बिहारी रीतिमुक्त कवि हैं अथवा रीतिबद्ध ? विवेचना कीजिए।
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- आचार्य शुक्ल ने बिहारी को रीतिबद्ध कवियों की कोटि में रखा है और इस प्रकार उनकी गणना रीतिकालीन प्रतिनिधि कवियों में की है न कि स्वच्छंद प्रेम के घनानंद आदि रीतिकालीन फुटकर कवियों में जिन्हें कि रीति मुक्त भी कहा जाता है। इस प्रकार आचार्य शुक्ल बिहारी को रीतिबद्ध कवि मानते हैं जिन्होंने रीति के लक्षण प्रन्य लिखे हैं और उनको रीतिबद्ध कवि मानते हैं; जिन्होंने रीतिकाल में काव्य लिखते समय लक्षण पर ध्यान रखा है।
2. डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी- डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने हिन्दी साहित्य में रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय देते हुए कवियों पर प्रकाश डालने के लिए निम्नलिखित तीन प्रकार के वर्ग विभाजन किया है-
- (क) प्रमुख रीति पंथकार
- (ख) रीतिकाल के लोकप्रिय कवि और
- (ग) रीति मुक्त काव्य धारा
द्विवेदी जी ने बिहारी की गण्ना रीतिकाल के लोकप्रिय कवि के रूप में की है। बिहारी न रीति ग्रंथकार हैं और न ही रीतिमुक्त कवि । एक ओर उनका कहना है कि “इसमें सन्देह नहीं कि स्वयं बिहारी भी रीति ग्रंथों के अच्छे जानकर रहे होंगे” दूसरी ओर उनका विचार है कि “उनके प्रत्येक दोहे में किसी-न-किसी नायिका को खोज लेना यह नहीं सिद्ध करता कि वे रीतिग्रंथ लिख रहे थे। इस बात से केवल यही सिद्ध होता है कि बिहारी के प्रशंसक रीति मनोवृत्ति के सहृदय थे।” बिहारी सतसई पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा है- “वस्तुतः सात सौ या तीन सौ या सौ फुटकर पद्यों के संग्रह के रूप में काव्य-रचना की इस देश में बहुत पुरानी प्रथा है। बिहारी की सतसई किसी रीति-मनोवृत्ति की उपज नहीं है। यह एक विशाल परम्परा का अन्तिम छोर है।” इस प्रकार डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी बिहारी को न तो रीतिमुक्त कवि मानते हैं और न ही उनकी सतसई को रीति मनोवृत्ति की उपज, न तो बिहारी सतसई की गणना रीतिग्रंथों में करते हैं और न उन्हें रीति कवियों के आचार्यत्व को जोड़ते हैं। वे बिहारी को हाल और अमरूक की परम्परा से अधिक सम्बद्ध मानते हैं। उनकी दृष्टि से नायक-नायिका भेद, अलंकार आदि में बिहारी न तो घनानंद, ठाकुर आदि के समान हैं और न ही रहीम, तुलसी की भाँति, न ही हम उनकी गणना मतिराम, देव आदि रीति ग्रन्थकारों में कर सकते हैं। इस प्रकार डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार बिहारी न रीति ग्रन्थकार हैं जो रीतिबद्ध होता है और जिसकी रचना रीति-मनोवृत्ति की उपज होती है और न ही रीतिमुक्त हैं। बिहारी तो सतसई परम्परा के शृंगार कवि हैं जिन्हें हम रीतिकाल का लोकप्रिय कवि कह सकते हैं। उनमें तथाकथित नायिका भेद आदि का क्रम वास्तव में उनके रीतिबद्ध होने का इतना परिचायक नहीं, जितना इस तथ्य का कि उनके आलोचक रीति मनोवृत्ति के थे ।
3. डा० नगेन्द्र- इस संबंध में डा० नगेन्द्र आयार्य शुक्ल के मत से सहमत हैं और बिहारी को रीतिबद्ध कवि स्वीकार करते हैं।
4. डॉ० विजेन्द्र स्नातक- डा० विजयेन्द्र स्नातक ने भी कहा है- “बिहारी सतसई का समस्त रचना-विधान रीति मुक्त न होकर आद्योपांत रीतिबद्ध है। रीति की आत्मा ग्रंथ में इस तरह अनुस्यूत है कि बिहारी को रीति कवियों में प्रमुख स्थान मिला है ।
आचार्य विश्वनाथ – इस संबंध में आचार्य विश्वनाथ मिश्र का मत तनिक भिन्न है। उनके विचार से बिहारी न रीतिबद्ध कवि हैं और न रीति-मुक्त, अपितु रीतिसिद्ध कवि हैं। इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा है- “श्रृंगारकाल में रीतिबद्ध और रीति-मुक्त कवियों से उन कवियों को भी पृथक करना होगा जो रीतिसिद्ध हैं- जिन्होंने रीति की सारी परम्परा सिद्ध कर ली थी अर्थात् रचनाएँ रीति की बंधी परिपाटी के अनुकूल ही की हैं पर लक्षण ग्रंथ प्रस्तुत न करके स्वतंत्र रूप से अपनी रचनायें रची हैं। ये वस्तुतः मध्यमार्गी थे। रीति से बँधे भी थे और उससे कुछ स्वच्छंद होकर भी चलते थे। एक संग्रहकर्ता बिहारी का एक दोहा खंडिता में रखे तो दूसरा धीराधीरा में उनके दोहे कभी किसी एक के द्वारा एक वर्ग में रखे गये हैं और किसी दूसरे के द्वारा किसी दूसरे वर्ग में यह बात सिद्ध कर देती है कि बिहारी रीति की लकीर के फकीर उतने नहीं थे जितने समझे जाते हैं। इस प्रकार के कवियों को, जो रीति विरुद्ध नहीं और लक्षण ग्रंथ से ऐसे भी नहीं बाँधे हैं कि तिल भर उससे हट न सके, भले ही वे रीति की परम्परा को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाते हों, रीति सिद्ध कवि कहना चाहिए। शृंगारकाल में तीन प्रकार के कवि दिखाई देते हैं। रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीति-विरुद्ध रीतिबद्ध कला पक्ष को ही विशेष महत्ता देते थे, रीतिसिद्ध कवियों में कलापक्ष और भावपक्ष समान था और रीति-विरुद्ध या रीति-कर्ताओं में भाव पक्ष प्रधान था, कलापक्ष गौण । बिहारी रीति के प्रतिनिधि माने जाँय पर इस व्यतिरेक के साथ कि उन्होंने रीति के शास्त्रीय बंधन के लिए ही अपनी उक्तियाँ नहीं बिगाड़ी हैं। यह ठीक नहीं है कि बिहारी ने रीति के अंधानुकरण के कारण अपने व्यक्तित्व का लोप ही कर दिया है। बिहारी की स्वकीय विशेषताओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि रीति का अनुगमन करने वाले भी दो प्रकार के थे। एक थे रीतिविद्ध स्वकीय-विशेषता विहीन कवि और दूसरे थे स्वकीय-विशेषता सम्पन्न रीतिबद्ध कवि और बिहारी उनके सिरमौर थे।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के रीतिबद्ध का विवेचन करते हुए द्विवेजी ने लिखा है कि- रीतिबद्ध से ऐसा प्रतीत होता है मानो रीति का ज्ञान होने के कारण बिहारी के दोहों में रीति का प्रतिपादन स्वतः ही हो गया। किन्तु वास्तविकता यह नहीं है। बिहारी ने जानबूझ कर रीति का प्रतिपादन किया है। अतः रीतिसिद्ध कहना एक नई भ्रांति को जन्म देना होगा। पर हम बिहारी को रीतिबद्ध कहकर भी उनके साथ न्याय नहीं कर सकेंगे। उन्होंने अपने काव्य में लक्षणों की परिभाषा नहीं दी। अतः ऐसी स्थिति में उन्हें रीतिबद्ध (देव, पद्माकर आदि) कवियों की पंक्ति में बिठा देना कहाँ तक उचित होगा ? अन्ततः कुछ तो विशिष्टता स्वीकार करनी ही होगी। हमारे विचार से उन्हें या उनके काव्य को ‘रीति समन्वित’ कहना उचित होगा। स्मरण रहे बिहारी ने सतसई के लगभग चार-पाँच सौ दोहे ऐसे हैं, जिनका रीति का कोई सम्बन्ध नहीं। बिहारी ने रीति का समन्वय भी जानबूझ कर लोक रुचि को तुष्ट करने के लिये किया है।”
ऊपर हिन्दी साहित्य के प्रमुख विद्वानों तथा आलोचकों के मतों का विस्तार से विवेचन इसलिए किया गया है कि वस्तु स्थिति का यथार्थ ज्ञान हो सके (प्रश्न यह नहीं की बिहारी को रीतिसिद्ध कहा जाया या रीति समन्वित) प्रश्न यह है कि बिहारी रीतिबद्ध कहे जा सकते हैं या रीति मुक्त।
बिहारी के काव्य में जिस प्रकार नायिका-भेद, नखसिख, अलंकार निरूपण-पद्धति के द्वारा शृंगार-काव्य लिखा गया है उसे देखते हुए यह रीतिमुक्त शृंगार के कवियों घनानंद, ठाकुर आदि से भिन्न कोटि का प्रतीत होता है। अतएव बिहारी का शृंगार भले ही हाल आदि की सप्तशती परम्परा की उपज क्यों न हो वह निःसन्देह रीति-पद्धति का श्रृंगार है। अतएव बिहारी को रीतिमुक्त कवि नहीं कहा जा सकता। अतः जब बिहारी रीतिमुक्त कवि नहीं है तो वह निःस्सन्देह रीतिबद्ध हैं। अब प्रश्न यह है कि इनमें यह बद्धता कितनी मात्रा में है और रीतिकाल के अन्य रीतिबद्ध कवियों से कहाँ तक वे समान अथवा भिन्न हैं। रीतिकाल के प्रतिनिधि रीतिबद्ध कवि हैं-देव, मतिराम, भूषण, दास, पद्माकर आदि। प्रतापसिंह तक आते-आते इस रीति परम्परा का ह्रास हो जाता है क्योंकि साहित्य की मुख्य प्रेरक शक्ति रीति-ग्रन्थ लिखना नहीं रह जाता। बिहारी इन रीतिबद्ध कवियों से निम्नलिखित कारणों से भिन्न हैं-
1. इन ग्रन्थकारों ने रीति ग्रन्थ लिखे हैं बिहारी ने नहीं।
2. इन ग्रन्थकारों ने काव्य और उनके अंगों के लक्षण भी दिये हैं और कविता में उदाहरण भी। बिहारी की कविता में लक्षण तो दिये ही नहीं गये, उदाहरण अवश्य ही खोजे जा सकते हैं इस दृष्टि से बिहारी सतसई का सफल सम्पादन भी हुआ है।
3. इन रीतिबद्ध कवियों द्वारा दिये गये उदाहरण जहाँ उसी काव्यांग पर घटित होते हैं वहाँ बिहारी की कविता इतनी विदग्ध है कि उसका एक दोहा कई काव्यांगों के उदाहरण रूप प्रस्तुत किया जा सकता है।
4. इन रीतिग्रन्थकारों ने काव्य के लक्षण देने के लिये संस्कृत काव्यशास्त्रों का आधार लिया है और प्रायः उनका अनुवाद करने में असफल रहे हैं। बिहारी ने ऐसे किसी ग्रन्थ का आधार नहीं लिया। हाँ, उन्होंने हाल, अमरूक आदि की परम्परा का अवश्य ही अनुकरण किया है पर वहाँ भी उन्होंने हाल आदि का मजमून ही छीन लिया है तथा उस विरासत को अपनी प्रतिभा से सर्वथा अपना बना लिया है।
5. अन्य कवि न सफल रीति ग्रन्थकार कहे जा सकते हैं और न ही बिहारी से श्रेष्ठ रीति कवि । बिहारी इनकी तुलना में कहीं अधिक सफल और श्रेष्ठ रीति-कवि हैं।
6. इन रीति ग्रन्थकारों की मुख्य-प्रेरणा शक्ति रीति-ग्रन्थ रहे बिहारी की प्रेरणा रीति-कविता ।
7. इन कवियों ने रीति-प्रन्थों के ढर्रे पर अपनी समस्त स्वच्छन्दता खो दी है पर बिहारी ने स्वकीय-विशेषता सम्पन्न कविता की है। रीति की आत्मा को आत्मसात् करके बिहारी ने अपने काव्य का सृजन किया है।
इस प्रकार बिहारी ने रीति की दहलीज पर कविता में स्वच्छन्द प्राणों की बलि नहीं दी जैसे रीतिकाल के अन्य आचार्यों व कवियों ने किया है। बिहारी ने रीति से कविता का श्रृंगार किया है, उसे भ्रामक लक्षण और मौलिकता रहित, अपूर्ण एवं विवेचना हीन कथनों से निष्माण नहीं किया। ऐसी स्थिति में बिहारी ने काव्यरीतियों का जितना समुचित प्रयोग किया है उतना किसी अन्य कवि द्वारा नहीं हुआ। रीतिबद्ध कविता का जैसा सरस और सुखद रूप बिहारी में मिलता है उतना किसी अन्य कवि में नहीं मिलता। जैसे अलंकारवादी केशव थे किन्तु अलंकारों की छटा तुलसी में मिलती है। वैसे ही रीतिबद्ध कवि तो देव आदि थे किन्तु बिहारी में रीतिकाल का उत्कर्ष मिलता है। अतएव-
1. बिहारी रीति-मुक्ति कवि नहीं रीतिबद्ध कवि हैं।
2. इनका रीतिबद्ध रूप रीति-पंथकार का नहीं रीति-काव्य का है।
3. इनके काव्य में रीतिकाव्य का उत्कर्ष है और इसीलिए ये रीतिकाल के लोकप्रिय कवि तथा प्रतिनिधि कवि हैं।
4. इनके काव्य में रीतिकाव्य का कलापक्ष भी नहीं, भावपक्ष भी अपने सुन्दर और सफल रूप में प्रस्तुत हुआ है।
5. इनके काव्य से इनको रीति परम्परा का जानकार अवश्य हो कह सकते हैं भले ही इनकी कविता केवल रीति मनोवृत्ति को उपज न हो।
6. इस प्रकार यह रीतिबद्ध कवि होकर भी रीतियों में बंधे नहीं, अपने काव्य-काशैल को रीतिबद्ध नहीं होने दिया। इन्होंने रीति के ढर्रे को अपनाकर भी निजी स्वच्छन्दता प्रदर्शित की है।
इस प्रकार रीति-काव्य की एक प्रवृत्ति रीति-ग्रंथ का निर्माण छोड़कर शेष विशेषताओं में बिहारी सतसई सर्वथा रीतिकाल को प्रतिनिधि रचना है और बिहारी रीतिकाल के प्रमुख कवि रीति-ग्रंथ निर्माण में रीतिकाल के समस्त कवि असफल ही कहे जा सकते हैं। बिहारी ने आचार्यत्व के इस अनधिकृत क्षेत्र में प्रवेश न करके अच्छा ही किया है। इससे काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि ही हुई है।
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