हिन्दी साहित्य

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ | prayogavaadee kavita kee pramukh pravrttiyaan

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ | prayogavaadee kavita kee pramukh pravrttiyaan
प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ | prayogavaadee kavita kee pramukh pravrttiyaan

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ

(1) घोर अहंनिष्ठ व्यक्तिवाद – प्रयोगवादी कविता के लेखक की अंतरात्मा में अहंनिष्ठ इस रूप से बद्धमूल है कि वह सामाजिक जीवन के साथ किसी प्रकार के सामंजस्य का गठबन्धन नहीं कर सकता। यह एक प्रकार से व्यक्तिवाद की परम विकृति में परिणति है। वैयक्तिकता का अभिव्यंजन आधुनिक हिन्दी साहित्य की एक प्रमुख विशेषता है। भारतेन्दु द्विवेदी एवं छायावादी युग में वैयक्तिकता की प्रधानता रही है, किन्तु वह वैयक्तिकता समष्टि से सर्वथा विच्छिन्न नहीं थी, उसमें उदात्त लोक व्यापक भावना थी। पूर्ववर्ती साहित्य में वैयक्तिकता की अभिव्यंजना में सहृदय संवेद्यता एवं प्रेषणीयता को पर्याप्त क्षमता थी, किन्तु प्रयोगवाद की वैयक्तिकता के समीप में जर्जरित थाथा घोपा ही रह गया। जहाँ “कवि न हो नहि चतुर कहा” जैसी उदात्त अभिव्यंजना हुई, वहाँ प्रयोगवादी काल में वैयक्तिकता आत्मविज्ञापन एवं प्रख्यापन ही बन कर रह गई। उदाहरणार्थ-

साधारण नगर में

मेरा जन्म हुआ

बचपन बीता अति साधारण

साधारण खान पान

तब मैं एकाग्रमन

जुट गया प्रन्थों में

मुझे परीक्षाओं में विलक्षण श्रेय मिला ?

-भारतभूषण

इन कविता नामधारी पंक्तियों में हिन्दी साहित्य की कहाँ तक श्रीवृद्धि होगी इस बात को तो पाठक वर्ग जानता ही होगा। डा० शिवदानसिंह चौहान इन कवियों की वैयक्तिकता के सम्बन्ध में लिखते हैं- “साधारणतया प्रयोगवादी कविताओं में एक दयनीय प्रकार की झुंझलाहट, खीज, कुंठा, किशोर, औदात्य और हीन भाव ही व्यक्त हुआ है, जो कवि के व्यक्तित्व को प्रमाणित करने का नहीं, खण्डित करने का मार्ग है। महान् कविता का जन्म सारे संसार को, समाज को, जीवन के प्रगतिशील आदर्शों और नैतिक भावनाओं को एक उद्दण्ड और छिछोरे बालक की तरह मुँह बिचकान से नहीं होता। सामाजिक बन्धनों के प्रति व्यक्तिवादी प्रतिवाद का यह तरीका स्वांग बनकर ही रह जाता है।”

(2) अति नग्न यथार्थवाद- इस कविता में दूषित मनोवृत्तियों का चित्रण भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया है। जिस वस्तु को एक श्रेष्ठ साहित्यकार अरुचिकर, अश्लील, ग्राम्य और अस्वस्थ समझकर उसे साहित्य जगत से बहिष्कृत करता है। प्रयोगवादी उसी के चित्रण में गौरव अनुभव करता है। उसकी कविता का लक्ष्य दमित वासनाओं एवं कुंठाओं का चित्रण मात्र रह गया है। काम-वासना जीवन का अंग अवश्य है, किन्तु जब वह अंग न रहकर अंगी और साधन न रहकर साध्य बन जाती है तब उसकी विकृति एक घोर भयावह विकृति के रूप में होती है। प्रयोगवादी साहित्य में वासना की विवृत्ति उसी उक्त रूप में हुई है। उदाहरण के लिए देखिये

मरे मन की अंधियारी कोठरी में,

अतृप्त आकांक्षाओं की वेश्या बुरी तरह खाँस रही है।

पास घर आते तो

दिन भर का का जिया मचल जाये।

– अनन्तकुमार पाषाण

शकुन्तला माथुर अपनी ‘सुहाग वेला’ नामक कविता में लिखती हैं-

चली आई वेला सुहागिन पायल पहने…..

बाण्ध विद्ध हरिणी सी

बाँहों में सिमट जाने की

उलझने की, लिपट जाने की

मोती की लड़ी समान….. ।

उपर्युक्त पंक्तियों में भारतीय नारी का अनावृत चारित्रिक औदात्य और दाक्षिण्य दर्शनीय है। कवि-कलगुरू कालिदास ‘आदि ने जहाँ काम क्रियाओं का कलात्मक अभिव्यंजन किया है, वहाँ कवियित्री कामवासना के अभिधात्मक कथन में गौरव का अनुभव करती है। भारतीय काव्यशास्त्रियों ने कामचेष्टाओं के चित्रण-प्रसंगों में गूढ़ इंगितों द्वारा कलात्मक अभिव्यक्ति का सत्परामर्श दिया है।

प्रयोगवादी काव्य में सामाजिकता का घोर तिरस्करण हुआ है। कवि-कल्पना जो घण्टों तक सहृदयों को आत्मविभोर कर देती है, यहाँ इस नयी कविता में उसका स्थान महाशय फ्रायड के अवचेतनवादी मनोविश्लेषण के सिद्धान्तों ने ले लिया है। प्रेम का कोई उदात्त रूप इस तथाकथित नयी कविता में अभिव्यक्त नहीं हुआ है। इनकी वासनात्मक दृष्टि जीं भी पड़ी है वहाँ उसे कुरूपता ही हाथ लगी है जैसे कि सुरुचि सम्पन्नता एवं निष्कलुष सौन्दर्य इस जगत् में हो ही नहीं। बड़े आश्चर्य की बात यह हैं कि यौन वर्जनाओं के वर्णन कार्य में इस धारा के कवि ने युग सत्य की अभिव्यक्ति का लबादा पहनकर अपनी ईमानदारी प्रख्यापित की है। अपनी पुस्तक ‘तार सप्तक’ की भूमिका में अज्ञेय जी लिखते हैं-“आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति सेक्स सम्बन्धी वर्जनाओं से आक्रान्त है। उसका मस्तिष्क दमन की गई सेक्स की भावनाओं से भरा हुआ है।” यह सच है कि इस नई कविता के कवि भी अपने गुरु फ्रायड के समान चले हैं। यही कारण है कि इस कविता में नारी की बुरी तरह मिट्टी पलीत हुई है-

आह मेरा श्वास है उत्तप्त-

धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार

प्यार है अभिशप्त

तुम कहाँ हो नारि ?

इस सम्बन्ध में कवि पन्त के विचार अवलोकनीय हैं- “जिस प्रकार प्रगतिवादी काव्यधारा मार्क्सवाद एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नाम पर अनेक प्रकार से सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कुतकों में फँसकर एक कुरूप सामूहिकता की ओर बढ़ी, उसी प्रकार प्रयोगवाद की निर्झरिणी कल-कल छल-छल करती हुई फ्रायडवाद से प्रभावित होकर स्वप्निल, फेनिल स्वर-संगीतहीन भावनाओं की लहरियों से मुखरित, उपचेतन, अवचेतन की रुद्ध क्रुद्ध ग्रन्थियों को मुक्त करती हुई दमित, कुंठित आकांक्षाओं को वाणी देती हुई, लोकचेतना के स्रोत में नदी के द्वीप की तरह प्रकट होकर निम्न स्तर पर इसकी सौन्दर्य-भावना केचुओं, घोंषों, मेंढकों के उपमानों के रूप में सरीसृपों के जगत् से अनुप्राणित होने लगी।”

(3) निराशावाद – नई कविता का कवि अतीत की प्रेरणा और भविष्य की उल्लासमयी उज्ज्वल आकांक्षा दोनों से विहीन है, उसकी दृष्टि केवल वर्तमान पर ही टिकी है। यह निराशा के कुहासे से सर्वतः आवृत्त है। उसका दृष्टिकोण दृश्यमान जगत् के प्रति क्षणवादी तथा निराशावादी है। उसके लिए कल निरर्थक है, उसे उसके दोनों रूपों पर भरोसा और विश्वास नहीं है। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में- “उनकी (नई कविता के कवियों की) स्थिति उस व्यक्ति की भाँति है जिसे यह विश्वास हो कि अगले क्षण प्रलय होने वाली है, अतः वह वर्तमान क्षण में ही सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं-

आओ हम उस अतीत को भूलें,

और आज की अपनी रंग-रंग के अन्तर को छू लें

छू लें इसी क्षण,

क्योंकि कल के वे नहीं रहे,

क्योंकि कल हम भी नहीं रहेंगे।

(4) अति बौद्धिकता- आज की नई कविता में अनुभूति एवं रागात्मकता की कमी है, इसके विपरीत इसमें बौद्धिक व्यायाम की उछल-कूद आवश्यकता से भी अधिक है। नया कवि पाठक के हृदय को तरंगित तथा उद्वेलित न कर उसकी बुद्धि को अपनी पहेली बुझौवल के चक्रव्यूह में आबद्ध करके उसे परेशान करना चाहता है। वह कुरेद-कुरेद कर अपने मस्तिष्क से कविता को बाहर निकाल कर पाठक के मस्तिष्क पर उसका बोझ डालकर उसे भी अपना मस्तिष्क कुरेदने पर विवश करना चाहता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आज की नई कविता में रागात्मकता के स्थान पर अस्पष्ट विचारात्मकता है और इसलिए उसमें साधारणीकरण की मात्रा का सर्वथा अभाव है। प्रयोगवाद के प्रशंसकों का कहना है कि आज के बुद्धिवादी वैज्ञानिक युग में जीवन-सत्य की सही अभिव्यक्ति बौद्धिकता से ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बुद्धि-रस की एक नवीन उदभावना भी कर ली है, जो कि नितान्त अशास्त्रीय है। अस्तु, धर्मवीर भारती इस कविता की बौद्धिकता का समर्थन करते हुए लिखते हैं-“प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावा के सामने एक प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। इसी प्रश्नचिन्ह को आप बौद्धिकता कह सकते हैं। सांस्कृतिक ढाँचा चरमरा उठा है और यह प्रश्नचिन्ह उसी की ध्वनिमात्र है।” उदाहरण के लिए कुछ पंक्तियाँ देखिये-

अंतरंग की इन घड़ियों पर छाया डाल दूँ !

अपने व्यक्तित्व को एक निश्चित साँचे में ढाल दूँ ।

निजी जो कुछ है अस्वीकृत कर दूँ !

सम्बोधनों के स्वर्ग को उपसंहज कर दूँ !

आत्मा को न मानूँ !

तुम्हें न पहचानू !

तुम्हारी त्वदीयता को स्थिर शून्य में उछाल दूँ !

तभी,

हाँ,

शायद तभी……….

ये किसी सफल नये कवि की पंक्तियां हैं, क्योंकि ये पाठक के मस्तिष्क को परेशान करने में पूर्ण समर्थ हैं। यदि यही कवि कर्म है तो फिर सभी कवि हो सकते हैं।

(5) वैज्ञानिक युग-बोध और नये मूल्यों का चित्रण- प्रस्तुत काव्यधारा के लेखक ने आधुनिक युग-बोध और वैज्ञानिक बोध के नाम पर मानव जीवन के नवीन मूल्यों का अंकन न करके मूल्यों के विघटन से उत्पन्न कुत्सित विकृतियों का चित्रण किया है। नई कविता के लेखक ने संक्रान्तिजन्य त्रास, यातना, घुटन, द्वन्द्व, निराशा, अनास्था, जीवन की क्षणिकता, सन्देह तथा अनेकधा-विभक्त-व्यक्तित्व का निरूपण किया है। इसे आधुनिक बोध या वैज्ञानिक बोध कहना नितान्त भ्रामक है। निःसन्देह आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य की आस्था, विश्वास, करुणा और प्रेम जैसी चिरंतन भावनाओं को जोरदार आघात पहुंचाया है। किन्तु ये उसके केवल निषेधात्मक मूल्य हैं। इसके अतिरिक्त परस्पर सहयोग, विश्व मानवतावाद, विश्व शान्ति, अन्तर्राष्ट्रीयता स्थान और समय के व्यवधान की समाप्ति तथा ज्ञान का अपरिमित विस्तार आदि उसके विधात्मक मूल्य हैं। नई कविता विज्ञान के केवल निषेधात्मक मूल्यों के चित्रण तक ही सीमित है।

(6) रीतिकाव्य की आवृत्ति- बड़े आश्चर्य का विषय है कि अत्याधुनिकता का दंभ भरने वाली नई कविता सदियों पुराने रीतिकाव्य की पद्धति का अनुसरण कर रही है। जिस प्रकार रीतिबद्ध शृंगारी कवि ने जीवन के व्यापक मूल्यों में से केवल रसिकता और कामुकता का एक विशेष पद्धति पर चित्रण किया वैसे ही नया कवि जुगुप्सित कुंठाओं एवं दमित वासनाओं पर वैज्ञानिक बोध का झिल-मिल आवरण डाल कर उनकी अर्थशून्य अभिव्यक्ति में संलग्न है। रीति कवि के काव्य में जीवन के मांसल भोग की गहन अनुभूतियाँ थीं, जबकि नई कविता में जीवन के प्रति वितृष्णा को गाया जा रहा है। रीतिकाव्य की चमत्कारवादिता नई कविता में भी देखी जा सकती है। रीतिकाव्य का कलापक्ष परम मनोरम है किन्तु खेद है कि नई कविता का यह पक्ष भी प्रायः दुर्बल, अव्यवस्थित और कला-शून्य है। रीतिकाव्य में काम-वृत्ति को सर्वप्रमुखता प्रदान करते हुए उसकी बिना किसी गोपन के उत्कट भोगपरक अभिव्यक्ति की गई है। किन्तु नये कवि की भोग-लिप्सा एक नपुंसक की भोग-रुग्णता जैसी है। इसमें यत्र-तत्र दमन, ग्रंथियाँ और बिम्बों की भूल-भुलइया है।

(7) उपमानों की नवीनता- उपमानों की नवीनता, रूपकों का विधान और अलंकारिता के सम्बन्ध में भी नये कवि ने नितान्त अलौकिक नवीनता को खोजना चाहा है। उदाहरण के लिए देखिये-

प्यार का बलब फ्यूज हो गया

आपरेशन थियेटर सी जो हर काम करते हुए भी चुप है

बिजली के स्टोव सी जो एकदम सुर्ख हो जाती है 

पहिले दरजे में लोग कफन की भाँति उजले वस्त्र पहने

पूर्व दिशि में हड्डी के रंग वाला बादल लेटा है।

मेरे सपने इस तरह टूट गये जैसा भुंजा हुआ पापड़

उपर्युक्त उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि कलाकार को नवीनता के आवेश में औचित्य का अतिक्रमण करके कलाबाज बाजीगर नहीं बन जाना चाहिए। आलंकारिकता के नियोजन में सुरुचि का ध्यान रखना भी आवश्यक है। अलंकारों का धर्म काव्य-सौन्दर्य में अभिवृद्धि करना है, किन्तु उज़ले वस्त्रों के कफन की उपमा देना, बादल को हड्डी कहने तथा टूटे सपने को भुँजा हुआ पापड़ कहने से सौन्दर्य-सृष्टि न होकर पाठक के मन में विक्षोभ की सृष्टि होती है। हाँ, कहीं-कहीं पर नये कवि ने उपमानों का प्रयोग अच्छा भी किया है। किन्तु प्रायः इस धारा के कवि ने वैचित्र्य प्रदर्शन की धुन में उपमानों के साथ ही की है। व्यक्ति वैचित्र्यवाद श्रेष्ठ काव्य का प्रतिगामी है।

यौन-सम्बन्धी वर्जनाओं की अभिव्यक्ति में नये कवि ने नाना प्रतीकों से काम लिया है और कदाचित् इन प्रतीकों के बाहुल्य के आधार पर इस कविताधारा को प्रतीकवाद के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इन कवियों ने अपने प्रतीकों को छायावादी कवि के समान प्रकृति से ग्रहण न करके अवचेतन मन की अन्ध-गुफाओं से लिया है, यही कारण है कि इन नवीन प्रतीकों के साथ सहज तादात्म्य नहीं हो पाता है। नयी कविता में नदी के द्वीप का प्रतीक बहुत प्रचलित है। इसी प्रकार प्रकाश के लिए दीप, मशाल और तारा के लिए टार्च के प्रतीकों का प्रयोग किया गया है। प्रायः इनके प्रतीक और विम्ब विधान बहुत कुछ पुराने आलंकारिकों के खड़ग बन्ध, पद्म बन्ध और गोमूत्रिका के चित्रों जैसे बनते जा रहे हैं। इससे यह कविता कविता न रहकर कोरी कारीगरी बनती जा रही है। कहीं-कहीं पर इस कविता में मार्मिक प्रतीकों और बिम्बों का विधान भी देखा जा सकता है ।

(8) विषय परिधि- प्रयोगवादियों का दावा है कि नई कविता का सम्बन्ध किसी एक देश-विशेष से न होकर समस्त संसार के साथ है। अतः उसके विषयों की परिधि भी अत्यन्त व्यापक है। इसमें अणीयान् से महीयान् एवं सूक्ष्म से स्थूल सभी विषय ग्रहण किये जाते हैं। अस्तु, कदाचित यही कारण है कि इस कविता में चींटी से लेकर हिमालय तक सब प्रकार के पदार्थों का ग्रहण किया गया है। नये कवियों का विश्वास है कि संसार की कोई भी वस्तु अवहेलनीय नहीं है। प्रयोगवादी कवि ने अपनी असामाजिक एवं अहंवादी प्रकृति के कारण तुच्छ से तुच्छ वस्तु को अपनी कविता का विषय बना लिया है। उसके सामने “है राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है”, वाला काव्य का कोई उच्चादर्श नहीं है। “इसलिए कविता में पहली बार कंकरीट के पोर्च, चाय की प्याली, सायरन, रेडियम की घड़ी, चूड़ी का टुकड़ा, बाथरूम, क्रोशिए, गरम पकौड़ी, बाँस की टूटी हुई टट्टी, फटी ओढ़नी की चिन्दिया, मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्ति में तीन टाँगों पर खड़ा नत प्रीव धैर्य-धन गदहा, बच्चे, दई मारे पेड़े इत्यादि का चित्रण हुआ।” शैलीगत रूढ़ियों और परम्पराओं के समान उसे विषय सम्बन्धी कोई भी रूढ़ि मान्य नहीं है।

(9) छन्द – कविता के अन्य क्षेत्रों में समान प्रयोगवादी कलाकार प्राय: छन्द आदि के बन्धन को स्वीकार न करके मुक्तक परम्परा में विश्वास रखता है और उसने इसी का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं इन्होंने लोकगीतों के आधार पर अपने गीतों की रचना की है। कहीं-कहीं पर इन्होंने इस क्षेत्र में अपने नये प्रयोग किये हैं। कुछ ऐसी भी प्रयोगवादी कविताएँ हैं जिनमें न लय है और न गति, उनमें गद्य की-सी नीरसता और शुष्कता है। हिन्दी के एक प्रसिद्ध आलोचक का प्रयोगवादियों के छन्दों के सम्बन्ध में कथन है, “यही कारण है कि प्रयोगवादी कवियों के मुक्तक छन्द अपने में हलचल सी, एक बवण्डर सा रखते हुए प्रभावशून्य प्रतीत होते हैं। उनकी करुणा और उच्छ्वास भी पाठक के हृदय को द्रवित नहीं कर पाते। हाँ, तो होता क्या है एक विस्मयकारिणी सृष्टथ् “.

प्रयोगवादी कवि ने शैली के भी विविध प्रयोग किये हैं। वैचित्र्य प्रदर्शन और नवीनता की धुन के कारण इस दिशा में दुरूहता आ गई है। प्रयोगवादी कवि शायद इस तथ्य को भूल जाता है कि कविता की उदात्तता उसकी अन्तरात्मा में है न कि बाह्य रूप विधान में। इस कविता का भीतर इतना खोखला है कि बाहर की सारी चमक-दमक व्यर्थ सिद्ध होती है और वह पाठक के मन पर कोई इष्ट प्रभाव नहीं डालती ।

(10) भाषा – प्रयोगवादी कवि ने कहीं-कहीं पर भाषा के अच्छे प्रयोग किये हैं, किन्तु कहीं-कहीं पर उसने अपनी विलक्षण स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति के कारण खड़ी बोली के व्याकरण-सम्मत रूप की अवहेलना की है। उदाहरणार्थ रघुवीर सहाय की निम्न पंक्तियाँ देखिए-

शक्ति दो बल हे पिता ।

जब दुःख के भार से मन थकने आय

पैरों में कुली की सी लपकती चाल छटपटाय

तुम से मिला है जो विक्षत जीवन का हमें दाय

उसे क्या करें ?

तुमने जोरी है अनाहत जिजीविषा

उसे क्या करें ? कहीं अपने पुत्रों, मेरे छोटे

भाइयों के लिए यही कहो।

‘यहाँ ‘थकने आय’ व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य है तथा संदर्भापेक्षा की दृष्टि से ‘विक्षत’ तथा ‘जिजीविषा’ शब्दों का अर्थ-गाम्भीर्य विचारणीय है। ‘हम कुंज कुंज यमुना तीरे’ में तीरे का प्रयोग बंगला के अनुसार हैं, खड़ी बोली के अनुसार नहीं । दमित वासनाओं और कुंठाओं के वर्णनामह से इनकी भाषा में ग्राम्य दोष का आ जाना भी स्वाभाविक है। भाषा में नवीन प्रयोग की हठवादिता से इन्होंने अपनी कविता की भाषा में भूगोल, विज्ञान, दर्शन, मनोविश्लेषण शास्त्र एवं बाजारू बोली के शब्दों का प्रयोग करने में संकोच नहीं किया है। कहीं कहीं पर उन्होंने जान-बूझकर शब्दों का रूप तोड़ा मरोड़ा है जो कि समीचीन नहीं है। भाषा, भाव, शैली और छन्द आदि के क्षेत्र में सुरुचि सम्पन्नता के स्थान पर अनपेक्षित विलक्षणता को प्रश्रय देने के कारण इनकी कविता का अपना ढांचा भी आधुनिक सांस्कृतिक ढाँचे के समान चरमरा उठा है।

प्रयोगवाद और आलोचक- आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी तथा डा० नगेन्द्र जैसे हिन्दी के अधिकारी समालोचक विद्वानों ने कविता की इस धारा को एकमात्र अस्वस्थ बताया है और प्रयोगवादी बाल-कवियों की कटु आलोचना की है। डा० नन्ददुलारे का कहना है कि किसी भी अवस्था में यह प्रयोगों का बाहुल्य वास्तविक साहित्य सृजन का स्थान नहीं ले सकता।” उनका कहना है कि इस नई कविता में अति बौद्धिकता है और साधारणीकरण का नितान्त अभाव है। उनके अपने शब्दों में- “यह कौर सी नवीनता है जिसके साधारणीकरण में इतना सन्देह और विश्वास है ? निश्चय ही साधारणीकरण में विलम्ब या असामर्थ्य वे ही कृतियाँ उत्पन्न करती हैं जिनकी भाव-धारा असामाजिक हैं, लोक- रुचि अथवा लोक की आशा-आकांक्षा के प्रतिकूल है, इतनी निजी या वैयक्तिक है कि समाज उसी की अपेक्षा करता है अथवा ऐसी उलझी हुई और रहस्यमय है कि उस तक पाठक की पहुँच नहीं हो पाती।” प्रयोगवादियों के बुद्धि-रस की कल्पना का प्रतिवाद करते हुए वे लिखते हैं-“काव्य की प्रक्रिया भाव-मूलक ही होती है। प्रतिभाशाली कवि आवश्यक बौद्धिक और दार्शनिक तथ्यों का अपनी भावमयी रचना में समाहार किया करते हैं। शायद ही कोई कृति हो जिसमें बौद्धिक चेतना का प्रवेश नहीं हो पाया परन्तु बुद्धि रस तो एक अनोखा पदार्थ है। काव्य के इतिहास में यह शब्द इससे पूर्व कदाचित् कभी नहीं आया। यहाँ इसका निषेध करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि इस पर गम्भीरतापूर्वक आस्था रखने वालों की संख्या नगण्य है। तथाकथित नयी कविता में इसी बुद्धि रस का बाहुल्य है, इसलिए कविता की यह नई धारा साहित्यिकों के लिए अटपटी और अप्राह्य बनी हुई है।”

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Anjali Yadav

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