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बिहारी की काव्य भाषा
बिहारी की भाषा शुद्ध ब्रज है। सूरदास ने यद्यति चलती ब्रज का प्रयोग किया है किन्तु बिहारी की भाषा साहित्यिक और सच्चे अर्थो में काव्य-भाषा है। सूर आदि की भाषा में प्राम्य-प्रयोग मिलेंगे और प्रचुर मात्रा में मिलेंगे। किन्तु बिहारी की भाषा में नागरिक सुरूचिपूर्णता और परिष्कार है। इसीलिये उसे काव्य भाषा का या साहित्यिक भाषा का प्रतिनिधि रूप कहा जा सकता है। इसीलिये आचार्य शुक्ल बिहारी की भाषा को चलती बताकर साहित्यिक मानते हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने कहा है कि ‘बिहारी की भाषा समर्थ भाषा है, चलती को लेकर भी उन्होंने उसे साहित्यिक सांचे में ढाला है।’ इसी कारण विद्वानों ने सतसई की भाषा को बज-भाषा की टकसाल कहा है।
ब्रज भाषा की काव्य-परम्परा
जब ब्रज के करील कुंजों की बीच आचार्यों की छाप लगी हुई आठ बीणाएँ श्री कृष्ण की प्रेम लीला का कीर्तन करने उठीं तब उन्होंने जिस लोक भाषा में स्वर साधन किया, जिसकी मधुरता से रस संचार किया वह भाषा थी ब्रज भाषा । सूरदास ने जिस ब्रजभाषा को अपने गीतों का आधार बनाया वह चलती होकर भी सूर के हाथों में साहित्यिक साँचे में ढल गई। ब्रजमण्डल की भाषा होते हुए भी सूर के समय में ही इसमें व्यापक काव्य-भाषा की शक्ति आ गई थी। आचार्य शुक्ल ने सूर की भाषा में पूरबी और पंजाबी प्रयोगों की चर्चा करते हुए कहा- “ये सब बातें एक व्यापक काव्य भाषा के अस्तित्व की सूचना देती हैं।” सूर के उपरान्त बृजभाषा की काव्य-परम्परा का अविरल प्रवाह देखने में आता है। धीरे-धीरे ब्रजमण्डल से बाहर भी इसका प्रयोग होने लगता है। अवधी भाषा का भी व्यवहार होता रहता है किन्तु वह कुछ दूर तक ही चला पाती है और भक्तिकाल के अन्त होते होते ब्रज भाषा व्यापक काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती है।
भक्तिकाल में ब्रजभाषा का प्रयोग सूर के साथ-साथ समस्त कृष्ण भक्त कवियों ने किया पर तुलसीदास, केशव, रहीम आदि कवियों द्वारा भी ब्रज का विशेष व्यवहार हुआ। इस दृष्टि से तुलसी की बजभाषा सूर की अपेक्षा अधिक गठी हुई, सुव्यवस्थित तथा तत्सम-बहुला है। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में भाषा का जैसा आदर्श दिखाया है वह सूर में भी प्राप्त नहीं। सूरदास अनेक स्थलों पर शब्दों का अंग-भंग करते और व्याकरण विरोधी प्रयोग करते दिखाई देते हैं पर ये न्यूनताएँ तुलसी की भाषा में दृष्टिगोचर नहीं होतीं । यद्यपि ब्रजभाषा के विकास का श्रेय सूर को प्राप्त है न कि तुलसी को आगे आने वाले कवियों ने सूर की ब्रज का ही अनुकरण किया है जो चलता रूप लिये थी न कि विनयपत्रिका आदि तुलसी के ग्रन्थों की समास-बहुला तत्सम प्रधान शुद्ध साहित्यिक व्रज का ।
जहाँ तक रही बात केशव की बजभाषा का तो उनकी ब्रजभाषा न तो सूर और तुलसी की भांति सरस है और न हीं सशक्त पदों तथा वाक्यों की न्यूनता और बुन्देल खंडी का भाव स्पष्ट होता है। रहीम भाषा मर्मज्ञ थे उनका अवधी, बज, संस्कृत, फारसी पर समान अधिकार था, किन्तु इनकी ब्रजभाषा की रचना एक तो बहुत अल्प है दूसरे भाषा-परम्परा में इनका कोई विशेष योगदान नहीं। भक्ति काल में गंगा कवि की भी विशेष चर्चा की जाती है और इनके भी बड़े रमणीय और विदरध कवित्त मिलते हैं परन्तु इनकी रचनाएँ अभी अप्राप्त हैं।
सूर के पश्चात् नन्ददास की भाषा ही ब्रजभाषा के अष्ट छाप कवियों में विशेष महत्व रखती है। नन्ददास की प्रौढ़ रचनाओं रासपंचाध्यायी, भंवर-गीत की भाषा अत्यन्त सरस, प्रवाहपूर्ण, भाव और दृश्य-चित्रण में अत्यन्त समर्थ तथा श्रुतिमधुर है। इनके संस्कृत प्रयोग ब्रजभाषा के सांचे में ढल कर पदलालित्य का परिचय देते हैं। इसी भाव- पूर्ण और नाद सौन्दर्य से युक्त भाषा के लालित्य के लिये नन्ददास ‘जड़िया’ कहे जाते हैं। पर सूर की भाषा जितनी बहुरूपिणी है, उनके पास जितना शब्द कोष है उतना नन्ददास में नहीं मिलता। गीतों में भाषा-प्रवाह, भावात्मकता, सजीवता, चित्रमत्ता आदि का जैसा परिचय सूर दे सके हैं. नन्ददास वैसी सफलता केवल रोला छंद की रचनाओं में ही प्रदर्शित कर सके हैं। अन्य कृष्ण-भक्त कवियों में रसखन की भाषा की सरसता और सफाई विशेष उल्लेखनीय है।
रीतिकाल और ब्रजभाषा की काव्य परम्परा – (1) रीतिकाल में व्रजभाषा को व्यापक काव्य-भाषा के रूप में तो मान्यता मिली किन्तु जैसा कि आचार्य शुक्ल ने कहा है भाषा सम्बन्धी एक बड़े अभाव की पूर्ति हो जानी चाहिए थी, पर नहीं हुई। भाषा जिस समय सैकड़ों कवियों द्वारा परिमार्जित होकर प्रौढ़ता को पहुंची उस समय व्याकरण द्वारा उसकी व्यवस्था होनी चाहिए थी, जिससे च्युत संस्कृति दोष, वाक्य दोष आदि दूर होते और भाषा में सफाई आती। रीतिकाल के अधिकांश कवियों की वाक्य-रचना अव्यवस्थित है, भाषा मिली-जुली है, कारक चिन्हों, क्रिया-रूपों आदि का मनमाना व्यवहार है। इस प्रकार काव्य-भाषा एक होकर भी उसके रूपों में स्थिरता नहीं जो साहित्यिक प्रयोग के लिए नितांत आवश्यक है।
(2) ब्रज में अवधी, बुन्देलखण्डी आदि का मिश्रण आरम्भ से ही होता आ रहा था। रीति-ग्रन्थों के अधिकतर रचयिता अवध के थे। अतएव इस काल में भाषा का यह मिश्रण अधिक मात्रा में होता रहा। दास ने अपने काव्य-निर्णय में इस मिश्रण के सम्बन्ध में कहा है-
व्रजभाषा रुचिर कहे सुमति सब कोई।
मिले संस्कृत पारस्यौ, पे अति प्रगट जु होई ।।
व्रज मागधी मिलै अमर नाग चवन माखनि ।
सहज पारसी हू मिले शट विधि कहत बखानि ।।
(3) भक्तिकाल से ही काव्य भाषा में एक और प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी। कवि प्रायः अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों का व्यवहार करने लगे थे। सूर, तुलसी आदि में अरबी फारसी के प्रयोग मिलते हैं। रीतिकाल में ये प्रयोग बढ़े।
यद्यपि उत्कृष्ट कवियों ने इनका भाषा की स्वाभाविकता और सरसता का पूरा ध्यान रखते हुए प्रयोग किया और यथावश्यकता इन शब्दों को अपनी भाषा के सांचे में ढाल कर ही प्रयुक्त किया। किन्तु कुछ कवि ऐसे भी थे कि जिन्होंने ‘फारसी की इश्क की शायरी की पूरी अलंकार-सामग्री तक उठा कर रख ली जैसे रसनिधि ने ‘रतन हजारा’ में और कुछ ने खुशबोधन आदि जैसे बड़े विकृत और बेढंगे प्रयोग किये। फिर भी रीतिकाल के कवि फारसी साहित्य और उसकी भाषा की नाजुक ख्यालियों, मुहावरेदानी, चुस्ती, दूर की सूझ आदि से नहीं बच सके और यत्र-तत्र ये विशेषताएँ लक्षित की जा सकती हैं।
(4) इस प्रकार रीतिकाल में भाषा कितनी ही मिश्रित रही हो उसका रूप कितना ही अस्थिर रहा हो किन्तु इसकी भावानुकूलता सर्वत्र मिलती है। इन कवियों की भाषा शृंगार रस की मधुरता को अभिव्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है और प्रत्येक स्थान पर अपनी चमत्कार और उक्ति वैचित्र्य की शक्ति का चित्रण की क्षमता का परिचय दे जाती है। बिहारी मतिराम और पद्माकर की भाषा इस दृष्टि से उदाहरण रूप प्रस्तुत की जा सकती है।
बिहारी की ब्रज भाषा के प्रयोग
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी की भाषा के सम्बन्ध में मिश्र बन्धुओं के कथनों को आधार मानकर कहा है-
‘ब्रजभाषा के कवियों में शब्दों को तोड़-मरोड़कर विकृत करने की आदत बहुतों में पाई जाती है। भूषण और देव ने शब्दों का बहुत अंग-भंग किया है और कहीं-कहीं घढ़त शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है। दो-एक स्थल पर ही ‘स्मर’ के लिये ‘समर’ ‘ककै’ ऐसे कुछ विकृत रूप मिलेंगे। जो यह भी नहीं जानते कि ‘क्रान्ति’ को ‘संक्रमण’ भी कहते हैं, ‘अच्छ’ साफ के अर्थ में संस्कृत शब्द है। ‘रोज’ रुलाई के अर्थ में आगरे के आस-पास बोला जाता है और कबीर, जायसी द्वारा बराबर व्यवहत हुआ है, ‘सोजनाइ’ शब्द ‘स्वर्णजाती’ से निकला है, जुही से कोई मतलब नहीं संस्कृत में ‘वारि’ और ‘वार’ दोनों शब्द हैं और ‘वारि’ का अर्थ भी बादल है, ‘मिलान’ पड़ाव या मुकाम के अर्थ में पुरानी कविता में भरा पड़ा है, चलती ब्रजभाषा में ‘पिछानना’ रूप ही आता है, ‘खटकति’ का रूप बहुवचन में भी यही रहेगा। यदि पचासों शब्द उनकी समझ में न आयें तो बेचारे बिहारी का क्या दोष ?
आचार्य विश्वनाथ का मत है कि-
बिहारी सतसई में लिंग-विपयर्य बहुत हैं। एक ही शब्द कहीं पुल्लिंग और कहीं स्त्रीलिंग हैं। जैसे ‘वायु’ शब्द स्त्रीलिंग में भी मिलता है- ” आवति नारि नवौढ़ लौ सुखद वायु गतिमन्द’ और पुल्लिंग रूप में भी “आवत दच्छिन देश ते भक्यौ बटोही बाय।” इसी प्रकार ‘उसास’ शब्द का सतसई में नौ बार प्रयोग हुआ है- चार बार पुल्लिंग रूप में, तीन बार स्त्रीलिंग रूप में और दो बार लिंग संदिग्ध है। वस्तुतः लिंगों का यह विपर्यय बिहारी का दोष नहीं, हमारी भाषा की इस सम्बन्ध में अस्थिर स्थित है । हिन्दी में संस्कृत-मूल शब्दों में यह विपर्यय मिलता है जैसे आत्मा, अग्नि, वायु आदि शब्द संस्कृत में पुल्लिंग हैं पर हिन्दी में स्त्रीलिंग। ‘देवता’ शब्द हिन्दी में पुल्लिंग है, पर केशव ने संस्कृत के अनुसार इसे स्त्रीलिंग रूप में ही रखा है। यही स्थिति फारसी से आये शब्दों के सम्बन्ध में मिलती है। इस प्रकार बिहारी के समय में भाषा में यह लिंग-भिन्नता मिलती थी।
सतसई के शब्द रूपों और विभक्तियों पर भी विचार किया गया है। बिहारी में ‘ए’ का ‘हो’, ‘ओर’ का ‘औ’, ‘न’, नु, नि’ के एक वचन बहुवचन रूप, कारण सूचक शब्दों के अनुनासिक निरनुनासिक प्रयोग में के आदि के प्रयोग की चर्चा करते हुए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का मत है कि बिहारी की भाषा व्याकरण से गठी हुई है। मुहवारों के प्रयोग, सांकेतिक शब्दावली और सुष्ठु पदावली (डिकशन) से संयुक्त है। भाषा प्रौढ़ एवं प्रांजल है। “
ब्रजभाषा समास बहुला भाषा नहीं। इसमें छोटे-छोटे समास तो खप जाते हैं पर संस्कृत के समान लम्बे-लम्बे समास नहीं। बिहारी की भाषा में समास शक्ति की विशेष चर्चा हुई हैं। बिहारी की भाषा में भी अधिकतर दो-तीन पदों के ही समास मिलते हैं जैसे ‘सारद-बारद-बीजुरी’, ‘कुटिल कटाच्छ-सर, कुच उचपद-लालच, रनित-भृंग घनटावली, मधुनीर, कुंज-समीरू, दुख- दुन्द आदि । जहाँ लम्बे समास है वहाँ भी न भाषा में जटिलता आई है और न ही अर्थ में दुरूहता। जैसे “जम-करि-मुंह-तर- हरि” “समरस-समर-सकोच बस-विवस न ठिक ठहराई।” “बन-बिहार-याकी तरूनिखरे पकाए नैन।’ इस प्रकार बिहारी की समास- शक्ति अपूर्व है। इससे भाषा में कसावट आ गई है, उसकी व्यंजक शक्ति बढ़ गई है और ‘गागर में सागर’ भरना सम्भव हो सका । भाषा की इस समास शक्ति के साथ कल्पना के समाहार ने मिलकर बिहारी के दोहों को अद्भुत काव्य सौंदर्य प्रदान कर दिया है, मुक्तक काव्य का आदर्श रूप दे दिया है।
बिहारी की भाषा का शब्द विधान
बिहारी के लिये कहा गया है कि यद्यपि वे पूरबी बुन्देलखण्डी खड़ी बोली के रूपों का व्यवहार करते हैं पर उनकी भाषा बज है, इसी प्रकार बिहारी ने यद्यपि संस्कृत, अरबी-फारसी के शब्दों का तत्सम रूप में प्रचुर प्रयोग किया है, किन्तु मुख्य रूप से उनकी भाषा ब्रज है। उन्होंने व्रजभाषा के शब्दों का टकसाली रूप दिया है, उनके व्यवस्थित रूप का प्रयोग कर उन्हें सांचे में ढाला है। भाषा की जो अव्यवस्था देव, भूषण आदि में मिलती है और शब्दों का जो अंग-भंग और गढ़ंत प्रयोग उनमें मिलता है, उन दोषों का बिहारी के शब्द-विधान में अभाव ही नहीं, साथ ही बिहारी ने शब्दों के सार्थक तथा साधिक प्रयोग करके अपनी भाषा-शक्ति का परिचय दिया है।
बिहारी ने संस्कृत के तत्सम प्रयोग किये हैं जैसे- भव बाधा, द्विजराज, कलानिधि, सुरसरिता, श्रुति, अभिसार, शैल, मकरंद, निदाघ, निकुंज, मुकुर, इंदीवर, रति, पीन, सिंधु इन तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकांश में समास की स्निग्ध छोक देने या नाद सौंदर्य उत्पन्न करने या भाषा और अर्थ में कसावट लाने के लिए हुआ है, जैसे-
“मंगल बिंदु सुरंग, मुख ससि, केसरि आड़ गुरू।
इक नारी लहि सँगु रतमय किय लोचन-जगत।।”
वास्तव में बिहारी की शक्ति अर्द्धसम और देशी प्रयोग है जहाँ अग्नि अगनि है, यौवन जीवन है, ज्योति जोति है। बिहारी की भाषा का वास्तविक सौन्दर्य तो कहत, नटत रीझत, खिजत आदि के प्रयोग हैं।
बिहारी का शब्द-विधान केवल सूक्ष्म पद-विन्यस की निपुणता का ही परिचय नहीं देता अपितु यह भी सिद्ध करता है कि उन्होंने भावानुकूल शब्दों, भाव-सम्प्रेषण में समर्थ शब्दों, अर्थ में भंगिमा और शब्दों में नाद-सौन्दर्य लाने वाले प्रयोग उनकी प्रसांगानुकूल झंकृति अर्थात् गुण-वृत्ति का भी विशेष ध्यान रखा है। इनसे उनकी भाषा में पच्चीकारी भी आ गई है अर्थ गौरव भी उत्पन्न हो गया है और ध्वनि का आकर्षण भी।
इन सब ने मिलकर बिहारी को वाणी-विदग्ध बना दिया है।
बिहारी ने शब्द-विधान में अर्थ के अलंकृत सौन्दर्य पर तो ध्यान दिया ही है और कनक, बारि, कानन, मुक्तन, उरवसी जैसे असंख्य प्रयोग किये हैं जिनमें शब्द से खिलवाड़ भी है, उक्ति चमत्कार भी और अर्थ का साभिप्राय अनूठापन भी, पर इसके साथ ही साथ उन्होंने कुछ प्रयोग ऐसे भी किये हैं कि जिनके उनसे अर्थ-ज्ञान का पूर्ण परिचय मिलता है, जैसे-
“बामा, भामा, कामिनी कहि बोली प्रनिस ।
प्यारी कहत किसात नहिं पावस चलत विदेस ।।”
यहाँ स्त्री के लिये प्यारी, वामा, भामा और कामिनी शब्दों की अर्थ-भिन्नता स्पष्ट ही लक्षित होती है। नायिका विदेश जाते नायक से प्यारी के स्थान पर वामा अर्थात् कुटिल भामा अर्थात् लड़ाकी, कामिनी अर्थात् स्वार्थिनी सम्बोधन करने को कहती हैं जो ऐसी स्थिति में उचित है। इसी प्रकार का सार्थक प्रयोग ‘इजाफा’ शब्द का मिलता है।
बिहारी ध्वनिवादी कवि थे। अतएव उनके शब्दों का प्रतीयमान अर्थ विशेष रूप से मिलता है। इसके साथ ही लाक्षणिक प्रयोगों में भाषा में जो मुहावरों का प्रयोग हुआ है उससे भाषा में विशेष चुस्ती आ गई है। “जासी लागत पलकु दृग लागत पलक एलो न।” बाह्य तो लाग्यौ हियौ, ताही के हिय लागि ।। “
ब्रजभाषा पर प्रभाव
बिहारी की व्रज भाषा में भी अवधी बुन्देलखण्डों खड़ी बोली आदि के यथा स्थान प्रयोग मिलते हैं-
(क) अरबी फारसी का प्रयोग- बिहारी के अरबी-फारसी के सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल का विचार है कि बिहारी ने फारसी के शब्द, शैली और भाव का जो प्रयोग किया जो उन्हें अपने ‘देशी सांचे में ढाल’ कर किया है जिससे ये प्रयोग न खटकते हैं और कहीं सहसा लक्षित किए जा सकते हैं।
बिहारी ने कुछ अरबी-फारसी शब्दों का ज्यो-का-त्यों प्रयोग किया है और कहीं उन्हें देशी सांचे में ढाल कर, जैसे-
“रतन मन नैन नितंब की बड़ी इजाफा कीन।”
“दई दई सु कबूलि।”
औरै ओप कनीनिकन गनी घनी-सिरताज।”
” रहित न रन जयसाहि मुख लखि, लाखननु की फौज।”
“दीपति देह दुहून मिलि विपति ताफता रंग।”
“कौनु गरीबु निवाजिबी, कित तृठ्यौ रतिराजु ।”
“हुकुम पाइ जयसाहि को, हरि-राधिका प्रसाद। “
“बाहुबली जयसाहि जू, फते तिहारै हाथ। “
यहाँ हुकुम, फते, फौज, ताफता शब्दों का ‘ज्यों-का-त्यों’ प्रयोग किया गया है तथा कबूलि, सिरताज, निवाजियों आदि को देशी सांचे में ढाला गया है। इस प्रकार बिहारी में हमाम, अहसान, रकम, गुमान, पार्यदाज आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। अरबी-फारसी के इन प्रयोगों में अधिकांश शब्द या तो उस समय तक प्रचलित हो गए थे या फिर बादशाही शासन-पद्धति में उनका व्यवहार होता था जैसे इजाफा। इस शब्द का प्रयोग वेतन या जागीर में इजाफा, लगान में इजाफा आदि के रूप में होता था।
(ख) खड़ी बोली के प्रयोग – अनुप्रास के आग्रह से ही सही, बिहारी में खड़ी बोली के कृदंत और क्रियापद बराबर मिलते है-
“रही सुरंग रंग रंगि उही नइ-दी महदी नैन।”
‘नेकी उहि न शुदी करी हरीष जु दी तुम माल।”
(ग) बिहारी के पूर्वी प्रयोग-
(1) सर्वनामों के प्रयोग – “जगतु जनायौ जिहिं सकल”
(2) क्रिया के दीन, कीन, लीन आदि प्रयोग-
“चन्द्रमुखी मुखचन्द तें भलो चंद सम कौन।”
‘मतन मन नैन नितंग को बड़ी इजाफा कीन।”
(3) ‘है’ के स्थान पर ‘आहि’ का प्रयोग ‘कियो’ के स्थान पर ‘किय’ का प्रयोग भी मिलता है। बिहारी ने इन रूपों के अधिकांश प्रयोग तुकांत के आग्रह से या फिर अनुप्रास, यमक के लोभ से किये हैं किन्तु ‘किय’ का प्रयोग चरण के मध्य में मिलता है-
“मनु ससि सेखर की अकस किय सेखर सत चंद ।”
“इक नारी लहि संग रसमय किय लोचन जगत।”
(घ) बिहारी के बुन्देलखण्डी प्रयोग- बिहारी का बाल्यकाल बुन्देलखण्ड में बीता था और केशव के प्रभाव को भी किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया जाता है अतएव बुन्देली के शब्द और रूपों का प्रयोग स्वाभाविक ही था।
(1) बुन्देलखण्डी ‘स्यौं’ का प्रयोग-
“चिलक चिकनई चटक रयौ लफति सटक लौ आय ।
(2) बुन्देली की लखवी करवी, मायबी आदि प्रयोग-
‘मुढ़नि मैं गनबी कि तूं, हूठयौ दै इठलाहि । “
‘मलखिबी पाइनु पर लुठति, सुनियतु रावा मानु ।।”
(3) बिहारी ने गीधे, बीघे चाला, नोद धरै जैसे बुन्देली के शब्दों का प्रयोग किया है-
“कौन भाति रहि है बिरदु, अब देखिबी मुरारि ।
बीघे मोसों आइ कै, गीधे गीधहिं तारि ।।”
रीतिकाल के अन्य कवि तथा बिहारी की भाषा
मतिराम की भाषा रसस्निग्ध और प्रसादपूर्ण तो है, चलती और सरल व्यंजक तो है किन्तु उसमें वह विदग्धता नहीं जो बिहारी में मिलती है। भूषण की गढ़त शब्दों और अव्यवस्थित रूप वाली भाषा की समता का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। देव की भाषा में भी अक्षर-मैत्री का अभाव है, शब्दव्यय अधिक और अर्थ अल्प हैं, वाक्य शिथिल और शब्दों को तोड़-मरोड मिलती है। बिहारी के समकक्ष यदि कवि की भाषा रखी जा सकती है तो पद्माकर और घनानंद की पद्माकर की भाषा के लाक्षणिक प्रयोग, उसकी अनेकरूपता, भाषा अधिकार, मधुर कल्पनाओं और नजीव मूर्ति विधान के गुण इन्हें वज का सफल कवि सिद्ध करते हैं तथा ब्रजभाषा की परम्परा में इनका विशेष स्थान है। धनानंद को भाषा के लिये तो आचार्य शुक्ल ने कहा है-
“भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था, वैसा और किसी कवि का नहीं। भाषा मानों इनके हृदय के साथ जुड़ कर ऐसी वशवर्तिनी हो गई थी कि ये उसे अपनी अनूठी भावभंगी के साथ साथ जिस रूप में चाहते थे उस रूप में मोड़ सकते थे। भाषा के लक्षण और व्यन्जक बल की सीमा कहाँ तक है, इनकी पूरी परख इनकी थी।’
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