शिक्षण के उद्देश्यों से क्या तात्पर्य है ? उद्देश्यों की आवश्यकता तथा वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
भूमिका व्यक्ति एवं समाज के विकास में शिक्षा एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में अत्यन्त सहायक है। समाज के भावी नागरिकों का निर्माण करके, शिक्षा ही समुन्नत तथा प्रगतिशील समाज की सम्भावनाओं को सुदृढ़ बनाती है। इसमें कोई सन्दह नहीं है कि जिस समाज की जैसी शैक्षिक व्यवस्था होगी, उसी के अनुरूप वह समाज भी होगा। शैक्षिक व्यवस्था के माध्यम से किसी भी राष्ट्र के नागरिकों का विकास और तदन्तर राष्ट्र की प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि उस समाज ने अपनी शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत किस प्रकार के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को निर्धारित किया है, एवं उनकी प्राप्ति किस सीमा तक की है ? शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति, सफलतापूर्वक करने हेतु यह अत्यन्त आवश्यक है कि छात्रों के विकास में सहायक मानवीय साधनों को निर्धारित उद्देश्यों का स्पष्ट ज्ञान हो और उन उद्देश्यों की दिशा में ही वे अविरल रूप से शिक्षण प्रक्रिया को अप्रसारित करने में दक्ष हो। बी० डी० भाटिया के अनुसार- “उद्देश्यों के ज्ञान के अभाव में शिक्षक उस नाविक के समान है, जो अपने लक्ष्य अथवा मंजिल को नहीं जानता है और बालक उस पतवारविहीन नौका के समान है, जो लहरों के थपेड़े खाकर किसी भी तट पर जा लगेगी।”
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उद्देश्य का अर्थ
मानव की समस्त सफलताओं की पृष्ठभूमि में कोई न कोई उद्देश्य अवश्य निहित रहता है। इस उद्देश्य के अनुरूप ही मानव के प्रयास के अनुसार विभिन्न प्रकार की उपलब्धियाँ सम्भव होती हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में पूर्व निर्धारित अथवा अनिश्चित या अनिर्धारित अवस्था में उद्देश्य का विद्यमान होना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्ति के किसी भी कार्य अथवा किसी भी प्रक्रिया के संचालन की सफलता उद्देश्यों पर ही निर्भर करती है। उद्देश्य निर्धारित करने के उपरान्त ही उद्देश्य से सम्बन्धित मार्ग, आवश्यक साधन, कार्य करने की विधि आदि के सम्बन्ध में निर्णय लेकर उसकी दिशा में अपसरित हुआ जा सकता है। उद्देश्य के द्वारा ही व्यक्ति को दिशा प्राप्त होती है, उसकी अग्रसरण की गति का निर्धारण होता है, वह उद्देश्य की दिशा में बढ़ने हेतु प्रेरित होता है, या उद्देश्य प्राप्ति हेतु यथावश्यक मार्गदर्शन प्राप्त करता है। उद्देश्य के सम्बन्ध में सुनिश्चित होने के पश्चात् ही हम अपने कार्य की योजना बना सकते हैं, योजना के अनुरूप ही व्यवस्था कर सकते हैं, योजना की दिशा में अग्रसरित हो सकते हैं तथा अपने कार्य का नियन्त्रण एवं मूल्यांकन करते हुए निर्धारित अभीष्ट को प्रयास अनुरूप प्राप्त कर सकते हैं।
उपर्युक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि उद्देश्य के अभाव में, किसी भी प्रकार की सफलता पूर्णतया संदिग्ध है। बी० डी० भाटिया ने इस सन्दर्भ में उचित ही लिखा है- “लक्ष्यों के ज्ञान के अभाव में, शिक्षक उस नाविक के समान है जो अपने साध्य या मंजिल को नहीं जानता है, और बालक उस पतवारविहिन नौका के समान है, जो लहरों के थपेड़े खाकर किसी भी तट पर जा लगेगी।”
वस्तुतः शिक्षा और व्यक्ति का या शिक्षा एवं समाज का परस्पर गहन सम्बन्ध है। औपचारिक अथवा अनौपचारिक रूप से शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति का चहुंमुखी विकास सम्भव है। इस विकास के आधार पर ही, व्यक्ति विविध क्षेत्रों में प्रगति कर सकता है। अतः विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा की समस्त प्रक्रिया को संचालित करने हेतु उद्देश्यों का ज्ञान परम आवश्यक है। शिक्षा के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों के अभाव में, शैक्षिक प्रक्रिया का संचालन नहीं किया जा सकता, साथ ही शैक्षिक उद्देश्यों की दिशा में अनिश्चितता, अप्रायोजितता अथवा अव्यवस्थितता की दिशा में छात्रों को यथावश्यका रूप से प्रेरित तथा निर्देशित भी नहीं किया जा सकता। शिक्षाशास्त्री जॉन डी० वी० के शब्दों में भी “उद्देश्य पूर्व नियोजित लक्ष्य है, जो किसी क्रिया को संचालित करता है, या क्रिया करने के लिये प्रेरित करता है। “
वस्तुत: उद्देश्य एक ऐसा अभीष्ट अथवा निर्धारित बिन्दु है, जिसकी दिशा में सुनियोजित रूप से प्रयास किया जा सकता है, तथा जो व्यक्ति को दिशा प्रदान करने के साथ-साथ गति तथा प्रेरणा भी प्रदान करता है। यही नहीं, उद्देश्यों की सुनिश्चितता की स्थिति में व्यक्ति में, आत्मविश्वास, सजगता, निरन्तरता, स्वविश्लेषण आदि का भी विकास होता है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण, पाठ्यसहगामी क्रियाओं अथवा सहगामी क्रियाओं के माध्यम से जितने भी प्रयास किये जाते हैं, उनकी पृष्ठभूमि में, उद्देश्य ही उन्हें दिशा निर्देशित करता है, विशेषकर शिक्षण के क्षेत्र में, छात्र का विकास, अध्यापक का प्रयास, शिक्षण विधि, सहायक सामग्री का चयन एवं अन्ततः, छात्रों का मूल्यांकन, ये सभी शिक्षण के अंग उद्देश्य के आधार पर ही समन्वित एवं संचालित होते हैं।
उद्देश्य की आवश्यकता
उपरोक्त पंक्तियों में उद्देश्य के अर्थ से परिचित होने के उपरान्त यह जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है कि उद्देश्यों का निर्धारण, शिक्षा के क्षेत्र में क्यों आवश्यक है ? निम्नलिखित पंक्तियों में शैक्षिक उद्देश्य की आवश्यकता पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है-
1. पाठ्यक्रम आदि विभिन्न अंगों के निर्धारण हेतु- औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में उद्देश्य का निर्धारण प्रत्येक शैक्षिक क्रिया को सुनिश्चितता प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। इस उद्देश्य के आधार पर ही हम विभिन्न शैक्षिक क्रिया-कलापों को सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित रूप में, सुनिश्चित दिशा में संचालित कर सकते हैं। उदाहरण के लिये शिक्षण के समस्त अंगों का समन्वय अथवा उनका उपयुक्त निर्धारण सुनिश्चित उद्देश्य के अभाव में सम्भव नहीं है, क्योंकि यदि हमें उद्देश्य का ज्ञान नहीं है तो हम यह भी नहीं जान सकते, कि हमें किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये, किस प्रकार के अनुभवों को आधार बनाना चाहिये अथवा बालकों में किस प्रकार के व्यवहार परिवर्तन हेतु, किस स्तर की किस प्रकार की, पाठ्यवस्तु को किस मात्रा में प्रदान करना चाहिये। इसी प्रकार पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण हेतु उपयुक्त विधि, रीति, अथवा सहायक के सामग्री का चयन भी नितान्त असम्भव है। शिक्षण के माध्यम से, अध्यापकों एवं छात्रों के सम्मिलित प्रयास का मूल्यांकन भी केवल तभी सम्भव होता है, जब अध्यापकों को स्पष्ट रूप से यह ज्ञात रहे कि बालकों की लिखित, मौखिक अथवा प्रायोगिक अभिव्यक्ति एवं कार्यों के आधार पर उन्हें बालकों में उत्पन्न किन व्यवहार परिवर्तनों की जाँच करनी है।
2. औपचारिक शिक्षा के संगठन हेतु- शिक्षा बालक के विकास की प्रक्रिया है, जो न केवल विद्यालय में, अपितु विद्यालयी जीवन से बाहर, जीवन पर्यन्त किसी न किसी प्रकार से उसके विकास में योगदान देती है। इस प्रकार औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही प्रकार से शिक्षा विकास का प्रमुख माध्यम है, परन्तु अनौपचारिक शिक्षा के द्वारा यथासमय, पर्याप्त मात्रा में एवं आवश्यकता अनुसार बालक का विकास सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि अनौपचारिक शिक्षा अप्रायोजित तथा अनियन्त्रित होती है। इस शिक्षा के माध्यम से प्राप्त अनुभव प्रायः अप्रत्यक्ष रूप से किये गये स्वप्रयासों पर ही निर्भर होते हैं। अतः बालक के समुचित विकास हेतु औपचारिक शिक्षा का प्रावधान अधिक उपयोगी एवं सार्थक होता है। विद्यालय इस औपचारिक शिक्षा का प्रमुख अभिकरण है, और इस अभिकरण के द्वारा बालकों के विकास में योगदान केवल उसी दशा में दिया जा सकता है, जब औपचारिक शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न क्रिया-कलापों के सम्बन्ध में समुचित रूप से यथावश्यक निर्धारण किया जा चुका हो। यह तभी सम्भव है, जब औपचारिक शिक्षा के उद्देश्यों का, शिक्षाशास्त्रियों अथवा अध्यापकों को स्पष्ट ज्ञान हो ।
3. शिक्षण प्रक्रिया का संचालन– विद्यालयों में शिक्षण की प्रक्रिया का सम्पूर्ण संचालन भी उद्देश्यों के अभाव में सम्भव नहीं है। शिक्षक के समस्त क्रियाकलाप अथवा छात्रों के विभिन्न प्रयास, निर्धारित उद्देश्यों से ही दिशा प्राप्त करते हैं। उद्देश्यों के आधार पर ही शिक्षक को समग्र रूप में, यह ज्ञात रहता है कि उसे छात्रों का विकास किस दिशा में करना है, विशिष्ट प्रकार के विकास हेतु उसे किस प्रकार का अधिगम कराना है, वांछित व्यवहार परिवर्तनों की प्रभावशाली उपलब्धि हेतु किन विधियों एवं रीतियों को प्रयुक्त करना, तथा किन उपकरणों अथवा प्रविधियों के द्वारा बालक में, किस प्रकार के परिवर्तनों की जाँच अथवा मूल्यांकन करना है। इसी प्रकार उद्देश्यों की सुनिश्चितता के आधार पर छात्रों को यह भी जानकारी रहती है कि उन्हें क्या सीखना है, तथा सीखे हुए ज्ञान का किस प्रकार प्रयोग करना है। संक्षेप में, छात्र एवं अध्यापक दोनों के लिये ही समान रूप से उद्देश्यों का ज्ञान आवश्यक एवं उपयोगी होता है। छात्र एवं शिक्षक के मध्य होने वाली अन्तः प्रक्रिया भी उद्देश्यों द्वारा ही निर्धारित होती है।
4. समय, साधन एवं शक्ति का मितव्यय- उद्देश्य निर्धारण से अध्यापकों को शिक्षा के सम्पूर्ण कार्यक्रम को सुव्यवस्थित करने में सहायता प्राप्त होती है। न केवल अध्यापकों को, अपितु पाठ्यक्रम निर्माताओं, मूल्यांकनकर्त्ताओं अथवा शिक्षा को नियंत्रित एवं संचालित करने वाले प्रशासकों एवं प्रबन्धकों को भी यह ज्ञात रहता है कि उन्हें किस उद्देश्य की दिशा में क्या क्या करना है। इस आधार पर शिक्षा की एक सुनिश्चित योजना की प्रारम्भ में ही रूपरेखा बनाकर उसे यथा समय कार्यान्वित किया जा सकता है। अध्यापकों को यथासमय वांछित अनुभव प्रदान करने अथवा वांछित विकास करने में सहायता प्राप्त होती है, तथा समय, श्रम एवं साधन की दृष्टि से वे समुचित एवं सुव्यवस्थित निर्धारण करने में भी सफल हो सकते हैं।
5. अभिप्रेरणा की वृद्धि हेतु- शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों एवं अध्यापकों के प्रयास को स्वाभाविक गति प्रदान करने हेतु अभिप्रेरणा का विशेष महत्त्व होता है। इस अभिप्रेरणा को उत्पन्न करने में भी उद्देश्य अत्यन्त सहायक होता है। विभिन्न शैक्षिक क्रिया-कलापों के माध्यम से विद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों, प्रबन्धकों अथवा अध्यापकों तथा छात्रों के द्वारा सम्मिलित रूप से जो प्रयास किये जाते हैं, उन प्रयासों को दिशा निर्देशित करने के साथ-साथ उन्हें स्वाभाविक रूप से गतिशील बनाने में भी उद्देश्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उदाहरण के लिये अध्यापक जब कक्षा में उपयुक्त विधियों, रीतियों एवं प्रभावशाली सहायक सामग्रियों के आधार पर पाठ्यवस्तु का सफल प्रस्तुतीकरण करता है, तथा उस प्रस्तुतीकरण द्वारा छात्रों में वांछित परिवर्तन करने में सफल होता है, अथवा उसे यह ज्ञात होता है कि उसे सन्तोषजनक स्तर तक निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति हुई है, तो वह कार्य से संतुष्ट होकर, उद्देश्य की दिशा में रुचि एवं उत्साहयुक्त होकर गतिशील हो जाता है। अध्यापक में उत्पन्न यह उत्साह, अथवा गतिशीलता पूर्व निर्धारित उद्देश्यों अथवा उद्देश्यों की उपलब्धि का ही परिणाम होता है। इसी प्रकार छात्र भी निर्धारित उद्देश्यों की दिशा में वांछित उपलब्धि करने के पश्चात् रुचि एवं उत्साहपूर्वक अधिगम की दिशा में प्रवृत्त होते हैं।
उद्देश्यों का वर्गीकरण
शिक्षा एवं शिक्षण के उद्देश्य विभिन्न प्रकार के होते हैं। सामाजिक आवश्यकताओं एवं बालक के अनुरूप ही इन उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। इन उद्देश्यों की पृष्ठभूमि में छात्रों के विकास हेतु कोई न कोई प्रयोजन अवश्य निहित रहता है, जिसके आधार पर समस्त उद्देश्यों को मुख्यतः चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
- सार्वभौमिक उद्देश्य ।
- विशिष्ट उद्देश्य ।
- वैयक्तिक उद्देश्य ।
- सामाजिक उद्देश्य ।
1. सार्वभौमिक उद्देश्य— सार्वभौमिक उद्देश्य सुनिश्चित एवं शाश्वत् होते हैं। स्थायी अथवा सार्वभौमिक स्वरूपों के आधार पर इन उद्देश्यों का निर्धारण किये जाने के कारण इनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना नहीं रहती। किसी भी विषय के माध्यम से, बालकों का विकास करने हेतु इन उद्देश्यों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है, उदाहरण के लिये बालक के शारीरिक विकास, मानसिक विकास, व्यक्तित्व के विकास एवं चारित्रिक विकास के अभाव में किसी भी प्रकार के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः यह समस्त उद्देश्य सार्वभौमिक उद्देश्यों के अन्तर्गत आते हैं।
2. विशिष्ट उद्देश्य– विशिष्ट उद्देश्य सार्वभौमिक उद्देश्यों के समान स्थायी अथवा अपरिवर्तनीय न होकर लचीले होते हैं। ये उद्देश्य विशिष्ट कारणों अथवा परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं, तथा इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के उपरान्त इनको ध्यानान्तर्गत रखना आवश्यक नहीं होता। देश, काल, समाज अथवा परिस्थिति एवं युगानुकूल आवश्यकता के आधार पर निर्धारित इन उद्देश्यों में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है।
3. वैयक्तिक उद्देश्य– वैयक्तिक उद्देश्यों से तात्पर्य व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करने से है। व्यक्ति में निहित आन्तरिक शक्तियों का विकास करने के उपरान्त ही उसे सामाजिक अथवा राष्ट्रीय दृष्टि से विकास की दिशा में प्रवृत्त किया जा सकता है। व्यक्ति की वैयक्तिक योग्यताओं, क्षमताओं एवं कौशलों का विकास करके, उसे उन उद्देश्यों के आधार पर वैयक्तिक दृष्टि से समुन्नत एवं श्रेष्ठ बनाया जा सकता है, विशेषकर आत्मानुभूति एवं आत्माभिव्यक्ति के उद्देश्य, वैयक्तिक उद्देश्यों के अन्तर्गत, प्रधान उद्देश्यों के रूप में स्वीकार किये जाते हैं।
4. सामाजिक उद्देश्य– वैयक्तिक उद्देश्यों के साथ-साथ अथवा बालक का वैयक्तिक विकास करने के अतिरिक्त, उसका सामाजिक विकास भी नितान्त आवश्यक होता है। सामाजिक उद्देश्यों के अन्तर्गत बालकों को सामाजिक ज्ञान, कौशल एवं सामाजिक गुणों से सम्पन्न करके उनका समाजीकरण किया जाता है तथा उन्हें समाज से मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हुए, सामाजिक क्षेत्रों में योगदान हेतु तत्पर बनाया जाता है।