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आधुनिक काल की प्रमुख गद्य विधाएँ
(1) यात्रा वृत्तान्त (2) रिपोर्ताज (3) जीवनी (4) आत्मकथा (5) संस्मरण ।
सामान्य विवेचना- आज गद्य का स्वरूप पहले से पर्याप्त मात्रा में बदलकर सामने आया है। उसमें जहाँ भाषा की दृष्टि से बोलचाल की भाषा का प्रचार बढ़ा है तो दूसरी ओर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक भाषा का भी। गद्य के विस्तार में विविध विधाओं का विशेष हाथ रहा है। तथा इनसे विकसित और प्रवर्द्धत गद्य आज विकास की सीमा को स्पर्श कर रहा है। प्राचीन काल में लिखा जाने वाला गद्य यदि आज के गद्य के मेल में खड़ा कर दिया जाये, तो दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर दिखाई देगा। प्राचीन काल ब्रजभाषा गद्य थी। इसके बाद धीरे-धीरे बोली गद्य का आविर्भाव हुआ। आज जो गद्य का स्वरूप दिखलाई दे रहा है, वह बहुत प्रौढ़ और विकसित हैं। इसी विकास का परिणाम है कि गद्य की अनेक विधाएँ चल पड़ी हैं।
कथन की स्पष्टीकरण
प्रश्न के अन्तर्गत कहा गया है कि आधुनिक युग प्रमुख रूप से गद्य की विविध विधाओं के विकास का युग है। यह कथन सर्वथा उचित प्रतीत होता है। कारण यह है कि गद्य भावुकता से प्रेरित और प्रादुर्भूत होती हैं, जबकि गद्य चिन्तन प्रसूत होता है। आधुनिक युग में भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता का अधिक साम्राज्य दिखलाई देता है। नये-नये वैज्ञानिक प्रयोगों, अनुसन्धानों और तकनीकी विकास के कारण हम भावुकता को छोड़कर बौद्धिकता की ओर अग्रसर हो रहे हैं और हुए हैं। यह बौद्धिकता हमारे चिन्तन को विकसित करती है। गद्य में सम्बन्ध क्योंकि चिन्तन हैं इसलिए आधुनिक युग में गद्य का विकास अनेक विधाओं के रूप में बड़ी तीव्रता के साथ हो रहा है। वास्तविकता यह है कि आज गद्य की प्रमुख विधाओं उपन्यास, कहानी, नाटक और निबन्ध-के अतिरिक्त भी अनेक नयी विधायें, विकसित हो रही हैं। ये विधायें जीवनी, आत्मकथा, डायरी, यात्रा-साहित्य रिपोर्ताज, फीचर, पत्र- साहित्य और इन्टरव्यू आदि के रूप में देखी और जानी जा सकती हैं। नित्य प्रति मनुष्य जैसे नये-नये अनुसंधान कर रहा है वैसे-वैसे अपने विचारों को प्रकट करने के लिए नयी-नयी गद्य की विधाओं की ओर अग्रसर हो रहा है। अतः कह सकते हैं कि आधुनिक काल प्रमुखतः गद्य की विधाओं का काल है। आज गद्य में वह शक्ति आ गयी है। कि जिसके सहारे वह किसी भी अभिव्यक्ति के लिए सक्षम है गद्य के आज व्यावहारिक और साहित्यिक दोनों ही प्रकार हैं। साहित्यिक भाषा में भी व्यापारिक भाषा का अधिक प्रयोग होने लगा है। सिनेमा के प्रचार ने गद्य को काफी संजोया और संवारा है। सिनेमा के माध्यम से गद्य का जो रूप सामने आया है, वह इसी व्यावहारिक भाषा शैली का है। आज भाषा और भावों के प्रकाशन में मौलिक शैली ही रही है। विभिन्न विधाओं से सम्बद्ध गद्य आज हमारे सामने हैं।
हिन्दी गद्य की विविध विधाएँ
आज गद्य साहित्य इतना प्रौढ़ और विस्तृत हो गया है कि उसके अन्तर्गत अनेक कई विधाओं ने जन्म ले लिया है। कहानी, उपन्यास, नाटक और निबन्ध के अतिरिक्त और भी नई विधाएँ सामने आ गयी हैं। एकांकी नाटक के अतिरिक्त रेडियो या ध्वनि, रूपक, जीवनी, आत्मकथा, गद्यगीत, रेखाचित्र, संस्मरण, फीचर, डायरी और लघुकथा आदि भी आज विकास की ओर बढ़ रहे हैं। गद्य की विविध विधाओं में से कुल का परिचय ही यहाँ दिया जा रहा है।
संस्मरण- संस्मरण-साहित्य का मुख्य लक्षण होता है। महापुरुषों के जीवन के विशेष क्षणों, घटनाओं, कार्य-व्यापारों आदि को चित्रित करना। इस कोटि के साहित्य से महापुरुषों, साहित्य-सष्टाओं, कला-मर्मज्ञों आदि का स्मरण कर उनके चारित्रिक अवदानों को हम अपने चरित्र में उतारने की प्रेरणा जायत करते हैं। तात्पर्य कि संस्मरण-साहित्य भी सर्जनात्मक साहित्य है, जिसका स्वतन्त्र स्वरूप दिनानुदिन स्पष्ट होता जा रहा है और उसका महत्व भी स्वीकृत हो रहा है। हिन्दी गद्य में निबन्ध की भाँति ही संस्मरण का भी विशेष प्रचलन हो रहा है। “किसी व्यक्ति के जीवन की चारित्रिक विशेषताओं को व्यक्त करने के लिए अपने वैयक्तिक सम्पर्क के आधार पर जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाता है, वही संस्मरण कहलाता है। डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत ने लिखा है कि भावुक कलाकर जब अतीत की अनंत-स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभुतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजना मूलक संकेत शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से विशिष्ट बनाकर रोचक ढंक से यथार्थ रूप में व्यक्त करता है, तब उसे संस्मरण कहते हैं।
डॉ० विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के अनुसार संस्मरणों में लेखक का अनुभूत जीवन विविध सन्दर्भों में उद्घाटित होता है। आत्मीयता से युक्त होते हैं। वास्तविक जीवन में घटित न होने पर भी कोई घटना संस्मरण का रूप ले सकती है। साहित्यिक कोष भाग एक में संस्मरण के सम्बन्ध में ये विचार प्रकट किये गये हैं- “संस्मरण में लेखक अपने समय के इतिहास को लिखना चाहता है। वह जो भी स्वयं देखता है, जिसका वह स्वयं अनुभर करता है, उसी का वर्णन करता है। उसके वर्णन में उसकी अपनी अनुभूतियाँ और संवेदनाएँ भी रहती है। यह वास्तव में अपने चतुर्दिक जीवन का सृजन करता है, सम्पूर्ण भावना और जीवन के साथ संस्मरण लेखक सजग, कल्पनाशील, भावुक, ज्ञानी, गतिशील एवं उदार व्यक्ति होता है। वह किसी के प्रति पूर्वाग्रह से आक्रान्त नहीं रहता, बल्कि सदैव सब प्रकार के स्तरीय लोगों से सम्पर्क रखता है, सबके आत्मीय नहीं रूप में निकटस्थ बना रहता है। संस्मरण लेखक जब तक किसी का निकटतम आत्मीय नहीं बन पायेगा, जीवन्त एवं स्वाभाविक संस्मरण नहीं लिख सकेगा। संस्मरण-लेखक को इतना प्रबुद्ध होना चाहिए कि वह किसी के गम्भीर व्यक्तित्व की गहराई में प्रवेश कर, उसके गुणों को उद्घाटन प्रकाशन, सही-सही कर सकें।
हिन्दी का संस्मरण-साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। अनेक उच्च कोटि के लेखकों ने संस्मरण लिखकर इस विधा को समृद्ध एवं सशक्त किया है। संस्मरण लेखकों में रघुवीर सिंह रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन, सहाय, काका कालेलकर, हरिभाऊ उपाध्याय, देवेन्द्र, सत्यार्थी दिनकर, निराला, महादेवी, सोहनलाल महतो “वियोगी” आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। संस्मरण-साहित्य जहाँ महापुरुषों की जीवनगत विशेषताओं का उल्लेख करता है, वहाँ कुण्ठित मानवता को प्राणवत्त एवं नूतन आशा-योति भी प्रदान करता है। संस्मरणात्मक साहित्य का विकास, प्रगति पर है और आशा है कि साहित्य का यह विशेष अंग और भी परिपुष्ट, समृद्ध एवं विकासशील होगा ।
रेखाचित्र – रेखाचित्र का साधारण अर्थ है- रेखाओं के द्वारा चित्र बनाना चित्रकार जैसे अपनी तुलिका के सहारे अनेक सुन्दर चित्र बनाता है, उसी प्रकार लेखक भी अपनी शैली द्वारा ऐसे शब्दों के चित्र कागज पर उतारता है, जिससे वर्ण्यविषय का आकृति चित्र चाहे वह पात्र का हो या किसी विषय का पाठक की आँखों में झूलने लगता है। चित्रकार की सफलता इस बात में है कि वह अपने चित्रों में सफल रंगों का अंकन करे और रेखाचित्र लेखक की विशेषता इस बात में है कि वह अपनी कुशल लेखनी के द्वारा शब्दों का सही-सही गुम्फन करे। दोनों की सफलता बड़ी साधना के बाद मिलती है। एक तो चित्र की रेखाओं में ऐसा रंग देना पड़ता है जो नीरस रूप से अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति दर्शन को देता है, तो दूसरे का इसके विपरीत। रेखाचित्र लेखक अपनी कृति में ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है, जिसे पढ़कर पाठक यह समझ ले कि उदिष्ट वस्तु अथवा व्यक्ति अपने रूप तथा आकार में कैसा है।
हिन्दी साहित्य में रेखाचित्र की कला बहुत विकसित नहीं हुई है। वास्तव में समय की गति को निहार कर जीवन की विभिन्न प्रेरणाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति ही साहित्य का उद्देश्य है। इन अनुभूतियों को प्रकट करने के लिए लेखक नई-नई शैलियों का आश्रय होता है। नये युग के कलाकर ने अपनी अनुभूतियों को चित्र में उतारने के लिए और कम से कम शब्दों में बताने के लिए रेखाचित्र की नयी शैली को अपनाया है। डॉ० नगेन्द्र ने रेखाचित्र की परिभाषा में कहा है-“जब चित्रकला का यह शब्द साहित्य में आया तो इसकी परिभाषा भी स्वभावतः इसके साथ आई। रेखाचित्र एक ऐसी रचना है जिसमें रेखाएँ हों, पर मूर्त रूप अर्थात् उतार-चढ़ाव दूसरे शब्दों में कथानक का उतार-चढ़ाव आदि न हो, तथ्य का उद्घाटन मात्र हो।”
रेखाचित्र को ही शब्दचित्र भी कहते हैं। कोई भी चित्र बिना किसी चित्र फलक, कूंची, रंग आदि की सहायता के संभव नहीं है, परन्तु रेखाचित्र केवल बहुत थोड़े से शब्दों के सहारे जीवन का कोई एक मार्मिक पहलू या किसी के जीवन की संक्षिप्त झलक प्रस्तुत कर सकने में समर्थ और सफल होता है। जहाँ कुशल चित्रकार का सप्राण चित्र मुखर सा दिखता है, वहाँ शब्द-शिल्पी अपनी कलात्मक निपुणता और अभिव्यंजना-कौशल से ऐसा प्रभावोत्पादक जीवन चित्र आत्मिक एवं भावात्मक चित्र मूर्तित करता है कि वह शब्दचित्र स्वतः जीवन्त प्राणवंत एवं सवाक हो उठता है। नमूने के रूप में पदमसिंह शर्मा का “पदयपराग प्रकाशचन्द्र गुप्त के “पुरानी स्मृतियां और नये स्केच” रेखाचित्र आदि निरालाजी के कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा आदि, बेनीपुरी का माटी का मूर्ते एवं महादेवी के बिन्दा मेरी बालसखी, अतीत के चलचित्र, स्मिति की रेखाएँ आदि शब्दचित्र या रेखाचित्र दर्शनीय है। देवेन्द्र सत्यार्थी, प्रभाकर माचरे, उदयशंकर भट्ट प्रभूति भी इस क्षेत्र के यशस्वी कलाकार हैं।
रिपोर्ताज – हिन्दी की नवीनतम विकसित विधाओं में संस्मरण और रेखाचित्र की भाँति रिपोर्ताज का भी महत्व है। गद्य ने जिन रूपों में अपने आपको विकसित किया है, उनमें रिपोर्ताज को आज अनेक लेखकों ने अपना रखा है। यह रिपोर्ताज शब्द फ्रांसीसी भाषा से लिया गया है। इसका सम्बन्ध अंग्रेजी के “रिपोर्ट शब्द से भी जोड़ा जाता है। रिपोर्ट शब्द बोलचाल में रपट हो गया है। रिपोर्ट समाचार पत्रों के लिए लिखी जाती है और रिपोर्ट में जो भी चीजें लिखी जाती हैं, उनमें अत्युक्ति और अतिरंजना का विशेष महत्व होता है। रिपोर्ताज में भी इसी प्रकार की कलात्मक अतिरंजना है रिपोर्ट में अनादृश्यक अत्युक्ति होती है और रिपोर्ताज में जो अभिव्यक्ति देती है, यह कलात्मक और विश्वसनीय सत्ता प्राप्त कर लेती है। जब किसी भी घटना का ऐसा वर्णन किया जाता है कि वस्तुगत सत्य पाठक को तुरन्त प्रभावित करने में समर्थ हो। तब उसे रिपोर्ताज की अभिधा प्राप्त होती है। रिपोर्ताज में सफलता प्राप्त करने के लिए लेखक में कल्पना शक्ति का प्राधान्य होना आवश्यक है।
रिपोर्ताज साहित्य विधा में ही गणनीय है, इसमें कोई विवाद नहीं। यह एक उपयोगी साहित्य विधा है। इसे भी लोक-स्वीकृति मिली है। पूर्व-पंक्तियों में निर्देश किया गया है कि आज के वैज्ञानिक युगों रिपोर्ताज का महत्व अत्यधिक माना गया है। अल्प समय में ही हम अपने जीवन-व्यापार का प्रभावपूर्ण सुरुचि सम्पन्न एवं सुसंगठित चित्र देख पाते हैं और इससे अगले निर्माण ‘की दिशा तय कर पाते हैं। आज का जीवन राजनीतिक कारणों से भी अत्यन्त अस्त-व्यस्त हो गया है। जीवन की कोई भी दिशा राजनीतिक सरगरमी से अछूती नहीं रह गई है, वेसे यह कोई आकृष्ट करता , यह तथ्य है। इस तथ्य का निरूपण रिपोर्ताज की लोकप्रियता में हो चुका है। हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत रिपोर्ताज ने अपना एक विशेष स्थान बनाया है। धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे, जितेन्द्र सिंह, विवेकी राय, गोरकिशोर, घोष, कल्याण बसु, गुलाबदास ब्रोकर, फनीश्वर नाथ रेणु आदि ने अपने रिपोर्ताज लेखन से रिपोर्ताज को लोकप्रियता तो दिलाई ही है, साहित्य इतिहास में उसका एक महत्वपूर्ण स्थान भी बनाया है।
फीचर- फीचर भी एक प्रकार का रेडियो रूपक ही है। इसमें काव्य, उपन्यास, कहानियों आदि का रूपान्तर अभिनयात्मक ढंग से व्यक्त किया जाता है। लुई मैकनीज ने इसे वास्तविकता का नाटकीयकृत रूप कहा है। फीचर में कलाकार को उसी प्रकार सजग रहना पड़ता है, जैसे उसे रेडियो एकांकी रचना में जागरूक रहना पड़ता है। जिस प्रकार रेडियो एकांकी लम्बी-चौड़ी कथावस् को खण्डशः इस प्रकार सजाया जाता है कि सम्पूर्ण वस्तु की झलक प्रस्तुत की जा सकती है, उसी प्रकार फीचर (वृत्तरूपक) में उपन्यास आदि उस प्रकार कांट-छांट कर प्रस्तुत किये जाते हैं कि उसका आनन्द भी नष्ट न होने पाये और पच्चीस तीन मिनट में इसका अभिनय भी हो जाये। इसके लिए व्याख्याकार की आवश्यकता होती है। वह मध्य की कथा को इस ढंग से व्यक्त करता चलता है कि कथा की रोचकता भी बनी रहती है तथा उसका स्पष्टीकरण भी हो जाता है। फीचर की सफलता अभिनेताओं और व्याख्याकार दोनों पर आश्रित रहती है।
डायरी – डायरी का अर्थ सामान्यतः ‘कापी या पुस्तिका’ होता है, किन्तु इसको व्यक्तिगत रूप तब मिलता है, जबकि कोई व्यक्तिगत अनुभवों तथा मन में उठने वाले विचारों को लिखने के काम में लेता है। डायरी को रोजनामचा, दैनिकी तथा दैनन्दिनी भी कहते हैं। यह लेकर के अधिक निकट होती है। इसलिए इसमें कलात्मकता का अभाव होता है। लेखक डायरी लिखते समय यह नहीं सोचता है कि आगे चलकर वह पुस्तक का रूप बन जायेगी और गद्य की विधाओं में इसका नामोल्लेख किया जायेगा।
कुछ विद्वानों ने डायरी को आत्मकथा का रूप माना है, किन्तु यह धारणा भ्रामक है क्योंकि डायरी में लेखक अपने अनुभवों के आधार पर किसी का भी वर्णन कर सकता है जबकि आत्मकथा में ऐसा नहीं होता। डायरी लेखनकला एक नव-विकसित गद्य की विधा है। वह लेखक के उद्गारों की अभिव्यंजिका है। इसके सामने व्यक्ति खुल सकता है, मन माही भाषा का प्रयोग कर सकता है और अपने समस्त भावों को इसमें उड़ेल सकता है। यह एक दोस्त है, प्रिय है और एक निर्जीव अनुयायी है, जो है हमेशा साथ रहता है।
यात्रा-साहित्य- यात्रा- साहित्य का सम्बन्ध मानव की यात्रावली वृत्ति से है। प्रारम्भ में मनुष्य की घुमक्कड़ी वृत्ति थी। घूमने मात्र से उसे सन्तुष्टि नहीं हुई, तो देश में अनेक सुन्दर उपकरणों ने उसे आकृष्ट किया और इसी आकर्षण से प्रेरित होकर उसे यात्रा साहित्य लिखना पड़ा। यों तो यात्रा साहित्य का इतिहास बड़ा पुराना है। संस्कृति व साहित्य में भी सत्र तत्र इसके संकेत मिलते हैं। विदेशी यात्रियों ने भी अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया और प्रस्तुत किया। विदेशी यात्रियों में ह्वेनसांग, इब्नबतूता, “टैवरनियर और फाह्यान’ का नाम उल्लेखनीय है। वर्तमान में हमारे समक्ष दो प्रकार का यात्रा- साहित्य है- साहित्यिक और ऐतिहासिक । हमें हिन्दी के यात्रा साहित्य को ही देखना है। स्पष्ट है कि यात्रा- साहित्य गद्य की एक ऐसी विधा है, जिसमें कहीं। इसे संदेश वाहक बनना पड़ता है तो कहीं वन, पर्वत या झरनों में स्नान करना पड़ता है, कहीं यह व्यक्तिगत मित्र की तरह साथ चला है, तो कहीं जीवन में आस्था अनास्था खोजता फिरा है। वर्तमान दशक में राकेश यादव, निर्मल वर्मा और अज्ञेय ने आकर्षक यात्रा साहित्य का निर्माण किया है।
आत्मकथा- आत्मकथा में लेखक अपने बीते हुए क्षणों का पुरावलोकन करता है, यो कहिए कि वह अपने अतीत को व्यापाक परिवेश में स्वच्छन्द विचरण के लिए लिपिबद्ध कर देता है। यों तो आत्मकथा के अनेक रूप होते हैं-कुछ विद्वान डायरी और जीवनी को भी आत्मकथा मानते हैं, किन्तु यह धारणा भ्रामक है। आत्मकथा लेखक की अपनी कथा होती है, जबकि जीवनी कोई दूसरा भी लिख सकता है। डॉ० शंकरदेव अवतरे जीवनी ओर आत्मकथा में अन्तर बताते हुए कहते हैं कि- “इन दोनों में परस्पर अन्तर केवल इतना ही है कि आत्मजीवनी स्वयं द्वारा लिखी गयी अपनी जीवनी होती है, पर जीवनी किसी लेखक के द्वारा लिखी हुई किसी दूसरे व्यक्ति की जीवनी होती है। अन्य जीवनी में लेखक के द्वारा अपना निरीक्षण मुख्य होता है, लेकिन जीवनी में किसी दूसरे व्यक्तित्व का स्वसम्बन्ध विवेचन प्रधान रहता है। इस दृष्टि से पर जीवनी की अपेक्षा आत्मजीवन में है अधिक व्यक्तिनिष्ठता एवं विषय निष्ठता (सब्जेक्टविटी) का होना स्वाभाविक है।” डॉ० पद्यसिंह शर्मा कमलेख जी लिखते हैं कि—“जहाँ तक आत्मकथा लिखने का उद्देश्य है, उसमें एक ओर आत्मा का निरीक्षण या आत्मपरीक्षण होता है और दूसरी ओर, अतीत की स्मृतियों को पुनजीर्वित करके निश्चित ही अपनी स्थिति का स्पष्ट दर्शन करना या अपने अनुभवों से दूसरे को लाभान्वित करना होता है। इसलिए आत्मकथा को आत्मकहानी भी कहा जाता है।”
जीवनी – जीवनी – साहित्य हमारे वाङ्मय का एक महत्वपूर्ण अंग है। जिस प्रकार सामान्य साहित्य हमारे समक्ष जीवन, समाज एवं आचार-विचार, चरित्रगत संस्कार, धर्म-दर्शन, कार्य-व्यापार आदि को कलात्मक समीक्षा प्रस्तुत कर जीवन के प्रति हमारी नूतन रुचि एवं दृष्टि को जागरित करता है, उसी प्रकार जीवनी-साहित्य चरित्र एवं व्यक्तित्व-निर्माण की दिशा में आदर्श प्रेरणा-स्रोत बनता है। वैदिक साहित्य से वर्तमान साहित्य तक में जीवन-साहित्य के महत्व में अपूर्व स्वीकृति देखी जाती है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। कि हम अनुकरण से बहुत कुछ सीख पाते हैं। जन्म के प्रभात से जीव की सन्ध्या तक हमारी अनुकरण-वृत्ति जागृत और सक्रिय रहती है। चलना, बोलना, पढ़ना-लिखना और जीवन-निर्माण-सब कुछ अनुकरण के सिद्धात से संचालित होते हैं। इस अर्थ में जीवनी साहित्य हमारे व्यक्तित्व-निर्माण में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हमारे यहाँ प्रत्येक कला-सर्जन सोद्देश्य हुआ करता है। कला हमें सत्य का दिग्दर्शन तो कराती ही है, सौन्दर्य के सर्जन की प्रेरणा भी देती है। अन्ततः कला का उद्देश्य जीव में मंगल की स्थापना है। यहाँ इतना ही विचार करना अपेक्षित है कि जीवनी-साहित्य भी एक विशेष विधा है, जो साहित्य में प्रतिष्ठान स्थान की अधिकारिणी बन चुकी है। जीवनी साहित्य का प्रणेता तटस्थ भाव से महान् विभूतियों को रूपायित करता है। स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द, महात्मा गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, बर्ट्रेण्ड रसेल आदि के जीवनी साहित्य ने किशोरों से प्रौढ़ो तक को अनेक प्रकार से प्रेरित प्रभावित किया है। अतएव, यह निर्विवाद है कि जीवनी साहित्य हमारे लिए परम उपयोगी विधा है, इसका भविष्य उज्जवल है। जीवनी साहित्य की कुछ श्रेष्ठ उपलब्धियाँ विश्व के महान वैज्ञानिक एवं देशविभूति राष्ट्रपति राधाकृष्णन, लालबहादुर शास्त्री, देवरत्न राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि हैं, जिनके लेखक क्रमशः फिलिपकेन, अवनीन्द्रकुमार, विद्यालंकार, महावीर अधिकारी सेठ गोविन्ददास एवं देवव्रत शास्त्री हैं।
पत्र-साहित्य- पत्र साहित्य को सामान्यतः दो रूपों में समझा जाता है। एक पत्रकारिता (जर्नलिज्म) और दूसरा पत्र – साहित्य (लेटर्स)। पत्रकारिता साहित्य संवर्द्धन में अपना विशेष महत्व रखता है। आधुनिक भारतीय वाङ्मय के सर्वतोमुख विकास में पत्रकारिता का योगदान अविस्मरणीय हैं। आधुनिक चेतना को जागृत और लोकरुचि को परिष्कृत करने में जितना महत्वपूर्ण कार्य पत्रकारिता का रहा है, उतना शायद ही किसी अन्य विद्या का रहा होगा। ‘उदंतमार्तण्ड’ सन् 1826 ई० में पं० युगलकिशोर शुक्ल के सम्पादकत्व में कलकत्ता से प्रकाशित होने लगा- “हिन्दुस्तानियों के हित के हेतु” । एक वर्ष बाद ही अंग्रेजों की दमन-नीति के कारण इसका भी अस्त हो गया। परन्तु इस अल्पावधि में इसने जो स्वतन्त्रता के मंत्र फूंके, वे अनेक पत्रों-बंगदूत, प्रजामित्र, कविवचनसुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिश्चन्द्र- चन्द्रिका, हिन्दी- प्रदीप, भारतमित्र, सरस्वती, मतवाला, इन्दु, माधुरी, अवन्तिका, साहित्य, दिनमान, भारत, प्रताप, कल्याण, दृष्टिकोण, आलोचना, साप्तहिक धर्मयुग, हिन्दुस्तान, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, जाह्वी आदि के रूप में प्रकट हुए।
हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, निराला पं. रामगोविन्द त्रिवेदी, मुशी नवजादिक लाल, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, रामदयाल पाण्डेय, नलिन विलोचन शर्मा, ब्रजशंकर वर्मा, बेनीपुरी, धर्मवीर भारती, नामवर सिंह, अज्ञेय आदि के नाम उल्लेख हैं। राजनीतिक विचारधारा को लेकर चलने वाले पत्रों के सम्पादकों में मदनमोहन मालवीय, गणेशशंकार विद्यार्थी, माधवराव संत्रे, बाबूराव विष्णु पहाड़कर, अम्बिका प्रसाद बाजपेयी, पुरुषोत्तमदास टण्डन, सम्पूर्णानन्द आचार्य, नरेन्द्रदेव, राममनोहर लोहिया, देवबत शास्त्री प्रभूति के नाम महत्वपूर्ण हैं। स्मरणीय है। कि पत्रकारिता ने जन-जागरण के सन्दर्भ में अभूतपूर्व कार्य किया है। पत्र साहित्य का प्रकाशन न हुआ होता, तो हमें स्वतन्त्रता के दर्शन कदापि न हुए होते। हमें पूर्व-पंक्तियों में उल्लेख किया है कि बंगभूमि से पत्रकारिता का अभ्युदय हुआ और देखते-ही-देखते सम्पूर्ण भारत में उसकी किरणें फैल गई। पत्रकारिता के माध्यम से हिन्दी साहित्य का अपूर्व प्रसार हुआ। कविता, कहानी, आलोचना, निबन्ध, आदि की दिशाएँ प्रशस्त और प्रकाशपूर्ण हुई और साहित्य की अन्यान्य विधाएँ अवसर प्राप्त कर आविर्भूत हुई। हिन्दी भाषा के स्वरूप में संवर्द्धन परिवर्द्धन के अवसर प्रकट हुए और भाषा का पर्याप्त परिष्कारी हुआ। पत्रकारिता का साफल्प भाषा केर और प्रभाव शक्ति पर निर्भर करता है, फलतः हिन्दी भाषा अधिकाधिक सशक्त और व्यापक बनने के क्रम में निर्भर करता है, फलतः हिन्दी भाषा अधिकाधिक सशक्त और व्यापक बनने के क्रम में आ खड़ी हुई। शैली की दृष्टि से हिन्दी गद्य में विशिष्ट शैलियों का आविर्भाव हुआ-शिवपूजन सहाय, प्रेमचन्द, बेनीपुरी प्रसाद, नलिन विलोचन शर्मा प्रभूति की गद्य शैलियों ने आधुनिक हिन्दी भाषा को नई शैली का अवदान प्रदान किया है।
सम्प्रति पत्रकारिता के क्षेत्र में गतिरोध-सा दिखने लगा है। दक्षता की कमी और कार्यनिष्ठा का अभाव आज की पत्रकारिता को दुर्बल बना रहे हैं। हमारी दृष्टि में पत्रकारिता की पुनः प्रतिष्ठा और स्वस्थ प्रेरक विचारों का प्रकाशन नूतन जीवन-निर्माण तथा आदर्श मानवीय मूल्य स्थापन के लिए अपेक्षित है। स्पष्ट है कि पत्रकारिता हिन्दी-साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में पत्र- साहित्य की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ है और उसका महत्व सबके द्वारा स्वीकारा गया है । स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी और आधुनिक भारत के भाग्यविधाता महात्मा गाँधी, देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, रवि बाबू, जय प्रकाशनारायण आदि के सारे पत्र, पत्र-साहित्य की अपूर्व निधि सिद्ध हुए हैं। इतना ही नहीं, पत्र-शैली में कहानियाँ, उपन्यास, वृत्तान्त आदि भी प्रस्तुत किये जाने लगे हैं और साहित्य की यह विद्या अत्यन्त उपयोगी एवं प्रभावपूर्ण मानी गई है। पत्रों के विभिन्न विषय हैं, जो अनुशीलन की दिशाएँ लक्षित करते हैं। बंगला भाषा के अन्तर्गत प्रेम-पत्रों का इधर एक महत्वपूर्ण शोध कार्य डा० जी० सी० सामन्त के द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जिसका महत्व और उद्देश्य स्वयंसिद्ध है। हिन्दी-भाषा के अन्तर्गत जो पत्र साहित्य उपलब्ध है, उस पर शोध और उसका वैज्ञानिक वर्गीकरण होना चाहिए। पत्र साहित्य आन्तरिक स्थितियों और भावनाओं का सरस, प्रभावपूर्ण एवं अभिव्यक्त रूप है । साहित्य के इस स्वरूप का विकास और उसकी व्यापक स्वीकृति की अपेक्षा स्वाभाविक है।
निकर्ष- संक्षेप में कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य का आधुनिक युग गद्य का वैभव प्रस्तुत करता है। इतना ही नहीं, यह वह काल है जिसमें गद्य की अनेक नयी और पुरानी विधाओं का विकास हुआ। यह विकास आधुनिक गद्य की समृद्धि और उसके प्रति बढ़ रही रचनाओं को रुचि को प्रमाणित करता है।
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