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सन्त काव्य की विशेषताएँ

सन्त काव्य की विशेषताएँ
सन्त काव्य की विशेषताएँ

सन्त काव्य की प्रमुख सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए ।

सन्त काव्य की विशेषताएँ

सन्त काव्य में वाटिका का श्रम साध्य अथवा कृत्रिम सौन्दर्य नहीं, उसमें वनराज की प्रकृति भी है। इस काव्य में अध्यात्मिक विषयों की अभिव्यक्ति हुई है पर वह जनजीवन में डूबी हुई अनुभूतियों से सम्पन्न है। सन्त काव्य ने अनेक धार्मिक संप्रदायों के प्रभाव को आत्मसात् किया है किन्तु इसमें धर्म अथवा साधना की कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं बल्कि जन भाषा में उसका मर्म है। इस काव्य में जनजीवन के सत्य की अभिव्यक्ति अलंकारविहीन सीधी-सादी भाषा में है जहां पग-पग पर स्वाधीन चिन्तन प्रतिफलित हुआ है। सन्त साहित्य साधना, लोक-पक्ष तथा काव्य-वैभव, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। नाथ संप्रदाय की पद्धति शास्त्रीय थी और साधना व्यक्तिगत थी किन्तु सन्त संप्रदाय की पद्धति स्वतंत्र और साधना सामाजिक थी। सन्त कवियों की विचारसरणि निजी अनुभूतियों पर आधृति है, अतः उसमें दर्शन की शुष्कता न होकर काव्य की कोमलता है। सन्त साहित्य में एक अद्भुत विचारगत साम्य है। निम्नांकित पंक्तियों में सन्त साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख किया जायेगा-

(1) निर्गुण ईश्वर में विश्वास- सभी सन्त निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं। ये कवि सूर और तुलसी के समान सगुण और निर्गुण के समन्वयवादी नहीं। इन्होंने ईश्वर के सगुण रूप का विरोध किया है। कवि का कहना है-

दसरथ सुत तिहुं लोक बखाना,

रामनाम का मरम है आना।

सभी वर्णों और समूची जातियों के लिए वह निर्गुण एकमात्र ज्ञानगम्य है। वह अविगत हैं । वेद, पुराण तथा स्मृतियां जहाँ तक नहीं पहुंच सकती –

निर्गुण राम जप रे भाई, अविगत की गति लखी न जाई।

वह ब्रह्म पुहुप वास से पातरा है, अजन्मा और निर्विकार है। यह सारा संसार उस अक्षय पुरुष रूपी पेड़ के पत्ते के समान है। वह ईश्वर घट-घट में विराजमान है। कबीर का कहना है जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में रहती है और वह व्यर्थ ही उसे वन में ढूँढने के लिए भटकता फिरता है, उसी प्रकार राम घट-घट व्यापी है, उसे बाहर ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं। प्रियतम इनके दिल में है, अतः उसे पातियां लिखना व्यर्थ है । प्रायः प्रत्येक सन्त ने अपने मत के प्रचारार्थ अपना-अपना संप्रदाय चलाया।

(2) हठयोग की प्रधानता – संति कवि नाथ पन्थ के हठयोग से प्रभावित थे, जिससे इनके काव्य में हठयोग की प्रधानता रही। हठयोग के आधार पर योगी प्राणायम द्वारा मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी को जगाते हैं जो जाग्रत अवस्था में षट् चक्रों को पार कर ब्रह्म में स्थित सहस्र दल कमल पर पहुँच जाती है। यहाँ वह चंद्र-विम्ब से निरंतर झरने वाले अमृत का पान करती हैं और परम दिव्य अनहद नाद श्रवण कर ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हैं।

(3) बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध- सन्त कवियों ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद पर अविश्वास प्रकट करते हुए इस भावना का निर्भीकतापूर्वक खंडन किया है। कारण, एक तो शंकर के अद्वैतवाद का प्रभाव शेष था और दूसरे इसकी राजनीतिक आवश्यकता भी थी। शासक वर्ग मुसलमान एकेश्वरवादी था। हिन्दू-मुस्लिम दोनों जातियों में विद्वेषाग्नि को शांत करके उनमें एकता की स्थापना के लिए इन्होंने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया और बहुदेववाद का घोर विरोध किया-

यह सिर नवे न राम कूं, नाहीं गिरियो टूट।

आन देव नहिं परसिये, यह तन जाये छूट ॥

-चरनदास

सन्तों का विश्वास है कि अवतार जन्म-मरण के बंधन में मस्त है। वे भी परम ब्रह्म की भक्ति प्राप्त नहीं कर सकते। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सभी सन्तों ने निन्दा की है और उन्हें मायामस्त कहा है। उनका भी कर्ता निराकार परम ब्रह्म है-

अक्षय पुरुष इक पेड़ है, निरंजन बाकी डार ।

त्रिदेवा शाखा भये पात भया संसार ।।

-कबीर

(4) सद्गुरु का महत्व – गुरु को भगवान से भी अधिक महत्व देना सन्त कवियों की एक सर्वमान्य विशेषता है। कबीर के शब्दों में-

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाइ।

बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताइ ।।

इन पंक्तियों का विश्वास है कि राम की कृपा भी तभी होती है जब गुरु की कृपा होती है। यों तो गुरु की महत्ता सगुण भक्त कवियों में भी मिलती है पर अन्तर यह है कि सन्त कवि गुरु को परमेश्वर भी मान लेते हैं। सारांश यह है कि निर्गुण भक्त कवि सगुण भक्त कवियों की अपेक्षा गुरु को अधिक महत्व देते हैं।

(5) जाति-पांति के भेद-भाव का विरोध- सभी सन्त कवि जाति-पांति और वर्ग-भेद के प्रबल विरोधी हैं। ये लोग एक सार्वभौम मानव धर्म के प्रतिष्ठापक थे। इनकी दृष्टि में भगवद्भक्ति में सबको समान अधिकार है-

जाति पांति पूछे नहिं कोई,

हरि को भजे सो हरि का होई।

इसका विशेष कारण यह है कि एक तो सभी सन्त निम्न जाति से सम्बन्ध रखते थे- कबीर जुलाहे थे, रैदास चमार थे। इसके अतिरिक्त भक्ति आंदोलन भी जाति-भेद एवं वर्ग-भेद को तुच्छ ठहरा रहा था। इसके साथ इन सन्तों को हिन्दू-मुसलमानों में एकता स्थापित करने के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग की प्रतिष्ठा भी करनी थी। इस भेद के निवारणार्थ इनके स्वर में अत्यंत प्रखरता और कटुता आई-

अरे इन दाउन राह न पाई ।

हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाई ॥

-कबीर

इसी प्रकार है-

तू ब्राह्मण हो काशी का जुलाहा चीन्ह न मोर गियाना ।

तू जो बामन बामनी जाया और राह है क्यों नहीं आया ।।

(6) रूढ़ियों और आडम्बरों का विरोध- प्रायः सभी सन्त कवियों ने रूढ़ियों, मिथ्या आडम्बरों तथा अन्धविश्वासों की कटु आलोचना की है। इसका कारण इन लोगों का सिद्धों और नाथपंथियों से प्रभावित होना है। ये लोग तत्कालीन समाज में पाई जाने वाली इन कुप्रवृत्तियों का कड़ा विरोध कर चुके थे। इन्होंने मूर्तिपूर्जा धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा, तीर्थ, व्रत, रोजा, नमाज, हज आदि विधि-विधानों, बाह्य आडम्बरों, जाति-पांति के भेद आदि का डटकर विरोध किया है। प्रायः इन्होंने अपने युग के वैष्णव संप्रदाय को छोड़कर शेष सभी धर्म संप्रदायों की कटु आलोचना की है, जैसे-

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।

जे जन बकरी खात है, तिन को कौन हवाल ॥

कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय ।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाय ।।

पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार ।

ताते वह चक्की भली पीस खाय संसार ।।

कदाचित् इस भर्त्सनामय खण्डनात्मकता के कारण कबीर को सिकन्दर लोधी द्वारा दी गई यन्त्रणाओं को भी सहना पड़ा और इसी कारण इनसे हिन्दू और मुसलमान दोनों चिढ़ गये थे।

(7) रहस्यवाद – सन्त संप्रदाय में प्रेमासक्ति और रहस्यमयता की प्रवृत्तियां विट्ठल संप्रदाय से आई। प्रणयानुभूति के क्षेत्र में पहुंचकर ये खंडन-मंडन की प्रवृत्ति को भूल जाते हैं और इनका मृदुल एवं पेशल हृदय तरल हो जाता है। विरहानुभूतियों की अभिव्यक्ति में इन्हें पर्याप्त सफलता मिली है। सन्त काव्य में मुख्यतः अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना हुई जिसे रहस्यवाद की भी संज्ञा दी गई है। साधना के क्षेत्र में जो ब्रह्म है, साहित्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है। सन्तों का रहस्यवाद शंकर के अद्वैतवाद से प्रभावित है-

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है भीतर बाहर पानी।

फटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तत कथौ गयानी ।।

कहीं पर इनके रहस्यवाद पर योग का भी स्पष्ट प्रभाव है जहां कि इंगला, पिंगला और सहस्रद ल कमल आदि प्रतीकों का प्रयोग है। उपर्युक्त दोनों प्रकार की ब्रह्मानुभूति योगात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत आयेगी। इनमें विशुद्ध भावात्मक रहस्यवाद भी मिलता है, जहाँ प्रणयानुभूति की निश्छल अभिव्यक्ति हुई है-

आई न सकौ तुज्झ पै, सकूं न तुज्झ बुलाई।

जियरा यों ही लेहगे विरह तपाई तापड़ ।

कुछ विद्वानों ने इनके रहस्यवाद को सूफी मत से प्रभावित माना है किन्तु हमारे विचारानुसार इस दिशा में सूफियों का कोई प्रभाव नहीं है। इन दोनों की प्रणय-भावना में मौलिक अन्तर है, जिसमें साम्य की अपेक्षा वैषम्य अधिक है। सन्तों का रहस्यवाद बिल्कुल भारतीय परम्परा के अनुकूल है।

(8) भजन तथा नाम- स्मरण के विषय में सभी सन्त कहते हैं कि वह मन ही मन में होना चाहिए। प्रगट में न हो-

सहजो सुमरिन कीजिये हिरदै माहिं छिपाइ

होठ होठ सूं ना हिलै सकै नहीं कोइ पाइ ।।

इन लोगों ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए प्रेम और नाम-स्मरण को परमावश्यक माना है। वेद-शास्त्र इस सम्बन्ध में निरर्थक है-

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोई।

ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होइ ॥

(9) सूफियों के प्रभाव से विरह की तीव्र वेदना- सूफियों के प्रभाव से जहाँ इनके काव्य में विरह की तीव्र वेदना व्यक्त हुई है, वहीं इनका सारा अक्खड़पन एवं रूक्षता धुल गई है। वस्तुतः इनकी प्रणयोक्तियों में सूर का जैसा रस और मीरा की जैसी उत्कट विरह भावना है-

आइ न सकौं तुज्झ पै, सकु न तुज्झ बुलाइ

जयरा यों हो लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ ।।

(10) दार्शनिकता – सन्त मार्गी शाखा के कवियों ने दर्शन शास्त्र के ग्रन्थों का अनुशीलन नहीं किया था और न ही उसका उद्देश्य दार्शनिक समस्याओं का हल ढूँढना था। वे बहुश्रुत थे और इसीलिए भारतीय षड्-दर्शन, बौद्ध धर्म सूफी सम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय आदि के सिद्धान्तों से उन्हें सहज परिचय प्राप्त था। कागज की लेखनी के स्थान पर वे ‘आँखिन की देखी’ में अधिक विश्वस रखते थे। और इसीलिए उनकी रचनाओं में व्यक्तिगत अनुभूतियों की प्रधानता है। फलतः उनके काव्य-ग्रन्थों में ब्रह्म, जीव माया और जगत-सम्बन्धी जो विचार प्रस्तुत किए गये थे, वे दर्शन विशेष की निधि नहीं है।

संतमार्गी शाखा के कवियों ने ब्रह्म को निर्गुण एवं निराकार माना है तथा उसे सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त बतलाया है। वह वर्णनातीत, अगम्य तथा कल्पनीय है। उसे प्राप्त करने के लिए गुरु का आश्रय लेना पड़ता है। गुरु द्वारा दिये गये ज्ञान-प्रकाश से साधक उसे प्राप्त करने में समर्थ हो पाता है।

सन्तमार्गी कवियों ने जीव तथा ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं माना है। दोनों का ठीक वही सम्बन्ध है जो जल और जल की तरंगों में होता है। लेकिन माया के जाल में फंस जाने के कारण जीव अविद्या एवं अज्ञान के वशीभूत हो जाता है तथा ब्रह्म को भूल जाता है। इस अज्ञान को दूर करने के लिए जीव को सतगुरु का आश्रय लेना चाहिए।

संतमार्गी कवियों ने माया को भ्रम का जाल फैलाने वाली तथा जीव को सत्पथ से हटाने वाली माना है। इसका चित्रण कंचन तथा कामिनी के रूप में किया गया है। इसके साथ ही संसार की सभी आकर्षक वस्तुएं माया के प्रतीक के रूप में विचित्र की गई हैं। माया को डाकिनी तथा ठगिनी के रूप में भी चित्रित किया गया है। सत्संग तथा भक्ति को मायापाश से छुटकारा दिलाने वाला स्वीकार किया गया है।

सन्त कवियों के मतानुसार जो कुछ भी दृश्यमान है, वहीं जगत है। इसे नश्वर, चंचल स्वीकार किया गया है। जीव माया के द्वारा प्रसित हो जाने पर इसी नश्वर संसार में विचरण करने लगता है तथा ब्रह्म को भूल जाता है।

(11) शृंगार वर्णन एवं विरह की मार्मिक उक्तियां- सन्त काव्य में शृंगार तथा शांत रस का अधिक चित्रण हुआ है। प्रणय की दोनों अवस्थाओं-संयोग और वियोग का अत्यंत कलात्मक वर्णन हुआ है। उपदेशपरक सूक्तियों में शांत रस की व्यंजना हुई है। उपदेशों में कहीं-कहीं इनका स्वर बहुत ही कर्कश हो गया है किन्तु वहां भी लोक-संग्रह की भावना निहित है। सन्त वाणियों का काव्य पक्ष उनकी प्रणयोक्तियों में ही यथार्थ रूप से निखर पाया है। इस प्रसंग में इनके व्यक्तित्व की सारी अक्खड़ता और रूक्षता धुल जाती है। नीचे की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं। इनमें सूर जैसा रस तथा पीर जैसी विरह की तीव्रता है-

विरहिन ऊभी पंथ सिर पंथी बूझे धाड़ ।

एक शब्द कहि पीव का कब रे मिलेंगे आई ।।

आई न सकौ तुज्झ पै, सकूं न तुज्झ बुलाइ।

जियरा यों ही लेहुगे विरह तपाइ तपाइ ॥

सन्त साहित्य में संयोग पक्ष के अन्तर्गत रूपाकर्षण जन्मानुराण, प्रिय-मिलनातुरता, आगतपतिका का हर्षोल्लास, प्रथम समागम-भीता नवोढ़ा की लज्जा, रस-रंग में एकात्मकता, स्वाधीनपतिका का सहज दर्प, अभिसारिका की मिलनोत्कंठा, वासकसज्जा की प्रिय प्रतीक्षा, झूला झूलना आदि का हृदय वर्जक वर्णन मिलता है। इस काव्य में वियोग पक्ष में प्रवत्स्यत् पतिका का प्रिय को विदेश गमन से रोकना, विरह जनित काम दशाओं का वर्णन, काग आदि के द्वारा प्रियतम का संदेश प्रेषण आदि उल्लिखित हैं। अस्तु । कबीर आदि सन्तो का शृंगार रस चाहे लौकिक हो अथवा अलौकिक, उसमें एक अनुपम रस है। वह अपने लौकिक रूप में घर-गृहस्थियों के लिए जितना आह्लादक है, अपने अलौकिक रूप मेंवह उतना ही मुमुक्षुजनों के लिए आनन्ददायक है। इनका शृंगार उनके (सन्तों) व्यक्तित्व, धर्म और दर्शन के समान कुछ विलक्षण तथा निराला है। एक ओर जहां वह अपने परिष्कृत रूप में लोक-सीमाओं को छूता है तो दूसरी ओर वह ऊर्ध्वप्रयाण की बलवती प्रेरणा भी देता है। उसमें दिव्य-रस की आर्द्रता है, वासना की आविलता नहीं।

(12) लोक-संग्रह की भावना- इस वर्ग के सभी कवि पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाले थे, नाथपंथियों की भांति योगी नहीं थे। यही कारण है कि इनकी वाणी में जीवनगत अनुभव की सर्वांगीणता है, सन्तों की साधना में वैयक्तिकता की अपेक्षा सामाजिकता अधिक है। सन्तों ने आत्म शुद्धि पर बहुत बल दिया है किन्तु वह भी समाज को दृष्टि में रखकर चली है। नाथ संप्रदाय की साधना व्यक्तिगत और पद्धति शास्त्रीय थी, जबकि सन्तों की साधना सामाजिक ओर पद्धति स्वतंत्र है। जहां एक ओर ये लोग, सन्त कवि और भक्ति आंदोलन के उन्नायक हैं वहीं समाज सुधारक भी। आलोचकों का कबीर को अपने युग का गांधी युग कहना सर्वथा उपयुक्त है। सन्तों ने कृष्ण-कवियों के समान समाज और राजनीति के प्रति आंखें नहीं मूंद रखी थीं । सन्त काव्य में उस समय का समाज प्रतिबिम्बित है। कर्मण्यता इनकी वाणी का सार है।

(13) नारी के प्रति दृष्टिकोण- सन्त कवियों ने नारी को माया का प्रतीक माना है। उनके विश्वासानुसार कनक और कामिनी ये दोनों दुर्गम घाटियां हैं। कबीर का कहना है कि-

नारी की झाई परत अन्धा होत भुजंग।

कबिरा तिनकी कहा गति नित नारी के संग ॥

आश्चर्य का विषय है कि जहां एक ओर इन्होंने नारी की इतनी निन्दा की है, वहीं दूसरी ओर सती और पतिव्रता के आदर्श की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। कबीर का कहना है-

पतिव्रता पैली भली, कानी कुचित कुरूप ।

पतिव्रता के रूप पर वारों कोटि सरूप ।।

लगता है पतिव्रता का आदर्श उनकी साधना के निकट पड़ता था। सन्तों में एक के प्रति आसक्ति और शेष के प्रति विरक्ति, असीम प्रेम, साहस और त्याग आदि की जो भावनाएं हैं, उनसे वे प्रभावित थे। उन्होंने नारी के कामिनी रूप को माया माना है और इसे निन्दनीय कहा है। सभी सन्त जीवन में सत् पक्ष के ग्रहण के पक्षपाती थे और असत् से उन्हें उत्कट घृणा थी। यही कारण है कि वे दुर्जन, खर और शाक्तों की भरसक निन्दा करते हैं।

(14) माया से सावधानता- माया से सावधान रहने का उपदेश सभी कवियों ने दिया है। क्योंकि रमैया की दुल्हन ने सब बाजार को लूट लिया है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उसी के वशीभूत हैं। यह भगवान से मिलने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यह माया महाठगिनी है। इसने मधुर वाणी बोलकर अपनी तिरगुन फांस में सबको फंसा लिया है।

(15) प्रकृति-चित्रण- सन्त कवियों ने प्रकृति का चित्रण उद्दीपनात्मक आलंकारिक तथा उपदेशात्मक रूप में किया है। कहीं-कहीं दार्शनिक तथ्यों के कथन के हेतु भी प्रकृति का आश्रय लिया गया है। निम्नलिखित अवतरणों में पानी के बुलबुलों तथा प्रभातकालीन तारों के माध्यम से मानव जीवन की निस्सारता पर प्रकाश डाला गया है-

“पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात ।

देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात ।। “

(16) भाषा-सन्त- मार्गी शाखा के लगभग सभी कवि अनपढ़ थे। अतः उनकी रचनाओं में भाषा का वह उत्कर्ष सम्भव नहीं जो अन्य व्यक्तियों की रचनाओं में देखने को मिलता है। उन्होंने तो अपने भावों को जन साधारण की बोल-चाल की भाषा में अभिव्यक्त किया है। संत-मार्गी शाखा के कवि अपने मत का प्रचार करने के लिए सदा एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते रहते थे। इसके परिणामस्वरूप उनकी भाषा में प्रांतीय शब्दों की अधिकता हो गई है। ब्रजभाषा, खड़ीबोली, भोजपुरी, राजस्थानी, पंजाबी, बुन्देलखण्डी आदि विभिन्न भाषाओं के शब्दों का सम्मिलन हो गया है। लेकिन उनके काव्य में प्रयुक्त इस बोल-चाल की भाषा के कारण भागवत अस्पष्टता नहीं आने पाई है। इन कवियों की रचनाओं में अनेक स्थानों पर योगदान आदि से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। शून्य, अहनद, पिंगला आदि अनेक पारिभाषिक शब्द- काव्य में मिलते हैं।

(17) शैली- इस शाखा के कवियों ने काव्य-सृजन करते समय मुक्तक काव्य-शैली का आश्रय लिया है। सम्पूर्ण सन्तमार्गी साहित्य में एक भी प्रबन्ध-काव्य की रचना नहीं की गई। मुक्तक काव्य-शैली के अन्तर्गत भी प्रगति तत्व की प्रधानता है। संत-मार्गी शाखा के सभी कवियों की रचनाओं में प्रगति काव्य के अनिवार्य तत्व तथा वैयक्तिकता, रागात्मकता, संक्षिप्तता, संगीतात्मक आदि परिलक्षित होते हैं इनके अतिरिक्त इन कवियों की रचनाओं को शब्द (पद) तथा साखी (दोहा) शैली में लिखा हुआ भी माना जाता है। गुरु के शब्दों में ही सच्चा उपदेश है। फलतः पदों का नाम शब्द है और शुद्ध मन से बात कहना ही ईश्वर से समक्ष साक्षी (साखी) है। अतः दोहों का नाम साखी है। इन शब्दों और साखियों में उन्होंने जीवन में घटित होने वाले अनेक उदाहरण दिये हैं जो रूपक कहे जाते हैं। अतः इन कवियों की रचना शैली को रूपक-शैली भी कहा जाता है।

(18) रस योजना- सन्त कवियों का मूल उद्देश्य पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति करना था। यही कारण था कि उनकी रचनाओं में शांत-रस की प्रमुखता रही हैं। शाँत रस के अतिरिक्त शृंगार रस को भी उनके साहित्य में स्थान मिला है। लेकिन शृंगार रस शांत-रस के सहायक रस के रूप में प्रयुक्त हुआ है। श्रृंगार के अतिरिक्त वीर, करुण और अद्भुत रसों का समावेश भी सहायक रसों के रूप में किया गया है। वीर रस की योजना उस समय की गई है जब उन्होंने शाधक को शूरवीर के रूप में देखा है। तथा सांसारिक कष्टों एवं मृत्यु को चित्रित करते समय करुण रस का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति तथा उसके विस्तार सम्बन्धी पदों में स्वतः ही अद्भुत रस की व्यंजना हो गई है।

(19) अलंकार-योजना- सन्त मार्गी शाखा के कवियों को काव्यशाखा का कोई ज्ञान नहीं था। फलतः उनके काव्यों में अलंकारों की खोज करना उनके साथ अन्याय करना है। फिर भी उनकी रचनाओं में रूपक, अन्योक्ति, उपमा आदि अलंकारों का सहज समावेश है। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि महात्मा कबीरदास विरचित निम्नोद्धृत पद में रूपक अलंकार का प्रयोग अवलोकनीय है-

“झोन झीनी बीनी चदरिया ।

हाहे के ताना कहो के भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया ।।

इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया । “

(20) छन्द योजना- सन्तमार्गी शाखा के कवियों को छन्द शास्त्र का कोई ज्ञान नहीं था। अतः उनकी रचनाओं में छन्द-वैविध्य के दर्शन नहीं होते। इस दिशा में उन्होंने केवल दोहा छन्द का ही प्रयोग किया है। सन्त काव्य सामाजिक, धार्मिक राजनीतिक तथा साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बन पड़ा है। जिस युग में इस काव्य की सृष्टि हुई वह अज्ञान, अशिक्षा और अनैतिकता का युग था। सन्तों को पीयूषवर्षिणी उपदेशमयी वाणी ने उसमें एक दृढ़ नैतिकता की प्रतिष्ठा की। सन्त संप्रदाय ने धर्म का ऐसा स्वाभाविक निश्छल, व्यावहारिक तथा विश्वासमय रूप जन भाषा में उपस्थित किया जो कि विश्व धर्म बन गया और वह अब भी जन-जीवन में पुनः जागरण का पावन संदेश दे रहा है। सन्त साहित्य ने जन-जीवन को धर्म-प्रवण एवं आशामय बनाया। इस दृष्टि से सन्त साहित्य का सांस्कृतिक मूल्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं।

काव्य की दृष्टि से भी सन्त साहित्य का अपना अलग महत्व है। अपनी अनुभूतियों को सहज स्वाभाविक भाषा में अभिव्यक्त करके उन्होंने काव्य के सच्चे स्वरूप का उद्घाटन किया। यदि सत्य को अभिव्यक्ति उत्तम कला का मापदंड हो तो सन्त काव्य अपनी कतिपय न्यूनताओं के रहते हुए भी काव्य कला की कसौटी पर पूरा उतरता है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में, “सच्चे कवि की वाणी में अभिव्यक्ति के साधन स्वतः प्रस्फुटित हो जाते हैं। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण इन कवियों का साहित्य है। ‘भाषा कैसी ही हो भाव चाहिए मित्त’ की उक्ति सन्त काव्य पर पूर्णतः चरितार्थ होती है।” सन्तों को वाणी में जो उपदेश है वह केवल दर्शन का विषय न होकर जीवन रस से ओत-प्रोत है। उसमें अनुभूति सौष्ठव और जीवन का अमर संदेश है। आत्मिक रस आशावाद और आत्माभिव्यक्ति की जीवन्त शक्तियाँ सन्त वाणी में निहित हैं। सन्त कवियों ने साहित्य को सत्य, सौन्दर्य और शिव से संपन्न किया है।

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Anjali Yadav

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