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सूरदास की प्रकृति चित्रण | surdas ki prakriti chitran in hindi

सूरदास की प्रकृति चित्रण | surdas ki prakriti chitran in hindi
सूरदास की प्रकृति चित्रण | surdas ki prakriti chitran in hindi

सूरदास की प्रकृति चित्रण

प्रकृति और मानव का सम्बन्ध परस्पर अटूट है। मनुष्य आदि काल से ही प्रकृति के विभूतियों को अपने जीवन का आधार मानता चला आ रहा है। सूरदास ने भी अपने काव्य में प्रकृति को पर्याप्त स्थान दिया है। डा० रामरतन भटनागर का कथन हैं कि ‘कृष्ण का विकास जैसे ब्रज की प्रकृति में होता है उसी प्रकार सूर साहित्य का विकास भी ब्रज-प्रकृति की छाया में होता है। ब्रज की प्रकृति ने उन्हें केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं के लिए ही सामग्री नहीं दी है। उनके काव्य के केन्द्र में भी प्रतिष्ठित हुई हैं।

प्रकृति-वर्णन के कारण

सूरदास के काव्य में प्रकृति-सौन्दर्य-वर्णन के मूल में कई कारण हैं। पदमसिंह शर्मा कमलेश ने सूर के प्रकृति-वर्णन के चार प्रमुख कारण बताए हैं। प्रथम, सूर के आराध्य नटनागर कृष्ण की लीला भूमि ब्रज प्रकृति की अनन्य विभूतियों का आगार है। दूसरे वह स्वयं सूर की भी क्रीड़ा स्थली है, जिसके कारण सूर को भी उसके प्रति अत्यधिक अनुराग है। तीसरे, महाप्रभु वल्लभाचार्य ने श्रीनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा भी गोवर्धन में की जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य अप्रतिम और अद्वितीय है। चौथी यह कि ब्रज और उसका केन्द्र-बिन्दु वृन्दावन केवल लौकिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, प्रत्युत उनका आध्यात्मिक महत्व भी है। इन्हीं सब कारणों से यमुना और उसके कछार, कदम्ब और करील, पर्वत और समतल मैदान, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों आदि का वर्णन सूरदास ने बार-बार किया है-

कहाँ सुख ब्रज कौ सौ संसार।

कहाँ सुखद बंसीवट, यमुना, यह मन सदा विचार।

कहाँ वन धाम, कहाँ राधा संग, कहाँ सग ब्रज बाम।

कहाँ लता तरू-तरू प्रति झूलनि, कुंजकुंज वन धाम ।

पृष्ठभूमि रूप में प्रकृति-चित्रण

ऐसे बृज में ही सूर की आराध्य क्रीड़ा हुई है, इसलिए प्रकृति भी उनके काव्य- अंचल को पकड़े रही। भगवान कृष्ण शैशवकाल से ही बाल गोपालों के साथ प्रकृति की नैसर्गिक सुषमा से मंडित कालिन्दी के तटों पर शोभित लता, तरु कुंजों में ही खेले और विहार किये हैं। राधा के हृदय में कृष्ण के प्रति जब प्रेम उगा था, तब वर्षा का ही सुहावना मौसम था । वायु झकझोर कर चल रही थी और चारों ओर बिजली चमक रही थी। यथा-

गगन गरजि धहराय जुरी घटा कारी ।

पवन झकझोर, चपला चमक चहुँओर

स्याम रंग कुंवर कर गह्यो वृषभानु बारी ।

गये वन घन और नवल नन्द किसोर,

नवल राधा नये कुंज भारी

अंग पुलकित भये मदन तिन तन,

जय सूर प्रभु स्याम स्यामा बिहारी।

उद्दीपन के रूप में प्रकृति

“सूर-काव्य में प्रकृति का प्रयोग प्रायः उद्दीपन रूप में अधिक हुआ है। प्रकृति का यह उद्दीपन रूप संयोग में भी परिलक्षित होता है और वियोग में भी। राधा-कृष्ण के मिलन के अवसर पर प्रकृति अपनी कामोत्तेजना की भूमिका का निर्वाह पूरी मुस्तैदी के साथ करती है-

नये कुंज अति पुंजि नये द्रुम सुभग जमुन जल पवन हिलोरी।

सूरदास प्रभु नव रस विलसत नवल राधिका जीवन भोरी ।।

शरद ऋतु की छटा के साथ प्रकृति रास की पृष्ठभूमि में और निखर उठती है। उस समय वृन्दावन सुमन-समूहों से खिल है उठता है, वृक्ष फलों से लद जाते हैं, सुरभिपूर्ण पवन सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखेर देता है। यथा-

सरद-निसि देखि हरि हरप पायौ।

विपिन वृन्दा रमन, सुभग फूले सुमन, रास रुचि स्याम के मनहि आयौ ।

परम उज्ज्वल रैनि छिटकि रहीं भूमि पर, सद्य फल तरुनि प्रति लटकि लागै।

तैसोई परम रमनीक जमुन- पुलिन, त्रिविध बहै पवन आनन्द जागे ।।

बसन्त ऋतु की अपनी सुषमा ही और है। राधिका छड़ी लेकर कृष्ण के ऊपर दौड़ती है, शीतल जल वाली यमुना मंद गति से बहती है, विरहिणी के विरह को जागृत करने वाली कोकिल बोल रही है। लाल-लाल टेसू फूले हुए हैं और वृक्ष लताओं पर मंडरा रहे हैं।

प्रकृति का यह उद्दीपन रूप संयोग के क्षणों में ही नहीं दिखाई देता है, वरन् वियोग के क्षणों को भी उद्दीप्त करता है। अन्तर इतना है कि संयोग के क्षणों में प्रकृति जहाँ सुखदायी प्रतीत होती है; वियोग की स्थिति में वही दुःख देने वाली बन जाती है। वर्षा, बसन्त, चन्द्रमा, वायु, यमुना आदि सब विरहिणी की विरह व्यथा को तीव्र करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यमुना के तट पर निरन्तर केलि में निमग्न रहने वाली गोपिकाओं को वियोग की दशा में अब वही कालिन्दी काली प्रतीत होती है। यथा-

देखियत कालिन्दी अतिकारी ।

अहो पथिक कहियौ उन हरि सौं भई विरह जुर कारी ।

मनु पर्यक ते परी धनि धसि, तरंग तलफ तन भारी ।

दिगलित कत्र कुस कांस फूल पर पंकजु कज्जल सारी ।

भरे भ्रमत अति फिरति भ्रमति, मति, दिसि-दिसि दीन दुखारी ।।

निसिदिन चकई काज बकति है, भई मनो अनुहारी ।

सुरदास प्रभू जोइ जमुन गति, सो गति भई हमारी ।

सहानुभूति प्रदर्शक रूप में प्रकृति

सूर ने कहीं-कहीं प्रकृति का चित्रण सहानुभूति प्रदर्शन में भी किया है। परन्तु ऐसे स्थानों पर प्रकृति अलंकरण रूप में प्रयुक्त हुई है। यथा-

उपमा नैन न एक गही।

कहि चकोर विधु-मुख बिनु जीवत, भ्रमर नहिं उड़ि जात।

हरिमुख कमल कोष बिछुरै तैं ठाले कत ठहरात ।।

वैराग्य – भावना की अभिव्यक्ति रूप में प्रकृति

सूरदास ने कहीं-कहीं अपने आराध्य के प्रति अपनी अनन्यता व्यक्त करने के लिए बार-बार चकोर, चन्द्रमा, मीन, जल, भ्रमर, कमल आदि का दृष्टान्त दिया है। उनके वैराग्य के पदों में प्रकृति का रहस्यमय रूप भी झलकता है। देखिए-

चकई री, चलि चरन सरोवर जहाँ न प्रेम वियोग ।

जहाँ भ्रम निसा होत नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख-जोग ।

जहाँ सनक सिव हँस, मीन सुनि, नख रवि प्रभा प्रकाश ।

प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि डर, गुंजत निगम सुवास ।

प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण

सूर काव्य में प्रकृति-सौन्दर्य के स्वतन्त्र चित्र भी अपने कोमल तथा कठोर दोनों रूपों में मिल जाते हैं उदाहरण स्वरूप देखिए-

जागिये व्रजराज कुँवर कमल कुसुम फूले।

कुमुद वृन्द सकुचित भये, भृङ्ग लता भूले।

इसी प्रकार प्रकृति का कठोर रूप निम्न पद में लक्षित होता है-

भहरात, झहरात दावानल आयौ ।

घेरि चहुँ ओर, करि सोर अंदोर बन, धरनि अकास चहुँ पास छायौ ।

अंततः कहा जा सकता है कि सूर के काव्य में प्रकृति-सौन्दर्य के कुछ मधुर चित्र उभरे हैं। उनका प्रकृति-सौन्दर्य बज तथा मथुरा के प्राम्य-जीवन की नाना छवियों को अंकित करने में सफल रहा है। प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से उनका काव्य भक्ति कालीन कवियों में सर्वाधिक व्यापक और मौलिकतापूर्ण है।

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Anjali Yadav

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