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समस्या समाधान विधि – Problem Solving Method
समस्या पद्धति एक प्राचीन विधि है। प्राचीन काल में सुकरात और थॉमस के द्वारा इसका पर्याप्त प्रयोग किया गया था। वर्तमान युग में आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों द्वारा भी इसे एक महत्त्वपूर्ण विधि के रूप में स्वीकार किया गया है। विशेषकर छात्रों के मानसिक विकास एवं समस्याओं का समाधान निकालने की योग्यता के विकास की दृष्टि से इस विधि का अत्यन्त महत्व है। जार्ज जॉन के शब्दों में- “मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने का सर्वोत्तम ढंग उसके साथ वास्तविक समस्याओं को प्रस्तुत करना तथा उसको उनके समाधान के साथ अवकाश तथा स्वतन्त्रता प्रदान करना है।”
समस्या पद्धति के आशय को स्पष्ट करने के लिये कुछ परिभाषाओं का उल्लेख निम्नलिखित पंक्तियों में किया गया है-
जेम्स एम० ली०- “समस्या समाधान एक शैक्षिक प्रणाली है, जिसके द्वारा शिक्षक तथा छात्र किसी महत्वपूर्ण शैक्षिक कठिनाई के समाधान अथवा स्पष्टीकरण हेतु सचेत होकर पूर्ण संलग्नता के साथ प्रयास करते हैं। समस्या पद्धति छात्रों को स्वयं सीखने के लिये तत्पर बनाती है। ऐसा वह स्वयं की शक्तियों का प्रयोग करके करते हैं।”
कार्टर वी० गुड- “समस्या पद्धति निर्देश की वह विधि है, जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को उन चुनौतीपूर्ण स्थितियों के सृजन द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, जिनका समाधान करना आवश्यक है।”
थॉमस एम० रिस्क- “समस्या समाधान किसी कठिनाई या जटिलता का एक पूर्ण सन्तोषजनक हल प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया नियोजित कार्य है। इसमें मात्र तथ्यों का संग्रह करना या किसी अधिकृत विद्वान के विचारों की रहित स्वीकृति निहित नहीं है, वरन् यह विचारशील चिन्तन की प्रक्रिया है।”
इस प्रकार समस्या पद्धति के द्वारा छात्रों को स्वयं सीखने की प्रेरणा प्राप्त होती है, तथा वे सीखने की विभिन्न प्रक्रियाओं में पारंगत होकर समस्याओं का समाधान करना सीखते हैं। उनमें चिन्तन की वैज्ञानिक प्रक्रिया का विकास होता है तथा वे पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित अनुभवों का नियोजन, व्यवस्थीकरण और विश्लेषण करना सीखते हैं। विचारशील चिन्तन की प्रक्रिया को विकसित करने में इस विधि के द्वारा विशेष सहायता प्राप्त होती है। शिक्षा के क्षेत्र में यह विधि शिक्षकों एवं छात्रों को एक प्रायोजित एवं उद्देश्य-केन्द्रित क्रिया की दिशा में प्रेरित करती है। छात्र पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित अनुभवों के आधार पर स्वयं निष्कर्ष निकालना सीखते हैं तथा उन निष्कर्षो को व्यावहारिक दृष्टि से प्रयुक्त करने हेतु भी विचार-विमर्श से करते हैं।
समस्या विधि में समस्या या तो शिक्षक के द्वारा प्रस्तुत की जाती है या छात्र सामूहिक रूप से उस समस्या का प्रस्तुतीकरण करते हैं। वैयक्तिक रूप से भी कोई छात्र पाठ्यक्रम से सम्बन्धित किसी समाधान योग्य समस्या को प्रस्तुत करने के लिये स्वतन्त्र होता है। समस्या के समाधान में छात्रों की तत्परता एवं उसकी रुचि का विशेष महत्त्व होता है। योजना विधि और समस्या विधि में पर्याप्त समानता होती है, अन्तर मात्र इतना है कि योजना विधि को व्यावहारिक अथवा वास्तविक स्थिति में सम्पन्न किया जाता है तथा उसका प्रायोगिक कार्य का विशेष महत्त्व होता है। इसके विपरीत समस्या विधि में समाधान अथवा निष्कर्षो हेतु केवल मानसिक प्रक्रिया पर ही बल दिया जाता है, फिर भी इस मानसिक प्रक्रिया में सृजनात्मक अथवा विमर्शात्मक चिन्तन का विकास होने के कारण यह विधि अपना विशेष स्थान रखती है।
समस्या-विधि के पद
1. समस्या का चयन– सर्वप्रथम शिक्षक एवं छात्र सामूहिक रूप से मिल कर किसी समाधान योग्य समस्या का चयन करते हैं। समस्या के चयन में छात्रों का सक्रिय सहयोग विशेष रूप से अपेक्षित होता है, क्योंकि समस्या के समाधान में विशेष रूप से उन्हें ही क्रियाशील रहना पड़ता है, तथा जब तक वे उस समस्या में रुचि प्रदर्शित नहीं करेंगे, तब तक समस्या का यथेष्ट समाधान निकालने में भी कठिनाई होगी। समस्या के चयन में यह ध्यान रखना चाहिये कि समस्या छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल हो, पाठ्यक्रम से सम्बन्धित हो, छात्रों को अधिगम हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करती हो, वास्तविक हो तथा जिसका समाधान निकाला जाना सम्भव हो।
2. समस्या समाधान हेतु निर्देशन – इस पद के अन्तर्गत समस्या के समाधान हेतु शिक्षक के द्वारा छात्रों के समक्ष कार्य का निर्धारण किया जाता है। अधिकांशतः शिक्षक का उत्तरदायित्व एक पथ-प्रदर्शक अथवा सहायक के रूप में ही होता है। वह छात्रों को तथ्यों के एकत्रित एवं संगठित करने की विधि का ज्ञान इस पद के अन्तर्गत कराता है। समस्या के स्वरूप के आधार पर छात्रों को यह ज्ञान कराया जाता है कि वे विभिन्न अनुभवों का संकलन एवं व्यवस्थीकरण किस प्रकार से करें तथा उनके विश्लेषण की प्रक्रिया को सम्पन्न करते हुये किस प्रकार वस्तुनिष्ठ निष्कर्ष निकाला जाय।
3. समस्या का हल निकालने में सहायता – समस्या के सन्दर्भ में छात्रों को वास्तविक निष्कर्षों तक पहुँचने हेतु शिक्षक के द्वारा छात्रों को यथावश्यक सहायता प्रदान की जाती है। शिक्षक यह निर्धारण करता है कि प्राप्त किये गये समाधान स्पष्ट, समुचित, संगत एवं विश्वसनीय है अथवा नहीं ? निष्कर्षों के सत्यापन में भी वह छात्रों की सहायता करता है, साथ ही वह प्राप्त निष्कर्षों के प्रयोग सम्बन्धी पक्ष पर भी विचार करता है।
समस्या पद्धति के गुण
1. तथ्यों के एकत्रीकरण एवं व्यवस्थीकरण की कला का छात्रों को ज्ञान हो जाता है।
2. छात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास में यह विशेष रूप से सहायक है
3. छात्रों के मानसिक विकास में यह विशेष रूप से सहायक है।
4. मानसिक विकास से सम्बन्धित तीनों ही पक्षों का इसके द्वारा प्रभावपूर्ण विकास सम्भव है।
5. यह विधि छात्रों की रुचि एवं क्रियाशीलता का विकास करती है।
6. समस्या विधि के द्वारा छात्र सक्रिय होकर ज्ञान प्राप्त करते हैं।
7. छात्रों के व्यक्तित्व के विकास में भी यह विधि सहायक है।
8. इसके द्वारा छात्रों में वांछित अभिव्यक्ति, गुणों, कुशलताओं आदि का विकास सम्भव है।
9. निर्णय, तुलना, निष्कर्ष, मूल्यांकन आदि अनेक मानसिक क्षमताओं का इसके द्वारा विकास होता है।
10. स्वनिर्णय की क्षमता का विकास करके यह छात्रों को मानसिक रूप से स्वावलम्बी बनाती है।
11. समस्या के समाधान हेतु इस विधि के द्वारा छात्र प्रशिक्षित एवं दक्ष हो जाते हैं।
12. छात्र व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं का मानसिक रूप से समाधान करना सीख जाते हैं।
13. समस्या विधि छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करती है।
समस्या पद्धति के दोष
1. इस विधि के द्वारा प्रत्येक दशा में वांछित अथवा सफल निष्कर्ष निकालना कठिन होता है।
2. निरन्तर प्रयोग करने से प्रायः वातावरण में नीरसता आ जाती है।
3. समस्त विषयों हेतु इस विधि का प्रभावपूर्ण प्रयोग कठिन होता है। साथ ही किसी भी विषय से सम्बन्धित समस्त प्रकरणों का ज्ञान भी इस विधि के द्वारा प्राप्त करना सहज नहीं है।
4. समस्या विधि छोटे स्तर के बालकों के लिये उपयुक्त नहीं है।
5. इस विधि में प्रायः समय का अधिक अपव्यय होता है।
6. समस्या विधि के द्वारा छात्रों का विकास अत्यन्त मन्द गति से होता है।
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