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भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ

भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ
भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ

भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।

पूर्व मध्य युग (भक्ति काल) में निःसंदेह निर्गुण और सगुण धाराओं के परस्पर भिन्न मत, विश्वास, विचार और मान्यताएँ थीं किन्तु इनमें कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी भी हैं जो दोनों में सामान्य रूप से पाई जाती हैं-

(1) गुरु महिमा- ‘सन्त काव्य’, ‘प्रेम काव्य’, राम भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति साहित्य में गुरु महिमा का समान रूप से प्रतिपादन मिलता है। जहां कबीर ने गुरु को गोविन्द से बड़ा बताया है वहां जायसी का कहना है कि- “बिनु-गुरु-जगत को निरगुन पावा”। तुलसी “जहाँ बन्दौ गुरु पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि” कह कर गुरु के प्रति अपार श्रद्धा का प्रदर्शन करते हैं वहीं भक्तवर सूरदास को अपने गुरु वल्लभाचार्य के बिना संसार अन्धकारमय लगता है- “श्री वल्लभ-नख-चन्द्र छटा बिनु सब जगमहि अंधेरो।”

(2) भक्ति की प्रधानता- इस काव्य की चारों काव्यधाराओं अर्थात् सन्त, प्रेम, राम तथा कृष्ण साहित्य में ईश्वराराधन के लिए भक्ति पर समान बल दिया गया है। यद्यपि कबीर के ईश्वर निराकार हैं और वे ज्ञान गम्य हैं किन्तु भक्ति के बिना उसकी प्राप्ति नहीं होती। भक्ति ज्ञान का प्रमुख साधन है-“हरि भक्ति जाने बिना बूड़ि मुआ संसार”। जायसी ने शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारिफत इन चारों साधनों को भगवद्भक्ति के लिए आवश्यक बताया है। राम एवं कृष्ण साहित्य में वैधी तथा प्रेमा भक्ति का विशद चित्रण मिलता है।

(3) अहंकार का त्याग – भगवद-प्राप्ति के लिए अहं का विगलन आवश्यक है। कबीर का कहना है कि मान और प्रेम परस्पर विरोधी तत्व हैं। कबीर के शब्दों में

पिया चाहे प्रेम रस राखा चाहे मान।

इक म्यान में दुइ खड्ग देखी सुनी न कान ।।

सूर और तुलसी आत्मार्पण को भगवद्दर्शन के लिए अनिवार्य मानते हैं, सूर में अहं का इतना विगलन हो गया था कि उनकी वाणी से सहज में ही फूट निकलता था- “प्रभु हौ सब पतितन को ठीको।” तुलसी के सेव्य-सेवक भाव में यत्र-तत्र दैन्य प्रस्फुटित हो उठता है- “सेव्य-सेवक भाव बिनु भव न तरिय उरगारि” ।

(4) नाम की महिमा – सन्तों, सूफियों तथा सगुण साधकों ने कीर्तन, भजन तथा नाम स्मरण को समान रूप से महत्व दिया है। तुलसी का कहना है कि “अलखहि का लखे, रामनाम जप नीच” । जायसी स्मरण की महिमा की महत्ता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि “सुमिरों आदि इक करतारू जेहि जिउ दीन्हे कीन्ह संसारू” । कबीर के नाम के महत्व को अनेकत्र स्वीकार किया है। सूर की गुणात्मक प्रेमाभक्ति में कीर्तन, स्मरण एवं जप को पूरा-पूरा महत्व मिला है।

(5) बहुजन हिताय – भक्ति युग में निर्मित साहित्य की सर्वप्रमुख विशेषता बहुजन हित संपादन रहा है। भक्ति की शाखाओं में सदाचार तथा नैतिक भावना पर यथेष्ट बल दिया गया है। अनुभवाश्रयी निर्गुण साहित्य व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ निरंतर आध्यात्मिक प्रेरणा देता रहा है। राम भक्ति काव्य ने सदाचार, नैतिक भावना तथा वैयक्तिक अभ्युत्थान के साथ तत्कालीन प्रबुद्ध जनता के लिए रावणत्व पर रामत्व की विजय प्रदर्शित कर आत्मनिरीक्षण तथा परिस्थिति परीक्षण का अवसर प्रदान किया। प्रेम भक्ति काव्यों में बिना किसी वर्ग भेद के जनसामान्य के लिए श्रेय एवं प्रेय का मार्ग उद्घाटित किया गया। समूचे भक्ति काव्य ने भेदभाव को कम कर समन्वयात्मकता को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया।

(6) लोकभाषाओं की प्रधानता- लोकभाषाओं को प्रश्रय देना भक्तिकाव्य की सर्वमहती विशेषता है। सभी सन्त एवं भक्त कवियों ने अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के सक्षम माध्यम के रूप में लोक प्रचलित भाषा के विभिन्न रूपों का सफल प्रयोग किया। यद्यपि तुलसी नाना पुराण एवं निगमागमों में पारंगत पंडित थे और उनका संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार था किन्तु उन्होंने अपने साहित्य का सृजन अवधी तथा ब्रज भाषा में किया। सूर आदि कृष्णभक्त कवियों की भाषा लोकप्रचलित वज भाषा का प्रतीक है। कबीर आदि सन्त कवियों ने सधुक्कड़ी भाषा के माध्यम से अपना संदेश जनसामान्य तक पहुँचाया। जायसी आदि के प्रेम काव्यों में लोकप्रचलित अवधी व्यवहृत हुई है। वर्ण्य विषय को जनसामान्य तक पहुँचाकर उसे लोकप्रिय बनाने के लिए जन भाषाओं का उपयोग अतीव उपयोगी व हितकर सिद्ध हुआ। उक्त काव्य में लोकगीतों और लोककथाओं को यथेष्ट सम्मान मिला। लोकपरिचित दृष्टान्तों, रूपकों, प्रतीकों तथा लोकोक्तियों का यथायोग्य प्रयोग किया गया। अपनी-अपनी अनुभूतियों को जनमानस तक पहुँचाने के लिए लोकप्रचलित भाषा शैली का प्रयोग करना भक्ति काव्य के प्रणेताओंका प्रमुख उद्देश्य रहा है।

(7) समन्वयात्मकता – यद्यपि सन्तों की वाणियों में चुनौती भरी कड़वाहट है किन्तु उनका अंतिम उद्देश्य वर्गभेद मिटाकर समन्वयात्मकता लाना है । सन्तों की इस समन्वयात्मक प्रवृत्ति को सूफी मत से प्रश्रय मिला। सहिष्णु समन्वय का आवश्यक उपबन्ध भारतीय परम्परा के अनुसार सन्त काव्य में जहां इष्टदेव को प्रियतम कहा गया है वहां सूफी काव्यों में उस पर प्रियतमा का आरोप किया गया है। इस प्रकार दोनों मतों में धार्मिक साम्प्रदायिकता का स्तर उत्तरोत्तर क्षीणप्राय हो गया। यह सर्वविदित है कि तुलसी साहित्य समन्वयात्मकता का एक विराट प्रयास हैं। निःसन्देह कृष्ण भक्ति काव्य में साम्प्रदायिक अर्चना पद्धतियों की चर्चा है किन्तु उसमें किसी भी प्रकार का कोई वर्गभेद नहीं है। भक्तिकाव्यों में बहुधा उनके रचयिताओं का नामोल्लेख समन्वयात्मक सहिष्णुता का उपलक्षक है। भले ही इसके और भी अनेक कारण रहे हों।

(8) वीर काव्यों की रचना- यद्यपि भक्तिकाल में धार्मिक काव्यों की प्रमुखता रही है किन्तु इसमें वीर काव्य धारा भी निरंतर चलती रही है। तुलसी तथा जायसी ने अपने प्रबन्ध काव्यों में प्रसंगवश वीररस का उल्लेख किया है। इस काल में भी आदिकाल की भांति वीरकाव्यों की निरंतर रचना हुई, भले ही उनकी मात्रा कम है। ऐसे वीर काव्य प्रायः राजाश्रय में लिखे गये। इनमें मुख्यतः आश्रयदाताओं के यशोगान, विरुदावली, रण-सज्जा, दान, शौर्य शत्रु-निन्दा व उपहास तथा युद्धों की विकरालता आदि निरूपित हैं। श्रीधर नल्हसिंह, राउजेतसी: रासोकार दुरसा जी, दयाराम (दयाल) कुंभकर्ण और न्यामत खां जान आदि इस काल में प्रमुख वीर काव्य के प्रणेता हैं।

(9) प्रबन्धात्मक चरित काव्य- भक्तिकाल में कुछ ऐसे चरित काव्यों के प्रणयन का पता मिलता है जो आदिकालीन जैन काव्यों या पौराणिक काव्यों की पद्धति पर विरचित है। इनमें जैन काव्यों तथा रासो काव्यों की शैलीगत प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। सधारू अमवाल, शालिभद्र सूर, गौतम रासकार, जाखू मणियार, देवप्रभ सूरी और पद्मनाभ आदि इस काल के प्रमुख चरित काव्यों के लेखक हैं। इन प्रबन्धात्मक चरित काव्यों में काव्यशास्त्रोक्त महाकाव्य के सभी लक्षण मिलते हैं।

(10) नीति काव्य- भारतीय साहित्य में नीतिकाव्यों के निर्माण की परम्परा बहुत पुरातन है। वेद, रामायण, महाभारत, पुराणों तथा अन्य काव्यों में नीतिपरक उपदेश मिल जाते हैं। संस्कृति साहित्य में नीति के अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी उपलब्ध होते हैं। यह परम्परा पालि, प्राकृत तथा अप्रभंश के काव्यों में बराबर मिलती है। नाथों व सिद्धों के साहित्य में अनेक नीतिपरक सूक्तियाँ मिलती हैं। भक्तिकाल में कबीर, नानक और दादू दयाल आदि सन्तों की वाणियों तथा रामचरित मानस और पद्मावत आदि प्रबन्ध काव्यों में नीति सम्बन्धी उपदेश प्रासंगिक रूप से मिल जाते हैं, भक्तिकाल में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं, जिन्होंने स्वतंत्र रूप से नीति ग्रंथों की रचना की। इन कवियों में बनारसीदास, पद्मनाभ, देवीदास उत्थैरा, वाजिदराज समुद्र, कुशलवीर तथा जमाल आदि उल्लेखनीय हैं। इन रचयिताओं ने भर्तृहरि के नीतिशतक तथा वैराग्य शतक के समान लोकव्यवहार, नैतिकता और अध्यात्मोन्मुख उपदेशों को काव्योचित भाषा में निबद्ध किया है।

(11) गद्यात्मक साहित्य- भक्तिकाल में अवधी को छोड़कर हिन्दी की अन्य सभी विभाषाओं में गद्य साहित्य का यत्किचित निर्माण हुआ। हिन्दी का यह प्राचीन गद्य भाषा, शैली, विषय का सांस्कृतिक अध्ययन अनेक दृष्टियों से बहुत मूल्यवान है। वास्तव में यह आधुनिक गद्य की भूमिका प्रस्तुत करता है। इस युग में गद्य के अनेक रूप ‘कथा, वात, वर्जन, चरित्र, वचनिका, पद्यावली, वंशावली, प्रश्नोत्तर वचनामृत, पत्र, गोस्ठ, बालावबोध, वृत्ति, टिप्पण टीका, तर्जुमा तथा तफसीर आदि अनेक शीर्षकों के अन्तर्गत देखे जा सकते हैं। भक्तिकाल के गद्य के प्रमुख विषय हैं- धर्म, दर्शन, अध्यात्म, चिकित्सा, ज्योतिष, भूगोल, सामुद्रिक शास्त्रस्वर (शकुन शास्त्र), व्याकरण, कोकशास्त्र और काव्यग्रंथ भक्तिकाल में टीकाओं, टिप्पणियों और गद्य में अनूदित ग्रंथों की बहुत बड़ी संख्या रही है। यह प्रवृत्ति उत्तर मध्यकाल रीतिकाल में भी निरंतर बनी रही। भक्तिकाल में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा अरबी, फारसी के अनेक ग्रंथों के गद्यमय अनुवाद लिखे गये। रीतिकाल में यह काम और भी जोरों से हुआ। उसमें संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि (सब विषयों) को भाषा के माध्यम से जनसाधारण तक पहुँचाया गया। अतः उत्तर मध्यकाल भाषाई दृष्टि से पुरातन भारतीय साहित्य के पुनरूत्थान का काल है।

(12) रीति काव्यों की रचना – हिन्दी को संस्कृतका काव्यशास्त्र विरासत के रूप में मिला है। हिन्दी के सभी कवि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उक्त शास्त्र से प्रभावित रहे हैं। आदिकाल में रीतिकाव्यों के निर्माण के विषय में कवि का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ किन्तु भक्तिकाल में हिन्दी रीति-निरूपण परम्परा का आरंभ कृपाराम की हित तरंगिणी से आरंभ हो गया। संस्कृत में भक्ति के क्षेत्र में रूप गोस्वामी पहले से ही भक्ति रसामृत सिन्धु तथा उज्ज्वल नीलमणि आदि काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का प्रणयन कर चुके थे। परिणामतः सूर तथा नन्ददास आदि ने इस क्षेत्र में स्वकीया तथा परकीया के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए साहित्यलहरी और रूपमंजरी आदि ग्रंथों का निर्माण किया। रहीम के ‘नायिका भेद, नजरशोभा’ सुन्दर कविराम का ‘सुन्दर श्रृंगार न्यामत खां जाने ‘रस कोष, कविवल्लभ, सिंगार तिलक तथा रसमंजरी’ आदि उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। इस दिशा में बलभद्र मिश्र, मुबारक तथा मोहनलाल मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं। भक्तिकाल के अंतिम चरण में कविता राज दरबारों में प्रवेश कर गई अतः उस समय के कवियों का कर्म कविता करने के साथ-साथ अपने आश्रयदाताओं और सामन्तों आदि के लिए काव्य के सौन्दर्यवर्धक उपकरणों का ज्ञान उपलब्ध कराना भी हो गया था जिससे वे लोग दरबारों में आयोजित काव्यगोष्ठियों का रसास्वादन कर अपनी रसिकता व गुणज्ञता का परिचय दे सकें। निःसन्देह कविता की यह प्रवृत्ति भक्ति के प्रबल प्रवाह के सामने अत्यंत क्षीण रही किन्तु बाद में यह उत्तरोत्तर पुष्ट होती गई और इसका पूर्ण परिपाक रीतिकाल में दिखाई पड़ा।

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Anjali Yadav

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