हिन्दी साहित्य

हिन्दी साहित्य का आरम्भ

हिन्दी साहित्य का आरम्भ
हिन्दी साहित्य का आरम्भ

हिन्दी साहित्य के आरम्भ व विकास पर प्रकाश डालिए।

हिन्दी-साहित्य के आरम्भ का प्रश्न हिन्दी भाषा के आरम्भ से जुड़ा हुआ है। इस भाषा का विकास एक जन भाषा के रूप में हुआ है। कोई भी जन-भाषा अपने प्रवाह की अक्षुण्णता में सदा एकरूप नहीं रह सकती। स्थान और काल के भेद से उसमें रूप-भेद भी स्वतः उत्पन्न हो जाता है, किन्तु जब तक उन रूपों की तात्विक समानता सुरक्षित रहती है तब तक वे एक ही भाषा का बोध कराते हैं। हिन्दी भाषा ने भी स्थान और काल के भेद से अपनी दीर्घ यात्रा में अनेक रूप धारण किये हैं। मगही, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, कन्नौजी, बघेलखण्डी, बुन्देलखण्डी, ब्रज, खड़ीबोली, बांगरू, मेवाती, हाड़ौती, मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढारी, मालवी, भी ली, खानदेशी, पहाड़ी आदि उसके अनेक रूप-भेद पाये जाते हैं, किन्तु इन सब में तात्विक समानता विद्यमान हैं। आजकल इन भाषा-रूपों को स्थान- भेद से स्मरण किया जाता है; किन्तु काल-भेद से भी इन रूपों में अन्तर है। कुछ शताब्दियों पूर्व का बज या मैथिली का रूप आज यथावत् नहीं मिलता; किन्तु तात्विक समानता के आधार पर पूर्व काल के वे रूप भी बज या मैथिली ही माने जाते हैं और उन सब रूपों में रचित साहित्य भी हिन्दी का ही साहित्य कहा जाता है।

अतः भाषा के रूप-भेद को भुलाकर तात्विक परिवर्तन के आधार पर ही एक भाषा के अन्त और दूसरी भाषा के आरम्भ का इतिहास स्वीकार करना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इसी दृष्टि से अपभ्रंश को एक अलग भाषा मानकर उसके समानान्तर तात्विक आधार पर भिन्न रूप में विकसित भाषा को पृथक् नाम देने की आवश्यकता है। यद्यपि अपभ्रंश अपने मूल रूप में पन्द्रहवीं शताब्दी तक साहित्य की भाषा बनी रही, तथापि आठवीं शताब्दी से ही बोलचाल की भाषा पृथक् होकर उसके समानान्तर साहित्य-रचना का माध्यम बन गयी थी। इसी भाषा को कुछ विद्वानों ने ‘उत्तर अपभ्रंश’ या ‘पुरानी हिन्दी’ कहा है और कुछ विद्वानों ने ‘अवहट्ठ’ नाम दिया है। परन्तु वास्तविकता यह है कि वह भाषा ‘हिन्दी’ है, उसे ‘उत्तर अपभ्रंश’ या ‘अवहट्ठ’ नाम देना भ्रम उत्पन्न करना है। जिन विद्वानों ने ये नाम दिये हैं, वे भी अपने मत के अन्तर्गत प्रायः उक्त तथ्य का समर्थन करते रहे हैं। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी पहले विद्वान् हैं जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की थी कि ‘उत्तर अपभ्रंश’ ही पुरानी हिन्दी है। यहाँ ‘उत्तर’ शब्द काल का बोधक न होकर साहित्यिक अपभ्रंश से इतर बोलचाल की उस भाषा का बोधक है, जो साहित्यिक अपभ्रंश के एक रूप की स्वीकृति के पश्चात् उसके बाद के रूप में स्थापित होती जा रही थी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गुलेरी जी के लेख के आधार पर अपने इतिहास में आदिकाल के अन्तर्गत ‘उत्तर अपभ्रंश’ की रचनाओं को यह मानते हुए भी स्थान दिया कि उनके आधार पर उस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं की जा सकती। राहुल सांकृत्यायन ने भी ‘उत्तर अपभ्रंश’ की रचनाओं को हिन्दी की रचनाएँ माना है।’ हिन्दी के प्राचीन कवि और उनकी कविताएँ’ लेख में उन्होंने हिन्दी कविता का आदि-रूप नालन्दा और विक्रमशिला के सिद्धों द्वारा बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व के प्रचार की भाषा में सिद्ध किया है। इसी प्रकार डॉ० रामकुमार वर्मा ने भी ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में गुलेरी जी और राहुल जी के मतों को स्वीकार करते हुए ‘उत्तर अपभ्रंश’ के कवियों को स्थान दिया है।

शुक्ल जी के साथ कुछ-कुछ सहमत होते हुए भी डॉ० श्यामसुन्दरदास तथा डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी अपभ्रंश-काव्य का विवेचन आदिकाल के भीतर करते रहे हैं। द्विवेदी जी ने अपभ्रंश और हिन्दी के सम्बन्ध में यह मत व्यक्त किया है: “इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिन्दी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है। इसी अपभ्रंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी। बारहवीं शताब्दी तक निश्चित रूप से अपभ्रंश भाषा ही पुरानी हिन्दी के रूप में चलती थी, यद्यपि उसमें नये तत्सम शब्दों का आगमन शुरू हो गया था।” इस प्रकार वे अपभ्रंश को हिन्दी से अलग रखना चाहते हैं, फिर भी उन्होंने अपभ्रंश के उत्तरकालीन साहित्य को आदिकाल की सामग्री मानकर उसका विवेचन किया है। उनके वक्तव्य से यह सिद्ध हो जाता है कि ‘उत्तर अपभ्रंश’ हिन्दी का ही आरम्भिक रूप है। उनके अनुसार अपभ्रंश में शब्दों के तद्भव रूपों के प्रयोग की प्रवृत्ति थी, किन्तु जब उसमें तत्सम रूपों के प्रयोग की प्रवृत्ति विकसित होने लगी तब एक नयी भाषा का रूप उभरा, जिसे हिन्दी कहना चाहिए। वस्तुतः जनभाषा होते हुए भी, हिन्दी की यही एक ऐसी प्रवृत्ति है जो अपभ्रंश के बाद भी अब तक निरन्तर बढ़ती रही है। अतः जिन विद्वानों ने अपभ्रंश के अतिरिक्त ‘अवहट्ट’ का झगड़ा खड़ा किया है, वे हिन्दी के आरम्भिक विकास को उसके आगे की धारा से काट देना चाहते हैं। यह ठीक है कि वे ‘उत्तर अपभ्रंश’ को शुद्ध अपभ्रंश नहीं मानते, किन्तु उसे आरम्भिक हिन्दी न मानना एक भ्रम है। अधिकांश विद्वान ‘अवहट्ट’ को पृथक भाषा मानने के पक्ष में नहीं हैं। डॉ० भोलाशंकर व्यास ने हिन्दी के आरम्भिक रूप को ही ‘अवहट्ठ’ कहा है। और यही अधिक समीचीन है, क्योंकि जिसे कुछ विद्वान् ‘अवरुद्ध’ कहना चाहते हैं, वही अपभ्रंश का ऐसा रूप है जिसमें हिन्दी की सभी आरम्भिक प्रवृत्तियाँ एकसाथ मिलती हैं तथा साहित्यिक अपभ्रंश से जिसका गहरा विद्रोह भी झलकता है।

अतः हिन्दी-साहित्य के आदिकाल की सामग्री में ‘उत्तर अपभ्रंश’ की सभी रचनाएँ आ जाती हैं। उन्हें हिन्दी-साहित्य से निकालकर अपभ्रंश के साहित्य में स्थान देना या ‘अवहट्ठ’ का नया इतिहाँस खड़ा करना उचित नहीं है। इस दृष्टि से सिद्धों की रचनाओं से ही हिन्दी-साहित्य का आरम्भ मानना युक्तिसंगत है। उनके साहित्य की भाषा अपभ्रंश के ‘उत्तरभाषा रूप’ की सूचना देती है तथा साहित्यिक अपभ्रंश से खुलकर विद्रोह कर रही है।

साहित्य के आरम्भ का निर्णय भाषा के आधार पर तो किया ही जा सकता है, इसके अतिरिक्त एक दूसरा तत्व भी है जिसे हम साहित्य की चेतना कह सकते हैं। सिद्धों की रचनाओं में यह तत्व नये रूप में विकसित होता हुआ दिखायी देता है तथा अपभ्रंश के साहित्य से उनका खुला विद्रोह भी झलकता है। सिद्धों की वस्तु-दृष्टि जिस धार्मिक चेतना पर आधारित है उसका सीधा सम्बन्ध ‘नाथ-साहित्य’ से होता हुआ हिन्दी के भक्तिकालीन कवियों से जुड़ता है। अगर हम ‘सिद्ध-नाथ-साहित्य’ को हिन्दी साहित्य से हटाकर अपभ्रंश-साहित्य में रख दें, तो फिर हिन्दी का समस्त भक्ति-साहित्य ‘जड़’ और ‘तने’ से कटे वृक्ष की तरह निराधार हो जाएगा।

अतः भाषा के विकास की आरम्भिक स्थिति तथा उत्तरवर्ती धार्मिक चेतना के मूल रूप को ध्यान में रखकर सिद्ध-साहित्य से हिन्दी साहित्य का आरम्भ मानना पूर्णतः युक्तिसंगत है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि उसके समानान्तर लिखे गये साहित्यिक अपभ्रंश के ग्रंथों से उसे सावधानीपूर्वक पृथक् रखा जाए, क्योंकि कई विद्वानों ने दोनों को एक मानने की भी भूल की है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि कई सिद्धों ने एकसाथ अपभ्रंश और ‘आरम्भिक हिन्दी’ में रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। अतः ऐसे कवियों की रचनाएँ दो वर्गों में विभाजित हो जाती हैं, और उसी आधार पर उनकी गणना यदि एक ओर अपभ्रंश-साहित्य के इतिहास में की गयी है, तो दूसरी ओर ‘आरम्भिक हिन्दी’ में भी साहित्य लिखने के कारण उनका नाम हिन्दी-साहित्य के इतिहास में आ जाता है। दो या अधिक भाषाओं में रचना करने की यह प्रवृत्ति बहुत समय तक चलती रही। विद्यापति का साहित्य इसका प्रमाण है। अतः एक ही कवि को अपभ्रंश का कवि मान लेने के पश्चात् उसकी कुछ रचनाओं में प्रारम्भिक हिन्दी का प्रयोग देखकर उसे हिन्दी का आरम्भिक कवि मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता।

प्रथम कवि- अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हिन्दी का प्रथम कवि किसे माना जाय ? ठा० शिवसिंह सेंगर ने सातवीं शताब्दी में उत्पन्न ‘पुष्य’ या ‘पुण्ड’ नामक किसी कवि को हिन्दी का प्रथम कवि माना था। किन्तु इस कवि का उल्लेख मात्र मिलता है, अभी तक उसकी कोई रचना उपलब्ध नहीं हुई। राहुल जी ने सातवीं शताब्दी ईस्वी के सरहपाद को हिन्दी का प्रथम कवि माना है। वे 84 सिद्धों में से एक थे। उनकी कविता में अपभ्रंश का साहित्यिक रूप छूट गया है तथा बोलचाल की भाषा, जो आरम्भिक हिन्दी है, प्रयुक्त हुई है। वर्ण्य विषय और चेतना की दृष्टि से भी उनका काव्य हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल का बीजांकुर है। 84 सिद्धों की काव्य-चेतना के अनेक तत्व नाथ सम्प्रदाय की काव्य-चेतना में विलीन होकर एक नयी प्रेरणा बने और फिर दोनों ने भक्तिकाव्य की आधार भूमि तैयार की। सिद्ध-साहित्य से नाथ-साहित्य का विकास हुआ और नाथ-साहित्य की प्रेरणा से भक्ति कालीन सन्त-साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके प्रथम कवि कबीर माने जाते हैं। सरहपाद की काव्य-परम्परा में विकसित नाथपन्थ का हठयोग कबीर के काव्य में इतना अधिक पल्लवित हुआ है कि सरहपाद के काव्य को आदि-स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। साहित्यिक अपभ्रंश में जो साहित्य विकसित हुआ उस पर सरहपाद का उतना प्रभाव नहीं है जितना नाथ-साहित्य और सन्त-साहित्य पर है। एक तीसरा आधार और है जिस पर हम सरहपाद को प्रथम हिन्दी कवि के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते हैं, वह है शैली की परम्परा का। सरहपाद ने दोहा और पदों की शैली अपनी कविता में प्रयुक्त की है। यह शैली उनके बाद के सभी हिन्दी कवियों ने परम्परा के रूप में अपनायी है। हिन्दी मुक्तक-काव्य में दोहा सबसे अधिक प्रिय छन्द रहा है। अतः सभी दृष्टियों से सरहपाद को हिन्दी का प्रथम कवि माना जा सकता है।

जो विद्वान् सरहपाद को हिन्दी का प्रथम कवि नहीं मानना चाहते, उनके पास अपने मत के समर्थन के लिए केवल दो तर्क हैं : प्रथम तर्क वे यह प्रस्तुत करते हैं कि सरहपाद की रचनाएँ अपभ्रंश-साहित्य का अंग है और दूसरा तर्क यह कि सरहपाद के समय से ग्यारहवीं शताब्दी तक हिन्दी की रचना-परम्परा नहीं मिलती। ये दोनों तर्क निराधार हैं। सत्य यह है कि हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखने वाले विद्वानों में कोई भी ऐसा नहीं है जिसने कबीरदास से हिन्दी साहित्य का आरम्भ व्यावहारिक रूप में स्वीकार किया हो। यो डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त प्रभृति एक-दो विद्वानों ने अपभ्रंश और हिन्दी के मध्य निर्णायक रेखा खींचना कठिन मानकर यह इच्छा प्रकट की है कि भक्तिकाल से ही हिन्दी साहित्य का आरम्भ माना जाए, किन्तु वे भी अपनी इस इच्छा का अनौचित्य समझते रहे हैं और इसी कारण उन रचनाओं का आदिकाल के अन्तर्गत विवेचन करने को बाध्य हुए हैं जिन्हें वे अपभ्रंश की रचनाएँ कहते हैं। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त ने इस सन्दर्भ में अपने ‘हिन्दी-साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में ‘भरतेश्वर बाहुबलीराम’ के रचयिता शालिभद्र सूरि को हिन्दी का प्रथम कवि माना है, जो तर्कसम्मत नहीं है। इस प्रश्न का यह उत्तर हो सकता है कि सरहपाद की भाषा हिन्दी का प्रारम्भिक रूप है। जहाँ तक रही परम्परा की बात, तो उसके लिए प्रन्थों का उतना महत्व नहीं; जितना चेतना, भावना और विचारणा का है क्योंकि इन्हीं से साहित्य का अस्तित्व माना जाता है, न कि मात्र पन्थसंख्या से। इस दृष्टि से सरहपाद की देन अधिक महत्वपूर्ण है-उनकी भावधारा सिद्धों और नाथों से होती हुई कबीर तक अपनी परम्परा बनाती है, जबकि शालिभद्र सूरि की देन सन्दर्भ में नगण्य है। अतः सरहपाद को ही हिन्दी का प्रथम कवि मानना तर्कसंगत हैं।

प्रथम रचना – हिन्दी के प्रथम कवि सरहपाद की जो रचनाएँ मिली हैं ये सभी मुक्तक हैं; अतः प्रथम रचना के नाम पर किसी एक पुस्तक को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने ‘हिन्दी काव्य-धारा’ में सरहपाद की कुछ रचनाओं का संग्रह किया है, उसी के आधार पर उनकी हिन्दी-रचना का एक अंश यहाँ उद्धृत किया जाता है :

जहँ मन पवन न संचर, रवि शशि नहि पवेश।

तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेश ॥

पण्डिअ सअल सत्य मक्खाणइ।

देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणइ ॥

यद्यपि इस उद्धरण में अपभ्रंश भाषा के व्याकरण की प्रवृत्तियाँ भी मिलती हैं, तथापि हिन्दी के रूप की झलक ही अधिक स्पष्ट है, साथ ही डॉ० द्विवेदी ने तत्समता का जिस प्रवृत्ति को हिन्दी भाषा का मूल रहस्य माना है, वह भी ‘पवन’, ‘रवि’, ‘शशि’, ‘वट’, ‘चित्त’ आदि शब्दों में स्पष्टतः देखी जा सकती है। अन्य सिद्ध कवियों ने भी सरहपाद की इस भाषा प्रवृत्ति का अनुकरण किया है। राहुल ने सरहपाद का समय 769 ई० माना है तथा डॉ० विनयतोष भट्टाचार्य ने 633 ई. बताया है। डॉ० रामकुमार वर्मा इसी आधार पर लिखते हैं: “सातवीं शताब्दी से ही हम सिद्धों की रचनाओं को अपनी भाषा के प्रारम्भिक रूप में पाते हैं। इन रचनाओं के वर्ण्य विषय हठयोग, मन्त्र, मद्य और स्त्री हैं जो वज्रयान के मुख्य रूप हैं। भाषा अपभ्रंश-मिश्रित है, जिसमें सिद्धान्तों के मिश्रण के कारण काव्योत्कर्ष हो नहीं सकता।” वस्तुतः डॉ० वर्मा ने काव्योत्कर्ष का जो अभाव देखा है, वह सिद्धान्तों के मिश्रण के कारण तो है ही, इन सिद्धान्तों के प्रतिपादनार्थ अपभ्रंश भाषा का मिश्रण भी इसके लिए उत्तरदायी रहा है। अतः आरम्भिक रचना की दृष्टि से काव्योत्कर्ष का उतना महत्व नहीं है, जितनी महत्वपूर्ण बात है काव्य-भाषा के रूप में किसी रचना में हिन्दी का प्रयोग; और यह प्रयोग सरहपाद की रचनाओं में ही प्रथम बार मिलता है।

यदि एक प्रन्थ के रूप में हिन्दी की प्रथम रचना का निर्धारण करना हो, तो सरहपाद आदि सिद्धों की मुक्तक कविताओं के पश्चात् जैन-आचार्य देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ ग्रन्थ का नाम लिया जा सकता है। इसमें सरहपाद की दोहा-शैली का विकसित रूप मिलता है। देवसेन ने इस ग्रन्थ में 250 दोहों में श्रावक धर्म का वर्णन किया है। गृहस्थ धर्म उस वर्णन का केन्द्र है, अतः इसमें साहित्यिक तत्वों का अभाव नहीं है। इस दृष्टि से ग्रन्थ-रूप में यह हिन्दी की प्रथम साहित्यिक रचना है।

सीमांकन

सरहपाद को हिन्दी का प्रथम कवि मान लेने से हिन्दी साहित्य के आरम्भ की सीमा आठवीं शताब्दी ईस्वी (769 ई०) निश्चित हो जाती है। यह सीमा राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है। प्रियर्सन, शिवसिंह, मिश्रबन्धु, गुलेरी, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा डा० रामकुमार वर्मा इससे बहुत दूर तक सहमत हैं। दूसरा पक्ष उन विद्वानों का है, जो हिन्दी साहित्य का आरम्भ ईसा की दसवीं शताब्दी के अन्तिम सात वर्षों से मानते हैं। इन विद्वानों का नेतृत्व आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया है। उनके मत से मुंज और भोज के समय 993 ई० से पुरानी हिन्दी का प्रयोग शुद्ध साहित्य में हुआ। किन्तु शुक्ल जी ने पुरानी हिन्दी को ही ‘प्राकृताभास हिन्दी’ या ‘अपभ्रंश’ भी कहा है तथा जिन बारह कृतियों के आधार पर वीरगाथा- काल का नामकरण किया है, उनमें भी वे अपभ्रंश की चार कृतियाँ बतलाते हैं एवं आगे चलकर वीरगाथा- काल को अपभ्रंश-काल एवं देशभाषा काव्य में विभाजित करके सरहपाद, देवसेन आदि कवियों का परिचय देते हैं। अतः अप्रत्यक्षतः वे स्वयं भी वीरगाथा- काल से सम्बोधित ‘आदिकाल’ की सीमा सरहपाद तक पीछे लौटाते हैं।

जिस प्रकार हिन्दी-साहित्य के आदिकाल की आरम्भिक सीमा विवादग्रस्त रही है, किन्तु इस सत्य से अप्रत्यक्षतः ही सही- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वान् भी सहमत रहे हैं कि सिद्धों और जैन कवियों की कई रचनाओं को उसके बाहर नहीं रखा जा सकता; उसी प्रकार उसकी अन्तिम सीमा भी विवादमस्त अवश्य है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन करने वाले प्रथम इतिहासकार डॉ० पियर्सन हैं। उन्होंने आदिकाल की अन्तिम सीमा 1400 ई० तक मानी है। मिश्रबन्धुओं ने एतदर्थ 1389 ई० का वर्ष स्वीकार किया है। रामचन्द्र शुक्ल आदिकाल की अन्तिम सीमा 1318 ई० तक मानते हैं। डॉ० रामशंकर शुक्ल ‘रसाल’ उसे 1343 ई० तक ले गये है, किन्तु डॉ० रामकुमार वर्मा शुक्ल जी से सहमत हैं। अन्य इतिहासकार भी अधिकांशतः शुक्ल जी से ही सहमत हैं। यह ठीक है कि शुक्ल जी ने विद्यापति को आदिकाल के अन्तर्गत रखा है और विद्यापति का रचना-काल 1375 ई० से 1418 ई० के मध्य माना जाता है; और इस दृष्टि से आदिकाल की अन्तिम सीमा 1418 ई० निर्धारित की जा सकती है, किन्तु इसमें भी सन्देह नहीं है कि भक्तिकाल में जिन प्रवृत्तियों का विकास हुआ, उनकी भूमिका विद्यापति के पूर्व ही पूर्ण हो चुकी थी। अतः विद्यापति को भक्तिकाल में रखकर चौदहवीं शताब्दी के मध्य को आदिकाल की अन्तिम सीमा मानना ही समीचीन होगा। दूसरे शब्दों में, शुक्ल जी द्वारा निर्धारित 1318 ई० के बाद भी दो-तीन दशाब्द तक आदिकालीन साहित्य-सामग्री का प्रसार माना जा सकता है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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