छायावाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके नामकरण तथा परिवेश पर प्रकाश डालिए । हुआ ?
छायावादी युग (1918-1939)
लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय के शब्दों में द्विवेदी युग की काव्यगत इतिवृत्तात्मकता तथा स्थूलता और आदशों की प्रतिक्रिया और अंग्रेजी के रोमान्टिक कवियों की काव्य रचना के अध्ययन के फलस्वरूप छायावाद का जन्म हुआ।”
कालावधि-दो विश्व युद्धों के बीच सृजित स्वच्छन्दतावाद की कविता को सामान्यतः छायावाद के नाम से अभिहित किया गया। सन् 1918 से लेकर 1939 ईसवी पर्यन्त छायावादी काव्य अपने पूर्ण यौवन के साथ हिन्दी साहित्य के रंगमंच पर अपनी मनोहारी अदाएँ दिखाता रहा।
छायावादी की परिभाषाएँ एवं नामकरण- मुकुटधर पाण्डेय ने सर्वप्रथम व्यंग्यात्मक रूप में शब्द का स्वच्छन्दतावादी नवीन अभिव्यक्तिमय रचनाओं के लिए प्रयोग किया। जो बाद में इस कविता के लिए रूढ़ हो गया और स्वयं स्वच्छन्दतावादी कवियों ने इसे अपना लिया।
जयशंकर प्रसाद के शब्दों में- “अपने भीतर से पानी की तरह अन्तः स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कान्तिमय होती है।”
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेई के शब्दों में- “मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौन्दर्य में आध्यात्मिक छाया का भाव मेरे विचार में छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।”
डॉ० देवराज के शब्दों में- “डॉ० देवराज कहते हैं कि छायावाद गीतकाव्य है, प्रकृति काव्य है, प्रेम काव्य है।”
डॉ० रामविलास शर्मा के शब्दों में- “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह नहीं रहा वरन् थोथी नैतिकता रूढ़िवाद और सामन्ती साम्राज्यवादी बन्धनों के प्रति विद्रोह रहा है।”
डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में- “छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव पद्धति है, जीवन के प्रति एक विशेष भावात्मक दृष्टिकोण है।” इस प्रकार डॉ० नगेन्द्र ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा है।”
महादेवी शर्मा के शब्दों में- ‘छायावाद ने मनुष्य के हृदय और प्रकृति के उस सम्बन्ध में प्राण डाल दिये जो प्राचीनकाल से बिम्ब-प्रतिविम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके करण मनुष्य को प्रकृति अपने दुःख में उदास और पुलकित जान पड़ती थी। “
रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- ‘छायावाद छन्द का प्रयोग दो अथों में समझना चाहिए एक तो रहस्यवाद के अर्थ में जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता अर्थात् यहाँ कवि अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन कर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है।
डॉ० राजकुमार के शब्दों में- “परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा में यही छायावाद है।
श्री शान्ति प्रिय द्विवेदी के शब्दों में- “छायावाद एक दार्शनिक अनुभूति है।”
छायावाद का परिवेश- हिन्दी की छायावादी काव्यधारा का उद्भव तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और साहित्यिक परिस्थितियों में देखा जा सकता है। इन परिस्थितियों का अध्ययन इस कविता की धारा के सम्यक् विश्लेषण के लिए आवश्यक है ।
1. राजनायिक परिवेश- छायावादी काव्य की वेदना और निराश का सम्बन्ध प्रथम महायुद्ध के बाद अंग्रेजी शासन का अपने वचनों को पूरा न करना, रोलेक्ट एक्ट तथा 1919 के अवज्ञा आन्दोलन की असफलता के साथ जोड़ा है। जब छायावाद का जन्म हुआ उस समय राष्ट्रीय आन्दोलन चल रहे थे और यदि वे न भी होते तब भी छायावादी काव्य का जन्म अवश्यम्भावी था और उसका स्वरूप भी यही होता जो अब हमारे सामने है। डॉ० शिवदान सिंह चौहान के शब्दों में- ‘यदि हमारा देश पराधीन न होता और हमारे यहाँ राष्ट्रीय आन्दोलन की आवश्यकता न रही होती, तो भी आधुनिक औद्योगिक समाज (पूँजीवाद) का विकास होते ही काव्य में स्वच्छन्दतावादी भावना और व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति मुखर हो उठती। इसलिए छायावादी कविता राष्ट्रीय आन्दोलन या जागृति का सीधा परिणाम नहीं बल्कि पाश्चात्य अर्थव्यवस्था और संस्कृति के सम्पर्क में आने के परिणामस्वरूप हमारे देश और समाज के बाहरी और भीतरी जीवन में प्रत्यक्ष और परोक्ष परिवर्तन हो रहे थे। उन्होंने जिस तरह सामूहिक व्यवहार कर्म के क्षेत्र में राष्ट्रीय एकता की भावना जगाई और राष्ट्रीय संघर्ष की प्रेरणा दी, इसी तरह सांस्कृतिक क्षेत्र में उसने स्वच्छन्दतावाद की प्रवृत्ति की प्रेरणा दी।” इस दृष्टि से ही हम कह सकते हैं कि देश की प्राचीन संस्कृति और पाश्चात्य काव्य के प्रभावों को ग्रहण करती हुई छायावादी कविता राष्ट्रीय जागरण के कोढ़ में पनपी और फूली फली ।
2. धार्मिक परिवेश – छायावादी काव्य दर्शन प्राचीन अद्वैतवाद तथा सर्वात्मवाद से प्रभावित है। महादेवी वर्मा के शब्दों में- “छायावादी कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है जो मूर्त और अमूर्त विश्व को मिलाकर पूर्णता पाता है।’ छायावादी कवि हृदय ही भाव भूमि पर प्रकृति में बिखरी सौन्दर्य की रहस्यमयी अनुभूति कर सुख-दुःखों को मिलाकर एक ऐसी काव्य सृष्टि करता है, जो प्रकृतिवाद, हृदयवाद, अध्यात्मवाद, रहस्यवाद, छायावाद के नामों से अभिहित की जाती है। छायावादी काव्य पर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गाँधी, टैगोर तथा अरविन्द के दर्शनों का गहन प्रभाव पड़ा।
3. सामाजिक परिवेश- पाश्चात्य शिक्षा संस्कृति एवं अर्थव्यवस्था के प्रभाव के परिणामस्वरूप भारतीय समाज के सम्पूर्ण जीवन में विचारों में एक नूतन क्रान्ति आई जिसने एक ओर हमारे देश में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रीय क्रान्ति को जन्म दिया वहाँ दूसरी ओर सांस्कृतिक क्षेत्र में स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया। देश के नवयुवकों में वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश में भी पर्याप्त अन्तर आया। स्वच्छन्दतावादी नवीन पीढ़ी धार्मिक, सामाजिक रूढ़ियों, जाँति-पाँति के अन्धविश्वासों तथा मिथ्या आडम्बरों को छिन्न-भिन्न करने को तत्पर थी जबकि दूसरी ओर पुरानी पीढ़ी की समस्त रूड़ियाँ, अडिग चट्टान के समान थी जो कि उनके स्वप्नों के स्वर्णिम संसार को नष्ट करने में सक्षम है जिसके परिणामस्वरूप जीवन में अतृप्ति, निराश एवं कुण्ठा की भावनाएँ वृद्धि को प्राप्त होती हुई छायावादी काव्य में अभिव्यक्ति हुई। इस प्रकार की सामाजिक स्थिति में छायावादी काव्य में व्यक्तिवाद का प्राधान्य और स्वच्छन्दतावाद की दुहाई देना स्वाभाविक था।
4. साहित्यिक परिवेश- अंग्रेजी साहित्य के रोमाण्टिसिज्म (स्वच्छन्दतावाद) का हिन्दी के छायावादी काव्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। अंग्रेजी साहित्य की स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएं- “प्राचीन रूढ़ियों के प्रति विद्रोह मानवतावाद, वैयक्तिक प्रेम की अभिव्यंजना, रहस्यात्मकता सौन्दर्य का सूक्ष्म चित्र, प्रकृति में चेतना का आरोप, रीति शैली और व्यक्तिवाद आदि हिन्दी के छायावाद में समान रूप से मिलती है।” बंगला साहित्य अंग्रेजी साहित्य के रोमाण्टिसिज्म से प्रभावित हो चुका था अतः हिन्दी छायावादी कवियों ने भी आंग्ल प्रभाव ग्रहण करने में संकोच नहीं किया। छायावादी केवल स्वच्छन्दतावाद की अन्धानुकृति मात्र नहीं अपितु छायावाद का उद्भव भारत की संस्कृति और सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप हुआ। छायावादी कवि का जीवन और जगत के प्रति अपना स्वयं का दृष्टिकोण है। अन्तर यही है कि छायावाद और स्वच्छन्दतावाद की उदयकालीन परिस्थितियों में गहरा साम्य है।
उपर्युक्त परिवेश में छायावादी काव्यधारा का उदय हुआ फिर क्या था मेघों के वनों के बीच में गुलाबी रंग के बिजली के फूल खिलने लगे । व्यथित व्योम गंगा-सी चेतना तरंगें हिलोरें लेने लगीं, अभिलाषाएँ करवटें बदलने लगीं। सुप्त व्यथाएँ जगने लगीं। कवि का मानस उन्मुक्त होकर कल्पना के पंख फैलाकर नील गगन में विचरण करने लगा। इस प्रकार स्वर्णिम अभिरामता के लिए परियों के नमूह-सा छायावाद धीरे-धीरे आधुनिक साहित्य जगत पर अवतीर्ण हुआ।
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