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भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि एवं विकास

भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि एवं विकास
भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि एवं विकास

भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए उसके संक्षिप्त विकास का भी उल्लेख करिये।

भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि एवं विकास

भक्ति आन्दोलन के विकास की स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही है, जैसी हमारे भारतीय इतिहास की है, हमारे सामने आज जो हमारी इतिहास है उस पर विदेशी विद्वानों की छाप है। इसमें जातीय गौरव को कम करके दिखाया गया है। इसी प्रकार भक्ति आन्दोलन को भी कुछ विद्वान विदेशी प्रभाव की देन मानते हैं तो कुछ विद्वान राजनीतिक पराभव की देन और कुछ विद्वान भारतीय चिन्तन की देन ।

(1) विदेशी प्रभाव- डॉ. प्रियर्सन की मान्यता है कि भारतीय भक्ति आन्दोलन ईसाई धर्म के प्रभाव की छाया में विकसित हुआ। उनका आधार लेकर कुछ विद्वानों ने यह भी कह डाला ‘कृष्ण’ की कल्पना ईसाई धर्म प्रवर्तक ‘क्राइस्ट’ के नाम के साम्य के आधार पर हुई। वेवर महोदय की मान्यता है कि- “महाभारत में वर्णित श्वेत द्वीप’ गोरी जातियों का निवासस्थल था जो यूरोप में ही था। अतः वहाँ लेकर और राम, कृष्ण आदि की जयन्तियाँ मनाने की परम्परा को ईसाई-पद्धति से जोड़ते हुए, भक्ति भावना के प्रादुर्भाव को ईसाई धर्म की देन स्वीकार करते हैं।

मुस्लिम एकेश्वरवाद की शंकराचार्य के अद्वैत पर छाया स्वीकार करते हुए डॉ. ताराचन्द, डॉ. हुमायूं कबीर और डॉ. आबिद हुसैन आदि महापुरुष यहाँ तक कहने में नहीं हिचकते कि भारतीय भक्ति आन्दोलन मुस्लिम संस्कृति की छाया में ही पनपा हैं।

(2) राजनीतिक प्रभाव- इस प्रभाव को भी विद्वान स्वीकार करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि आचार्य शुक्ल जैसे प्रबुद्ध विचारक भी यह स्वीकार करते हैं कि देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मन्दिर गिराए जाते थे, देव-मूर्तियां तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया, तब परस्पर लड़ने वाले स्वतन्त्र राज्य भी न रह गये। इतनी भारी राजनीतिक उलट-फेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासीनता छाई रही। अपने पौरुप से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।

(3) भारतीय चेतना का प्रभाव- डॉ. हजारी प्रसाद जी का मत है- यह बात अत्यन्त उपहासस्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण भारत में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले से सिन्ध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में ।

दक्षिण की सन्त परम्परा में भक्ति की मूलधारा का विकास देखने वाले विद्वानों के भी दो मत हैं। डॉ. सत्येन्द्र भक्ति का उद्भव द्रविड़ की देन मानते हैं। उनका आधार है ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये समानन्द’। डॉ. जयकिशन प्रसाद की मान्यता है। कि, “नयी प्रागैतिहासिक शोधों से यह सिद्ध-सा होता है कि भक्ति का मूल द्रविड़ों में है, किन्तु दक्षिण के द्रविड़ों में नहीं अपितु उनके पूर्वज माहनजोदड़ों और हड़प्पा के निवासी द्रविड़ों में। अभी तक संसार को जितने भी साक्षय प्रमाण प्राप्त हैं उनमें सिद्ध होता है कि माहनजोदड़ो और हड़प्पा के द्रविड़ अथवा वात्य एकेश्वरवादी थे। उनके इस ईश्वर का नाम शिव था। आर्यों ने भक्ति भाव दक्षिण से प्राप्त किया था।”

इसी क्रम में श्री रामधारीसिंह दिनकर अलवार सन्तों में भक्ति का विकास स्वीकार करते हैं- “उत्तर भारत में जब वैष्णव भक्तों का जमाना आया, उसके पहले ही दक्षिण का आलवार सन्तों में भक्ति का बहुत कुछ विकास हो चुका था और वहीं से भक्ति की लहर उत्तर भारत पहुँची। यह भी ध्यान देने की बात है कि आरम्भ में भक्ति को प्रमुखता देने वाले रामानुज, मध्य, निम्बार्क और वल्लभाचार्य प्रायः सभी महात्मा दक्षिण में ही जन्मे थे। उत्तर में मीरा का जन्म हुआ, उससे बहुत पहले दक्षिण में आन्दाल नाम की प्रसिद्ध भक्ति न हो चुकी थी, जो कृष्ण को अपना पति मानती थी और जिसके बारे में मीरा की ही तरह यह कथा प्रचलित है कि वह कृष्ण के भीतर विलीन हो गई।”

(हमारी सांस्कृतिक एकता)

दक्षिण में प्रभाव को आचार्य शुक्ल भी स्वीकार करते हैं- “भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजनैतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।”

डॉ. राजनाथ शर्मा और डॉ० रामरतन भक्ति आन्दोलन का मूल प्रेरणा स्रोत पुराण और गीता को मानते हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार, “गीता और भागवत् को तो भक्ति का मूल स्रोत ही माना जाता है और जब तक यह प्रमाणित नहीं हो जाता है कि इन ग्रन्थों की रचना दक्षिण भारतीय कृषि-मुनियों ने की थी, तब तक तो यही माना जायेगा कि भक्ति का मूल उत्तर भारत में रचे गये इन ग्रन्थों में ही मिलता है।”

आलवार सम्प्रदाय की भक्तिवाद – डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार- “भक्ति की जो लहर उत्तर भारत में 14वीं शताब्दी के बाद दिखाई पड़ती है उसका मूल स्रोत दक्षिण की वैष्णव भक्ति में है। दक्षिण में वह परम्परा बहुत प्राचीन काल से आलवार सम्प्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित थी। आलवारों का भक्ति सम्प्रदाय बहुत उदार था, उसमें छुआछूत आदि के जटिल बन्धन नहीं थे। उनका भक्तिवाद, जनसाधारण की वस्तु नहीं था। बाद में आचार्यों द्वारा शास्त्रानुमोदित होकर यह उत्तर भारत में फैल गया। उत्तरी भारत में जो पौराणिक धर्म भावना पहले ही विद्यमान थी वह शास्त्रानुमोदित होकर शक्तिशाली रूप में प्रकट हुई। धीरे-धीरे बहु अवतारवाद ने जोर पकड़ा और एकान्तिक प्रेम-साधना का प्रचार हुआ। अवतारों का लीला-गान उनकी उपासना का स्वरूप था। उसके लिए प्रत्येक सम्प्रदाय के भक्तों ने भगवान् के किसी विशेष अवतार से एकान्तिक भाव का सम्बन्ध स्थापित किया। दो प्रमुख आचार्य रामानन्द और वल्लभाचार्य ने दो अवतारों राम और कृष्ण की महत्ता प्रतिपादित करके दो भक्ति शाखाओं का प्रवर्तन किया। इन दो महान आचार्यों ने अपने मतवाद की शास्त्रीय भूमिका तैयार करके अपने मत को सुदृढ़ सम्प्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित किया जिसकी परम्परा बाद में भी चलती रही।”

भक्ति भावना का विकास-

डॉ. राजनाथ शर्मा की मान्यता है कि, “दक्षिण की इस वैष्णव भक्ति धारा ने उत्तर में आकर तीन भिन्न स्वरूप धारण किये। प्रथम धारा सिद्धों और नाथों से होती हुई कबीर आदि की वाणी में एक भिन्न रूप में प्रकट हुई तो मिथिला और बंगाल में शाक्त सम्प्रदाय तथा तान्त्रिकों में सम्पर्क में आकर जयदेव, विद्यापति और चण्डीदास के पदों में मधुर और सरस हो उठी। अपने तीसरे रूप में उसने राम और कृष्ण की विभिन्न लीलाओं से अपने भक्तों को मुग्ध किया।

इस भक्ति आन्दोलन की धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि को भी समझ लेना आवश्यक है जिसकी चर्चा अगले प्रश्न में संक्षेप में की जा रही है।

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Anjali Yadav

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