हिन्दी साहित्य

बिहारी सतसई की लोकप्रियता का क्या महत्व है ?

बिहारी सतसई की लोकप्रियता का क्या महत्व है ?
बिहारी सतसई की लोकप्रियता का क्या महत्व है ?

बिहारी सतसई की लोकप्रियता का क्या महत्व है ? स्पष्ट विवेचन कीजिए।

जिस प्रकार प्रकाश, उल्लास, चरित्र आदि के नाम से प्रबन्ध रचनाओं की पुरानी परम्परा मिलती है, ठीक उसी प्रकार मुक्तक काव्य में संख्या परक नाम से अभिहित कर सात सौ फुटकर पद्यों के संग्रह की परम्परा हमारे देश में बहुत पुरानी है। बिहारी सतसई से पहले और बाद में भी संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में उसके अतिरिक्त हिन्दी, धर्म-स्रोत और नीति तथा शृंगार में इस प्रकार के संख्या-परक ग्रंथों की एक समृद्ध परम्परा मिलती है। बिहारी से पूर्व संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश तथा हिन्दी में इन संख्या-परक रचनाओं की उल्लेखनीय परम्परा निम्नवत हैं-

(अ) संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश में

(i) हाल की गाथा सप्तशती- 5वीं शती में भाषा प्राकृत ।

(ii) अमरूक का अमरुकशतक- 9वीं शती में भाषा संस्कृत ।

(iii) गोवर्धन की आर्यासप्तशती- 11वीं शती में भाषा संस्कृत ।

(iv) भर्तहरि के तीन शतक- वैराग्य, नीति तथा शृंगार परक ।

(v) मयूर कवि का चंडीशतक- 7वीं शती में।

(vi) वाण का चंडीशतक- 7वीं शती में।

(vii) उत्प्रेक्षावल्लभ का सुन्दरी शतक- 11वीं शती में ।

डॉ. प्रियर्सन ने इस प्रकार की 31 संख्या-परक रचनाओं की सूची दी है।

इन सब शतकों और सप्तशतियों की सिरमौर है हाल की गाथा सप्तशती। शृंगारी मुक्तकों के आरम्भिक छोर पर खड़ी यह रचना अपनी परम्परा की सर्वश्रेष्ठ रचना है और इसमें शृंगार का सरस, दीप्तिपूर्ण, उल्लासमय तथा ताजगी भरा जो रूप मिलता है, वह आगे आने वाले शृंगारी मुक्तकों में प्राप्त नहीं।

(ब) हिन्दी सतसई

(i) गोस्वामी तुलसीदास की तुलसी सतसई ।

(ii) रहीम की रहीम सतसई ।

इन दोनों रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध है। विषय की दृष्टि से तुलसी के दोहे भक्ति और वैराग्य के हैं और रहीम के दोहे नीति के हिन्दी में बिहारी से पूर्व शृंगारी मुक्तक नहीं मिलते।

बिहारी की समसामयिक संख्या परक रचनाएँ

  1. बिहारी सतसई
  2. मितराम सतसई
  3. रसनिधि सतसई

बिहारी के बाद की सतसई परम्परा

बिहारी के बाद की प्रसिद्ध सतसाइयाँ हैं-

  1. वृन्द सतसई (विदग्ध सूक्तियों से युक्त)
  2. राम सतसई (राम सहाय )
  3. विक्रम सतसई (विक्रम)
  4. वीर सतसई (वियोगी हरि)

इन महत्वपूर्ण सतसइयों के अलावा डॉ० राम सिंह ने अपने शोध प्रन्थ ‘हिन्दी सतसई परम्परा में’ अनेक और सतसइयों की सूची दी है। जो इस प्रकार हैं-

(1) पुष्टि मार्गी वैष्णव की संवत् 1872 की ‘दयाराम सतसई’।

(2) अमीरदास की सं० 1886 की ‘वृजराज विलास सतसई’।

(3) महाकवि वसंत सिंह ‘ऋतुराज’ की ‘बसंत सतसई’।

(4) दलसिंह की संo 1905 में रचित ‘आनन्द प्रकाश सतसई’।

(5) कवि कीर्ति सिंह की ‘सतसई रामायण’।

(6) अमेठी के राजा गुरूदत्त सिंह की ‘भुपति सतसई’।

(7) कवि रामसिंह की ‘राम सतसई’।

(8) अम्बिकादत्त व्यास की ‘सुकवि सतसई’।

(9) शिवदत्त काव्यतीर्थ की ‘शिव सतसई।’

(10) रामेश्वर करुण की ‘करुणा सतसई’।

(11) जानकी प्रसाद राम गुलाम द्विवेदी की ‘जानकी सतसई’।

(12) हरिऔध की ‘हरिऔध सतसई’ ।

(13) कन्हैयालाल सहल की ‘वीर सतसई’ ।

(14) गुलाब सिंह की ‘प्रेम सतसई’।

(15) जगत सिंह सेंगर की ‘किसान सतसई’ ।

(16) महेश चन्द्र प्रसाद की ‘संदेश सतसई’ ।

(17) रामचरित उपाध्याय की ‘ब्रज सतसई’

(18) राजेन्द्र शर्मा की ‘ज्ञान सतसई’।

(19) गंगा नारायण बाजपेयी की ‘श्रृंगार सतसई’ ।

(20) पन्ना लाल मानस की ‘मानस सतसई’।

इन सतसईयों में भाषा भेद भी है और भाव भेद भी कोई सूक्तियाँ तो भक्ति भाव लिये हैं तो कोई प्रेम की रसोक्तियाँ किसी की रचना गुजरात-राजस्थान में हुई है तो किसी की काशी और पटियाला, अमृतसर में किसान जैसे आधुनिक विषयों पर भी ये सतसईयाँ मिलती हैं। वास्तव में हिन्दी की उल्लेखनीय सतसईयाँ तो सात ही हैं जिनका परिचय बाबू श्याम सुन्दरदास ने अपने संकलन ‘सतसई सप्तक’ में दिया है। इस प्रकार बिहारी सतसई के अतिरिक्त तुलसी सतसई, रहीम सतसई, मतिराम सतसई, राम सतसई, विक्रय सतसई, वृन्द सतसई, रसनिधी सतसई तथा वीर सतसई की ही अधिकांश में चर्चा हुई है।

बिहारी सतसई का सतसई परम्परा में स्थान- सतसई परम्परा में बिहारी सतसई का स्थान निर्धारित करने के लिए निम्नवत् आधारों पर तुलनात्मक विचार करना आवश्यक है।

  • (अ) आर्या सप्तशती, गाथा शप्तशती और अमरूक शतक तथा बिहारी सतसई ।
  • (ब) मतिराम सतसई और बिहारी सतसई ।
  • (स) हिन्दी की सूक्ति सतसईयाँ, शृंगार सतसईयाँ, भक्ति सतसईयाँ और बिहारी सतसई ।
  • (द) सतसई परम्परा में बिहारी सतसई का स्थान

(अ) आर्या सप्तशती, गाथा सप्तसती और अमरूक सतक तथा बिहारीसतसई

(1) बिहारी सतसई की शृंगार- भावना का मूल इन तीनों ग्रन्थों की परम्परा की विरासत है। बिहारी इस विरासत को अन्तिम छोर तक पहुंचाने में उसे यथावश्यक गौरवमयी उच्चता देने में सफल हुए हैं। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है “बिहारी की सतसई किसी रीति मनोवृत्ति की उपज नहीं। यह एक विशाल परम्परा के लगभग अन्तिम छोर पर पड़ती है ओर अपनी परम्परा • की संभावतः अन्तिम बिन्दु तक ले जाती है।”

(2) बिहारी सतसई में कई दोहे ऐसे हैं जिनका गाथा सप्तशती आर्या सप्तशती और अमरूक शतक से भाव-साम्य है। उदाहरणार्थ-

(क) आर्या सप्तशती की एक आर्या- ‘ऐ व्याघ के कुत्ते ! श्रम और अन्य प्राणी की हत्या- यही तेरा सारभूत है- यही तेरे भाग्य में आयेगा। अभी तुझे दूर भगाकर व्याघ के सेवक इस हरिण को बांट लेंगे।”

इस भाव को बिहारी ने कुत्ते के स्थान पर बाज द्वारा पल्लवित किया है। उस दोहे में मिर्जा राजा जयसिंह पर व्यंग्य के अर्थ से तो दोहे में और भी सौंदर्य तथा गूढ़ता आ गई है। बिहारी का यह प्रसिद्ध दोहा है-

“स्वारथ, सुकृत न श्रमु वृथा देखि, विहंग विचारि ।

बाज, पराएँ पानि परि, तू पच्छीनु न मारि ॥

(ख) गाथा सप्तशती की एक गाथा है- “हे बाँये नेत्र ! तुम्हारे फड़कन से यदि वही प्रिय आज ही आ जाये तो मैं अपना दायाँ नेत्र मूंद कर केवल तुमसे बहुत देर तक उसे देखूँगी।” इस पर बिहारी का दोहा है-

“बाम बांह फरकति, मिलै, जो हरि जीवन मूरि।

तौ तोही सौं भेंटिहौं राखि दाहिनी दूरि ।।”

इस दोहे में बिहारी ने बाम नेत्र के स्थान पर ‘बाम बांह’ से भाव को और भी सुन्दर बना दिया है। एक नेत्र मूंद कर है मिलने में वह सौन्दर्य नहीं। बांये बाजू से मिलने की चर्चा करके बिहारी ने भाव की भी रक्षा की है और सौन्दर्य- बाघा भी दूर हुई है।

(ग) अमरूशतक का एक श्लोक है- शून्य बासगृह विलोक्य शयनादुत्याय आदि। बिहारी ने इसका अत्यन्त सरस अनुवाद दोहे की दो पंक्तियों में ही कर दिया है-

“मैं मिसिहाँ सोयी समुक्ति चुन्यौ ढिंग जाई।

हंस्यौ, खिसानो, गलगह्यौ रही गरै लपटाइ।”

(3) इस प्रकार बिहारी सतसई प्राकृत, संस्कृत में मिलने वाले शतकों, सप्तशतियों की परम्परा में आने वाली रचना है। इन्हीं शृंगारी मुक्तकों के आधार पर सतसई के भावों का पल्लवन हुआ है। इस सम्बन्ध में डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- संस्कृत और प्राकृत के पुराने शृंगारी कवि किसी भी स्वभाव शीलावाली स्त्री की शरीर चेष्टाओं और कर्म व्यापृतियों को सुन्दर रूप में उपस्थित करने में रस ले सकते हैं। केवल एक ही शर्त वे लगाना चाहते हैं। उद्दिष्ट नारी सुन्दरी हो, युवती हो, अनुरागवती हो। फिर वे और कुछ नहीं सोचते। वे प्रेम के सहज रूप को कम और उसके मनोहर रूप को अधिक पसंद करते हैं। वे उसके कल्पना कोमल रूप को उभारने का अधिक प्रयत्न करते हैं और उसकी अनायास मोहन-शोभा को कमः वे चित्र को कलापूर्ण बनाने में अधिक श्रम करते हैं, वैयक्तिक सम्बन्धों की अनुभूतियों से रंगने में कम उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य में ही नायिकाओं के सूक्ष्म वर्गीकरण के आधार पर शृंगार चेष्टाओं को अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति प्रकट होने लगी थी और काव्य में स्त्री सौन्दर्य को परिमार्जित किन्तु कृत्रिम रूप में उपस्थित करने का प्रयत्न होने लगा था। बिहारी को यह मनोवृत्ति विरासत में मिली थी।”

(4) बिहारी ने शृंगार के कलात्मक चित्र, स्त्री सौन्दर्य के कपोल कल्पित रूप को भी उभारा है तथा साथ ही नायिकाओं के भेदापभेदों का भी रीति-पद्धति पर सुन्दर समन्वय किया है। पर परम्परा का सूत्र पकड़ कर वह केवल उसका पिण्टपोषण ही नहीं करते रहे, परम्परा का भार ही नहीं ढोते रहे अपितु अपनी प्रतिभा और विदग्धता द्वारा उस परम्परा को पुष्ट किया है, उसे ‘अन्तिम बिन्दु’ तक पहुँचाया है।

(5) ऐसा करते हुए कहीं- कहीं बिहारी गाथा और आर्या सप्तशती से भी आगे बढ़ गये हैं और अपनी ही परम्परा चलाते प्रतीत होते हैं। इससे ही पं० पद्मसिंह शर्मा ने ‘भंजमू छीन लेना’ कहा है। बिहारी ने इन सप्तशतियों के भावों को ग्रहण करके उन्हें अपनी प्रतिभा से इतना अधिक व्यंजक, इतना अधिक मर्मस्पर्शी और भाववाहक बना दिया, उन पर इतनी अधिक पालिश कर दी है, उन्हें सजा, संवार कर इतना परिष्कृत रूप दे दिया है कि सहृदय सप्तशतियों को भूल बैठे हैं। परम्परा की विरासत का इससे अधिक सुन्दर और सफल उपयोग नहीं हो सकता ।

गाथा सप्तशती और अमरूक शतक से बिहारी सतसई का दो बातों में स्पष्ट अन्तर प्रतीत होता है। एक तो बिहारी सतसई के दोहों के चित्र में ‘वह सरसता, ताजगी और दीप्ति नहीं जो गाथा सप्तशती और अमरुकशतक में है। दूसरे ‘गाथा’ की गाथाओं और अमरूक शतक के श्लोकों में जो ‘वन्य सुकुमारता’ और अनुभूतियों की जो यथार्थता और सहजता है वह बिहारी सतसई में नहीं मिलती। यह संभवतः इसलिये कि बिहारी को परम्परा का भार ढोना पड़ा है, या इसलिये कि बिहारी सजग कलाकार थे और उन्होंने ये चित्र बनाये थे न कि स्वतः ही बन गये थे या फिर इसलिये कि बिहारी में रसवादियों की रसग्रता, मानसिक, प्राकृतिक आनन्द और ऐन्द्रिय तत्व की अपेक्षा ध्वनिवाद के बौद्धिक आनन्द की कलावादियों जैसी रचना की बारीकी, सूक्ष्म विन्यास की निपुणता और अलंकारवादियों की चमत्कार प्रवृत्ति अधिक है। कुछ भी हो बिहारी के चित्रों में ग्राम्य सरलता नहीं नागरिक जीवन की कृत्रिमता और सुचिक्कणता या मसृणता अधिक है, अभिव्यक्ति में अलंकरण और कथन में अतिशयोक्ति का आग्रह है ।

(7) अमरूक-शतक आदि मुक्तकों के सम्बन्ध में प्रसिद्ध था- “अमरूक कबेरेक: श्लोक प्रबन्ध शतायते ।” अमरूक काव्य के एक-एक श्लोक पर सौ-सौ प्रबन्ध-काव्य न्योछावर हैं। बिहारी की सतसई को भी ‘गागर में सागर’ की ख्याति प्राप्त हुई।

(ब) मतिराम सतसई व बिहारी सतसई

(1) बिहारी सतसई में और मतिराम सतसई में भाव, विषय, छंद आदि की दृष्टि से साम्य है। भाषा की दृष्टि से यद्यपि बिहारी की भाषा को ब्रजभाषा की टकसाल कहा गया है पर मतिराम सी सरस, स्वाभाविक, चलती भाषा बिहारी में नहीं मिलती। बिहारी अपनी भाषा के समास शक्ति के लिए प्रसिद्ध और मतिराम भाषा के प्रवाह और सहज प्रसन्न रूप के लिए।

(2) दोनों सतसईयों में भक्ति और नीति के दोहे हैं किन्तु बिहारी की सूक्तियाँ और भक्ति-विषयक दोहे अधिक ख्यात हैं। बिहारी के भक्ति-विषयक दोहे मतिराम से कहीं अधिक व्यंजक तथा काव्य-चातुर्य लिये हैं-बिहारी के मंगलाचरण के दोहे में भव बाधा और हरित दुति की जो गूढ़ और अनूठी कल्पना मिलती है वह मतिराम के मंगलाचरण संबंधी दोहे में नहीं, यद्यपि बिहारी के अनुकरण पर दोहा राधा संबंधी ही है-

‘मो मन तोमहि हरौ राधा को मुख चंद ।

बड़े जाहि लखि सिंधु लौं नंदनंदन आनंद ।।”

(3) दोनों सतसइयाँ प्रमुख रूप में शृंगारी हैं। मतीराम की सतसई में भावों की सरसता यद्यपि प्रशंसनीय है पर बिहारी सान उनमें चमत्कार है, न उक्ति-वैचित्र्य, न ही सूक्ष्म विन्यास तथा रचना की बारीकी। बिहारी के श्रृंगारी दोहों को जो लोकप्रियता प्राप्त है वह मतिराम की सतसई को कहां। नयनों की चर्चा करते हुए प्यास का उल्लेख किया है पर बिहारी ने ‘सलोने’ शब्द के प्रयोग द्वारा जो सार्थकता दी है और त्यों-त्यों ज्यों-ज्यों द्वारा जो न अघाने का चित्र उपस्थित किया है वह अनुकरण की सुविधा होने पर भी मतिराम में नहीं मिलता-

“त्यों त्यों प्यासेई रहत, ज्यों-ज्यों पियत अघाय।

सगुन सलोने रूप को सु न चख त्वा जुझाय ॥” -बिहारी

(सलोने अर्थात् नमकीन नमक से प्यास और भड़कती हैं)।

‘पियत रहत पिय नैन वह तेरी मृदु मुसक्यानि ।

तद न होति मयंक मुखी तनक प्यास की हानि ।। ” – मतिराम

दोनों कवियों ने नायिका की दीपशिखा-सी देह का वर्णन किया है। किन्तु बिहारी के ‘अंग-अंग नग जगमगै’ में जो व्यंजकता है तथा ‘दिया बढ़ाए हूँ’ में जो ‘उजार गेह’ का चमत्कार है वह मतिराम में नहीं मिलता-

“अंग अंग नग जगमगे, दीपसिखा सी देह।

दिया बढ़ाए हूं रहे, बड़ी उजारौ गेह ।। ” – बिहारी

“निसि अंधियारी की खपट पहिरि चली पिय गेह।

कही बुराई क्यों दुहै, दीपसिखा सी देह ॥”

(4) मतिराम के दोहे केवल सरस हैं और बिहारी के व्यंजक भी। मतिराम केवल रसवाली थे पर बिहारी के दोहे ध्वनि समन्वित भी हैं।

(5) बिहारी के दोहों में गागर में सागर भरने की कल्पना के चमत्कारपूर्ण और वाग्विदग्धता के साथ समाहार की जो अनूठी शक्ति है वह मतिराम में नहीं मिलती।

(6) इस प्रकार मतिराम को यद्यपि बिहारी के दोहों का अनुकरण करने की सुविधा प्राप्त थी पर फिर भी उनके दोहों का आधार- फलक न तो बिहारी सा व्यापक है, न ही चित्रों में वैसी चकाचौंध और निपुणता है, न ही भाव-भाव, हेला विन्वोक आदि के रीति-सिद्ध मादक चित्र हैं। मतिराम केवल सरल सहज अनुराग के मर्मस्पर्शी कवि हैं। अतएव इसी कारण बिहारी की काव्य-क्षमता, उक्ति-वैचित्र्य, व्यंजक वाणी और प्रतीयमान अर्थों की अनूठी और नागरी दृष्टि तक मतिराम नहीं पहुंच सके और न ही उनके दोहों को ‘गंभीर धाब’ करने की लोकप्रियता और ‘गागर में सागर’ भरने की ख्याति प्राप्त हो सकी है। यद्यपि दोनों सतसइयों का वर्ण्य विषय, भाव, छंद आदि एक हैं।

हिन्दी की सतसइयाँ व बिहारी सतसई- (1) बिहारी से पूर्व यद्यपि कबीर आदि के प्रचुर दोहे मिलते हैं, कृपाराम मिश्र, नंददास, सूरदास, केशवदास आदि का नायिका भेद शृंगार निरूपण, अलंकार निरूपण संबंधी पर्याप्त साहित्य मिलता है किन्तु सतसईयाँ दो ही हैं-तुसली सतसई और रहीम सतसई। दोनों में ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और नीति की सूक्तियाँ हैं और इस दृष्टि से दोनों सतसइयाँ बेजोड़ हैं। किन्तु इनके दोहों में अनुभूति की सरसता नहीं, नीति का उपदेश ही प्रमुख रूप में मिलता है। बिहारी भी सूक्तिकार थे। किन्तु उनकी बहुत कम सूक्तियाँ ऐसी हैं जो केवल सूक्ति-मात्र हैं अन्यथा उनमें काव्य-सरसता का, शृंगार का प्रायः मंजुल मिश्रण किया गया है। यही स्थिति बिहारी के भक्ति-परक दोहों की है। भक्ति सम्बन्धी दोहे ऊपर उद्धृत किए जा चुके हैं। सूक्तिकार बिहारी का काव्य-वैभव निम्नलिखित दोहों में देखा जा सकता है

‘तंत्रीनाद कवित रस, सरस राग, रति रंग।

अनबूड़े बूड़े, तरे, जो बूड़े सब अंग ||”

संगति दोष लगे सबनु, कहेति सांचे बैन ।

कुटिल बंक भुव संग भरा, कुटिल बंक गति नैन ॥ “

और रहीम में अनुभव की सच्चाई तो है पर काव्य की वैसी सरसता नहीं-

ज्यों रहीम गति दौर की, कुल कपूत की सोय ।

बारे उजियारे लगे बड़े अंधेरो होय ।। “

(2) बिहारी के उपरांत या समकालीन सतसईयों में मतिराम की सतसई विशेष महत्वपूर्ण है, शेष सतसईयाँ हैं, रतन सतसई, राम सतसई, वृंद सतसई, विक्रम सतसई और आधुनिक काल की वीर सतसई। इनमें वियोगी हरि कि आधुनिक कालीन ‘वीर सतसई’ के साथ तो केवल दोहे, दंद और सतसई संख्या का ही संबंध है अन्यथा बिहारी के शृंगारिक क्षेत्र में इसकी तुलना का कोई अभिप्राय नहीं। शेष में से रतन सतसई को समकालीन सतसईयों में रखा जा सकता है।

(3) रतन सतसई श्रृंगारिक होकर भी फारसी के प्रभाव से ही अधिक प्रभावित है-

“लेहु न मजनू-घोर ढिंग, कोड, लेला नाम।

दरदवंत को नेकु तो, लेन देह बिसराम ।।”

ने इनके दोहों को सुरुचि और साहित्यिक शिष्टता को आघात पहुचाने वाला कहा है। उनके विचार से आचार्य शुक्ल कई दोहों में इन्होंने बिहारी के वाक्य तक रखे हैं।

(4) शेष तीनों सतसईयों पर बिहारी सतसई का सहज प्रभाव लक्षित किया जा सकता है। इनमें से वृंद सतसई ही अधिक सफल है पर वह नीतिपरक रचना है तथा वृंद के सूक्तिकार स्वरूप को ही सामने लाती है।

“भले बुरे सब एक सम जो लौ बोलत नाहिं ।

बानि परत है काग पिक ऋतु बसंत के माहि ।। “

इनके दोहों की ख्याति रहीम से कम नहीं।

(5) राम सतसई में शृंगार के दोहे हैं किन्तु केवल बिहारी का अनुकरण करते हुए। यह बिहारी के प्रभाव की सूचक रचना है अन्यथा यह किसी भी प्रकार से बिहारी की उच्चता को प्राप्त नहीं होती।

(6) विक्रम सतसई भी शृंगारिक रचना है पर अत्यंत सरल। बिहारी का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है।

बिहारी सतसई का स्थान 

(1) बिहारी सतसई अपनी परम्परा की सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है। बिहारी के इन शृंगारी दोहों ने, उनमें निहित वाग्विदग्धता ने बिहारी को हिन्दी का लोक-प्रिय कवि बना दिया है।

(2) सतसई परम्परा में बिहारी की सतसई काव्य-गुणों और शृंगार की सरस और चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति के कारण सबसे श्रेष्ठ है।

(3) इसने अपने पूर्व की संस्कृत-प्राकृत सप्तशतियों से जहाँ प्रभाव ग्रहण कर परम्परा को आगे बढ़ाया है वहाँ अपनी प्रतिभा से उनके विषय को इतना सरस और सजा-सँवार दिया है कि उनका मजमून ही छीन लिया है। आगामी सतसईयों के लिये तो यह आदर्श रूप रही और सबने इससे प्रभाव ग्रहण कर श्रृंगार के दोहे रचने का प्रयास किया, भये ने केते जगत् के चतुर चितेरे कूर।’ सबको बिहारी की तुलना में असफलता ही हाथ लगी है।

(4) सतसईयों में शृंगार प्रधान सतसईयाँ प्रमुख है और शृंगार प्रधान सतसईयों में बिहारी सतसई प्रमुख हैं। मुक्तक काव्य में दोहा-छंद का काव्य-वैभव सर्वोपरि होता है और दोहा-छंद की सर्वाधिक सरस, अनूठी, विदग्ध, चमत्कारपूर्ण और भाव-व्यंजक रचना है बिहारी सतसई ।

(5) काव्य रसों में सर्वश्रेष्ठ रस शृंगार है और शृंगार रस की सर्वश्रेष्ठ रचना है बिहारी सतसई, जिससे सौरभ सने, मधुर रस भीगे रसाल तुल्य दोहों की बिहारी ने रचना की है।

(6) बिहारी सतसई शृंगारी मुक्तक परम्परा में सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है। इसकी लोकप्रियता का प्रमाण इस पर लिखी गई असंख्य टीकाएँ हैं।

(7) बिहारी के दोहों के प्रभाव की अनंत चर्चा में किसी सहृदय का यह कथन आज भी कितना सत्य है-

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर ।

देखत में छोटे लगे, बेधै सकल शरीर ।”

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Anjali Yadav

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