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भक्तिकाल की दार्शनिक और धार्मिक पृष्ठभूमि

भक्तिकाल की दार्शनिक और धार्मिक पृष्ठभूमि
भक्तिकाल की दार्शनिक और धार्मिक पृष्ठभूमि

भक्तिकाल की दार्शनिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का उल्लेख कीजिए।

वैदिक धर्म का मूल दो रूपों में विकसित हुआ- शैव मत आर वैष्णव मत। ये दोनों ही मत भक्ति भाव से परिपूर्ण थे। वैदिक धर्म की भी कई उपशाखायें हो गयीं, जिनमें से भागवत धर्म और पांचरात्र मत प्रमुख रूप से सामने आये इसी से विष्णु की उपासना का क्रमिक विकास हुआ। विष्णु पट्-ऐश्वर्यों से सम्पृक्त होने के कारण ‘भगवत्’ कहे गये और उनके उपासक ‘भागवत्’ कहलाये। आगे चलकर महाभारत काल तक आते-आते विष्णु और वासुदेव कृष्ण का एकीकरण हो गया। चूँकि कृष्ण के यादव वंश को ‘सात्वत वंश’ भी कहा गया अतः ‘भागवत् मत’ को यह नाम भी प्राप्त हुआ। इसके भी पुष्ट प्रमाण हैं कि ये सात्वत मतावलम्बी दक्षिण भारत में भी अपने मत का प्रचार करने गये थे, गीता इनका प्रधान ग्रन्थ है। भागवत धर्म का चरम लक्ष्य एकान्तिक भक्ति है।

वैष्णव मत से ही पांचरात्र मत विकसित हुआ। इसके उपास्य वासुदेव ही रहे, पर इसमें सगुण और निर्गुण दोनों रूपों को स्वीकार किया गया। डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार – “इसका मूल उद्देश्य भक्ति के साधन मार्ग का निरूपण करना रहा और दुःखमय संसार से मुक्ति पाने के लिए भक्ति को ही एकमात्र साधन माना गया। इस भक्ति की प्राप्ति के लिए भगवान् की शरणागति अथवा प्रपत्ति को ही प्रधान साधन स्वीकार किया गया। पांचरात्र मत के उपासकों को शरणागति केवल मानसिक भावनाहीन रहकर उसका व्यावहारिक जीवन में विधिवत् अनुष्ठान करना अनिवार्य बन गया। इस मत के इस रूप के कारण ‘भक्ति’ ने एक लोकधर्म का स्वरूप धारण कर लिया और ‘शरणागति’ की इसी भावना को लेकर परवर्ती आचार्यों ने भक्ति को विकास की चरम सीमा तक पहुँचा दिया।

भक्तिकाल की चार प्रमुख शाखाएँ हैं। अतः यहाँ हम संक्षेप में चारों शाखाओं की धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि को अलग-अलग स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं-

रामकाव्य- (अ) धार्मिक पृष्ठभूमि- रामकाव्य सम्बन्धी प्राचीनतम ग्रन्थ ‘वाल्मीकि रामायण’ है, किन्तु उसमें राम के अवतार रूप की प्रतिष्ठा नहीं है। वहाँ राम मात्र पुरुषोत्तम ही हैं। भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ जब अवतारवाद की धारणा बलवती होती गई तो राम ने भी अवतार रूप प्राप्त किया। डॉ. भगवतीसिंह (राम भक्ति में रसिक सम्प्रदाय) के अनुसार- “ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में राम को पूर्ण अवतार का रूप प्राप्त हो चुका था। उसके उपरान्त ‘महाभारत’ और महाभारत के उपरान्त विभिन्न पुराणों में उनके इसी रूप का विस्तृत वर्णन हुआ है। इस स्थान पर राम भक्ति को आलवार भक्ति से बल मिला। 12 अलवारों में से सातवें आलवार राम भक्त माने जाते हैं। अलवार भक्तों के बाद रामभक्ति को बल प्रदानकरने का श्रेय चतुः सम्प्रदायों को है। इनमें से श्री तथा ब्रह्म सम्प्रदाय में रामभक्ति के सूत्र विद्यमान हैं। वैष्णव सम्प्रदायों की इस परम्परा में रामानन्दी सम्प्रदाय प्रवर्तित हुआ। भक्तिकाल की राम भक्ति पर उसका प्रत्यक्ष प्रभाव है।

स्वामी रामानन्द, रामानन्दी सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे, पर कुछ विद्वान इसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं मानते। पं. रामटहल दास और डॉ. बद्रीनारायण श्रीवास्तव के अनुसार रामानन्दी सम्प्रदाय आचार्य रामानुज द्वारा प्रवर्तित श्री सम्प्रदाय का शाखा मात्र है। पर पं. रघुवरदास एवं डॉ. विजयेन्द्र स्नातक के अनुसार रामानन्दी सम्प्रदाय का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व था और उसे श्री सम्प्रदाय की शाखा मात्र नहीं माना जा सकता।

(आ) दार्शनिक पृष्ठभूमि- दर्शन की दृष्टि से रामान्दी सम्प्रदाय में विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन हुआ है। इस सम्प्रदाय के अनुसार मोक्ष का सर्वोत्तम साधन भक्ति है। भक्ति के तीन प्रकार हैं- माधुर्य, शान्त और दास्य। तीनों में उत्कृतम दास्य-भक्ति है। दास्य-भक्ति के अन्तर्गत दीनता ही भक्तों का सबसे बड़ा गुण है। दीनता के दो व्यावहारिक रूप हैं- भगवान् के अवतार की सेवा करना और अपने को असत्य अशौच तथा नीचता आदि का भाजन समझना ।

यह संक्षिप्त विवेचन यह स्वतः स्पष्ट करता है कि इस धार्मिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि ने रामकाव्य को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित किया है। रामकाव्य के सर्वोत्तम कवि तुलसी हैं, उनका काव्य इस पृष्ठभूमि की छाया में ही विकसित हुआ है।

कृष्ण काव्य- (अ) धार्मिक पृष्ठभूमि- कृष्ण, ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में अवतार रूप में स्वीकृत हो चुके थे, पर उन्हें पूर्ण ईश्वरत्व पुराणों में ही प्राप्त हुआ। महाभारत में तो उनका नीति-नियामक रूप ही है। भागवत पुराण और हरिवंश पुराण की भूमिका इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण है। चतुसम्प्रदायों की स्थापना से भगवत् भक्ति को विशेष गति प्राप्त हुई। वल्लभाचार्य के आविर्भाव ने भक्ति भावना को अधिक बल प्रदान किया। उनके प्रवर्तित पुष्टिमार्ग की छाप सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर पड़ी। इनके पुत्र आचार्य विट्ठल ने अष्टछाप की स्थापना की। अष्टछाप के कवियों का हिन्दी साहित्य में कितना महत्व है, यह सर्वविदित है। अष्टछाप के ये कवि है-सुरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, नन्ददास, गोविन्दस्वामी तथा छीतस्वामी।

(आ) दार्शनिक पृष्ठभूमि- दर्शन की दृष्टि से पुष्टिमार्ग में शुद्धाद्वैत का प्रतिपादन हुआ है। पुष्टिमार्गानुसार भगवत्प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन भक्ति है, जिसके दो प्रकार होते हैं-मर्यादा भक्ति और पुष्टि भक्ति। मर्यादा भक्ति वाह्य साधन सापेक्ष होने के कारण अपेक्षाकृत कठिन है, पुष्टि भक्ति बाह्य साधन निरपेक्ष और भगवान् के अनुग्रह मात्र से उत्पन्न हो सकती है जिसमें सहजता और सरलता है अतः इसमें श्रेष्ठता भी है। पुष्टि मार्ग के अनुसार क्योंकि यह सृष्टि-लीला पुरुषोत्तम का लीलाधाम है, इसलिए भक्त का लीला-विलास की ओर उन्मुख हो जाना स्वाभाविक ही है। अष्टछाप के कवियों ने भगवान् कृष्ण की लीलाओं का जो इतने विस्तार के साथ वर्णन किया, उसके मूल में यही भावना रही है।

अतः पुष्टिमार्ग के साधना-सिद्धान्त ही कृष्ण-काव्य के मूल में निहित माने जा सकते हैं।

ज्ञानमागी काव्य- ज्ञानमार्गी काव्य पर चार प्रभावों की चर्चा विद्वानों ने की है-

(अ) सिद्धों का प्रभाव- डॉ. देवीशरण रस्तोगी की मान्यता है कि “ज्ञानमार्गी काव्य की धार्मिक दार्शनिक पृष्ठभूमि का प्राचीनतम आधार 84 सिद्धों का साहित्य है। इनमें से कुछ सहजयान, कुछ वज्रयान के अनुयायी थे। सहजयान ब्राह्माचार की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उपस्थित हुआ और जीवन के सहज रूप को ग्रहण करने के कारण उसमें जीवन की स्वीकृति भी विद्यमान थी। परन्तु वज्रयान ने अर्थ का अनर्थ करते हुए जीवन की स्वीकृति को अतिचार का रूप दे दिया। यह तो हर्ष का विषय है कि हिन्दी के सन्त कवि सहजयानी विचारधारा के ही समीप रहे। सहजयान के प्रमुख तत्व चार थे- चित्त शुद्धि, आत्मनिग्रह में पूर्ण आस्था, रहस्यवाद और समस्त प्रकार के बाह्याचार का विरोध ।

(आ) नाथों की देन – इनका प्रभाव भी हिन्दी की सन्त काव्यधारा पर पड़ा है। इनकी संख्या नौ मानी जाती है। यह बात दूसरी है कि इनके नाम भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं, पर गोरखनाथ का महत्व सर्व-स्वीकार्य है। दार्शनिक दृष्टि से इस पर विवाद है। कुछ विद्वान इसे सहजयान तथा वज्रयान का परिमार्जित रूप मानते हैं, किन्तु डॉ. रामकुमार वर्मा की मान्यता है कि, “नाथ पंथ दार्शनिकता की दृष्टि से तो शैव-मत और व्यावहारिक दृष्टि से पतंजलि के हठायोग के समीप की वस्तु है।” परन्तु डॉ. मोहनसिंह इसे औपनिषदिक मानते हैं; तो डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे बौद्ध-धर्म और शाक्त मत से भी सम्बन्धित मानते हैं। हिन्दी का सन्त काव्य नाथों से कितना प्रभावित हुआ इसका विस्तार सहित उल्लेख डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत ने अपने शोध प्रबन्ध ‘कबोर की विचारधारा’ में किया है। डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार, नाथपंथी साहित्य और हिन्दी के ज्ञानमार्गी काव्य में जिन बातों को समान रूप से प्रमुखता मिली है, वे इस प्रकार हैं-कोरा पुस्तक ज्ञान निरर्थक है, माया के दो रूप हैं-विद्या और अविद्या । सहस्वार में स्थित गगनमण्डल में औंधे मुँह अमृत कुण्ड विद्यमान हैं, उसके अमृत का भोगी बन जाने पर व्यक्ति अजर-अमर हो जाता है आदि-आदि।

(इ) वैष्णवी प्रभाव- ज्ञानमार्गी काव्य वैष्णव धर्म के भी कतिपय तत्वों से प्रभावित हैं। वैष्णव धर्म की प्रपति (शरणागति) की भावना को ज्ञानमार्गी कवियों ने स्वीकार किया है। उसकी अभिव्यक्ति कई स्थलों पर हुई है। डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार, “ज्ञानमार्गी कवियों की रचनाओं में कितने ही स्थलों पर प्रवृत्यात्मक उक्तियाँ भी मिलती हैं। वे भी वैष्णव धर्म की हो देन है। ज्ञानमार्ग की कतिपय उक्तियों में विष्णु और उनकी विभिन्नताओं का भी प्रयोग हुआ है। कितने ही स्थलों पर ज्ञानमार्गी कवियों ने भक्तों का सा विनय तथा समर्पण भाव भी व्यक्त किया है।

(ई) सूफी प्रभाव डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार- “ज्ञानमार्गी कवियों ने सूफी-मत से भी कुछ तत्व ग्रहण किए। उन्होंने ‘प्रेम’ तथा ‘वियोग’ का बड़े मनोयोग तथा विस्तार के साथ वर्णन किया है। यह वर्णन निःसन्देह सुफी प्रभाव की देन है। सूफी मत में इब्न सीना के सौन्दर्यवाद और हल्लाज मंसूर के प्रणयवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी कवियों के प्रेम-वर्णन तथा विरह-वर्णन में इन दोनों प्रभावों को देखा जा सकता है।”

अतः यह माना गया है कि हिन्दी का ज्ञानमार्गी काव्य अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि में बौद्ध-सिद्धों, योगी-नाथों, वैष्णवों तथा सूफियों के प्रेम-भाव से पूर्णतः प्रभावित हुआ है।

प्रेममार्गी काव्य- (अ) धार्मिक पृष्ठभूमि- अरब व्यापारियों के साथ अनेक सूफी सन्त आये जिन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत की जनता में अपने धार्मिक सिद्धान्तों का प्रचार किया। कतिपय सूफी सम्प्रदाय जिनमें से प्रमुख थे, चिश्तिया सुहरावर्दिया, कादिरिया, नक्शबंदिया, मदारिया तथा अद्यमिया। चिश्तिया सम्प्रदाय के मुईनुद्दीन चिश्ती विख्यात सूफी माने जाते हैं। उनका प्रभाव भारत की जनता पर सर्वाधिक था। मुईनुद्दीन के शिष्य ख्वाजा कुतुबुद्दीन काकी और उनके शिष्य फरीदुद्दीन शकरगंज ने हिन्दुओं में भी पर्याप्त मान और आदर प्राप्त किया। इनके शिष्य निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परम्परा में ही मलिक मुहम्मद जायसी थे।

(आ) दार्शनिक पृष्ठभूमि- डॉ. रस्तोगी जी के अनुसार सूफी मत को प्रभावित करने वाले प्रमुख सात तत्व हैं-नास्टिक, मानी, नव अफलातूनी, यहूदी, मसीही, बौद्ध तथा भारत के वेदान्त। सूफी-धर्म के जिस रूप से हिन्दी के प्रेमी कि प्रभावित हुए वह भारत के वेदान्त का समीपवर्ती है। उदाहरणार्थ सूफियों के अनुसार ‘इलाह’ परम सत्ता है। ‘अहद’, ‘वाहिद’, ‘रहमान’ तथा ‘रब्ब’ उसी के क्रमिक विकास हैं। ‘अहद’ से पूर्व की अवस्था में अल्ला को नहीं पहचाना जा सकता। जब वह व्यक्त होने की इच्छा करता है तब उसका ‘अहद’ रूप सामने आता है। यह धारणा वेदान्तियों के ब्रह्मवाद से मेल खाती है।

इसी प्रकार सूफियों की जीव, सृष्टि तथा साधना सम्बन्धी धारणायें भी भारतीय धारणाओं से मेल खाती है। सूफियों की ‘शरीअत’ सबसे पहली साधना सीढ़ी है। उसके मुकाम हैं-तोबा, नहद, सब, शुक्र, रिआज, खौफ, तवक्कुल, रजा, फिक्र तथा मुहब्बत। उसके बाद साधक को मुरशिद की जरूरत पड़ती है। मुरीद में सच्ची लगन पैदा हो जाने पर मुरशिद उसे जेहाद की शिक्षा देता है। सफलता प्राप्त हो जाने पर मुरीद ‘आरिफ’ बन जाता है, जिसे सूफी साधना की तीसरी सीढ़ी माना जा सकता है। फिर ‘विरह’ ही उसकी साधना हो जाती है, जिसका अन्त महामिलन में होता है। शनैः-शनैः फना’ की दशा में पहुँचकर साधक ‘अनअलहक’ की स्थिति में पहुँच जाता है। जो अन्तिम सीढ़ी है। डॉ. रामरत भटनागर ने इस साधना-सोपान को भारतीय चिन्तन में क्रमशः कर्म-काण्ड, उपासना-काण्ड, ज्ञान-काण्ड तथा भक्ति काण्ड माना है।

इस प्रकार यह माना जा सकता है कि प्रेममार्गी काव्य सूफी सिद्धान्तों से तो प्रभावित हैं ही, साथ ही उस पर भारतीय चिन्तन की भी छाया है।

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Anjali Yadav

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