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भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से घनानन्द के काव्य की समीक्षा कीजिए

भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से घनानन्द के काव्य की समीक्षा कीजिए
भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से घनानन्द के काव्य की समीक्षा कीजिए

भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से घनानन्द के काव्य की समीक्षा

रीतिकालीन कविता के विभिन्न तीन अंग हैं- 1. रीतिबद्ध कविता, 2. रीतिसिद्ध कविता और 3. रीतिमुक्त या स्वच्छन्दतावादी कविता । रीतिबद्ध कविता के कवियों में केशव, देव, मतिराम आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने कविता के विभिन्न स्वरूपों का सैद्धान्तिक निरूपण उचित उदाहरणों के माध्यम से पुष्ट किया। रीतिसिद्ध कविता के कवियों में बिहारी का नाम सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय है। इस कविता के रचनाकारों ने कविता के विभिन्न स्वरूपों के कोई सैद्धान्तिक निरूपण तो नहीं प्रस्तुत किया, लेकिन इसके ही आधार पर काव्य रचनाएँ कीं। रीतिमुक्त कविता के कवियों में घनानन्द का नाम सर्वाधिक और सर्वोच्च है। इस कविता धारा के कवियों ने न काव्य के विभिन्न स्वरूपों का सैद्धान्तिक निरूपण ही किया और न काव्य-रचना करते समय उन्हें अपने ध्येय में ही रखा।

रीतिमुक्त कवियों के गुण-आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार- “स्वच्छन्द कवि हृदय की दौड़ के लिए राजमार्ग चाहते थे, रीति की संकरी गली में धक्कमधक्का करना नहीं। ये कविता की नपी-तुली नाली खोदने वाले न थे। ये काव्य का उत्स प्रवाहित करने वाले या मानस-रस का उन्मुख दान देने वाले थे।”

रीतिमुक्त काव्यधारा के कवियों के गुणों का उल्लेख करते हुए डॉ० शिवकुमार शर्मा का कथन है- “इनके काव्यों में भाव पक्ष की प्रधानता है। इनकी शैली अलंकारों के आवश्यक बोझ से भी आक्रांत नहीं हुई है। भाषा के क्षेत्र में भी ये लोग अधिक सफाई से उतरे हैं। इनके काव्यों में सामाजिकता की अवहेलना भी नहीं है और न ही नग्न शृंगारिकता । इनका श्रृंगार-चित्रण अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, संयत और स्वच्छ है।”

रीतिकालीन कविता पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह सार रूप में कहा जाता है कि रीतिकालीन कवियों के लिए कविता साधन थी और उनका अपनी तीव्र भावाभिव्यक्ति का विस्तृत चित्रण करना ही साध्य था। कविवर घनानन्द इसके अपवाद नहीं हैं। कविवर घनानन्द की काव्यधारा में अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष दोनों की ही प्रधानता है। यहाँ पर हम दोनों ही पक्षों में विभिन्न प्रकार से विचार करना समीचीन समझते हैं-

1. अनुभूति पक्ष अथवा भावपक्ष

कविवर घनानन्द के काव्य में भावना की अत्यधिक प्रधानता है। कवि ने अपनी अनुभूति को बहुत ही सूक्ष्मता और गम्भीरतापूर्वक चित्रित किया है। कवि ने अपनी अभिव्यंजना-शैली के विषय में इस विचार को व्यक्त किया है-

“लोग हैं लागि कवित्त बनावत ।

मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत ।”

अर्थात् और कवि तो अत्यन्त प्रयत्न करके कविता करते हैं, लेकिन मेरी काव्य-रचना तो मेरी भावना से अंकुरित होकर ही प्रस्फुटित होती है। कविवर घनानन्द की अनुभूति पक्षीय या भावपक्षीय निम्नलिखित विशेषता इस प्रकार से है-

1. प्रेम की अभिव्यंजना- कविवर घनानन्द का काव्यांश सच्चे प्रेम का प्रतिष्ठापक है। इसमें साधिकारपूर्वक अपने मंतव्य ” को कवि ने अपनी अनन्य प्रेयसी के माध्यम से व्यक्त किया है। यह प्रेम का मार्ग बन्धनविहीन मार्ग है। एकान्तिक, एकनिष्ठ और एकांगी है। इसमें प्रेम की वक्रता और भटजुता के साथ-साथ चतुराई और सन्देह का कोई भी स्थान नहीं है-

“अति सुधो सनेह को मारग है।

जहाँ नेक समानय बाँक नहीं ।।

जहाँ साँचे चले तजि आपनयो ।

झझकै कपटी जेनिसांक नहीं ।”

2. एकपक्षीय प्रेम की प्रधानता- प्रेम के सच्चे अलख जगाने वाले कविवर घनानन्द प्रेम का कोई-न-कोई एक मधुर और हृदयग्राही चित्र प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के प्रेम की प्रेरक शक्ति कवि की अनन्य प्रेयसी सुजान ही रही है-

“चाहो, अनचाहो जन प्यारे पै घनानन्द ।

प्रीति रीति विषम जु रोम-रोम रमी है ।।”

इसी प्रकार के अन्य उदाहरण और दिए जा सकते हैं, जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि कविवर घनानन्द ने अपनी काव्य-रचनाओं में एकपक्षीय प्रेम की प्रधानता आकर्षक और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत की है-

3. सौन्दर्य-चित्रण- घनानन्द ने अपनी प्राणप्रिया के रूप और सौन्दर्य के कितने ही मनोहारी चित्र अंकित किए हैं। प्रत्येक अंग के अलग-अलग चित्रण के स्थान पर सम्पूर्ण अंगों की रमणीयता ही उसमें दिखाई गई है। डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में- “घनानन्द के इन सौन्दर्य-चित्रों में सुजान का रूप उसका लावण्य, उसका यौवन, उसकी छवि, उसकी कांति, उसकी अंग-दीप्ति आदि मानो साकार हो उठी है और ये सभी चित्र गत्यात्मक सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं, जिनमें संश्लिष्टता है, मादकता है, अतिशयता है और सर्वाधिक भाव-प्रेषणीयता है।” संश्लिष्ट रूप छवि का कितना मोहक चित्र घनानन्द ने प्रस्तुत किया है-

“झलकै अति सुन्दर आनन गौर,

छके द्ग राजति कार्नानि है।

हँसि बोलनि मैं छवि-फूलन की,

बरषा, उर ऊपर जाति है ह्वै ।

लट लोल कपोल कपोल करैं,

कलकंठ बनी जलजावलि है।

अंग-अंग तरंग उठे दुति की,

परिहै मनी रूप अबै घर च्वै ॥ “

4. संयमित संयोग-वर्णन- घनानन्द के काव्य में संयोग श्रृंगार का अंकन भी हुआ है, किन्तु संयोग क्षण कम रहने के कारण इस प्रकार के चित्र कम ही हैं। जहाँ कहीं संयोग का चित्रण हुआ है, वहाँ उन्होंने प्रिय के शारीरिक अंगों तथा केलि-क्रीड़ा के अनेक रूपों को अंकन करने के स्थान पर प्रिय के रूप और गुणों का वर्णन किया है। इसी कारण इनमें संयम, भावना प्रधानता तथा पवित्रता अधिक है। एक विचित्रता यह भी है कि वे संयोग के समय भी वियोग की आशंका से ग्रस्त रहते हैं-

“यह कैसो संजोग न बूझि परै ।

कि वियोग न क्यौ हूँ बिछोहत है ।”

5. वियोग-वर्णन- घनानन्द मुख्यता वियोग श्रृंगार के कवि हैं। इनके काव्य में वियोग का परिपाक मार्मिकता और सजीवता से हुआ है। उनके हृदय में व्याप्त वियोग की कल्पना सहज नहीं है, जो संयोग में भी वियोग की आशंका से त्रस्त रहता है उनको व्यथा इतनी मार्मिक है कि शीतल उपादान भी उन्हें दग्ध करते प्रतीत होते हैं, सोने के समय नींद नहीं आती, जगने पर जाग नहीं पाते, औषधि भी विष के समान लगती है-

“सुधा से स्त्रवत विष, फूल में जमत सूल,

तम उगिलत चंदा, भई नई रीति है।

जल जारे अंग और राग कर सुरभंग,

सम्पत्ति विपत्ति पाग, बड़ी विपरीति है ।।

महागुन गहै दोषै, औषधि हूँ रोग पोषै,

ऐसे जान !  रस माहिं बिरस अनीति है।

दिनन को फेर माहिं तुम मन फेरि डार्यो,

एहो घनआनन्द ! न कानौं कैसे बीति है ।।”

यों तो वियोग के चार भेद बताए गये हैं- पूर्वराग, मान, प्रवास और रोद्र-करुण। इनमें प्रिय के निर्मोही और निष्ठुर व्यक्तित्व पर कविवर घनानन्द ने बहुत अधिक प्रकाश डाला है। यह ध्यान देने का विषय है कि कवि ने इस प्रकार के वियोग से सम्बन्धित प्रभाव और दशाओं के चित्रों को किसी प्रकार के ऊहात्मकता और अतिशयोक्ति की पूर्णता से सर्वथा अलग रखा है।

6. भक्ति-भावना- कविवर घनानन्द ने अपनी काव्य-रचनाओं में भक्ति भावना को हृदयहारी और स्वाभाविक स्थान दिया है। लौकिक प्रेमिका का उत्कंठा भरा प्रेम स्वरूप ही कवि की मधुर भक्ति की धारा के रूप में प्रवाहित हुआ है। कवि की भक्ति, अनन्य प्रेम और एकनिष्ठता को व्यक्त करने वाली है। इसमें तीव्रता और स्वच्छंदता है, यह चातक और मीन की प्रतीकात्मक है। इस प्रकार की भक्ति भावना को कवि ने अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण श्रद्धा और निष्ठा के साथ व्यक्त किया है। इस सम्बन्ध में कवि द्वारा प्रस्तुत एक उदाहरण इस प्रकार से है-

“तुम ही गति हो, तुम ही मति हो,

तुम ही पति हो, अति दीनन की।

नित प्रीति करौ गुनहीनन सौं,

यह रीति सुजान प्रवीनन की ।।

बरसौ घनआनन्द जीवन की,

सरसी सुधि चातक छीनन की।

मृदु तौ चित के पन पै हत के-

निधि हौ हित के रुचि मीनन की ॥ “

7. प्रकृति-चित्रण- कविवर घनानन्द ने प्रकृति के उद्दीपनस्वरूप के चित्र प्रस्तुत किए हैं। अत्यधिक विरह-प्रधान भावों के कारण ही कवि द्वारा प्रस्तुत प्रकृति विरह की उद्दीप्तता को ही प्रकट करने वाली है। एक उदाहरण इस प्रकार से है-

“लहकि-लहकि आयै ज्यों-ज्यों पुरवाई पौन,

दहकि दहकि त्यों-त्यों तन ताँवरे तचै।

बहकि- बहकि जात बदरा बिलोकें हियौ,

गहकि- गहकि गहबरनि गरेँ मचै ॥

चहकि चहकि डारै चपला चखनि चाहैं,

कैसे घनआनन्द सुजान बिन ज्यौं बचै।

महकि महकि मारै पावस- प्रसून-बास,

त्रासनि उसास दैया कौ लौं रहियै अचै ।”

2. कलापक्ष अथवा अभिव्यक्ति पक्ष

 कविवर घनानन्द का अभिव्यक्ति पक्ष या कलापक्ष, भावपक्ष अथवा अनुभूति पक्ष के समान ही सबल है। इसमें विविधता और समृद्धता है। इस तरह से इसमें प्रौढ़ता और सशक्तता भी है। इस पक्ष की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रमुख हैं, जो सुधीजनों को बरबस ही आकर्षित कर लेती हैं-इस अभिव्यक्ति पक्ष के अन्तर्गत भाषा-शब्द, शब्द-शक्ति, सूक्तियाँ, मुहावरे कहावतें, अलंकार छंद आदि प्रयोगों की अद्भुत विशेषताएँ हैं। इनका क्रमशः उल्लेख किया जा रहा है-

1. भाषा – घनानन्द की भाषा में लाक्षणिकता, वचनवक्रता, प्रांजलता तथा रमणीयता आदि गुण पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हुए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था, वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़कर ऐसी वशवर्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भाव-भंगी के साथ-साथ जिस रूप में चाहते थे, उस रूप में मोड़ सकते थे। इनके हृदय का योग पाकर भाषा को नवीन गतिविधि का अभ्यास हुआ और वह पहले से कहीं अधिक बलवती दिखाई पड़ी।”

घनानन्द ने बड़ी सफाई और सुन्दरता के साथ ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। ब्रजभाषा पर ऐसा अधिकार अन्य किसी कवि का दिखाई नहीं देता। उनकी भाषा में उक्ति चमत्कार पर्याप्त मात्रा में है।

घन आनन्द के कवित्तों के प्रसिद्ध प्रशंसक बृजनाथ की दृष्टि में घन आनन्द की भाषा के गुण इस प्रकार हैं- क्रांति, गांभीर्य और विविध प्रकार की अर्थवत्ता, साधना सापेक्षता, सुन्दरता, स्वच्छता, एकरूपता या साँचे में ढला हुआ होना, सुघड़ता, अनूठापन और गूढ़ता। उनकी इस प्रकार की भाषा को तथा उसके सौन्दर्य को वही समझ सकता है, जो भाषा प्रवीण हो,

“नेही महा ब्रजभाषा प्रवीण औ सुन्दरतानि के भेद को जानै,

जोग वियोग की रीति मैं कोविद, भावना भेद-स्वरूप को ठानै ।

चाह के रंग में भीज्यौ हियो, बिछरें-मिलें प्रीतम साँति न मानै,

भाषा- प्रवीन सुछंद सदा रहै, सो घन जी के कवित्त बखानै ।।”

2. शब्द प्रयोग – घन आनन्द को ‘भाषा प्रवीन’ कहा गया है। इसकी पुष्टि घन आनन्द के शब्द-समूह से भी की जा सकती है। घन आनन्द ने पंकज, कुरंग मलय, विभाकर, दिनेश, हृदय, तर्क आदि तत्सम शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया है। घन आनन्द के काव्य में सर्वाधिक प्रयोग तद्भव शब्दों का है, उदाहरणार्थ- परजंक, जतन, विहुर, दीठि, उदंग, ईछन, पदारथ, जतन, निसि, दिनेश सभी आदि। देशज शब्दों में-डैस, ढोबा, अखीली, विशेषतः उल्लेखनीय हैं। अरबी, फारसी के शब्दों में- इस्क चस्माँ, महबूब, चिमन, बेदरद, करद, तीर-कमान, तकसीर, कहर, जरद, दुसाला, मगरूरी, हुकम, हजूर, खातर, यार, हुसन, सराबी, जिगर, बेनिसाफ, इलम, दिलदार, जहर आदि शब्द उल्लेखनीय हैं।

3. शब्द-शक्ति- घनानन्द के काव्य में अभिधा की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना की प्रधानता है। उन्होंने उक्ति चमत्कार, भावों की सघनता तथा सरसता के लिए पर्याप्त लाक्षणिक प्रयोग किए। यथा-

“मीत सुजान अनीत की पाटी।

इतै पै न जानिये कौनें पढ़ाई ।।”

व्यंजना का भी एक उदाहरण प्रस्तुत है-

“कबहूँ वा विसासी सुजान के आँगन ।

मो असुवानि हूँ लै बरसौ ।। “

4. सूक्तियों के प्रयोग- कविवर घनानन्द ने विभिन्न प्रकार की सूक्तियों के प्रयोग भाषा को रोचक और सरस बनाने के अभिप्राय से किए हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इस महाकवि ने अपनी इच्छा और भावना के अनुसार भाषा को विभिन्न मोड़ दिए हैं। कवि की उक्तियों की भंगिमाएँ एक प्रकार से दुर्लभ ही दिखाई देती हैं। कवि द्वारा प्रयुक्त की गई विभिन्न प्रकार की सूक्तियाँ अग्र प्रकार से हैं-

(1) धुरि आरस की पास उपास गरैजू परीसु मरैहूँ कहा छुटि है।

(2) घन आनन्द जीवन मूल सुजान की कौंधनिहूँ न कहूँ बरसे।

(3) अंग-अंग तरंग उठे दुति की परि है मनौरूप अबै घर च्वै ।

(4) हँसि बोलन में फूलन की बरख डर ऊपर जाति है ह्वै।

5. कहावतें और मुहावरे- जहाँ-जहाँ कवि ने कहावतों और मुहावरों को लिया है, वहाँ वहाँ की भाषा काव्य कला के विशिष्ट चमत्कारों से सजीव हुई है। कहावतों से बढ़कर कवि ने मुहावरों के प्रयोग किए हैं। एक कहावत का उद्धरण इस प्रकार है-

“सुनी है के नाहीं यह प्रगट कहावत जू ।

काहू कल्पाई है सु कैसे कलपाई है ।।”

विष घोलना, छाए रहना, पाटी पढ़ना आदि प्रचलित मुहावरों के प्रयोग कवि ने प्रायः किए हैं। इससे भाषा में न केवल सजीवता अपितु सम्प्रेषणता के भी गुण उत्पन्न हुए हैं।

6. अलंकार- महाकवि घनानन्द ने प्रायः सभी प्रकार के अलंकारों के प्रयोग में अपनी पटुता दिखाई है। आपके अलंकार प्रयोग की सर्वाधिक विशेषता यह है कि ये अलंकार परम्परागत प्रयोगों से बिल्कुल हटकर हैं। दूसरी बात यह है कि ये सहज और अनायास रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

7. छंद-विधान- घन आनन्द ने कवित्त और सवैया इन दो छंदों को सर्वाधिक अपनाया। इनके छंदों में किसी प्रकार का दोष नहीं है। रीतिकालीन मतिराम और देव जैसे सफल कवियों में भी छंद-विषयक दोष पाए जाते हैं। इनके कवित्तों की मस्तानी चाल पर शुक्ल जी विभोर हो उठे थे।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उनके काव्य के दोनों पक्ष ही उन्नत तथा भव्य हैं। कवि ने अपने काव्य में कलापक्ष को भिन्न करके नहीं देखा, वह तो उनके भावपक्ष का ही सहायक रहा है। उनके सम्पूर्ण काव्य में भाव की उच्चता के साथ-साथ भाषा, अलंकार, अनुप्रास तथा अन्य उपकरणों को भी घन आनन्द ने भाव-व्यंजना के लिए अपनाया है। उनका काव्य उनके हृदय के सरल उद्गार मात्र ही थे। उनकी सन्तुलित दृष्टि के फलस्वरूप उनका अनूठा काव्य वैभव उनको रीतिकालीन कवियों की कोटि से पृथक् कर देता है। इसीलिए तो घन आनन्द को रीतिकाल के स्वच्छंदतावादी कवियों की अनुपम माला का बहुमूल्य मोती स्वीकार किया जाता है।

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Anjali Yadav

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