द्विवेदीयुगीन काव्य प्रवृत्तियां अथवा ‘द्विवेदी युगीन काव्य में राष्ट्रीयता विषय पर एक निबन्ध लिखिए ।
हिन्दी कविता का भारतेन्दु युग अपनी नव चेतना के कारण प्रसिद्ध है तो द्विवेदी युग सुधा और परिष्कार के कारण। भारतेन्दु युग में रीतिकाल के जो अवशेष थे वे द्विवेदी युग तक आते-आते समाप्त हो गये। जीवन और साहित्य सुधार परिष्कार के रंगों में रंगकर आदर्श, नैतिकता और देश भक्ति के प्रशस्त पथ पर चल पड़ा। महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभावशाली और अनुशासन प्रिय व्यक्तित्व के कारण कवि व्याकरणनिष्ठ, परिष्कृत खड़ी बोली में परम्पराओं के नवीनीकरण की ओर भी झुके तथा मर्यादित मानव सम्बन्धों के निरूपण में भी लगते गये। इस काल में रचित कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-
1. देशभक्ति और राष्ट्रीयता- द्विवेदी युगीन कविता की प्रथम प्रवृत्ति देशभक्ति और राष्ट्रीयता के रूप में जानी जा सकती है। यह प्रवृत्ति पुनरुत्थान और राजनैतिक चेतना का परिणाम था। वस्तुतः इस काल के प्रायः सभी कवि आत्माभिमान और देशाभिमान की भावनाओं से भरपूर थे। श्रीधर पाठक जैसे कवियों ने स्पष्ट लिखा था- “वन्दनीय वह देश जहाँ के वासी निज अभिमानी हो।” सभी कवि पराधीनता को अभिशाप मानते थे। यदि शंकर कवि ने लिखा है कि ‘देशभक्त वीरों को भरने से तनिक नहीं डरना होगा, प्राणों का बलिदान देश को वेदी पर करना होगा तो राम नरेश त्रिपाठी ने अपने खण्ड काव्यों में परोक्ष रूप से परतंत्रता के बन्धन काटने का संदेश दिया। ‘भारत-भारती’ का रचयिता मैथिलीशरण गुप्त तो निश्चय ही राष्ट्रीय भावों काव्यख्याता बनकर आया है। भारत को श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए गुप्त जी ने लिखा था-
“भूलोक का गौरव प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ ?
फैला मनोहर हिमालय और गंगा जल जहाँ ।।
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है ?
उसका कि जो ऋषि भूमि है वह कौन ? भारतवर्ष है।”
द्विवेदीयुगीन कविता में उपलब्ध राष्ट्रीयता के अनेक रूप है, भ्रातृत्व भावना सांस्कृति दृष्टि का प्रसार, जन्मभूमि का देवीकरण और राजनैतिक चेतना आदि राष्ट्रीयता के ही विविध रूप है। मातृभूमि का देवीकरण श्रीधर पाठक को कविताओं में अधिक है तो विद्यार्थियों को सत् सेवा का व्रत धारण करने की प्रेरणा भी उन्हीं के द्वारा दी गई है। यथा-
“अहो, छात्र वर वृन्द नव्य भारत सुत प्यारे ।
मातृ-गर्व सर्वस्व मोद पद गोद दुलारे ||
सत सेवा व्रत धारा जगत् के हसे क्लेश तुम।
देश प्रेम में करो प्रेम का अभिनिवेश तुम ।। “
2. मानवतावादी दृष्टि- इस युग की कविता को दूसरी विशेषता मानवतावादी विचारों का प्रचार और प्रसार है। प्रायः सभी कवियों को दृष्टि मानवतावादी थी। इस काल में जो मानवतावादी दृष्टि मिलती है उसके तीन रूप हैं-1. नारी स्वातन्य और समानता की भावना, 2. भावना पीडित व दुखियों के प्रति सहानुभूति का प्रकाशन, 3 मानवीय गुणों की सहज स्थापना द्वारा सत्य के स्वरूप की निवृत्ति। इन तीन रूपों के आधार पर विकसित मानवतावादी भावना को आलोच्यकाल के प्रायः सभी कवियों में देखा जा सकता है। हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त और श्रीधर पाठक तीनों ने नारी स्वातंत्र्य और जागरण को महत्व दिया है। गुप्त जी का समस्त काव्य-विशेषकर यशोधरा, साकेत, विष्णुप्रिया और द्वापर सभी में नारी जागृति के प्रसारक काव्य है। उन्होंने उपेक्षिता-नारियों के उद्धार के सहारे नारीजागरण व स्वातन्त्र्य का मन्त्र फूंका है। उर्मिला यशोधरा और विष्णु त्रिया ऐसी हो नारियाँ है। हरिऔध की नारी तो इतनी चैतन्य है कि वह प्रिया से लोक सेविका तर्क बन गई है। महिलाओं को जागृति के पोषक ‘श्रीधर पाठक ने तो यहाँ तक लिखा दिया है-
“अहो पूज्य भरत महिला गण अहो ! आर्य कुल प्यारी ।
अहो आये गृह लक्ष्मी सरस्वती आयलोक उजियारी ॥”
‘साकेत’ को उर्मिला न केवल स्वयं जागृत है। अपितु सभी सखियों को भी चैतन्य बनाये हुए है। द्विवेदी युगीन कवियों ने शोषितोंच्च पीड़ितों के प्रति भी सहानुभूति प्रदर्शित की है। दीन हीन कृषक तथा विधवाओं व उपेक्षिकाओं को पीड़ा का वर्णन प्रायः सभी कवियों ने किया है। गुप्त जी को ‘किसान’, सियाराम शरण को ‘अनाथ व सनेही जी को “कृषक क्रन्दन’ जैसी रचनाओं कृषक वर्ग को पीड़ा का स्वर है। नाथूराम शर्मा की गर्भरण्डा का रहस्य में जन्म से पहले ही विधवा हो जाने वाली नारियों को बेदना का मार्मिक अंकन है। हरिओध जी ने भी उच्च वर्गों द्वारा किये गये उन अत्याचारों का वर्णन किया है, जिनके कारण तिन वर्ग पीड़ित और शोषित है। मानवीय गुणों की सहज स्थापना द्वारा सत्य के स्वरूप की निवृत्ति भी मैथिलीशरण, हरिऔध और रामनरेश त्रिपाठी की कविताओं में मिलती है। मानव सेवा को ही इन कवियों ने ईश्वर सेवा बताया है। ‘रामतुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या और में मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ कहकर गुप्त जी ने उक्त धारणा को ही पृष्ठ – किया है। हरिऔध की ‘राधा’ भी मानव सेवा में ईश्वर सेवा को अनुभूति करती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि द्विवेदी युग की कविता मानवतावादी दृष्टि से ओत-प्रोत है।
4. नीति आदर्श और मानवता – द्विवेदी युगीन काव्य की तीसरी प्रवृत्ति नीति, आदर्श और मानवता के भावों से युक्त है। इनके मूल में इस काल के कवियों को धार्मिक भावना का विशेष हाथ दिखाई देता है। डॉ० उमाकान्त ने लिखा है कि “द्विवेदी दुगीन काव्य आदर्शवादी और नीतिपरक है। इतिहास पुराण से गृहीत प्रसंगों के आधार पर अथवा कल्पना मिति उल कथाएं लेकर आदर्श चरित्रों पर अनेक प्रबन्ध काव्य लिखे गये। उन सबों में असत् पर सन्त की विजय दिखाई देता है।” स्वार्थ, त्याग, कर्तव्य पालन और आत्म गौरव आदि उच्चादशों की स्थापना के पीछे नीति, आदर्श और मानवतावादी दृष्टिकोण को देखा जा सकता है। साकेत, प्रियप्रवास, जयद्रथ वध, मिलन, गांधी गौरव और विकटभट इस काल की आदर्शवादी व मानवतावादी रचनाएँ हैं। आलोच्यकाल में प्रेम के आदर्श रूप कुसंगति के त्याग और प्रेम की शक्ति से सम्बन्धित कविताएँ भी प्रचुर मात्रा में लिखी गयी हैं। रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है-
“गन्ध विहीन फूल है जैसे चन्द्र-चन्द्रिका हीन।
यों ही फीका है मनुष्य का जीवन प्रेम विहीन।”
इसके साथ ही रामचरित उपाध्याय ने कुसंगति की हानियों को लक्ष्य करके निम्नांकित नीति परक पंक्तियाँ लिखी हैं-
“अति खल की संगति करने से जग में मान नहीं मिलता है।
लोहे के संग में पड़ने से धन की मार अनख सहता है ।
सबसे नीति शास्त्र कहता है, दुष्ट संग दुख का दाता है।
जिस पथ में पानी रहता है, वही खूब औटा जाता है ।।
5. प्रकृति निरूपण – द्विवेदीयुगीन कविता में प्रकृति की जो छवियाँ मिलती हैं, वे भी अत्यन्त हृदय-स्पर्शी हैं। गुप्त, हरिऔध, रामनरेश त्रिपाठी और लोचन प्रसाद पाण्डेय व गिरिधर शर्मा के काव्य में प्रकृति का मनोहारी रूप अंकित है। पंचवटी का चारु की चन्द्र की चंचल किरणों खेल रही हैं जल-थल में निशि की अन्धेरी जवनि के चुप-चेतना जब सो रही नेपथ्य में न जाने तेरी कौन सज्जा हो रही है और प्रिय प्रवास का अधिकांश भाग प्रकृति की छवियों में शोभित दिखाई देता है। सभी कवियों ने प्रकृति को अनुराग के साथ अपनाया है। श्रीधर पाठक ने प्रकृति के संवेदनात्मक और चित्रात्मक, पुरुष और कोमल दोनों रूपों को अपनाया है। डॉ० केशरी नारायण शुक्ल ने इस काल में प्रकृति चित्रण पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि- “द्वितीय उत्थान के कवि न प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन करता है और न ही मानवता को प्रकृति का कोई उपदेश ही दे सके। नैतिकता के कोरे उपदेश भी इसी के परिणाम हैं। इस काल के अधिकांश कवि प्रकृति के ऊपरी रूप की झलक मात्र से सन्तुष्ट थे। उन्होंने प्रकृति की अन्तरात्मा तक पहुँचने का प्रयत्न बहुत कम किया। “
6. इतिवृत्तात्मकता- द्विवेदी युगीन कविता इतिवृत्तात्मक रही है। द्विवेदी के आदर्श व संयम के कारण तथा धार्मिक आन्दोलनों के प्रभाववश इस काल की अधिकांश कविता, नीरस उपदेश प्रधान और इतिवृत्तात्मक रही है । इतिवृत्तात्मकता की प्रकृति के कारण आलोच्यकालीन कविता में पवित्रतावाद, वैराग्यवाद और शुभ संन्यासी रूप अधिक है। सम्भवतः इसी कारण दिनकर ने इस काल की कविता को “शुभ्र वसना संन्यासिनी” कहा है।
7. कालानुसरण की क्षमता- ‘द्विवेदी युग के प्रायः सभी कवियों की कविता में युग की बदलती हुई भावनाओं को आत्मसात् करने की शक्ति और काल-क्रमानुसार उद्भुत काव्य रूपों और शैलियों को अपनाने की अपार क्षमता है।’ गुप्त जी इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। उन्होंने द्विवेदी युग और बाद में विकसित छायावादी चेतना को आत्मसात् करके ही काव्य रचना की है।
8. अन्य विशेषतायें- उपर्युक्त प्रमुख विशेषताओं के अतिरिक्त आलोच्य काल की कतिपय अन्य विशेषतायें भी मिलती हैं। इनमें विषय-वैविध्य की प्रवृत्ति, देश के अतीत का गुणानुवाद और अनुवाद कार्य को भी लिया जा सकता है। हिन्दी भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाने के लोभ के कारण देशी-विदेशी साहित्य की कविताओं का हिन्दी खड़ी बोली में अनुवाद किया गया।
9. अभिव्यंजना कौशल- द्विवेदी युगीन कविता के अभिव्यंजना कौशल की प्रमुख विशेषतायें निम्न हैं-
1. भाषा की दृष्टि से खड़ी बोली की प्रतिष्ठा हुई है। उसे परिष्कृत व व्याकरण शुद्ध रूप में प्रयोग किया गया है। बज भाषा को अपदस्थ करके गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में खड़ी बोली को सस्नेह और साग्रह अपनाया गया है। हरिऔध व गुप्त जी व त्रिपाठी तथा पाठक की भाषा उस काल का प्रतिनिधि भाषा है।
2. काव्य रूपों के विविधता भी आलोच्य काल की उपलब्धियों में परिगणित की जाती है। इस काल के कवियों में प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य और प्रगति मुक्तकों का भी प्रणयन किया गया है। डॉ० कृष्णलाल ने लिखा है कि “पच्चीस वर्षों में अद्भुत परिवर्तन हो गया। मुक्तकों के वन-खण्डों के स्थान पर महाकाव्य व्याख्यान काव्य, प्रेमाख्यान, काव्य, गीति-काव्य, प्रबन्ध काव्य और गीतों से सुसज्जित काव्योपवन का निर्माण होने लगा।”
3. छन्दों की दृष्टि से भी इस काल में हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी के छन्दों का प्रयोग किया गया। छन्दों के क्षेत्र में नवीनता तो ये कवि न ला सके किन्तु भाषा का परिष्कार अवश्य कर सके।
द्विवेदी युग की प्रवृत्तियों का विहंगावलोकन करने पर परिलक्षित होता है कि इस युग में हिन्दी साहित्य के भाव-पक्ष और पक्ष दोनों में एक नवीन आदर्श की प्रतिष्ठा हुई। शिवकुमार शर्मा के शब्दों में द्विवेदी युग भारतेन्दु युग और छायावादी युग के बीच की कड़ी है। यह युग भारतेन्दु से प्रभावित हुआ और इसने अग्रिम युग को प्रभावित किया। इस युग में कुछ कवि ऐसे हैं, जिनकी रचनाओं में कविता की नवीन प्रवृत्तियों के बीज सन्निहित हैं।”
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