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हिन्दी साहित्य की आदिकाल की उपलब्ध साहित्यिक सामग्री के आधार पर उस काल की भाषा शैली की विवेचना कीजिए।
आदिकाल की कालावधि के निर्धारण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मतों में थोड़ा बहुत मतभेद होते हुए भी साधारणतः दशवीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के आरम्भ तक के काल को हिन्दी साहित्य का आदिकाल कहा जाता है। हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन के सम्बन्ध में सर्वाधिक मान्य मत आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का है। शुक्ल जी ने सं० 1375 तक की कालावधि को हिन्दी साहित्य का आदिकाल माना है। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ पुस्तक में शुक्ल जी ने लिखा है कि मोटे हिसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चाहिए।
इस युग में दो प्रकार के काव्य ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं-प्रथम अपभ्रंश काव्य और दूसरा देश भाषा काव्य। इनमें शुक्ल जी ने बारह पुस्तकें विवेचन योग्य समझी हैं और इन्हीं को आधार मानकर उन्होंने आदिकाल का समय निर्धारण और नामकरण किया है। इस सम्बन्ध में शुक्लजी का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है-
“इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का लक्ष्य निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमें से अन्तिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब प्रन्थ और कथात्मक हैं। अतः आदिकाल का नाम वीरगाथा काल ही रखा जा सकता है।”
शुक्ल जी ने अपभ्रंश की अन्य पुस्तकों को केवल धार्मिक ग्रन्थ कहकर तथा देशभाषा की कई पुस्तकों को नोटिस मात्र कहकर विवेचन के योग्य नहीं माना है, क्योंकि उनके मतानुसार वे साहित्यिक रचना की कोटि में नहीं आते हैं, परन्तु परवर्ती अध्ययन एवं खोजों के आधार पर अनेक विद्वान शुक्लजी के उक्त मत का समर्थन नहीं करते। इनके मतानुसार केवल धार्मिक ग्रन्थ अथवा नोटिस मात्र कहकर इन ग्रन्थों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। इनमें भी सरसता, काव्यत्व एवं साहित्यिकता के दर्शन होते हैं। इस विचारधारा का प्रतिपादन करने वालों में प्रमुख हैं-डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा राहुल सांकृत्यायन । इन अध्ययन योग्य साहित्यकारों में उल्लेखनीय हैं- स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदंत, धनपाद। डॉ० द्विवेदी की सुनिश्चित धरणा है कि साहित्य के अन्तर्गत इन धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया जाना चाहिए। राहुल जी भी इसी मान्यता के समर्थक हैं। वे तो स्वयंभू को हिन्दी का पुराना तथा उत्तम काव्यकर्ता मानते हैं।
दूसरी बात एक और है। शुक्ल जी द्वारा मान्यता प्राप्त अनेक पुस्तकें अप्रामाणिक घोषित कर दी गई हैं। नवीन खोजों के आधार पर या तो वे बाद में (16वीं से 18वीं शताब्दी तक) रची हुई पुस्तकें हैं अथवा नोटिस मात्र हैं। खुमान रासो 18वीं शताब्दी की रचना मान ली गई है। पृथ्वीराज रासो का रचना-काल विवाद का विषय बना ही हुआ है। भट्ट केदार और मधुकर कविकृत ‘जयचन्द्रप्रकाश’ तथा ‘जयमयंकजस चन्द्रिका’ नामक ग्रन्थ अप्राप्य हैं। जगनिक का ‘आल्ह खण्ड’ भी अपने असली रूप में उपलब्ध नहीं है।
हमारे विचार से केवल धार्मिकता का समावेश काल के लिए बाधक नहीं होना चाहिए। अन्यथा हमारा समस्त भक्तिकाल हमसे बिछुड़ जायेगा। ग्रन्थ को साहित्य वर्ग में रखा जाये अथवा नहीं इसका निर्णय करते समय वास्तव में इस बात पर विचार करना चाहिए कि आलोच्य ग्रन्थ में साम्प्रदायिकता या धार्मिक दृष्टिकोण प्रधान रहा है और साहित्यिक दृष्टिकोण की प्रधानता रही है।
मोतीलाल मेनारिया और अगरचन्द नाहटा ने इस दिशा में पर्याप्त शोध कार्य किया है। इनके अनुसार शुक्लजी द्वारा मान्य बारह ग्रन्थों में अनेक की प्रामाणिकता संदिग्ध एवं अमान्य है। इस सम्बन्ध में मेनारिया जी का मत द्रष्टव्य है-
“ये रासो ग्रन्थ जिनको ‘वीरगाथाएँ” नाम दिया गया है और जिनके आधार पर वीरगाथाकाल की कल्पना की गई है, राजस्थान के किसी समय विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते, केवल भाट चारण आदि कुछ वर्ग के लोगों की जन्मजात मनोवृत्ति को प्रकट करते हैं। प्रभुभक्ति का भय इन जातियों के खून में है और ये प्रन्थ उस भावना की अभिव्यक्ति करते हैं।”
निष्कर्ष यह है कि इस काल के प्राप्त प्रन्थों में अनेक के अन्तर्गत प्रक्षिस अंश काफी हैं। इनमें कुछ नोटिस मात्र हैं तथा कुछ या तो पीछे की रचनाएँ हैं अथवा प्राचीन रचनाओं के विकृत रूप हैं। कुछ ग्रन्थ मूल रूप में नहीं मिलते तो कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से संदिग्ध हैं। तब इस काल की प्रामाणिक पुस्तकों की उपलब्धि का उपाय क्या है ? इसका ही उपाय है वह यह कि प्राप्त सामग्री की समीक्षा करते समय भाषा शैली की ओर विशेष ध्यान दिया जाये।
इस काल की पुस्तकों की प्राप्ति के साधन प्रायः निम्नलिखित प्रकार के रहे हैं-
(1) राजकीय पुस्तकालयों में अथवा अन्य प्रकार से राज्याश्रय पाकर सुरक्षित पुस्तकें।
(2) धार्मिक समुदायों के मठों, विहारों आदि के पुस्तकालयों में सुरक्षित पुस्तकें।
(3) जनता के सहयोग, रुचि तथा प्रेम के द्वारा प्राप्त पुस्तकें।
(4) बौद्ध-धर्म के अन्तर्गत साम्प्रदायिक भंडारों में सुरक्षित देशी भाषा की पुस्तकें।
(5) योगियों का साहित्य। इसकी सुरक्षा के दो माध्यम रहे-
(क) सूफी कवियों की गाथाओं में योग की नाना प्रकार की सिद्धियों और अवस्थाओं के वर्णन । (ख) संत तथा भक्त कवियों के खण्डन मण्डन के रूप में अर्थात् निर्गुण या सगुण भक्त कवियों की पुस्तकों में खण्डनों और प्रत्याख्यानों के विषय के रूप में।
सारांश यह है कि हिन्दी के आदिकाल का साहित्य विशेष सुरक्षित दशा में उपलब्ध नहीं है।
इस सम्बन्ध में डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन द्रष्टव्य है-
“जिन पुस्तकों के आधार पर इस काल की भाषा-शैली की प्रकृति का कुछ आभास पाया जा सकता है। उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। कुछ पुस्तकों की भाषा इतनी परिवर्तित हुई कि उनके विषय में कुछ भी विचार करना अनुचित मालूम पड़ता है।”
भाषा शैली
आदिकाल की प्राप्त पुस्तकों में हमें निम्नलिखित प्रकार की भाषा शैली के दर्शन होते हैं-
(1) अपभ्रंश- अपभ्रंश भाषा योगमार्गी बौद्धों की रचनाओं, नाथ पथियों के प्रचार ग्रंथों, जो राजपूताना तथा पंजाब की प्रचलित भाषा में लिखे गये हैं और जैन आचायों मेरुतुंग, सोमप्रभु, सूर आदि के ग्रन्थों में प्रयुक्त मिलती है। विद्यापति ने भी अपभ्रंश में छोटे-छोटे ग्रन्थों का निर्माण किया था। सिद्धों की अपभ्रंश में पूर्वी प्रभाव तथा जैन साहित्य में नागर अपभ्रंश का विशेष प्रभाव दिखाई देता है। इन ग्रंथों में चरित्र, रासक, चतुष्पदी ढाल, दूहा आदि छन्दों का अधिक प्रयोग हुआ है। विषय की दृष्टि से तांत्रिक साहित्य, वीरगाथा साहित्य, शृंगार साहित्य तथा दर्शन साहित्य का आरम्भिक रूप अपभ्रंश के ही अन्तर्गत हो दिखाई देता है। वस्तु-स्थिति यह है कि उस समय के कवियों की भाषा अपभ्रंश ही थी-
सिद्धों की कृतियों में देश-भाषा मिश्रित अपभ्रंश का रूप प्राप्त होता है। उनमें कुछ पूर्वी प्रयोग भी मिलते हैं। पुरानी हिन्दी की व्यापक काव्य-भाषा का ढांचा ब्रज और खड़ी बोली का था। अपभ्रंश काल की भाषा जैसे-जैसे देश-भाषा की ओर बढ़ती गई, संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोगों को अधिकाधिक स्थान प्राप्त होता गया। उदाहरण-
जो जिण सासण भावियऊ, सो मई कहियऊ साय,
जो पालई सड़ भाऊ करि सो तरि पावड़ पारु।
(देवसेन की आवकाचार)
(2) डिंगल और पिंगल- प्रादेशिक बोलियों के साथ ब्रजभाषा तथा मध्य देश की भाषा के संयोग से जो भाषा बनी वह पिंगल कहलाई जबकि अपभ्रंश भाषा से युक्त राजस्थान के साहित्यिक रूप को डिंगल कहा गया। हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘पिंगल’ का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। पिंगल भाषा में फारसी, अरबी, तुर्की के शब्दों का भी प्रयोग मिलता है।
डिंगल और पिंगल का मिश्रित रूप तासी प्रत्थों में दिखाई देता है। भाषा की दृष्टि से डिंगल साहित्य बहुत ही अव्यवस्थित है। विशेष रूप से परवर्ती परिवर्तनों तथा बहुत समय तक व्यवधान रहने के कारण इसके शुद्ध रूप का पता लगाना कठिन है। पिंगल के अतिरिक्त इसमें अपभ्रंश के प्रभाव के कारण संयुक्ताक्षरों और अनुस्वारों की अधिकता भाषा की कृत्रिमता की द्योतक है। उदाहरण-
परणवा चाल्यो वसील राय, चडरास्या सदुलिया बोलाई;
जान तणी साजति करड, जरिह रंगावली पहर ज्यों होय।
(नरपति नाल्ह कृत बीसलदेव रासो)
(3) मैथिली भाषा- मैथिली बिहार की बोली होने पर भी हिन्दी की विभाषा मानी गई है। इसी कारण विद्यापति की पदावली को हिन्दी का ग्रन्थ माना गया। इसमें प्रयुक्त भाषा रूप में संस्कृत के तत्सम शब्दों का विशेष बहिष्कार नहीं दिखाई दिया। मैथिली और अवधी पड़ोसी बोलियाँ हैं, अतः उनके आरम्भिक रूपों में बहुत कुछ समानता है। उदाहरण-
कालि कहल पिय सांझहि रे जाइब मोइ मारू देस।
मोह अभागिनी नहि जानल रे, संग जाइतयें जोगिनी बेस ।।
(विद्यापति) ।
(4) खड़ी बोली- अमीर खुसरो के काव्य में जनता की उस बोली के दर्शन होते हैं जो कालान्तर में विकसित होकर खड़ी बोली कहलाई । तत्कालीन जनभाषा का दर्शन खुसरो की पहेलियों और मुकरियों में मिलता है। यह दिल्ली और मेरठ प्रदेश की भाषा है इस भाषा की क्रियाएँ हिन्दी की हैं-वैसे इसमें अरबी फारसी के शब्द मिलते हैं उदाहरण-
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर आंधा धरा ।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे ।
(खुसरो की पहेली)
हिन्दी साहित्य के आदिकाल की भाषा के वक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिन्दी साहित्य का आदिकाल संक्रान्ति काल था। इस काल में पद्य की प्रधानता थी। गद्य के दर्शन तो हमें गोरखनाथ की कुछ पुस्तकों तत्कालीन राजाओं के पत्रों, ताम्रपत्रों, शिलालेखों आदि में ही होते हैं। इस संक्रांति काल में अपभ्रंश के प्रति मोह कम करके भाषा जनभाषा के रूप में विकसित हो रही थी। यह हिन्दी का आरम्भिक रूप था। व्याकरण और छन्द-शास्त्र के बन्धन प्रायः शिथिल हो चुके थे। एक भाषा एक प्रकार से मनमाने रूप में विकसित हो रही थी। संस्कृत के छन्दों का प्रवाह और अनुशासन तो समाप्त हो ही गया था। अन्त्यानुप्रास का बन्धन भी प्रायः समाप्त हो चुका था। अपभ्रंश के रूप में विकसित होकर हिन्दी अपना रूप सुधार रही थी। वास्तव में अगर देखा जाय तो इस समय “अपभ्रंश के सरोवर में हिन्दी कुमुदिनी अत्यन्त अव्यवस्थित रूप में अपनी पंखुड़ियों में रूप रंग समेटती जा रही थी।”
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