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भारतीय रंगमंच कला पर प्रकाश डालिए।
रंगमंच दो शब्दों ‘रंग’ और ‘मंच’ से मिलकर बना है। इसका व्यवहार प्रायः नृत्य, गीत, अभिनय-स्थल आदि अर्थों में प्रयोग करते हैं। संस्कृत नाट्य कला में भी ‘रंगमंच’ का प्रयोग उस भूमि के लिए होता है जहाँ अभिनय किया जाता है। भारत की रंगमंच कला बहुत प्राचीन है। भरत काल तक आते-आते संस्कृत नाट्य-परम्परा अपनी बुलन्दियों पर पहुँच चुकी थी। नाट्य-शास्त्र में नाट्य प्रदर्शन एवं नाटक के सभी व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक पक्षों का विवेचन इसका प्रमाण है। कालान्तर में रंगमंच के व्यावहारिक पक्ष का शनैः शनैः ह्रास होने लगा परन्तु वह पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ बल्कि आगे चल कर हिन्दी रंगमंच की आधार भूमि बना। रंगमंच प्रायः दो प्रकार के होते हैं, एक लोकमंच और दूसरा शास्त्रीय मंच लोकमन्य असंस्कृत समाज का अकृत्रिम रूप है। हिन्दी को अनेक बोलियों में ऐसे लोक नाट्य प्राप्त होते हैं जिनका रंगमंच के इतिहास में स्थायी महत्त्व है। यद्यपि लोकमंचों का इतिहास अनुपलब्ध है, परन्तु इनको परम्परा अत्यन्त प्राचीन है, यह विवाद रहित है। हिन्दी में लोकमन्चौ पर रास नाटक, लीला नाटक, रामलीला, नृसिंह लीला एवं प्रह्लाद लीला, नौटंकी, स्वांग, संगीत भगत रम्मत, भवाई, माच, ख्याल, रम्मत, बहुरूपिया, गवरी, महरूल नकटौरा, पाबूजी की पड़ आदि का प्रदर्शन यत्र-तत्र देखा जा सकता है। यह लोक नाट्य रूप हिन्दी रंगमंच की अमूल्य सम्पदा है। हिन्दी जगत् में इनके और कई रूपांतर प्राप्त हैं। हिन्दी का लोक रंगमंच वास्तव में बड़ा समृद्ध और सर्वाङ्गीण है। इनके संरक्षण के लिए यत्र-तत्र लोक कला मन्डल और संगीत नाटक अकादमी आदि संस्थाएँ स्थापित की गई हैं। हिन्दी रंगमंच के इतिहास में इन लोक नाट्यों का अक्षुण्ण योग है। वस्तुतः शास्त्रीय मंच का उद्गम लोकमन्च का से ही हुआ है। डॉ० दशरथ ओझा ने स्वांग (नौटंकी, निहालते, हीर-रांझा, नवलदेव आदि) को ही हिन्दी नाटक का मूल स्रोत स्वीकार किया है। उन्होंने हिन्दी के साहित्यिक नाटकों का उत्पत्ति काल 13वीं शताब्दी को स्वीकार किया है, परन्तु नाट्याभिनय के प्रमाण 14वीं शताब्दी के पूर्व उपलब्ध नहीं होते। लेकिन यह साहित्यिक रंगमंच भारतेन्दु काल तक विशेष प्रगति नहीं कर सका, जैसा कि डा० गोविन्द चातक ने स्वीकार किया है, “हिन्दी नाटक के प्रसव काल में हमारे यहाँ धार्मिक लीलाओं और लोक-नाट्यों की ही परम्परा विद्यमान थी।” परन्तु इस काल तक आते-आते पारसी रंगमंच (व्यावसायिक रंगमंच) अपना स्थान बना चुका था और भारतेन्दु द्वारा इसके विरोध में अव्यावसायिक रंगमंच के समर्थन से हिन्दी रंगमंच स्पष्टतः व्यावसायिक (पारसी) और अव्यवसायिक दो रूपों में विभक्त हो गया।
भारतेन्दु-युगीन हिन्दी रंगमंच
भारतेन्दु जी ने पारसी रंगमंच की कमियों को उजागर करते हुए नाटक’ नामक लेख लिखा। उनके समय में यह कला कस्वियों, मीरसियों, इमों और पैसा एकत्र करने वाली मंडलियों के हाथों में दम तोड़ रही थी। भारतेन्दु जी ने इसके विरूद्ध आवाज उठायी और एक नाट्य मंडली की स्थापना की तथा उसमें उच्च वर्ग के नवयुवकों को शामिल किया। 1867 से 1885 ई० तक भारतेन्दु जी ने एक अच्छे स्तर का व्यावसायिक मंच स्थापित कर दिया। यद्यपि भारतेन्दु ने अपने नाटकों में पारसी रंगमंच की भी बहुत-सी पद्धतियों का उपयोग किया, परन्तु उनमें साहित्यिक अंश की तब भी बहुलता थी और इसी कारण धीरे-धीरे व्यावसायिक और अव्यावसायिक रंगमंच का अन्तर बढ़ता चला गया। इस काल में अभिनय को पर्याप्त महत्व दिया जाता था। अभिनय में उच्च स्वर, संगीतपूर्ण वाणी और सुन्दर आकार-प्रकार अर्थात् अतिनाटकीयता पर विशेष बल रहता था। डॉ० कु० चन्द्रप्रकाश सिंह के शब्दों में- “उपलब्ध परदों पर जो दृश्य अंकित होते थे उनके अतिरिक्त शेष दृश्य-विधान रामलीला और रास लीला की शैली पर सहज सुलभ उपकरणों के सन्निवेश द्वारा प्रस्तुत किये जाते थे। इसके प्रेक्षागृह के विधान में पर्याप्त स्थिति स्थापकत्व होता था। अभिनेता सब पुरुष ही होते थे। स्त्री पात्रों का अभिनय भी उन्हीं के द्वारा सम्पन्न होता था।” यद्यपि मंच व्यवस्था और नाट्य प्रस्तुतीकरण सरल होते थे परन्तु पारसी प्रभाव से कभी-कभी चमत्कार प्रदर्शन भी किया जाता था, जैसे दुर्गेशनंदिनी नाटक में दुर्ग का दृश्य तथा वीरेन्द्र सिंह के शिरोच्छेदन का दृश्य । इस काल के प्रमुख रंग कर्मियों में भारतेन्दु, प्रेमधन, माधव शुक्ल महादेव भट्ट, गोपालदत्त और प्रमुख नाट्य संस्थाओं में आर्य नाट्य सभा, रेलवे थियेटर, श्रीरामलीला नाटक मंडली, नेशनल थियेटर नागरी प्रवर्द्धिनी सभा, बलिया नाट्य समाज, भारतेन्दु मंडल कानपुर एम. ए. क्लब, श्री भारत मनोरजनी सभा कानपुर रसिक मंडल, विक्रम नाट्य समिति, आदि नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
द्विवेदी युगीन रंगमंच
द्विवेदी युग में प्रायः ऐतिहासिक, पौराणिक तथा सामाजिक नाटकों की रचना और मंचन हुआ तथा इनके माध्यम से राजनीतिक समस्याओं की ओर भी संकेत किया गया। परन्तु जन-जागृति के ऐसे बीहड़ पथ पर चलने वालों को कभी-कभी काँटों पर भी चलना पड़ता था, यथा माधव शुक्ल द्वारा संचालित ‘हिन्दी नाट्य समिति’ सरकारी कोपभाजन बनने के कारण बंद कर देनी पड़ी थी। इस काल में जिन प्रमुख नाटकों का मंचन हुआ, उनमें अंधेर नगरी, नील देवी, हर-हर महादेव, शकुन्तला कुर्वन दहन, चंद्रकला भानुकुमार, रामायण, सत्य हरिश्चंद्र, महाराणा प्रताप, सुभद्रा हरण, वीर अभिमन्यु, मेवाड़-पतन, भीष्म, शाहजहाँ, चंद्रगुप्त (द्विजेन्द्रलाल राय), मुद्रा राक्षस आदि उल्लेख्य हैं। जूलियस सीजर जैसे कुछ अंग्रेजी नाटकों के अनुबाद भी इस काल में मंचित हुए। भारतेन्दु-युग के समान इस युग के प्रदर्शनों में भी पर्याप्त सादगी दिखाई देती है, परन्तु कुछ चमत्कार- प्रयोग यहाँ भी देखने में आ जाते हैं, जैसे ‘हरिश्चंद्र’ नाटक में भगवान के प्रकट होते समय ‘श्मशान’ का स्वर्ग’ में बदल जाने का दृश्य रंगीली और भड़कीली पोशाकों पर बल दिया जाता था। अभिनय कला में नाटकीयता अधिक होती थी। हास्य रस पूर्ण और ग्रहसन नाटकों के मंचन पर अधिक बल दिया जाता था। रंगमंच का निर्माण सार्वजनिक स्थलों पर होता था और प्राय: छोटे-छोटे पर्दों से काम चलाया जाता था। बहुत कम कम्पनियों के पास पर्याप्त उपकरण थे, नाटक प्रायः दीर्घकालिक होते थे और उनका पूर्वाभ्यास भी किया जाता था। संगीत सौभद्र का पूर्व अभ्यास भारतेन्दु नाटक मंडली द्वारा लगभग एक वर्ष तक किया गया था। इस युग में जो प्रमुख रंगकर्मी हुए हैं उनमें माधव शुक्ल बालकृष्ण भट्ट मदन मोहन मालवीय, गोपालदास, बजचंद्र, जगन्नाथ दास, श्री कृष्णदास, श्यामसुन्दरदास, रायकृष्णदास, रघुनाथ बाजपेयी, राजाराम नागर, रमाशंकर गुलेरी केशव प्रसाद खत्री, ईश्वरी प्रसाद भाटिया, बाबू नारायण प्रसाद अरोड़ा आदि विशेष रूप से उल्लेख्य हैं। इस युग की प्रमुख नाट्य संस्थाओं में नागरी प्रवर्द्धिनी सभा (काशी) श्री रामलीला नाटक मंडली (प्रयाग), बायज ड्रामेटिक क्लब (काशी), नागरी नाट्य कला-संगीत प्रवृत्तक मंडली (काशी) नागरी नाटक-मंडली (काशी); भारतेन्दु नाटक मंडली (काशी), आदर्श भारतेन्दु नाटक मंडली (काशी), काशी नाटक मंडली (काशी), हिन्दी नाट्य समिति (प्रयाग) आदि प्रमुख हैं।
प्रसाद और हिन्दी रंगमंच
द्विवेदी युग के अन्तिम समय में हिन्दी में एक विशेष प्रतिभा जयशंकर प्रसाद के रूप में उभरी, जिसने प्रचलित व्यावसायिक रंगमंच के अनुरूप नाटक लिखने से इन्कार किया और एक स्वस्थ तथा परिस्कृत रंगमंच की मांग की। उन्होंने कहा कि “मैंने उन कम्पनियों के लिए नाटक नहीं लिखे हैं, जो चार चलते अभिनेताओं को एकत्र कर कुछ पैसा जुटाकर चार पर्दे मंगनी माँग लेती हैं और दुअन्नी, अठन्नी के टिकट पर इक्के वाले, खोमचे वाले और दूकानदारों को बटोर कर जगह-जगह प्रहसन करती फिरती हैं। उत्तम रामचरित शकुन्तला या मुद्राराक्षस कभी न ऐसे अभिनेताओं द्वारा अभिनीत हो सकते हैं और न जनसाधारण में रसोद्रेक का कारण बन सकते हैं। उनकी काव्य प्रधान शैली कुछ विशेषता चाहती है। यदि परिष्कृत बुद्धि के अभिनेता हो सुरुचि सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाए तो ये नाटक अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं।” परन्तु अपने जीवन में प्रसाद को ऐसा रंगमंच कभी नहीं मिल सका और यद्यपि चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त ध्रुवस्वामिनी आदि का अभिनय प्रसाद के सामने भी हुआ, परन्तु उनके नाटकों की अभिनेयता का प्रश्न आज भी विवादास्पद है। पारसी रंगमंच का प्रबल विरोध करने तथा नाटकों में दृश्य-विधान, वस्तु, नेता, रस आदि की दृष्टि से संस्कृत परम्परा का अनुकरण करने पर भी प्रसाद पारंसी परम्परा से अछूते न रह सके। मंच पर युद्ध, नदी, समुद्र, आँधी, आग, मेघ, मल्ल-युद्ध, आदि दृश्यों का प्रदर्शन पारसी रंगमंच ने इतना लोकप्रिय कर दिया था कि प्रसाद चाहकर भी उनके प्रभाव से मुक्त न रह सके। मंच पर साँप, चीता, भेड़िया आदि के दृश्य भी पारसी रंगमंच का ही प्रभाव है। उनके नाटकों में प्राप्त होने वाले गीत यद्यपि कथावस्तु में सहायक ही हैं परन्तु कई स्थलों पर उनमें पारसी रंगमंच का हल्कापन है। इतना होने पर भी प्रसाद के नाटक अपने समय से आगे की चीज हैं। उन्होंने ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक नाटक, एकांकी, गीति नाट्य आदि की रचना कर रंगमंच को वैविध्य और बहुरूपता प्रदान की। प्रसाद-युग में बहुत कम नाट्य संस्थाएँ सक्रिय थीं, जिनमें नागरी नाटक मंडली (काशी), हिन्दी नाट्य समिति (प्रयाग), इलाहाबाद यूनिवर्सिटी एसोसिएशन, कलचर सेन्टर (इलाहाबाद) विशेष प्रसिद्ध हैं।
प्रसादोत्तर हिन्दी रंगमंच
स्वतन्त्रता के पश्चात् दिल्ली में 1953 में संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की गई। पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रोत्साहन और तत्कालीन अधिकारियों की प्रेरणा से इस संस्था को पूर्ण सरकारी सहायता प्राप्त हुई, जिससे सम्पूर्ण देश में नाटक के विकास का वातावरण निर्मित हो सके। इस संस्था के तत्वावधान में प्रत्येक राज्य में नाट्य संस्थाओं का संगठन और नाट्य शालाओं का निर्माण हुआ है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और एशियन थियेटर की भी भारत के सभी नगरों में नाट्य शालाएँ स्थापित हो गई और उनमें समय-समय पर विभिन्न नाटकों को मन्चस्थ किया जाता है। गत 30 वर्षों में सहस्राधिक मौलिक, अनूदित एवं एकांकी नाटकों का मंचन इन तथा अन्य नाट्य संस्थाओं द्वारा किया गया है। लोक नाटकों से लेकर पेरिस के आपेरा, रूसी वैले तक, विभिन्न नाट्यशैलियों के साथ पारसी शैली, रवीन्द्र शैली आदि सभी नाट्य शैलियों तथा नाट्य रूपों के जब-तब प्रयोग किए जा रहे हैं। ऐसे प्रयोग करने वालों में उपर्युक्त के अतिरिक्त कलकत्ते की सुप्रसिद्ध नाट्य संस्था ‘अनामिका’, मूनलाइट, संगीत कला मन्दिर, नाट्य भारती (कानपुर) श्री नाट्यम् (बनारस) राष्ट्रीय नाट्य परिषद् (लखनऊ), ‘द एम्बेसडर्स’ (कानपुर) बिहार आर्ट्स थियेटर्स (पटना), आई. एम. एस. ड्रमेटिक क्लब, आरा रंगमंच (आरा), रोटेरी क्लब (गया) तथा साधना मन्दिर, मिनिस्टरअल क्लब रंगमंच संस्था कलामन्दिर (ग्वालियर), लोक कला मंडल (उदयपुर) प्रयाग नाट्यसंघ, प्रयाग रंगमंच (इलाहाबाद), पृथ्वी थियेटर (बम्बई), मद्रास का रागिनी का क्रियेशन्स, विवेक फाइन आर्ट्स, यू. ए. ए. और मइलापुर फाइन आर्ट्स, संगीत नाटक अकादमी (भोपाल, म. प्र.) संगीत नाटक भारती (उ. प्र.) तथा कला मन्दिर (जम्मू) के नाम भी उल्लेख्य हैं। इनके अतिरिक्त सरकार द्वारा देश के बड़े-बड़े शहरों में विभिन्न मंचों का निर्माण कराया गया है, जिनके नाम रवीन्द्र मन्च रवीन्द्र सदन, रवीन्द्रालय तथा रवीन्द्र भवन आदि रखे गए हैं। ‘भारत सेवक समाज’ (प्रयाग) ने भी समय-समय पर उत्तर प्रदेश और राजस्थान में विभिन्न नाटकों का आयोजन किया है। स्पष्ट है कि इस युग में एक राष्ट्रीय स्तर का रंग आंदोलन प्रारम्भ किया गया, जिसके परिणामस्वरूप मन्चरूपों की खोज और विदेशी नाट्य रूपों के अध्ययन की प्रेरणा को बल मिला। श्रेष्ठ रंगकर्मियों को विभिन्न संस्थाओं तथा राज्य की ओर से पर्याप्त वित्तीय तथा तकनीकी सहायता मिलने लगी। प्रयाग के ‘भारतीय नाट्य मंच’ ने 23 केन्द्र स्थापित कर इस दिशा में अपना योग दिया।
जन नाट्य संघ (इष्टा) ने भी विभिन्न नाट्य प्रयोग किए हैं। रांगेय राघव के ‘आखिरी धन्या’ आदि के माध्यम से उसने मूक अभिनय की परम्परा की नींव डाली और छाया चित्र का मिश्रित भी प्रयुक्त किया। इष्टा ने गीतों को नाट्य से अलग कर उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रम, सांस्कृतिक संध्या के रूप में आयोजित कर गीत, नाट्य, सहगान, हास्य व्यंग्य आदि का तो नया विधान प्रस्तुत किया ही, प्लानिंग परिवार, गिरती दीवार आदि के माध्यम से प्रथम बार आशु नाटकों के भी प्रयोग किए हैं। इस युग में ‘खुले मंच’ पर भी नाटक खेले गए हैं, उदाहरणार्थ, 1942 में आगरा के बेकर पार्क में बिना प्रकाश और मन्च सज्जा के ‘आज का सवाल’ नाटक मन्चित किया गया था।
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