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रीतिकाल की विशेषताओं की दृष्टि से सतसई का मूल्यांकन

रीतिकाल की विशेषताओं की दृष्टि से सतसई का मूल्यांकन
रीतिकाल की विशेषताओं की दृष्टि से सतसई का मूल्यांकन

रीतिकाल की विशेषताओं की दृष्टि से सतसई का मूल्यांकन

रीतिकाल के कवियों में कवित्व और आचार्यत्व प्रायः साथ-साथ चलता था। कुछ कवि इसी काल ऐसे भी थे जिनमें आचार्यत्व, स्वतंत्र रूप से तो न था किन्तु कवित्व आचार्यत्व की पृष्ठ भूमि पर पोषित हुआ था। बिहारी का काव्य इसी श्रेणी में आता है। बिहारी ने काव्यांशों के लक्षण तो नहीं लिखे किन्तु उनका प्रत्येक दोहा शृंगार सम्बन्धी सामग्री अनुभाव तथा हाव-भाव आदि तथा अलंकारों के सूत्र में गुंथा हुआ है।

बिहारी का काव्य मुक्तक दोहों का संग्रह- बिहारी सतसई अपने क्षेत्र में प्रकाश स्तम्भ हैं। पूर्ववर्ती तथा परवर्ती कोई भी सतसई बिहारी सतसई की समता में नहीं ठहर सकती। रामचरितमानस के पश्चात् यदि किसी कृति का इतना अधिक मन्थन हुआ कि उनके समय से लेकर अब तक सतसई सम्बन्धी एक अलग साहित्य ही बन गया है। बिहारी ने अपने पूर्ववर्ती कवियों से भाव अवश्य ग्रहण किये किन्तु अपनी प्रतिभा से सर्वथा नवीनता ला दी। एक उदाहरण प्रस्तुत है-

सुभंगव्यंजन विचालन शिशिल भुजा भूयिदय व्यस्यापि ।

उर्द्धननसख्यः समाप्तते किंचिदपराच्छ ।

तात्पर्य है कि किसी नायिका का उबटना हो रहा है और नायक पास बैठा है, इस कारण नायिका के शरीर में पसीना आ गया है। एक सखी पंखा झलते-झलते थक गयी तो दूसरी सखी नायक से कहती है कि आप जरा दूसरी जगह चले जाइये जिससे सखी का उबटना समाप्त हो सके। अब बिहारी को देखिये-

नैक उतै उठि बैठिये कहा रहें गहि गेहु ।।

घुटी जात मेंहदी छनकु मेंहदी सूखन देहु ।।

बिहारी ने उबटन के स्थान पर मेहंदी का प्रयोग किया है क्योंकि उबटने के समय नायक का पास बैठना शिष्टाचार के विरुद्ध है। मेंहदी की बात वह भी मेंहदी (नाखूनों में अति विदग्वत्य है। ‘किंचिहगच्छ’ की बात “नैकु उते डठिकि बैठिये” में आ गयी है किन्तु इसमें नायिका की सखी का क्रोध पूरा नहीं होता । ‘कहा रहे गहि गेहूं’ में मुहावरे का प्रयोग है तथा नायक का मुग्धता भी प्रकट होती है। ‘छनकु’ शब्द कथन को और भी बल देता है। अतः बिहारी के भावों का नवीनीकरण ही नहीं हुआ अपितु उसमें विशेषतायें आ गयी हैं।

किसी भी कवि की रचनाओं में कला-सौन्दर्य की दृष्टि से परखने के लिये उन रचनाओं में प्रयुक्त भाषा शैली रस, अलंकार, छन्द की विवेचना करनी होगी।

भाषा – भावों को एक दूसरे तक पहुँचाने का माध्यम भाषा होती है। भाषा व्यक्ति एवं विषय भेद के अनुरूप ही अपना रूप परिवर्तन करती रहती है तथा विषय और रस आदि के आधार पर एक ही लेखक भाषा के विविध रूपों का प्रयोग करता है। रीति कालीन कवियों की मुख्यतया भाषा, ब्रजभाषा ही थी साहित्य में प्रयोग के लिये सम्भव है सभी रीतिकालीन कवियों की भाषा में एकरूपता न मिले। ब्रज भाषा में ग्रहण करने की क्षमता है। इसने समय पर उर्दू-फारसी, बुन्देली, अवधी, खड़ीबोली, राजस्थानी आदि भाषाओं और विभाषाओं के शब्दों को मुक्त होकर अपने में समेटा है।

बिहारी ने भाषा को सँवारने-सजाने के लिये जहाँ संस्कृत के अनेक शब्दों को जड़ा है, वहाँ परम्परागत काव्य भाषा के घिसे-पिटे एवं बोल-चाल के अनेक पुराने शब्दों को भी रहने दिया और अवधी बुन्देलखण्डी, खड़ी बोली आदि भाषाओं के साथ ही साथ उर्दू-फारसी के शब्दों को भी निःसंकोच स्वीकार किया है। मुसलमानों के साथ लम्बे सम्पर्क के कारण अरबी-फारसी के बहुत से शब्द देशी भाषा में इतने घुल-मिल गये थे कि उनमें विदेशीपन की गन्ध नहीं रह गयी थी। भाषा पर उनका असाधारण अधिकार होने के कारण मुक्तकों के लिये जिस लघु कलेवर छन्द को अपनाया उसमें भाषा की चुस्ती, सशक्तता और कसावट सबसे अधिक थी। उनका शब्द चयन भी निःसन्देह अद्वितीय है। भाषा में लाघव तथा अन्य गुणों के कारण ही बिहारी मुक्तक रचना के बेजोड़ कवि माने जाते हैं। ब्रज भाषा स्वभाव से समासबहुला नहीं है लेकिन बिहारी ने बड़े कौशल के साथ समासों का कहीं-कहीं दो-तीन विशेष स्थानों पर तो चार-पाँच शब्दों तक के समास का व्यवहार किया है, जैसे-

द्वैज-सुधा दीधित कला वोह लिखि दीठि लगाई।

मनौ अकास-अगस्तिया, एकै कला लगाइ ।।

अधिक शब्दों के समास रखने पर भी भाषा में शिथिलता एवं दुरूहता नहीं आने दी है। इसलिये लम्बे समासों के पद व्यक्तिगत रूप से प्रायः छोटे हैं और सानुप्रास हैं, जिससे उच्चारण में सुगमता तथा सुनने में मधुरता का अनुभव खटकने नहीं देता, लम्बे समासों में प्रायः संस्कृत पदावली का ही प्रयोग हुआ है और कहीं अर्द्धतत्सम शब्दों का-

रजित-भृंग घंटावली झरति दान-मधुनीर ।

मन्द मन्द आवत चल्यो कुंजर कुंज समीर ।।

बिहारी द्वारा प्रयुक्त कुछ तत्सम, अर्द्धतत्सम तद्भव और उर्दू-फारसी के शब्दों की सूची दी जाती है। देश और शासन विषयक रूपकों में पारिभाषिक शब्द फारसी के हैं, जिनका कारण राजनीतिक था। फारसी राजभाषा थी अतएव उसके बहुत से शब्द जनता में प्रचलित थे, जैसे-

तत्सम शब्द- अद्वैतता, केलि, कोकनंद, कोक, गबन, गिरि, गोरज, अलक आदि ।

अर्धतत्सम शब्द- अंगना, सनमुख, परागु, सिखा, कृसानु, दरपन, बिकासु, ध्रुव आदि ।

तद्भव शब्द- अनंत, आश्वि, गीध गाँठि, धाम, आजु, पत्रा, दीठि, मुंदरी, मोष, सौंह, पच्ची, बतियाँ, जोबन आदि। चला

उर्दू-फारसी शब्द- अहसान, दमामा, इजाफा, कबूल, नेजा, साबित, खूनी आदि ।

उनकी भाषा की दूसरी विशेषता है चित्रोपमता । शब्दों का ऐसा प्रयोग कि पाठक के सामने एक चित्र सा खिंचता जावे। यह विशेषता रीतिकाल के कम कवियों में मिलता है जैसे-

कहलाते एकत बसत अहि मयूर मृग बाँध।

जगत तपोवनु सौ कियो दीरघ दाघ निदान ।।

तीसरी विशेषता है नाद-सौन्दर्य जैसे-

रनि भृंग घंटावती झरत दान मधुनीर ।

मन्द मन्द आवतु चल्यौ कुंजर कुंज समीर ।।

चौथी विशेषता है लोकोक्तियों अथवा मुहावरों की प्रयोग प्रचुरता। मुहावरे और लोकोक्तियाँ भाषा की प्रौढ़ता और प्रांजलता तथा सार्वजनिक प्रभावोत्पादन क्षमता को बढ़ाने में सहायक होते हैं।

बिहारी ने अपनी भाषा के अनुकूल ही मुहावरों का प्रयोग किया है।

(i) मूँड़ चढ़ा एक रहै पर्यो पीठि कच भारु । रहै गरै परि राखिबौ तऊ हियै पर हारु ।।

(ii) बहकिन रहि बहिनापुली, जल तब बीर निवास ।  बचै न बड़ी सबील हूँ, चील घोसुवा माँस।।

बिहारी की भाषा के विषय में कतिपय विद्वान आलोचकों की उक्तियाँ नीचे उद्धृत हैं-

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल – “बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। वाक्य रचना व्यवस्थित है और शब्दों के रूप का व्यवहार एक निश्चित प्रणाली पर है। यह बात बहुत कम कवियों में पाई जाती है। ब्रजभाषा के कवियों में शब्दों को तोड़-मरोड़ कर भंगविकृत करने की आदतें बहुतों में पाई जाती हैं। भूषण और देव ने शब्दों का अंग-भंग किया है और कहीं-कहीं गड़न्त शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है।”

डॉo श्यामसुन्दर दास – “उन्होंने शब्दों के साथ बलात्कार बहुत कम किया है। व्याकरण के नियमों का व्यतिक्रम उनकी रचनाओं में बहुत कम पाया जाता है। कहीं-कहीं पर जो शब्द उनके अजनबी से लगते हैं वे इस कारण कि उनका प्रयोग बहुत कम होता है जैसे बादल के लिये वार्द तथा साफ के लिये अच्छा आदि। ये शब्द अव्यवहृत अवश्य हैं पर हैं शुद्ध, संस्कृत के। इनकी वाक्य रचना बहुत गठी हुई है। उसमें एक भी शब्द भरती का नहीं पाया जा सकता। प्रत्येक शब्द किसी विशेष अभिप्राय से व्यवहृत हुआ है।”

गुण-विचार – बिहारी की भाषा का विश्लेषण करते हुये, साहित्यशास्त्र के अनुसार गुणों की दृष्टि से भी भाषा की समीक्षा कर लेनी चाहिये। अग्निपुराण में गुणों का बहुत महत्व बताया गया है-

‘अलंकृतमपि प्रीत्यै न काव्यं निर्गुणं भवेत।

वपुष्य ललिते स्त्रीणां हारो भारायते परम् ॥”

शृंगार रस में माधुर्य गुणयुक्त रचना तो होनी ही चाहिये, लेकिन प्रसाद गुण का योग भी अपेक्षित है। तभी माधुर्य गुण सफल होता है। माधुर्य गुण में समासों के आधिक्य के निषेध और कोमल वर्णों के समावेश का आग्रह ही प्रसाद को स्वतः नियंत्रित कर देती है। भाव दुरूहता, शब्द काठिन्य और वाक्य विन्यास की जटिलता से अपनी रचना को बचाना कवि का काम है। बिहारी की उक्तियों में माधुर्य और प्रसाद गुणों का मणिकांचन योग स्वाभाविक रूप में हो गया है।

बतरस लालच लाल की मुरली घरी लुकाय।

सौह करें भोहन हँसे दैन कहै नटि जाय ।।

 श्रृंगार के वर्णन में ओज प्रधान वर्णों की कटु ध्वनि भी कहीं कहीं सुनाई पड़ जाती है। जहाँ कहीं वीर रस को शृंगार का सहायक बना कर ओजपूर्ण वर्गों से घटित पदों का उचित सीमा में प्रयोग किया गया है वहाँ वह शृंगार के उत्कर्ष का व्यापक ही सिद्ध हुआ है-

लटकि-लटकि लटकत चलत डटत मुकुट की छाँह ।

चटक भरयौ नट मिलि गयौ, अटक-भटक बट माँह ।

शैली- शैली की दृष्टि से बिहारी के दोहों का मूल्यांकन करने पर साधारणतया हमें उसकी रचनाओं में शैली के निम्नलिखित प्रकार मिलते हैं-

(1) व्यंजनाप्रधान अलंकृत शैली-

(क)  लखि गुरुजन चित्र कमल सौं सीस छुवायो स्याम ।

हरि सनमुख करि आरसो, हियै लगाई वाम ।।

– क्रियाविदग्धा

(ख)  निरखि नवोढ़ा नारि तन, छुटन लरिकई लेस।

भौ प्यारी प्रीतम तियन, मनहुँ चलत परदेश ।।

– बृज ग्रन्थि

(2) व्यंजनाप्रधान अलंकृत शैली-

कौन सुनै कासौ कहाँ सुरति बिसारो नाह।

अदाबदी जिय लेत है ए बदरा बदराह ।

(3) कल्पनाप्रधान ऊहात्मक शैली-

पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चाहूँ पास ।

नित प्रति पूनों ही रहै, आनन ओप उजास ।।

(4) सूक्तिकार शैली-

(क)  भजन कौ तातै भज्यो, भज्यो न एकौ बार ।

दूर भजन जातै कह्यो, सो तँ भज्यो गँवार ।।

(ख)  कर लै संधि सराहि कै रहै सबै गहि मौन ।

गधी गधे गुलाब की, गँवई गाहक कौन ॥

(ग)  कबौं न ओछे नरन सों सरत बड़न को काम ।

मढ़ो दामामा जात कहुँ कहि चूहे के चाम ।।

सतसई में चमत्कार – कवि कष्ठाभरण में आचार्य क्षेमेन्द्र ने दस प्रकार के काव्यगत चमत्कार का वर्णन किया है। जैसे अविचारिव रमणीय, विचार्यमाला, रमणीय सम्पूर्णसूक्त काव्य शब्द चमत्वम्, अर्थगतचमत्कार यह चमत्कार-वर्णन बिहारीकृत दोहों में सर्वत्र प्राप्य हैं। नीचे उदाहरण प्रस्तुत है।

शब्दार्थमयंगत, अलका गत, सूक्तदेव रसगत चमत्कार, प्रख्यात वृत्तिगत ।

भजन कह्यौ तातै भज्यो, भज्यो न एकौ बार।

दूर भजन जातै कह्यो, सो तै भज्यो गँवार ।।                    शब्द चमत्कार

लाल तिहारे रूप की, कही रीति यह कौन ।                   

जा सो लागे पलक दृग , लगै पलक पलौन ॥                 अर्थगत चमत्कार

छन्द- बिहारी सतसई पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि कवि ने मुख्यतः दोहा छन्द में रचना की है। कहीं-कहीं पर सोरठा छन्द का भी प्रयोग मिल जाता है, लेकिन कम ।

बिहारी के ज्ञान की अगाधता तथा बहुज्ञता को देखते हुए स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम दोहा और सोरठा ही क्यों चुना ? वस्तुतः बिहारी मुक्तक रचनाकार हैं और मुक्तक कविता का पहला नियम है-छोटे-छोटे छन्द का प्रयोग। मुक्तककार एक ही छन्द में एक ही बात का वर्णन करता है। बिहारी का प्रत्येक दोहा एक भाव लेकर चलता है। मुक्तक काव्य की दूसरी विशेषता है उसकी प्रेषणीयता। यह प्रेपणीयता अपेक्षाकृत प्रबन्ध में इतनी तीव्र तथा तत्काल प्रभावोत्पादिनी नहीं होती जैसी कि मुक्तक काव्य में। इसलिये कि प्रबन्ध काव्य में किसी देश की व्यापक संस्कृति, आचार आदर्श-निष्ठा तथा अनेकमुखी व्यवहार ज्ञान का परिचय पात्र विशेष के माध्यम से होता है वहाँ रस की निष्पन्नता में बीच-बीच में अनेक अवरोध आ जाते हैं। यही कारण है कि सूरसागर के पदों में रामचरित मानस की अपेक्षा श्रोता तथा पाठकों-वाचकों को अधिक रसप्लावित किया है। दोहे की अपेक्षा कवित्त, सवैया, कुण्डलियाँ, छप्पय, चौपाई आदि छन्द आकार में बड़े होते हैं अतएव कवि को भावाभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त क्षेत्र मिल जाता है, फलस्वरूप भाव अपनी तीव्रता एवं संक्षिप्तता की अपेक्षा विशेषण सहित ही इन बड़े आकार के छन्दों में आता है। इसके अतिरिक्त सतसई परम्परा पर पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव भी पड़ा। गाथा सप्तशती तथा आर्या सप्तशती में आर्याछन्द को वही प्रधानता दी गयी है जो संस्कृत साहित्य में अनुष्टुप छन्द को । हिन्दी में इस परम्परा का विकास दोहा छन्द में हुआ। बिहारी के आश्रयदाता मिर्जा राजा जयसिंह ने “नहि पराग नहि मधुर मधु” पर आकर्षित और प्रसन्न होकर उसी कोटि के अन्य दोहों की रचना के लिये उन्हें प्रेरित किया।

कतिपय अलंकारों को एक साथ प्रयोग करने की प्रवृत्ति भी बिहारी में मिलती है और इस प्रकृति को सक्रिय रूप देने में दोहा सक्षम सिद्ध हुआ क्योंकि अन्य छन्दों को प्रयोग करने से उनमें अधिक चरणों और मात्राओं के कारण कवि को आवश्यक एवं निरर्थक शब्द प्रयोग करने पड़ते हैं। बिहारी अनर्थक शब्दों के प्रयोग के विरोधी थे। इस उक्ति की पुष्टि में उनका एक दोहा नीचे प्रस्तुत है-

मरी डरी कि टरी विथा, कहाँ खरी चलि चाहि ।

रही कराहि कराहि अति, अब मुख आहि न आहि ।।

उपर्युक्त दोहे के पहले चरण में अनुप्रास और सन्देह, दूसरे में छेकानुप्रास, तीसरे में वीप्सा और चौथे चरण में यमक अलंकारों का प्रयोग है।

बिहारी ने नायक और नायिका के भेदों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है, नायिका के हाव-भाव, कायिक चेष्टाओं तथा भंगिमाओं का वर्णन किया है। रसाभास होने पर नायिका के अनुभावों का भी रोचक और स्वाभाविक वर्णन मिलता है। सरलता, स्वाभाविकता तथा सरसता के साथ इन विषयों का वर्णन दोहा छन्द के माध्यम से बेहतर हो सकता है इसीलिये बिहारी को यह छन्द प्रिय था। बिहारी के पूर्ववर्ती कवियों कबीर, जायसी, तुलसी, रहीम, वृन्द आदि ने अपनी रचनाओं में दोहे का अत्यधिक प्रयोग किया। उपदेश, नीति तथा सौन्दर्यमूलक विचारों की अभिव्यक्ति दोनों में भली प्रकार हुई है। इन पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव बिहारी पर पड़े बिना नहीं रहा।

बिहारी के लिये गागर में सागर भरने अथवा सरसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥ वाली उक्तियाँ बहुत खरी और सही उतरती हैं।

अलंकार विधान- रीतिकालीन कवियों पर दण्डा, भ्रामह तथा रुद्रट आदि अलंकारवादी आचार्यों का प्रभाव था। फलतः रसात्मक न होकर कविता अलंकार – वैचित्र्य तथा चमत्कारचारुता का उदाहरण बन गयी। रीतियुगीन कवि होने के कारण बिहारी अछूते तो नहीं रहे लेकिन उनमें जहाँ अलंकार के प्रति आग्रह है। वहीं रसपरिपाक की उपेक्षा भी नहीं की बल्कि दोनों का उचित अनुपात रखा है। बिहारी ने रस को अपने काव्य का प्रतिपादक माना तथा अलंकार, नीति तथा गुणादि को रसोत्कर्ष का साधन माना। उन्होंने शब्दमूलक, अर्थमूलक तथा उभयमूलक अलंकारों का प्रचुर और स्तुत्य प्रयोग किया है। सादृश्यमूलक अलंकारों के प्रयोग के साथ विपरीतताबोधक अलंकारों का सफल प्रयोग किया। शब्दालंकारों के प्रति उनका मोह उतना ही रहा जितना अर्थालंकारों के प्रति नीचे अलंकारों के कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं ।

अनुप्रास- जहाँ किसी शब्द अथवा अक्षर की एक से अधिक बार पुनरावृत्ति हो ।

अधर धरत हरि के परत ओठ दीठि पटु जोति

हरित आँख की बाँसुरी इन्द्रधनुष-सी होति

यमक- जहाँ एक शब्द एक से अधिक बार प्रयोग किया जाय और हर बार उसका अर्थ भिन्न हो।

कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाइ।

इहि खाये बौराय जगु उहि पाये बौराइ ॥

उपमा- जहाँ उपमेय और उपमान में सादृश्यवाचक शब्दों के द्वारा सामर्थ्य प्रदर्शित किया जाता है।

सोनजुही-सी जगमगै अंग-अंग जोवन जोति ।

सुरंग कुसुम्गी चूनरी दुरंग देह दुति होति ।।

विरोधाभास- जहाँ वास्तविकता में विरोध न हो फिर भी वर्णन के कारण विरोध का आभास मिले।

या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहीं कोई।

ज्यों-ज्यों बूढ़े श्याम रंग त्यों-त्यों उज्ज्वल होइ ।

अतिशयोक्ति- जहाँ पर किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के गुणों का वर्णन वास्तविकता से अधिक बढ़ा-चढ़ा कर किया जावे।

छाले परिखे के डरनु सकै न हाथ छुआई।

झंझकति हिये गुलाबि कै, झवा झवैयति पाइ।

असंगति- जहाँ पर कारण और कार्य की स्वाभाविक संयति के त्याग का वर्णन होता है।

दृग उरझत टूटत कटुम जुरत चतुर चित प्रीति ।

परति गाँठ दुरजन हियें दई नई यह रीति ।।

काव्यलिंग- जहाँ किसी बात को सिद्ध करने के लिये उसका कारण वाक्य के अर्थ में अथवा पद के अर्थ में कहा जाता है।

कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय ।

वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय ॥

समासोक्ति- जहाँ प्रस्तुत के वर्णन से अप्रस्तुत की प्रतीति हो ।

नहिं पराग नहिक मधुर मधु नहि विकास इहि काल ।

अली कली ही सौ बच्यो आगे कौन हवाल।।

अर्थांतरन्यास – जहाँ किसी सामान्य बात का विशेष बात से अथवा किसी विशेष बात का किसी सामान्य बात से समर्थन किया जाये।

समै पलट पलटै प्रकृति को न तजै निज चाल ।

भौ अकरुन करुना करौ, इहि कपूत कलिकाल ॥

अन्योक्ति – जहाँ प्रस्तुत को न कहकर उसके समान दशा वाले अप्रस्तुत का वर्णन किया जाता है।

स्वारथ सुकृत न स्त्रम वृथा देखि विहंग विचारि ।

बाज पराये पानि पर तूं पंछीनु न मारि ।।

रस अभिव्यंजना- 1. विभाव (कारण), 2. अनुभाव (कार्य), 3. व्यभिचारी (सहायक अथवा सहकारी कारण)। इन तीनों तत्वों के संयोग से पुष्ट हुई स्थायिनी चित्तवृत्ति का जब आस्वाद रूपता में परिणित हो जाती है तब उसे रस की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। भाव पक्ष हृदय तत्व से सम्बद्ध रहता है। मन में अनेक भावों की उत्पत्ति होती रहती है जिसका अन्तर्भाव शृंगार, करुणा, हास्य, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त नवरसों में हो जाता है। बाद में चल कर शृंगार के कक्ष से वात्सल्य तथा शान्त रस के कक्ष से भक्ति को अलग कर स्वतन्त्र रस मान लिया गया है। बिहारी की रचना में हमें नवों रसों का प्रयोग मिल जाता है। क्योंकि कवि का सर्वोत्कृष्ट लक्षण है सहृदय होना। बिहारी एक सहृदय कवि हैं।

रीतियुगीन कवियों की रचनाओं में शृंगार रस की प्रधानता पाई जाती है, अन्यान्य रसों की अभिव्यक्ति में वे लगभग उदासीन से प्रतीत होते हैं, लेकिन बिहारी हमारे सामने अपवादस्वरूप आते हैं। युग-प्रभाव तथा दरबारी कवि होने के कारण वे शृंगारिक काव्य की रचना के लिये बाध्य थे लेकिन उनकी कवि-कर्म-शक्ति अन्य रसों में भी रचना करने की क्षमता रखती थी जिसकी झलक हमें सतसई में मिलती है। शृंगार रस सभी रसों का राजा है, प्रधान है इसीलिये सतसई में शृंगार रस का प्रयोग प्रमुख है।

बिहारी ने अपनी रचना सतसई में स्थायी भाव, विभव, अनुभाव तथा संचारी भाव आदि रस की चारों अवस्थाओं का प्रयोग किया है। बिहारी ने भाव पक्ष और कला पक्ष का सुन्दर समन्वय किया है। भाव पक्ष हृदय से सम्बद्ध रहता है। अन्तर में शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत तथा शान्त नवों रसों का प्रादुर्भाव समय-समय पर होता है। बिहारी सच्चे सहृदय और भावुक कवि हैं, साथ ही रीतियुगीन प्रभाव और राज्याश्रय के कारण उनकी सतसई में श्रृंगार रस का समावेश सबसे अधिक है।

शृंगार रस के दो प्रधान पक्ष माने गये हैं- 1. संयोग श्रृंगार 2. वियोग अथवा विप्रलम्भ शृंगार। दोनों पक्षों में काम प्रेम और सौन्दर्य का समावेश रहता है। नायक-नायिका की संभोगात्मक वासना ही काम तत्व है। यह काम तत्व सौन्दर्य पर आश्रित है। काम-वासना के जागृत होने पर प्रेम तत्व का प्रादुर्भाव होता है। बिहारी ने शृंगार रस के निरूपण में इन तीनों तत्वों का समावेश किया है। अब हम अलग-अलग उनके द्वारा प्रतिपादित रसों का उल्लेख करेंगे।

संयोग पक्ष- मनुष्यगत सौन्दर्य के अन्तर्गत नायक तथा नायिका के अंग-प्रत्यंग का वर्णन आता है। नारी सौन्दर्य की प्रतीक मानी जाती है। इसीलिये रसिक कवियों ने शृंगार वर्णन के अन्तर्गत नारी सौन्दर्य को प्रधानता दी है। इस प्रकार नारी-सौन्दर्य का वर्णन बहुलता से सर्वत्र दिखाई पड़ता है। वर्णन-शैली की दृष्टि से नारी-सौन्दर्य के निम्नलिखित भेद पाये जाते हैं।

(i) शारीरिक अवयव- इसके अन्तर्गत केश, भाल, भौंह, नेत्र, कपोल, नासिका, दन्त, अधर, ग्रीवा, भुज, करतल, कुच, कटि, नितम्ब, चरण तथा नख आदि का वर्णन मिलता है, जैसे कटि वर्णन ।

लगी अनलगी सी ज विधि करी खरी कटि छीन ।

जु किये मनो वाही कसरि, कुच नितम्ब अति पीन ।।

(ii) शारीरिक गुण— इसके अन्तर्गत गौरवर्ण, श्यामवर्ण, कान्ति, कोमलता, प्रफुल्लता, कृशता, यौवन आदि गुण आते हैं, जैसे-

है कपूर मणिमय रही मिलि तनदुति मुकुतालि।

छिन छिन खरी विचच्छनी लखति छवाय तिनु आलि ।।

(iii) सौन्दर्यवर्धक साधन- सौन्दर्य की अभिवृद्धि में सहायक साधनों के अन्तर्गत बिन्दु, कज्जल, कुंकुमलेप, पान, सुन्दर वस्त्र, आभूषण तथा सुगन्धित द्रव्य आदि वस्तुएँ आती हैं।

हिन्दी वर्णन-

कहत सबै बेंदी दिये आँक दस गुनों होत।

तिय लिलार बेंदी दिये अगनित बढ़त उदोत ।।

(iv) चेष्टागत सौन्दर्य- इसके दो भेद होते हैं।

(क) सामान्य- इसके अन्तर्गत कटाक्ष, चंचलता, अंग-स्फुरण, मधुर संभाषण इत्यादि कायिक व्यापार आते हैं जैसे।

कहत नटत रीझत खिझत खिलत लजियात।

भरे भौन में करत है नैनन ही सों बात ।।

(ख) विशेष- इसके अन्तर्गत लीला, विलास, विभ्रम, विच्छिति, किलकिंचित मोट्टायित, कुटुमित, ललित, विब्बोक, विद्वत मद, तपन, मौग्ध्य, विक्षेप, कुतूहल, हसित, चकित तथा केलि आदि आँगिक व्यापार आते हैं। जैसे बिहारी द्वारा विद्दत का वर्णन देखिये। यदि बात करने का अवसर होते हुए भी अवरुद्ध कण्ठ के कारण अथवा संकोच से बात मुँह से न निकले तो वहाँ पर विहृत हाव होता है, उदाहरणार्थ-

ललन चलनु सुनि चुप रही बोली-आपन ईठि ।

राखे गसि गाढ़े गरै मनौ गलगली ढीठि ।।

इस प्रकार बिहारी ने संयोग शृंगार के अन्तर्गत रति क्रीड़ा का अत्यन्त स्वाभाविक एवं आकर्षक चित्र प्रस्तुत किया है, झूला, हिंडोला, फाग, जलक्रीड़ा, स्नान-विहार, आँख-मिचौनी आदि के माध्यम से बहुत ही मनमोहक चित्रण किये हैं। जैसे-

(क)  हेरि हिडोरै गगन तै परी-परी सी टूटि।

घरी धाड़ पिय बीच ही करी खरी रस लुटि ।।

(ख) पीठि दिये ही नैक मुरि कर घूँघट पटु डारि ।

भरि गुलाल की मूटि तिय गई मुठि सौ मारि ।।

वियोग पक्ष- प्राचीन आचार्यों ने वियोग श्रृंगार का वर्गीकरण इस प्रकार किया है।

1. मान- वियोग श्रृंगार में मान दो प्रकार का होता है (क) प्रणय मान, (ख) ईर्ष्या मान।

(क) प्रणय मान- इसके अन्तर्गत प्रेमी और प्रेमिका के बीच रुष्ट होने का प्रवृत्ति दिखाई पड़ती हैं, जैसे।

कहा लेहगे खेल में तजी अटपटी बात।

नकु हँसोही है भई भाई सोहे खात ।।

(ख) ईर्ष्या मान – नायक में अन्य स्त्री के प्रति अनुराग देखकर नायिका में जो रोग उत्पन्न होता है उसे इर्ष्या मान कहते हैं। जैसे-

मोहू सी बातनि लगे लगी जीहू जिहि नाँय ।

साई लै डर लाइये लाल लागियत पाँव ।

2. प्रवास – प्रियतम के विदेश चले जाने पर प्रियतमा के हृदय में वियोगजन्य मानसिक वेदना पैदा होती है।

जिहि निदाष दुपहर रहे भाई माघ की रीति ।

तिहि उधसीर की रावटी खरी बावटी जाति ।

3. विरह- प्रियतम के वियोग से प्रियतमा के हृदय में उससे मिलने के लिये जो तड़पन पैदा होती है उसे विरह कहते हैं। बिहारी के विरह वर्णन उत्कृष्ट हैं। जैसे-

कहे जु बचन वियोगिनी विरह विकल विललाय ।

किये न केहि अंसुवा सहित सुवा सुबोल सुनाय ।।

(4) पूर्वराग- किसी नायक अथवा नायिका के शील, सौन्दर्य गुणों का वर्णन सुनकर एक-दूसरे के हृदय में प्रेम की जो भावना आविर्भूत होती है उसे पूर्वराग कहते हैं। जैसे-

हरि छबि जल जब तें परे तब तै छिनु बिछुरैन ।

भरत ढरत बूड़त तरत रहत घरी लौ नैन ।

काव्यशास्त्र में वियोगजन्य काम दशाओं का विवेचन किया गया है। साहित्यदर्पण में पूर्वराग की दस तथा प्रवास की दस काम दशाओं का उल्लेख किया गया है। पूर्वराग के अन्तर्गत अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण-कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण तथा प्रवास के अन्तर्गत अंगों का असष्ठव, ताप, पाण्डुता, कृशता, अरुचि, अद्यूति, तन्मयता, उन्माद, मूर्च्छा और मृति आदि काम दशाएँ आती हैं। नीचे कुछ कामदशाओं का उल्लेख किया जाता है।

स्याम सुरति करि राधिका तकति तरनिजा तीर ।

अंसुवन करत तरौस को, खिन खैरौहों नीर ।।                – स्मृति

ह्याँ ते हाँ-हाँ तो इहाँ, नैकौं धरति न धीर।

निसि दिन डाढ़ी सी रहति बाढ़ी गाड़ी पीर ॥                   – उद्वेग

कहे जु वचन वियोगिनी विरह विकल विललाय।

किये न केहि अँसुवा सहित सुवा सुबोल सुनाय ।।            – प्रलाप

इसी प्रकार सतसई में विप्रलम्भ शृंगार के समस्त भेदोपभेदों तथा कायदशाओं का चित्रण मिलता है। श्रृंगार रस के अतिरिक्त अन्य रसों का प्रतिपाद भी सतसई में मिलता है।

करुण रस-

गोपिनु कै अंसुवन भरी बदा असोस अपार ।

डगर-डगर नै है रही अगर-बगर के बार ।।

वीर रस-

रहति न रन जयसाहि गुण सखि लाखन की फौज ।

जाँचि निराखर चलै लै लाखनु की मौज ।।

रौद्र रस-

लोपे कोप इन्द्रलौ रोपे प्रलय अकाल।

गिरिधारी राखे सबै गो, गोपी जन ग्वाल।

भयानक रस-

डिगत पानि डिगुलात गिरि लिखि सब ब्रज बेहाल।

कम्पि किसोरी दरस कै, खरे लवाने लाल ।।

वीभत्स रस-

या दल काढ़े बलख तें तें जय साहि भुवाल ।

उदर आधासुर के परै ज्यो हरि गाइ गुवाल ।

अद्भुत रस-

मोहन मूरति स्वाम की, अति अद्भुत गति जोइ।

बसत मुचित अन्तर तक प्रतिविम्बित जग होइ ॥

हास्य रस-

बहु धनु लै अहसानु के, पारा देत सराह ।

वैद वधु लखि भेद सौ, रही नाह मुहँ चाहि ।।

शान्त रस-

कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार।

मो सम्पत्ति जदुपति सदा, विपति विदारनहार ।।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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