हिन्दी साहित्य

बिहारी सतसई की लोकप्रियता के कारण

बिहारी सतसई की लोकप्रियता के कारण
बिहारी सतसई की लोकप्रियता के कारण

बिहारी सतसई की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।

हिन्दी साहित्य के इतिहास का अवलोकन करने पर हम देखते हैं कि प्रत्येक युग ने हमें कुछ विशेष महान कवि एवं महत्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं। यथा- आदिकाल ने चन्दबरदाई और विद्यापति भक्तिकाल ने सूरदास, तुलसीदास तथा आधुनिक काल ने जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा एवं सुमित्रा नन्दन पन्त जैसे कवि दिये। रीतिकाल ने भी उसी परम्परा में हमें जहाँ देव, भिखारी दास दिये वहीं बिहारी एवं उनकी कृति बिहारी सतसई देकर साहित्य के क्षेत्र को समृद्ध किया।

तुलसीदास द्वारा रामचरित मानस के बाद यदि किसी काव्य पर अधिकतम टीकायें लिखी गयी हैं तो वह है बिहारी सतसई। टीका के क्षेत्र में रत्नाकर जी ने बिहारी सतसई को भाषा का व्याकरण सम्मत एवं वैज्ञानिक रूप स्थिर किया तो लाला भगवान दीन जी ने उनमें निहित अलंकारों को स्पष्ट किया।

बिहारी सतसई की अक्षुण्णता का आधार है उसका भाव पक्ष एवं कला पक्ष सतसई में निहित कतिपय साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है-

9. समास पूर्ण पदावली :- बिहारी से पूर्व कवितायें ब्रजभाषा में साधारण तथा व्यास प्रधान शैली में ही लिखी गयी जबकि सूरदास और तुलसीदास ने कहीं कहीं समस्त पदावली का भी प्रयोग किया। बिहारी ने सर्वप्रथम यह सिद्ध कर दिया कि विशुद्ध ब्रजभाषा में भी समासपूर्ण शैली का प्रयोग किया जा सकता है। बिहारी ने 48 मात्रा के छन्दों वाले लघु दोहे में उतना ही कह डाला जितना दूसरे कवि सवैया, छप्पय, कवित्त आदि का सहारा लिया। उनकी लघुता में वृहदत्ता का समावेश को देखकर कहा गया है-

सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर ।

देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर ।।

बृजभाषा की आत्मा से कवि खूब परिचित था। निम्न उक्ति उनकी भाषा शैली के लिये ठीक ही हैं-

ब्रज भाषा बरनी सबै कविवर बुद्धि विसाल ।

सब की भूषण ‘सतसई’ रचि बिहारी लाल ||

उत्प्रेक्षा अलंकारों के प्रयोग में उन्होंने समास शैली का प्रयोग किया है। समास शैली ही विशद भाव की रक्षा एवं प्रेषणीयता को जन्म देती है। इस पक्ष पर कुछ विद्वानों का मत दर्शनीय है। श्री राधाकृष्ण दास के अनुसार, “उत्प्रेक्षा और मुहावरों के तो बिहारी बादशाह थे।” मिश्र बन्धुओं के अनुसार, “बिहारी की कविता यदि जूही की कलिमा चमेली का फूल है तो देव की कविता गुलाब या कमल फूल।” बिहारी के दोहे को जितना ही पढ़ा जाय उतने ही नवीन अर्थों का संकेत मिलता है। वियोगी हरि ने ‘वीर सतसई’ में कहा है कि – “इनका एक दोहा टकसाली रत्न है। इस क्षीरसागर के रत्नों की अनेक जौहरियों ने परख की किन्तु उनकी ठीक-ठीक कीमत कोई भी नहीं जाँच सका।”

2. प्रसंग विधान – जिस प्रकार उपन्यास में जीवन का व्यापक तथा कहानी में जीवन की किसी एक घटना का वर्णन होता है उसी प्रकार प्रबन्ध काव्य में कवि को पर्याप्त स्वतन्त्रता रहती है। बिहारी ने स्वतन्त्र रूप से नवीन प्रसंगों का तो विधान किया ही है लेकिन पूर्ववर्ती मुक्तककारों के प्रभाव से भी अपने को बचा नहीं सके हैं। बिहारी के सजीव प्रसंग का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

विथयौ जावकु सौति पगु निरखि हंसी गहि जासु ।

सलज हंसौहों लखि लियौ आधी हंसी उसाँसु ।।

इस दोहे का रसास्वादन वही कर सकेंगे जो इससे परिचित हैं। इसमें कम शृंगार का सात्विक भाव है। नायक ने नायिका के पैरों पर जो महावर लगाया वह कम्प के कारण ही बिखर गया है। इसी प्रकार-

नाक चढ़े तीवी रैक जिती छवीली छैल ।

फिरि फिरि भूलि वह गहे प्या कंकरीली मैल ।।

इस बोहे में नायक कंकरीले रास्ते से होकर चलता जा रहा है। कंकड़ी गड़ने के कारण नायिका पीड़ा से ‘सी सी’ करने है लगती है। नायक को नायिका का ऐसा करना अच्छा लग रहा है। मौलिक एवं नवीन प्रसंगों की उदभावना का एक उदाहरण देखिये-

यह धनु लौ अहसान के पारौ देत सराहि ।

वैद वधु हंसि भेद सौ, रही नाह मुंह चाहि ।।

वैद्य जी स्वयं ही नपुंसक हैं लेकिन दूसरे में सन्तानोत्पत्ति की क्षमता पैदा करने के लिये उसे पारद भस्म देते हैं, जिसे देखकर उनकी पत्नी जो भेद से परिचित है हँसती है। बिहारी ने इस प्रकार की प्रसंगोद् भावनाओं से अपनी अद्भुत क्षमता का परिचय दिया है।

3. वाग्वैदग्ध्य उक्ति वैचित्र्य तथा वक्रोक्ति विधान- जब कवि किसी सामान्य बात को असाधारण प्रतिभा और कल्पना के सहारे कहता है तब वहीं वाग्ववैदिग्ध्य तथा उक्ति वैचित्र्य होता है। वाग्वैदग्ध्य तथा उक्ति-वैचित्र्य के लिये भाव पक्ष और कला पक्ष का सन्तुलन होना आवश्यक है। इस कार्य को बहुत विरले ही कवियों में देखा जाता है। कबीर, सूर और जायसी के काव्य में भाव पक्ष सबल हैं, तो केशव, देव आदि में कला पक्ष की प्रधानता रही। जिस काव्य में दोनों पक्षों का यथेष्ठ संगम है उसे उत्तम काव्य की कोटि में रख दिया जाता है। बिहारी ने अपनी रचनाओं में श्लेष, उपमा एवं रूपक आदि अलंकारों को माध्यम चुना है। जैसे-

1.   त्यौं त्यो प्यासेई रहत ज्यों ज्यों पियत अघाइ ।

सगुन सलौने रूप के जुन चख तथा बुझाइ ।।

2.   भौह उंच, आँचरु उलटि मौर मोरि मुहँ मोरि

नीटि नीठि भीतर गई, दीसि दीसि सौ जोरि ।।

4. अनुभाव-व्यंजना :- “बिहारी सतसई” में अनुभाव तथा मुद्राओं का चित्रण स्वतन्त्र रूप से किया गया है। बिहारी ने भावों की व्यजना न करके अनुभावों के माध्यम से ही उन्हें व्यक्त किया है तथा इनमें विशेष परिष्कृत रुचि का परिचय दिया है। बिहारी ने अधिकांश नायिकाओं के मिलन-विरह सम्बन्धी शृंगार रसपरक अनुभवों की व्यंजना अपनी सतसई में की है।

शृंगार रस में नायक और नायिका परस्पर एक-दूसरे के आलम्बन तथा आश्रय हुआ करते हैं। निम्नलिखित उदाहरणों में व्याकुलता एवं मोह भावों का वर्णन है।

1. कहा लड़ते दृग करे परे लाल बेहाल।

कहुँ मुरली, कहुँ पीत पद कहूँ मुकुट वनमाल ।।

2. रही दहेंणी ढिग धरि भरी मथनिया जारि

फेरति कर उलटी रई नई विलोवनि हरि ।।।

बिहारी में विद्वत्ता एवं कवि प्रतिभा का द्विविध व्यक्तित्व है। बिहारी सतसई में भाव पक्ष एवं कला पक्ष का संगम, प्रकृति के दृश्यों का वर्णन, अलंकार विधान, मानव स्वाभाव का सजीव चित्रण, शृंगार रसान्तर्गत मिलन और विरह का आकर्षक उद्घाटन इत्यादि एक साथ मिल जाता है इसीलिये बिहारी अपने युग के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं तथा बिहारी सतसई युग की अनुपम काव्यकृति मानी गयी है। रसरीति का सार समझने के लिये बिहारी सतसई का अध्ययन महत्वपूर्ण बताया गया है। बिहारी सतसई का अध्ययन किये बिना कोई विद्वान नहीं कहा जा सकता। बिहारी सतसई के महत्व का वर्णन करते हुए एक कवि ने लिखा है-

ब्रजभाषा बरनी सबै कविवर बुद्धि विसाल ।

संवधी भूषण सतसई करी बिहारी लाल ।।

जोधोऊ रस रीति कौ, समुझे चाहे सारु ।

पड़ बिहारी सतसई, कविता का सिंगारु ।।

भाँति भाँति के बहु अर्थ यामें गूढ़ अगूढ़ ।

जाहि सुने रस रीति के, मग समुझत अति गूढ़ ।।

5. सर्वथा नूतनता और नवीनता बिहारी के काव्य में मतिराम की नायिका की तरह – “ज्यों-ज्यों निहारिये नेरह नैननि, त्यों-त्यों नई निकस सी निकाई।” की विशेषता है उसमें नूतन नूतनं पदे पदे देखकर नेति नेति कहना पड़ता है। सतसई का विश्लेषण करते हुए विद्वत् मंडली थक गयी किन्तु उसके सौन्दर्य की थाह नहीं मिल सकी। सतसई का प्रत्येक दोहा लोक रुचि को अपनी ओर खींच लेता है। आलोचक बिहारी के काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन करता हुआ चकित रह जाता है। बिहारी का एक दोहा उनके गम्भीर अध्ययन की सूचना देता है। सतसई में दुनिया का ऊँच-नीच का ज्ञान भरा हुआ है। उनकी अन्योक्तियाँ लोक जीवन के ज्ञान से भरपूर है। इसीलिए सर्वसाधारण में भी उनके दोहें प्रसिद्ध हैं-

बसै बुराई जासु तन, बाही कौ सनमानु ।

भलौ-भलौ कहि छोड़िये, खोटै ग्रह जपु-दान ।।

बिहारी सतसई मौलिक सूझ, अर्थ, गाम्भीर्य, भाषा की कसावट, कल्पना की समाहार शक्ति और अलंकारों की छटा आदि सभी बातें एक साथ मिल जाती हैं। उनका एक-एक शब्द नपा-तुला है। एक भी शब्द को हटा देने से भावाभिव्यक्ति में शिथिलता और सौन्दर्य में शीलता नजर आने लगती है। निम्नलिखित दोहे में कवि ने अपनी मौलिक कल्पना का सांगरूपक में कितना सुन्दर निर्वाह किया है-

खौरि पनच भृकुटी धनुष अधिक समरु वजि कानि ।

हनन तरुन मृग-तिलक कर, सुरकि भाल भरि तानि ।।

यहाँ नायिका को व्याध और तरुण को मृग माना जाता है। नायिका के मस्तक की लगी खौर-प्रत्यंचा, भृकुटी-धनुष, तिलक-बाण और सुरकिभाल अर्थात अनी है। इस प्रकार यह धनुषधारिणी बनकर तरुणों का शिकार करती है। बिहारी तनिक से दोहे में साधारण शब्दों की सहायता से अनुभूति और गम्भीर बात कहते जाते हैं।

यथा-

दृग रूरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति ।

परत दुरजन गाँठ हिये, दई नई यह रीति।

उलझना, टूटना, जुड़ना, गाँठ पड़ना, सूत में होता है पर प्रेम के क्षेत्र में अनोखी बात होती है। यहाँ मिलते हैं दो प्रेमी और गांठ पड़ती है दुरजन के हिय में उलझते हैं नेत्र और टूटता है कुटुम्ब । यह सभी कुछ बिहारी ने असंगति अंलकार के द्वारा बड़ी सफलता और सुन्दरता से कह दिया है।

6. कल्पना की समाहार-शक्ति और समास-पद्धति- बिहारी समास-पद्धति और कल्पना की समाहार शक्ति से बड़ी बात बहुत थोड़े में कहे जाते हैं। कृष्ण के गोवर्धन धारण करने का लम्बा-चौड़ा प्रसंग दोहे की दो पंक्तियों में ही बड़ी सुन्दरता से चित्रवत् सजीव हो उठा है-

डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल ।

कम्प किशोरी दरस लें, खरे सकाने लाल ।।

बिहारी का भाषा पर अधिकार होने से उनका प्रत्येक दोहा निखर उठा है। उनकी व्यंजना शक्ति भी प्रबल है। अर्थ-गाम्भीर्य और मौलिक कल्पना के साथ अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग पाठकों को आकर्षित कर लेता है। एक ही दोहे में अनेक भाव भर देने की बिहारी में अनोखी शक्ति है। नीचे दिये गये उदाहरण बिल्कुल रंगमंचीय कार्यकलाप की झलक देते हैं तथा रोमांस की सनसनाहट भरी लहर अन्तर में दौड़ जाती है-

बतरस लालच लाल की, मुरली घरी लुकाय।

सौंह करै भौहान हँसे, दैन कहै नटि जाय ।।

नायिका नायक से पहले तो कसम खाकर कहती है कि तुम्हारी कसम मुरली मेरे पास नहीं है, फिर नैनों में ही हँस पड़ती है। नायक उसकी हँसी को सत्य मान लेता है। नायिका अन्त में मुरली लौटाने का आश्वासन देती है किन्तु पुनः मना कर देती है और इस प्रकार अधिकाधिक अपने पास बनाये और अटकाये रखने के लिये वार्तालाप का लाभ उठाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सतसई का सा सौन्दर्य और हृदय को आकर्षित करने वाली मनोहरता और रम्यता रामचरित मानस के पश्चात् किसी अन्य ग्रन्थ में सरलता से नहीं मिलती।

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Anjali Yadav

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