भी सिक्खों को पृथक् कौम के रूप में मान्यता देने की माँग की। तलवण्डी धड़े के कार्यवाहक अध्यक्ष डॉ. भगतसिंह ने अपने एक बयान में कहा है कि भारत में हिन्दुओं के बहुमत के कारण सिक्खों के साथ भेदपूर्ण बर्ताव किया जा रहा है। अतः नये पंजाब देश का निर्माण किया जाय जिसमें उत्तर प्रदेश के तराई के जिले तथा हिमाचल प्रदेश का कुछ हिस्सा भी मिलाया जाय। अकाली दल के दोनों ही धड़ों ने नये पंजाब राज्य के निर्माण की माँग भारत के संघीय ढाँचे के अन्तर्गत ही की है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पंजाब में पुनः पृथकतावादी शक्तियों ने सिर उठाया तथा लोगों की क्षेत्रीय भावनाओं को भड़का कर पंजाब की राजनीति को पुनः क्षेत्रवाद की ओर मोड़ा। 

(3) नागा तथा मिजो समस्या (Naga and Mizo Problem)

नागा तथा मिजो असम में रहने वाली जातियाँ हैं। नागाओं ने भी स्वतन्त्र नागालैण्ड की माँग की। नागा नेता फिजो ने पृथक् नागालैण्ड राज्य की माँग के समर्थन में आन्दोलन चलाया। स्वतन्त्र नागालैण्ड के लिए आन्दोलन चलाने के लिए ‘नागा नेशनल काउन्सिल’ (Naga National Council) का गठन किया गया। सन् 1952 में नागा नेता फिजो ने आम चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया जो अत्यन्त सफल रहा। इसी वर्ष अप्रैल में, फिजो ने नागाओं की समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष उठाने की धमकी दी। सन् 1955 में फिजो के आह्वान पर नागाओं ने इस क्षेत्र में हिंसात्मक गतिविधियों का सहारा लिया। केन्द्र सरकार ने बिगड़ती हुई कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को नियन्त्रण में लाने के लिए सेना की मदद ली। नागाओं को चीन तथा पाकिस्तान द्वारा शस्त्रों की सहायता प्रदान करने के कारण इस क्षेत्र में हिंसात्मक गतिविधियों में भारी वृद्धि हुई। केन्द्र द्वारा नागा समस्या को हल करने में रुचि दिखाई देने के कारण नागाओं के नेताओं ने हिंसात्मक गतिविधियों में भारी वृद्धि हुई। केन्द्र द्वारा नागा समस्या को हल करने के कारण इस क्षेत्र में हिंसा को त्यागने की अपील की। सन् 1956 में इन नागा नेताओं ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरू से मुलाकात की। इन लोगों ने समस्त नागा प्रदेशों को एक प्रशासन के अन्तर्गत एकीकृत करने का प्रस्ताव रखा। केन्द्र सरकार ने इन नागा नेताओं को स्थिति सामान्य होने पर समस्या पर विचार करने का आश्वासन दिया। 4 सितम्बर, 1962 को इसे ‘पूर्ण राज्य’ का दर्जा दे दिया गया। इसके बावजूद भी उपद्रवी तत्वों ने अपनी गतिविधियाँ जारी रखीं। इन तत्वों ने बर्मा की सीमा से हिंसक गतिविधियों को जारी रखा, परन्तु केन्द्र द्वारा कठोर कार्यवाही करने पर इनकी गतिविधियाँ लगभग समाप्त सी हो गयीं। नागा नेता फिजो लन्दन चला गया। सन् 1972 में बचे-खुचे विद्रोही नागा नेताओं ने भी आत्म-समर्पण कर दिया। इस प्रकार वर्षों से चली आ रही नागा समस्या लगभग हो गई। स्वतंत्र बांग्लादेश के निर्माण के पश्चात् नागाओं को अब अपनी विद्रोही गतिविधियों को जारी रखने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

(4) मिजो विद्रोहियों की समस्या (Problem of Mizo Rebels)

असम के मिजो पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने ‘स्वतन्त्र मिजो राज्य’ (Independent Mizo State) की माँग उठायी। असम, पूर्वी पाकिस्तान तथा बर्मा के मिजो क्षेत्र में सम्मिलित करके इस नये मिजो राज्य के निर्माण पर बल दिया गया। स्वतन्त्र मिजो राज्य की माँग को बल देने के लिए ‘मिजो नेशनल फ्रन्ट’ (Mizo National Front) का निर्माण किया गया। केन्द्र द्वारा मिजो लोगों की माँग की उपेक्षा करने पर मिजो विद्रोहियों ने आतंकवादी गतिविधियों का सहारा लिया। केन्द्र ने मिजो विद्रोहियों की आतंकवादी गतिविधियों को दबाने के लिए सेना का प्रयोग किया। हजारों मिजो विद्रोही सेना के साथ संघर्ष में मारे गये। अन्त में मिजो नेताओं ने प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी तथा अन्य नेताओं के समक्ष एक माँग-पत्र प्रस्तुत किया जिसमें केन्द्र के अन्तर्गत एक पृथक् मिजो राज्य के निर्माण की माँग की गयी। केन्द्र सरकार ने मिजो लोगों की इस माँग से सहमत होते हुए 21 जनवरी, 1972 को मिजोरम नामक नये राज्य की घोषणा की। इसके बाद भी मिजो विद्रोहियों की आतंकवादी गतिविधियाँ जारी रहीं। मिजो विद्रोहियों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में सम्मिलित करने के लिए केन्द्र ने मिजो विद्रोहियों के नेता तथा ‘मिजो राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे के संयोजक लाल डेंगा को वार्ता के लिए आमन्त्रित किया।

(5) मेघालय नामक नये राज्य का गठन (Birth of Meghalaya as a fulfledged State) 

असम में नागाओं तथा मिजो विद्रोहियों की समस्या के अतिरिक्त गैर-असमी जनजातियों की समस्या थी। गारो, खासी, जैन्तिया, उत्तरी कछार के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों ने ‘आल पार्टी हिल लीडर्स कॉन्फ्रेस’ (All Party Hill Leaders Conference) नामक दल गठित करके एक पृथक् राज्य की माँग की। शुरू में केन्द्र ने इन पहाड़ी क्षेत्रों को केन्द्र के अधीन एक पृथक् प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित कर दिया, परन्तु इन लोगों की पृथक् राज्य की माँग बराबर बनी रही। अन्ततोगत्वा संविधान में संशोधन करके केन्द्र ने 2 अप्रैल, 1972 को मेघालय नामक नये राज्य की घोषणा की। इस प्रकार असम के पहाड़ी क्षेत्र के गैर-असमी लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए केन्द्र ने मेघालय नामक इस नये राज्य का निर्माण किया।

(6) पृथक् तेलंगाना राज्य के निर्माण की माँग (Demand for Separate Telangana State) 

सन् 1956 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ (State’s Reorganization Commission) ने हैदराबाद राज्य के तेलुगू भाषी क्षेत्रों को मिलाकर पृथक् तेलंगाना राज्य के गठन की सिफारिश की थी। ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने यह भी सिफारिश की थी कि हैदराबाद राज्य के कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को मैसूर तथा मराठी भाषी क्षेत्रों को ‘बम्बई’ राज्य में मिला दिया जाय, परन्तु केन्द्र ने नवम्बर, 1956 में आन्ध्र प्रदेश के गठन की घोषणा की जिसमें हैदराबाद राज्य के कन्नड़ भाषी, तेलुगू भाषी तथा मराठा भाषी क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया। इस नये राज्य में तेलंगाना के तेलगू भाषी क्षेत्र के लोगों को आशंका हुई कि तेलुगू भाषी लोगों को इस नये राज्य में न्याय नहीं मिल पायेगा। अतः ‘पृथक् तेलंगाना राज्य’ के लिए आन्दोलन चलाने के लिए ‘तेलंगाना प्रजा समिति’ (Telangana Praja Samiti) का गठन किया गया। तेलंगाना प्रजा समिति के नेतृणा में ‘पृथक् तेलंगाना राज्य’ के पक्ष में आन्दोलन चलाया गया।

शनैः शनैः यह माँग जोर पकड़ती गयी। तेलंगाना क्षेत्र के कांग्रेसी नेताओं ने इस आन्दोलन में भाग लिया। डॉ. एम. चेन्ना रेड्डी तथा के. वी. रंगा रेड्डी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने तेलंगाना आन्दोलन को अपने समर्थन की घोषणा कर दी। तेलंगाना क्षेत्र के कांग्रेसी नेताओं ने जन-भावनाओं का ख्याल करते हुए आन्ध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी से अपने को पृथक कर लिया तथा ‘तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस समिति’ (Telangana Pradesh Congress Committee) के गठन की घोषणा की। कौण्डा लक्ष्मन बापूजी इसके अध्यक्ष तथा डॉ. एम. चन्ना रेड्डी इसके संयोजक नियुक्त किये गये। तेलंगाना कांग्रेस कमेटी ने पृथक् तेलंगाना के लिए आन्दोलन के लिए अपना पूर्ण समर्थन दिया। 28 जून को आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री ब्रह्मानन्द रेड्डी के मन्त्रिमण्डल के तेलंगाना क्षेत्र के आठ मन्त्रियों ने त्यागपत्र दे दिये। इस बीच आन्ध्र में पृथक् तेलंगाना के लिए आन्दोलन को भारी जन समर्थन मिला। जगह-जगह प्रदर्शन, धरने, जुलूस, बन्द तथा सभाओं का आयोजन किया गया। इस बीच सिड्डीपेट में विधानसभा के लिए उपचुनाव हुआ। इस चुनाव में तेलंगाना प्रजा समिति के उम्मीदवार श्री मदनमोहन ने नई कांग्रेस के उम्मीदवार श्री पी. वी. राजेश्वर राव को 20,070 मतों से हराया। तेलंगाना प्रजा समिति की इस जीत से श्रीमती गाँधी तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चिन्तित हुए। इस बीच सन् 1970 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव आ गये। श्रीमती गाँधी ने तेलंगाना प्रजा समिति के नेताओं के समक्ष सहयोग का प्रस्ताव रखा परन्तु दानों पक्षों में कोई समझौता न हो सका। तेलंगाना प्रजा समिति ने 14 लोकसभा सीटों के लिए अपने प्रत्याशी खड़े किये। इनमें से उसके 10 प्रत्याशी विजयी हुए। क्षेत्रवाद के आधार पर तेलंगाना प्रजा समिति की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखते हुए श्रीमती गाँधी ने तेलंगाना प्रजा समिति के नेताओं से वार्ता की। अन्ततोगत्वा तेलंगाना प्रजा समिति के नेताओं तथा प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी के साथ निम्नलिखित शर्तों पर समझौता हुआ—

(1) तेलंगाना प्रजा समिति का कांग्रेस में विलय कर दिया गया।

(2) तेलंगाना क्षेत्र के लोगों के लिए नौकरियों तथा अन्य व्यवसायों में संरक्षण दिया जायेगा।

(3) तेलंगाना क्षेत्र के लिए पृथक् पंचवर्षीय योजना के निर्माण की गारण्टी दी जायेगी जिससे इस क्षेत्र का तेजी से विकास हो ।

(4) इस समझौते के अनुसार यह निश्चित हुआ कि तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री ब्रह्मानन्द रेड्डी त्यागपत्र देंगे तथा उनके स्थान पर तेलंगाना क्षेत्र से कोई व्यक्ति मुख्यमन्त्री बनेगा।

(5) इस समझौते के अनुसार प्रधानमन्त्री श्रीमती गाँधी को यह अधिकार दिया गया कि वे 3 वर्ष पश्चात् सारी स्थिति का जायजा लेने के पश्चात् यह निर्णय देंगी कि पृथक् तेलंगाना राज्य का निर्माण किया जाय अथवा नहीं। इस प्रकार आन्ध्र में तेलंगाना क्षेत्रों के लोगों के हितों को सुरक्षित करके तेलंगाना की समस्या को हल कर लिया गया।

(7) जम्मू-काश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेन्स द्वारा क्षेत्रवाद को बढ़ावा (National Conference Encouraged the Regionalism in Jammu & Kashmir)

सन् 1972 के विधानसभा चुनावों में श्री शेख अब्दुल्ला के दल नेशनल कॉन्फ्रेन्स द्वारा स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने के पश्चात् जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया गया। श्री शेख अब्दुल्ला द्वारा जम्मू-कश्मीर के कश्मीरियों द्वारा अपने स्वभाग्य-निर्णय के अधिकार की दुहाई दी जाने लगी । यही नहीं संविधान के अनुच्छेद 370 का सहारा लेकर कश्मीर को देश से पृथक् बताया जाने लगा। श्री अब्दुल्ला ने काफी दिनों तक कश्मीरियों की क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काया तथा केन्द्र के हस्तक्षेप का हौआ खड़ा करके कश्मीरियों में अपनी लोकप्रियता बनाये रखने की कोशिश में हैं। उन्होंने खुले रूप में जम्मू-कश्मीर को केन्द्र से पृथक् होने की माँग तो नहीं की है परन्तु बार-बार केन्द्र के हस्तक्षेप का हौआ खड़ा करके सन् 1982 के चुनावों में पुनः सत्ता में आने की कोशिश की।

(8) देश के अन्य भागों में पृथक् राज्यों की माँग (Separate Statehood Demands in other Parts of the Country) 

पृथक् राज्यों की माँग दक्षिण के राज्यों में ही नहीं उत्तर के राज्यों में भी की गई। उत्तर प्रदेश में कुमायूँ तथा टिहरी गढ़वाल में पृथक् पहाड़ी राज्य की माँग बहुत समय से की जा रही है। इसी प्रकार बिहार, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों द्वारा पृथक् झारखण्ड राज्य की माँग समय-समय पर की जाती रही है। मध्य प्रदेश में पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य की माँग भी की गयी । अन्ततः बिहार में झारखण्ड, उत्तर प्रदेश में उत्तरांचल एवं मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ की माँगें मानकर नये राज्य बना दिये गये। असम आन्दोलन भी क्षेत्रवाद का ही प्रतीक है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयवाद अभी भी एक महत्वपूर्ण शक्ति है। इसका सबूत समय-समय पर देश के विभिन्न भागों में क्षेत्रीय भावनाओं से जुड़ी हुई माँगें तथा आन्दोलन हैं।

निष्कर्ष (Conclusion) – भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद आज भी एक प्रभावशाली कारक है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय इस बात का प्रमाण हैं कि भारतीय राजनीति के निर्धारक तत्वों में इसका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। देश की भौगोलिक तथा सांस्कृतिक विभिन्नता को देखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने जहाँ एक ओर संघीय ढाँचे को अपनाया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या को ध्यान में रखते हुए ‘शक्तिशाली केन्द्र’ (Strong Centre) की भी व्यवस्था की। हमारे संविधान के अन्तर्गत केन्द्र विघटनकारी तथा पृथकतावादी तत्वों की चुनौती का सामना करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली है। इसलिए आज हमारा राष्ट्रीय ढाँचा अक्षुण्ण बना हुआ है।

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Anjali Yadav

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