रीतिकाल की रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्यधारा पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए ।
रीतिकालीन कवियों को स्पष्ट रूप में दो प्रमुख धाराओं या भागों में रखा जा सकता है- एक है रीतिबद्ध और दूसरी है रीतिमुक्त । इन भागों के बीच का एक और उपविभाग किया जा सकता है जिस उपविभाग या धारा में आने वाले कवियों को हम रससिद्ध या रीतिकाव्य-कवि के नाम से अभिहित कर सकते हैं।
रीतिबद्ध (लक्षणबद्ध) काव्य
रीतिबद्ध काव्य लेखक वे हैं जिन्होंने शास्त्र स्थित सम्पादन किया है। इन्होंने संस्कृत के काव्य शास्त्र के आधार पर काव्यांगों के लक्षण देते उनके सुन्दर उदाहरण जुटाये हैं। इन्हें शास्त्र कवि भी कह सकते हैं। इन आचार्य कवियों ने अपने आपको कवि ‘शिक्षक’ के पद से भी अभिहित किया है। इन्होंने उस समय के राजा, रईसों, कवि, समाज तथा रसिक जनों के लिए काव्यांगों का निरूपण किया है। इनका उद्देश्य था संस्कृत साहित्याशास्त्र का हिन्दी में अनुवाद भर प्रस्तुत कर देना, किसी काव्य-सिद्धान्त की प्रतिष्ठा करना नहीं। अतः हिन्दी के लक्षण-ग्रंथों में कोई विशेष गहराई नहीं आ पाई जैसी कि संस्कृत के काव्यशास्त्र में। इन पर संस्कृत साहित्य के रस, अलंकार तथा ध्वनि सम्प्रदायों का प्रभाव पड़ा है। ये एक बंधी बंधाई परिपाटी पर चलते रहे, किसी नवीन मौलिक उद्भावना को जन्म नहीं दे सके। इन्होंने विषय सामग्री चयन में सरल मार्ग का अवलम्बन किया। प्रायः ये नायक-नायिका भेद तथा अलंकार निरूपण में लगे रहे। काव्यशास्त्र की किसी जटिल समस्या को नहीं छुआ और जहां इस दिशा में प्रयास किया भी है वहां असफल रहे हैं। इन आचार्य-कवियों ने काव्यांग निरूपण में पद्यात्मक शैली को अपनाया और इसीलिए उनमें यत्र-तत्र अस्पष्टता आ गई।
रीतिबद्ध आचार्य- कवियों में कवित्व और आचार्यत्व का एक अद्भुत एकीकरण मिलता है। एक ओर तो इन्होंने विशुद्ध लक्षण ग्रंथ लिखे जिनमें पद्यात्मक लक्षण के उपरान्त सरस उदाहरण जुटाये, पर दूसरी ओर इन्होंने लक्षणों के भार से मुक्त शृंगार रस सन्तुलित काव्य-ग्रंथ भी लिखे। परन्तु यहाँ भी इनकी ‘कविता कामिनी’ रीति के भार से कुछ अभिभूत सी हो गयी है। ऐसे ग्रंथों में भी कलापक्ष की प्रधानता है और पच्चीकारी की प्रचुरता है। इसमें पग-पग पर श्रम-साध्यता और यांत्रिकता है। इन ग्रंथों में भी राजदरबारी आचार्य-कवि का उद्देश्य पांडित्य और काव्य-कौशल का प्रदर्शन रहा है। सर्वत्र उसके अहं की प्रधानता है और उसने आलंकारिक शैली में पहेलियाँ बुझाई हैं। इन कवियों में स्वतंत्र भावना का मार्ग मानो अवरुद्ध-सा हो गया था।
इस वर्ग में दो प्रकार के कलाकार हुए। एक तो वे, जिन्होंने लक्षण-ग्रंथ भी लिखे और लक्ष्य ग्रंथ भी इस कोटि में देव, मतिराम, चिन्तामणि, केशव, पद्माकर आदि आते हैं। इनके दोनों प्रकार के काव्यों में रूढ़िबद्धता लक्षित होती है। दूसरे वे हैं जिन्होंने केवल लक्ष्य-ग्रंथ लिखे। ये काव्यशास्त्राभ्यासी पंडित थे, जैसे श्रीपति आदि ।
रीतिसिद्ध कवि या रीतिबद्ध काव्य- ऊपर हम रीतिबद्ध रीतिकालीन साहित्यकारों को दो भागों में विभक्त कर चुके हैं। रीतिबद्ध आचार्य – कवि वे हैं, जिन्होंने लक्षण-ग्रंथ और लक्ष्य-ग्रंथ दोनों लिखें हैं। दूसरा वर्ग है रीतिबद्ध आचार्यों का, जिन्होंने केवल लक्षण-ग्रंथों का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त एक ऐसा वर्ग है जिसके कवियों ने रीति-काव्य की बंधी हुई परिपाटी में आस्था रखते हुए भी लक्षण ग्रंथों का प्रणयन नहीं किया। इन्होंने स्वतंत्र ग्रंथों के द्वारा अपनी कवि-प्रतिभा का परिचय दिया। राजशेखर ने ऐसे कवियों के लिए ‘काव्य-कवि’ के पद का प्रयोग किया है। हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने ऐसे कवियों के लिए रीतिबद्ध शब्द का व्यवहार किया है। आचार्य कवियों ने अपने ग्रंथों में कवि शिक्षक होने की अभिलाषा का स्पष्ट संकेत किया है। पर इन काव्य-कवियों में रीति का बन्धन स्वीकार करने पर भी इस अभिलाषा के ठीक विपरीत कवि-गौरव की अभिलाषा है, आचार्य या कवि शिक्षक होकर वे पाठ्य-ग्रंथ तैयार करने में कोई रुचि नहीं रखते थे। इसी कारण इन कवियों को रीतिबद्ध काव्य-कवि के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इन काव्य-कवियों की एक और विशेषता है कि वे कवित्व के लाभ में चमत्कारपूर्ण उक्तियाँ बांधने में लीन रहते थे। उन्हें अपनी कविता को लक्षण-विशेष के सांचे में ढालने के लिए विशेष चिन्ता नहीं रहती थी। इन्होंने स्वानुभूति के आधार पर मौलिक काव्य की रचना की। स्वतंत्र उद्भावना के लिए जितना अवकाश इन कवियों के पास था उतना रीतिबद्ध आचार्य कवि के पास नहीं था। यही कारण है कि इन कवियों की वैयक्तिकता अपेक्षाकृत अधिक उभरी है। काव्य कवियों ने भावपक्ष और कलापक्ष को समान रूप में महत्व दिया है। इन कवियों की कविता को आत्मा रीति के भार से अधिक आक्रान्त नहीं हुई, क्योंकि इन्होंने स्वतंत्र रूप से लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं की, भले ही कविता की पृष्ठभूमि में कहीं-कहीं रीति- परम्परा काम कर रही है। भावाभिव्यक्ति के लिए इन्होंने भी आलंकारिक शैली का अवलम्बन लिया। बिहारी- रीति-कवियों के इसी वर्ग में आते हैं।
अन्तर
रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों में स्पष्ट रूप में विभाजक रेखा खींची जा सकती है, क्योंकि इन दोनों के उद्देश्यों में पर्याप्त अन्तर है। हिन्दी के कुछ विद्वानों ने बिहारी को रीतिबद्ध आचार्य-कवि सिद्ध करने का प्रयास किया है किन्तु बिहारी रीतिसिद्ध कवि ठहरते हैं। उनकी सतसई के प्रत्येक दोहे में नायक-नायिका भेद या अलंकारों की पृष्ठभूमि बताना ठीक नहीं है। नायिका या अलंकार, रस, ध्वनि आदि का वर्णन तो सभी रीतिबद्ध और रीतिमुक्त कवियों में भी उपलब्ध होता है। घनानन्द, आलम आदि में ये तत्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाते हैं तो उन्हें भी आचार्य कवि कह दिया जायेगा।
रीतिमुक्त धारा – यद्यपि 17वीं शताब्दी के बाद के साहित्य में रीतिबद्ध काव्य लिखने की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बलवती होती गयी, तथापि यह कभी भी नहीं समझना चाहिए कि इस काल में रीतिमुक्त काव्य लिखे ही नहीं गये। रीतिकाल में कुछ ऐसे भी कवि हुए हैं जिन्होंने केशव, मतिराम और चिन्तामणि के समान न तो कोई लक्षण ग्रंथ लिखा और न ही बिहारी की भांति कोई रीतिबद्ध रचना लिखी। ऐसे कवियों की संख्या पचास के लगभग है। इनमें कुछ कवि ऐसे हैं जिन्होंने लक्षणबद्ध रचना नहीं की और जो अपने स्वच्छंद प्रेम की पीर जनता को सुनाते रहे। इनमें घनानन्द, आलम, बोधा और ठाकुर आदि आते हैं। दूसरा वर्ग उन कवियों का है जिन्होंने कथा-प्रबन्धकाव्य लिखे, जैसे लाल कवि का छत्रप्रकाश, सूदन का सुजान चरित आदि । तीसरे वर्ग में दान लीला, मान लीला आदि पर वर्णनात्मक प्रबन्ध काव्य लिखने वाले कवि आते हैं। चौथे वर्ग में रीति संबंधी पद्य और सूक्तियाँ लिखने वाले आते हैं, वृन्द, गिरधरदास आदि। पाँचवें वर्ग में ब्रह्मज्ञान, वैराग्य और भक्ति पर लिखने वाले कवि आते हैं। छठे वर्ग में वीररस के फुटकर पद्य लिखने वाले आते हैं।
उपर्युक्त वर्गों के सभी कवि रीतिमुक्त धारा के अन्तर्गत आयेंगे क्योंकि इन्होंने न तो कोई लक्षण-ग्रंथ लिखा और न लक्षण-ग्रंथों से प्रभावित होकर अथवा बंधकर काव्य-रचना की। इनके काव्यों में भावपक्ष की प्रधानता है। इनकी शैली अलंकारों के अनावश्यक बोझ से भी नहीं दबी है। इनकी कविता में सामाजिक अवहेलना भी नहीं है और न ही रुग्ण शृंगारिकता है। भाषा के क्षेत्र में भी ये अधिक सफाई से उतरे हैं।
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