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सूरदास के दार्शनिक सिद्धान्त की विवेचना कीजिए ?

सूरदास के दार्शनिक सिद्धान्त की विवेचना कीजिए ?
सूरदास के दार्शनिक सिद्धान्त की विवेचना कीजिए ?

सूरदास के दार्शनिक सिद्धान्त

‘सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य थे। उन्होंने ही सूरदास को श्रीमद्भागवत, उसकी सुबोधिनी टीका तथा सहस्र नाम सुनाये। इससे सूर में स्फुरणा जागी। फलतः सूरदास के भी मन में दार्शनिक भावों का अभ्युदय हुआ और उन्होंने परब्रह्म, ईश्वर, जीव, जगत सम्बन्धी सभी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वों से साक्षात्कार किया।

सूरदास की दार्शनिक एवं आध्यात्मिक का मूलस्रोत श्रीमद्भागवत पुराण है। ‘क्षर और अक्षर ब्रह्म से परे पुरुषोत्तम रूप भगवान् श्रीकृष्ण की लीला का साक्षात्कार करना एवं उस लीला के रस में तन्मय हो जाना ही दूर की वास्तविक आध्यमिकता है। सूर क्षर में ही अक्षर ब्रह्म तथा उससे भी पूरे पुरुषोत्तम रूप का दर्शन करते हैं। मानव लीला में भगवान् की अलौकिक लीला का साक्षात्कार ही सूर का उद्देश्य है।

सूर कृष्ण की मानवीय लीलाओं में उनके अलौकिक रूप का दर्शन करते हैं। उनकी गोपियों को भी कृष्ण का दर्शन इसी रूप से होता है। इसलिए सूरदास के कृष्ण सत्-चित् अक्षर ब्रह्म ही नहीं वे परमानन्द रूप हैं और उनके इसी रूप में उनकी संपूर्णता है। ब्रह्म कृष्ण के आनन्दरूप की अनुभूति का आभास देने के लिए कवि ने राम का सहारा लिया है और जलक्रीड़ा, हिंडोल लीला, वसन्त लीला, के द्वारा इसके विशद रूप का परिचय दिया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सूर में किसी दार्शनिक सम्प्रदाय विशेष का आग्रह नहीं है। वे सभी मतवादों से ऊपर हैं। किन्तु उनकी दार्शनिक अभिव्यक्ति में किसी-न-किसी रूप में आचार्य वल्लभ के ‘शुद्धाद्वैत’ का आवरण लगा हुआ है। इस दृष्टि से सूरदास ‘शुद्धाद्वैत के निकट हैं और उसके तत्वों को उन्होंने हृदय से साक्षात्कार किया है। आइये अब हम ‘शुद्धाद्वैत’ के आधार पर उनकी दार्शनिक मान्यताओं का अवलोकन करें-

ब्रह्म

वल्लभ-सम्प्रदाय के अनुसार सूर ने श्रीकृष्ण को परब्रह्म के रूप में स्वीकार किया है। वल्लभाचार्य ने ब्रह्म को अनेक शक्ति के साथ आत्मा में रमण करने वाला पुरुषोत्तम कहा है। सूरदास भी उसे पुरुषोत्तम की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि-

सोभा अमित अपार अखण्डित आप आत्माराम ।

पूरन ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम सब विधि पूरन काम ॥

शुद्धाद्वैत के आधार पर कृष्ण को सगुण मानते हुए सूरदास ने उनके अन्दर निर्गुण ब्रह्म का भी समावेश किया है। यथा-

वेद उपनिषद जिसको निर्गुण बतावै ।

सोइ सगुण होय नन्द के दाँवरो बंधावै ॥

आगे वे कहते हैं कि-

ब्रह्म पूरन एक, द्वितीय न काऊ ।

राधिका सबै हरि सबै एऊ ।

दीप ते दीप जैसे उजारी ।

तैसे ही ब्रह्म घर-घर विहारी ।

सूरदास का ब्रह्म घर पर व्याप्त रहने वाला है। वह अपनी अनन्त शक्तियों के साथ विभिन्न प्रकार की लीला करने वाला है।

जीव

वल्लभ सम्प्रदाय के अनुसार जीव के दो भेद हैं-दैवी और आसुरी। दैवी जीव के दो भेद हैं-पुष्टि जीव और मर्यादा जीव। पुष्टि जीव के चार भेद हैं-प्रवाह पुष्टि, मर्यादा पुष्टि, पुष्टि पुष्टि एवं शुद्ध पुष्टि सूर ने पुष्टि मार्ग द्वारा अनुमोदित जीव के सभी भेदों का वर्णन किया है। शुद्धाद्वैत के आधार पर ही उन्होंने ईश्वर को जीव का अंश स्वीकार किया है। जीव की नित्य स्थिति को स्वीकार करते हुए सूरदास ने शरीर को क्षण-भंगुर माना है। यथा-

तनु मिथ्या छन भंगुर जानो।

चेतन जीव सदा थिर मानो ।

जीव सुख-दुख तनु संग होई।

जोर विजो तन के संग होई।

देहि अभिमानी जबहिं जानै ।

ज्ञानी जीव अलिप्त करि मानै ।

यहाँ सूरदास शुद्ध-पुष्ट जीव का वर्णन करते दिखाई पड़ते हैं। एक प्रसिद्ध विद्वान का कथन है कि सूर ने जीव को गोपाल का अंश बताया है। इन्होंने अविद्या के प्रभाव से पंचाध्यायी में भ्रमित जीव का विशेष रूप से वर्णन किया है। ऐसे भ्रमित जीव को उन्होंने अपनी ही नाभिस्थिति कस्तूरी की खोज में भटकने वाला मृग, अपने प्रतिबिंब को दूसरा सिंह समझकर कुएं में कूद पड़ने वाले सिंह के सदृश बताया है।

कहीं-कहीं सूर ने मुक्तावस्था वाले जीवों का भी वर्णन शुद्धाद्वैत के अनुसार किया है। यथा-

ज्ञानी सदा एक रस जानै। तन के भेद भेद नहि मानै ।

आत्मा सदा अजन्म अविनासी। ताको देह मोह बड़ फाँसी ।

जगत् संसार

आचार्य वल्लभ के सिद्धांत के अनुसार सूरदास ने भी जगत् को ब्रह्म की इच्छा का परिणाम बताया है। उनका कहना है। कि पानी और बुलबुले की तरह ब्रह्म जगत् में भेद नहीं है। एक ही ब्रह्म विविध रूपों में प्रतिभासित है। जिस जगत् में भगवन् के गुणों का गान कर जीव भव सागर पार करता है उसे मिथ्या कैसे कहा जाय ? यह जगत् कृष्ण से प्रकट है और उन्हीं में लय हो जाता है-

कृष्णहि ते यह जगत प्रकट है,

हरि में लय है जावै ॥

सूरदास ने संसार और जगत् में पर्याप्त अन्तर माना है। वे जगत् को सत्य एवं संसार को असत्य एवं मिथ्या मानते हैं। उनका कहना है कि संसार जीव की अविद्या से भरा हुआ काल्पनिक सोने के कारण यह असत्य है ‘सुआ और सेमर’ की भाँति इसे निस्सार बतलाते हुए सूरदास कहते हैं कि-

यह संसार सुआ सेमर ज्यों, सुन्दर देखि लुभायो ।

चाखन लग्यौ रुइ उड़ि गई हाथ कछू नहि आयौ ।

एक जगह वे संसार को मिथ्या मानते हुए कहते हैं कि-

मिथ्या यह संसार मिथ्या यह माया ।

मिथ्या है या देह कहा क्यों हरि बिसराया।

माया

शुद्धाद्वैत के अनुसार माया ब्रह्म की पूर्ण शक्ति है। वह परब्रह्म के अधीन है। आचार्य वल्लभ इसे प्रभु के चरणों की दासी मानते हैं इसके दो भेद विद्या माया और अविद्या माया। विद्या माया का प्रभाव भगवान की कृपा पर निर्भर करता है। जबकि अविद्या माया के मोह में पड़कर जीव अपने वास्वतिक रूप को भूल जाता है। सूर ने माया को प्रभु के चरणों की दासी स्वीकार करते हुए कहा है कि-

सो माया है हरि की दासी, निस दिन आज्ञाकारी ।

अविद्या माया का वर्णन सूरदास ने अधिक किया है। इस माया को मोहनी, नटिनी, भुजंगिनि आदि नामों से सम्बोधित करते हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, तृष्णा ही इस अविद्या माया के अंग हैं। जो प्रभु की भक्ति में विविध व्यवधान उत्पन्न करती हैं। माया को नटिन की संज्ञा देते हुए वे कहते हैं कि-

माया नटिन लकुटि कर लीन्हें, कोटिक नाच नचावै।

दर-दर लाभ लागि ले डोलति नाना स्वाँग करावे ।

तुमसो कष्ट करावति प्रभू जू मेरी बुद्धि भरमावै।

मुक्ति

सूरदास की मुक्ति सम्बन्धी मान्यता भी वल्लभ-सिद्धान्त के अनुसार है।

वे कृष्ण की भक्ति को ही मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हुए कहते हैं कि-

जो सुख होत गुपालहि गाये।

सो नहिं होत जप-तप कीने, कोटिक तीरथ न्हाये।

वल्लभाचार्य की सालोक्य, समीप्य, सारूप्य एवं सायुज्य मुक्ति का सैद्धान्तिक विवेचन तो सूर ने कहीं नहीं किया है। किन्तु स्थान-स्थान पर इन चारों मुक्तियों का संकेत अवश्य ही उन्होंने किया है। यथा-

सवत सुलभ स्याम सुन्दर को मुक्ति रही हम चारी ।

हम सालोक्य सरूप्य, सयुज्यो रहति समीप सदाई।

अन्ततः कहा जा सकता है कि सूरदास का दार्शनिक विवेचन वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत सिद्धान्त से प्रभावित है। ब्रह्म, जीव, जगत् माया एवं मुक्ति के सिद्धांतों की चर्चा करते समय उन्होंने वल्लभाचार्य की मान्यताओं को भी अपने सामने रखा है। इनसे उनका दार्शनिक विवेचन अधिक प्रभावशाली बन गया है।

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Anjali Yadav

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