संत काव्य पर पड़ने वाले विविध सम्प्रदायों के प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
सन्त काव्य की विकास परम्परा में निम्नांकित संप्रदायों ने योगदान दिया-
सिद्ध और जैनों का साहित्य- सिद्ध साहित्य की अनेक प्रवृत्तियां सन्त साहित्य में विकसित हुईं, जैसे जाति-भेद, रूढ़ियों, अंध-विश्वासों तथा बाह्य आडम्बरों का खंडन, निजी अनुभूतियों की अभिव्यंजना, मुक्तक पद-शैली, रूपक, उलटबांसियों एवं प्रतीकों का प्रयोग। सिद्धों के समान सन्तों ने भी लोक भाषा को अपनाया। सिद्धों के साहित्य में जो स्थूल शृंगारिकता है, वह सन्त साहित्य में नहीं है। कारण, सन्त साहित्य में नैतिक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है, दूसरा सन्तों की साधना-पद्धति व्यक्तिपरक होते हुए भी समाज की उपेक्षा करके नहीं चली। सन्त काव्य पर जैन मुक्तक काव्य का प्रभाव भी देखा जा सकता है।
(ख) नाथ पंथ का प्रभाव- नाथ संप्रदाय का सन्त काव्य पर स्पष्ट रूप से प्रभाव पड़ा। सन्त मत का सीधा विकास नाथ संप्रदाय से हुआ। नाथ पन्थ के अनुयायी शिव की उपासना करते थे। इनके यहां जन्त्र-मन्त्र और योग की क्रियाओं का अधिक – महत्व है। तत्कालीन समाज पर इनकी चमत्कारपूर्ण सिद्धियों का खूब प्रभाव पड़ा। सूफियों के प्रेमाख्यानक काव्यों पर इन योगियों का प्रभाव स्पष्ट है। इनके देशव्यापी प्रभाव को लक्षित करके कदाचित् महाकवि तुलसी को कहना पड़ा था “गोरख जगायो जोग, भक्ति भगायो भोग।” अस्तु । इन योगियों का प्रभाव सन्त काव्य पर पड़ा है। कबीर आदि सन्त कवियों ने इंगला, पिंगला, षट्चक्र, सहस्रदल कमल आदि योग के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, किन्तु हमारा अनुमान है कि सन्तों के योग की श्रमसाध्य क्रियाओं पर कोई आस्था नहीं है, क्योंकि उन्हें जन सामान्य के लिए भक्ति का एक सरल मार्ग प्रस्तुत करना था जिसमें योग की प्रक्रियाओं की जटिलता अवांछनीय थी। सन्तों को अजपाजाप या सहज समाधि पर अगाध विश्वास हैं और वे इसका पुनः पुनः उल्लेख करते हैं। कहीं-कहीं पर तो योग की जटिल प्रक्रियाओं पर इन सन्तों ने मीठे तीखे व्यंग्य भी कसे हैं। सन्त साधना पद्धति के दो पक्ष हैं- भक्ति के अन्तर्गत रहस्यवाद तथा योग के अन्तर्गत सहज समाधि ।
(ग) वैष्णव भक्ति आन्दोलन- रामानुज तथा मध्वाचार्य भक्ति का सैद्धांतिक प्रतिपादन कर चुके थे। रामानन्द उसका उत्तरी भारत में खूब प्रचार कर रहे थे। कबीर रामानन्द की शिष्य परम्परा में थे। अतः सन्त काव्य पर वैष्णवी भक्ति का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। हालांकि दोनों में पर्याप्त तात्विक भेद है। सन्तों ने वैष्णवी भक्ति के प्रपत्तिवाद को पूर्ण रूप से अपनाया है। सगुण भक्ति द्वारा गृहीत ईश्वर के नामों को- राम गोविन्द, हरि आदि को इन रान्तों ने बड़ी श्रद्धा से लिया है। ध्यान रहे अल्ला- ख़ुदा आदि शब्दों का ग्रहण वे हिन्दू-मुसलमान एकता प्रतिपादन के समय ही करते हैं। सन्त काव्य में वर्णित प्रेम बहुत कुछ वैष्णवों के प्रेम से साम्य रखता है। कुछ विद्वानों ने इसे सूफी प्रभाव माना है, जो कि उपयुक्त नहीं है। इस दिशा में यदि कहीं सूफियों का प्रभाव पड़ा है तो वह प्रेम की मादकता में ही। सूफियों का तत्व समानता पर आधारित है जबकि सन्त कवि परमात्मा की अपेक्षा अपने आप को हीन समझता है। सूफियों ने परमात्मा की कल्पना प्रेयसी के रूप में की है जबकि सन्तों ने परमात्मा की कल्पना पति रूप में की है। सन्तों की यह भावना भारतीय परम्परा के अत्यंत अनुकूल है। अहिंसा आदि की प्रवृत्तियाँ भी सन्त काव्य में वैष्णवी भक्ति से आई हैं। सन्तों ने अन्य धर्म-संप्रदायों की आलोचना की है, किन्तु वैष्णवों के प्रति श्रद्धा का प्रदर्शन किया है।
(घ) महाराष्ट्रीय सन्त सम्प्रदाय- सन्त संप्रदाय का बहुत कुछ उत्तरी भारत में उसके प्रचार से पूर्व महाराष्ट्र में तैयार हो चुका था। महाराष्ट्र में बारहवीं तेरहवीं शताब्दी में महानुभाव संप्रदाय तथा वारकरी संप्रदाय की स्थापना हो चुकी थी, जिसकी विचारधारा, साधना-पद्धति और अभिव्यंजना शैली का सन्त काव्य से गहरा साम्य है। महानुभाव संप्रदाय की स्थापना श्रीचक्रधर स्वामी ने (1194-1274) में की थी। उन्होंने एक ओर तो कृष्ण-भक्ति का उपदेश देते हुए जीव, देवता और परमेश्वर आदि को अनादि बताया, दूसरी ओर अद्वैतवाद के सिद्धान्तों को भी स्वीकार किया। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान की उपेक्षा प्रेम को अधिक महत्व दिया। इसी संप्रदाय के साथ ज्ञानेश्वर ने वारकरी संप्रदाय की स्थापना की। ज्ञानेश्वर ने अद्वैतमत, सगुणमत और भक्ति भावना का समन्वय किया। इसी परम्परा में नामदेव हुए। नामदेव का बाद में सगुणवाद से विश्वास उठ गया, जब उन्होंने दक्षिण देश में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मूर्तियों को भग्न होते हुए देखा। इन महाराष्ट्रीय सन्तों में से कइयों ने हिन्दी भाषा में भी काव्य रचना की। भगवान के प्रगति दृढानुराग, मिलनाकांक्षा, प्रणय-निवेदन, अद्वैत-दर्शन का प्रतिपादन आदि बातें महाराष्ट्रीय और हिन्दी सन्त कवियों में समान रूप से मिलती हैं। इन महाराष्ट्रीय सन्तों में नामदेव का नाम कबीर तथा रैदास आदि ने बड़े आदर से लिया है। हमारे विचारानुसार हिन्दी साहित्य में इस परम्परा के प्रवर्तन का श्रेय नामदेव को ही है। यह दूसरी बात है। किनामदेव की वाणी में मृदुता रही है और कबीर में परिस्थितिजन्य अधिक कर्कशता।
(ङ) इस्लाम का प्रभाव- कुछ विद्वानों ने सन्त काव्य की अनेक प्रवृत्तियों- निर्गुणोपासना, वर्ण-व्यवस्था और मूर्ति पूजा विरोध आदि को मुस्लिम प्रभाव बताया है। किन्तु इन सब बातों का विकास भारतीय धर्म-साधना में इस्लाम के प्रचार से पूर्व हो चुका था, जिनका विवेचन हम अनेक संप्रदायों के प्रभाव के अन्तर्गत कर चुके हैं। हाँ, सन्त कवियों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतिपादन अवश्य तत्कालीन परिस्थितिजन्य है। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में, “सन्त मत के खंडनात्मक पक्ष में इस्लाम का अस्तित्व है, उसका मण्डनात्मक पक्ष तो हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन के ही तत्वों से परिपूर्ण है। ईश्वर का गुणगान करते समय वे राम-गोविन्द हरि का नाम लेते हैं, अल्ला या खुदा का नहीं। संसार की असारता घोषित करते हुए वे अद्वैतवाद और माया की बातें करते हैं, मृत्यु के पश्चात् मिलने वाली बहिश्त और आखिरी कलाम की नहीं। विधि निषेधों की चार्चा करते हुए वे हिन्दू शास्त्र का आधार ग्रहण करते हैं, कुरान का नहीं। “
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सन्त काव्य किसी विदेशी साहित्य या अभारतीय धर्म साधनाओं के प्रभाव से विकसित साहित्य नहीं है, अपितु वह तत्कालीन भक्ति आंदोलन से प्रभावित है तथा अपभ्रंश साहित्य की विशेष काव्यधारा का विकसित रूप है। सन्त मत वस्तुतः भक्ति आंदोलन की एक विशेष शाखा है, जिसका नेतृत्व उच्च वर्ग के शिक्षित लोगों के द्वारा न होकर निम्न वर्ग के अशिक्षित वर्ग के द्वारा हुआ।
इन प्रभावों के होते हुए भी सन्त कवियों की विचार-दृढ़ता और मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आया। इन्होंने “सार सार को गहि रहा थोथा दिया उड़ाय” की प्रवृत्ति का सर्वत्र निदर्शन किया है। बहुश्रुत होने के कारण साधु-संगति में बैठकर अपने सामान्य भक्ति मार्ग के लिए जिस तत्व को व्यावहारिक और प्राह समझा, उसका समावेश अपने मत में कर लिया। सन्त मत किसी धर्म विशेष की शास्त्रीय व्याख्या नहीं, बल्कि उनकी सहज अनुभूतियों का सुन्दर समुच्चय है।
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