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भारत में बेरोजगारी की समस्या (Unemployment Problem in India)
बेरोजगारी तथ होती है जब लोग काम करने के योग्य होते हैं तथा अपनी योग्यता वाले लोगों को दी जाने वाली वर्तमान मजदूरी की दरको पूर्व स्वीकार करने को तैयार रहते हैं किन्तु उन्हें रोजगार नहीं मिलता।
-वायरस तथा स्टोन
बेरोजगारी का अर्थ (Meaning of Unemployment)
अर्थशास्त्र के अन्तर्गत बेरोजगारी’ से अभिप्राय एक ऐसी अवस्था से लिया जाता है जिसमें व्यक्ति मजदूरी की वर्तमान दर पर काम करने को तैयार होता है किन्तु उसे काम नहीं मिलता। एक राष्ट्र की दृष्टि से ‘बेरोजगारी की अवस्था’ वह स्थिति है जिसमें देश में बहुत से काम करने योग्य व्यक्ति हैं तथा वे मजदूरी की प्रचलित दर या दरों पर काम करने के लिए तैयार हैं किन्तु उन्हें कुछ कारणों से काम नहीं मिल पा रहा होता है। बेरोजगारी का अनुमान लगाते समय केवल उन्हीं व्यक्तियों की गणना की जाती है जो (i) काम करने के योग्य हैं, (ii) काम करने के इच्छुक है तथा (iii) मजदूरी की प्रचलित दर पर काम करने के लिए तैयार हैं। अतः बीमार, बूढ़े, विद्यार्थी आदि को बेरोजगारों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता।
बेराजगारी की परिभाषाएँ–(1) राफिन तथा ग्रेगोरी के विचार में, “एक बेरोजगार व्यक्ति वह है जो (1) वर्तमान समय में काम नहीं कर रहा, (ii) जो सक्रिय ढंग से काम की तलाश में है तथा (iii) मजदूरी की प्रचलित दर पर काम करने के लिए प्रस्तुत है। “
(2) ए०सी० पीगू के शब्दों में, “एक व्यक्ति को उस समय ही बेराजगार कहा जायेगा जब उसके पास रोजगार का कोई साधन नहीं है किन्तु वह रोजगार प्राप्त करना चाहता है।”
भारत में बेरोजगारी का स्वरूप (Nature of Unemployment in India)
भारत में निम्न प्रकार की बेरोजगारी पाई जाती है-
(1) संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural Unemployment)- संरचनात्मक बेरोजगारी’ वह बेरोजगारी है जो कुछ उद्योगों के दीर्घकालीन पतन (long-term decline) के कारण उत्पन्न होती है। सामाजिक, आर्थिक तथा तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप कुछ उद्योगों का विस्तार होता है जबकि कुछ उद्योग शनैः शनैः बन्द हो जाते हैं। इस प्रकार ऐसी बेकारी औद्योगिक ढाँचे में संरचनात्मक परिवर्तनों के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। ऐसी बेरोजगारी दीर्घकालीन होती है। भारत जैसे अल्प-विकसित देशों में इस प्रकार की बेरोजगारी पाई जाती है।
(2) छिपी हुई या अदृश्य बेरोजगारी (Disguised Unemployment)-जब किसी काम में जितने श्रमिकों की वास्तव में आवश्यकता होती है उससे अधिक लोग उस काम में लगे होते हैं तो ऐसे लोगों की बेकारी को छिपी हुई बेरोजगारी कहा जाता है। श्रमिक बाहर से तो काम लगे हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में उन श्रमिकों की उस कार्य में आवश्यकता नहीं होती। यदि उन श्रमिकों को उस कार्य से निकाल दिया जाए तो कुल उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता शून्य या नगण्य होती है। भारत में ऐसी बेरोजगारी मुख्यतया कृषि क्षेत्र में पाई जाती है।
(3) खुली (पूर्ण) बेरोजगारी- इस प्रकार की बेरोजगारी में श्रमिक के पास कोई काम नहीं होता है, अर्थात् उसे थोड़ा-बहुत काम भी नहीं मिलता है। ऐसी बेरोजगारी अधिकतर शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक बेरोजगारी तथा शिक्षित बेरोजगारी के रूप में पाई जाती है।
(4) पर्षणात्मक बेरोजगारी (Pictional Unemployment) श्रम बाजार की अपूर्णताओं के कारण लोग अस्थाई रूप से बेकार हो जाते है। ऐसी अस्थाई बेरोजगारी घर्षणात्मक बेरोजगारी कहलाती है। ऐसी बेरोजगारी मुख्यतया श्रम की गतिहीनता, कच्चे माल की कमी, रोजगार अवसरों सम्बन्धी अनभिज्ञता, बिजली की कमी, मशीनों की टूट-फूट आदि के कारण उत्पन्न होती है। ऐसी बेरोजगारी अस्थाई स्वभाव की होती है।
(5) मौसमी बेरोजगारी (Seasonal Unemployment)- इस प्रकार की बेरोजगारी में लोग वर्ष के कुछ समय ही बेकार रहते हैं तथा वर्ष के बाकी समय उन्हें रोजगार मिलता रहता है। ऐसी बेरोजगारी प्रायः कृषि में या कृषि पर आधारित उद्योग-धन्धों में पाई जाती है। फसले चोने तथा काटने के समय तो कृषि में खूब काम होता है किन्तु बीच के समय में किसान तथा मजदूर कुछ दिनों या महीनों के लिए बेरोजगार हो जाते हैं। इसी प्रकार चीनी तथा बर्फ के कारखानों, ईंटों के भट्टों, गुड़ व खाण्डसारी व्यवसाय आदि में काम करने वाले श्रमिक कई महीने खाली रहते हैं।
(6) अल्प- रोजगार (Under-employment) – जब किसी व्यक्ति को अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार काम नहीं मिल पाता अथवा पूरे समय के लिए कार्य नहीं मिलता तो इसे अल्प- रोजगार कहते हैं। यदि एक एम० काम० की डिग्री प्राप्त व्यक्ति को चपरासी का काम करना पड़े तो इसे अल्प-रोजगार कहेंगे। ऐसा व्यक्ति काम में तो लगा होता है किन्तु उसकी योग्यता व क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा होता। इसके अतिरिक्त भारत में एक व्यक्ति सामान्यतः 8 घण्टे काम करता है। यदि किसी व्यक्ति को प्रतिदिन केवल 4 घण्टे का ही काम मिल पाता है तो ऐसी अवस्था भी अल्प-रोजगार’ कहलाती है।
(7) शिक्षित बेरोजगारी (Educated Unepmloyment)-‘शिक्षित बेरोजगारी’ से अभिप्राय उन लोगों की बेरोजगारी से है जो सामान्य रूप से शिक्षा प्राप्त किए होते हैं तथा जिनकी कार्यकुशलता अशिक्षित श्रमिकों की अपेक्षा अधिक होती है। शिक्षित बेरोजगारी’ में खुली बेरोजगारी अल्प-बेरोजगारी जाती है, अर्थात् उन्हें कोई काम नहीं मिलता। इसके विपरीत, कुछ शिक्षित व्यक्तियों को जो काम मिला होता है वह या तो उनकी शिक्षा के अनुरूप नहीं होता अथवा उनकी क्षमता से कम होता है। वर्तमान में देश के सम्मुख शिक्षित बेरोजगारी की अत्यन्त गम्भीर समस्या बनी हुई है।
भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी- भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में मुख्यतया अदृश्य बेरोजगारी, मौसमी बेरोजगारी तथा अल्परोजगार की समस्याएं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यशील जनसंख्या का 25% से 30% भाग अप्रत्यक्ष रूप से बेरोजगार है। ऐसे श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता शून्य होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दूसरी बेरोजगारी है। कृषि एक मौसमी व्यवसाय है। खाली समय में प्रायः किसान बेकार रहते हैं जो किसान वर्ष में केवल एक फसल बोता है वह 5 से 7 महीने तक बेरोजगार रहता है।
भारत में शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी- शहरी क्षेत्रों में पाई जाने वाली बेरोजगारी को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (i) औद्योगिक क्षेत्र में बेरोजगारी- इस वर्ग में उन अशिक्षित व्यक्तियों को शामिल किया जाता है जो उद्योगों, खनिज, परिवहन, व्यापार, विनिर्माण आदि में काम करने के इच्छुक है। इस क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण बढ़ी है। इसके विपरीत, गत वर्षों में जनसंख्या गायों से निकलकर शहरों में बसती गई है जिससे औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिकों की पूर्ति बढ़ती गई है। (ii) शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी- ऐसी समस्या के गम्भीर होने का मुख्य कारण गत वर्षों में सकूलों तथा कॉलेजों में शिक्षा-सुविधाओं का तीव्र गति से बढ़ना है।
भारत में बेरोजगारी के कारण (Causes of Unemployment in India)
भारत में बेरोजगारी की समस्या के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं—
(1) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि- भारत में बेरोजगारी की समस्या का प्रमुख कारण जनसंख्या में तीव्र गति से होने वाली वृद्धि है। सन् 1951 में देश की जनसंख्या 36.14 करोड़ थी जो 1991 में बढ़कर 84.63 करोड, 2001 में 102.7 करोड़ तथा जनगणना 2011 के अनुसार 121 करोड़ हो गई थी।
(2) शिक्षा सुविधाओं का विस्तार- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में शिक्षा-सुविधाओं का पर्याप्त विकास हुआ, किन्तु रोजगार के अवसरों में अपेक्षाकृत धीमी गति से वृद्धि हुई है। परिणामतः शिक्षित बेरोजगारी निरन्तर बढ़ती गई है।
(3) व्यावसायिक शिक्षा की कमी- देश में रोजगार मूलक तथा व्यावसायिक शिक्षा का नितान्त अभाव है। सामान्य शिक्षा की अधिकता के कारण प्रति वर्ष लगभग 10 लाख व्यक्ति शिक्षित बेरोजगारों में शामिल हो जाते हैं।
(4) कम बचत तथा कम निवेश- देश में व्यापक गरीबी तथा बेरोजगारी के कारण प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है जिस कारण लोगों की बचत क्षमता कम है। निवेश बचत पर निर्भर करता है। कम बचत के कारण निवेश भी कम हो पाता है जिस कारण श्रमिकों के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर उत्पन्न नहीं किए जा सके हैं।
(5) दोषपूर्ण आर्थिक नियोजन- देश की किसी भी पंचवर्षीय योजना में बेरोजगारी को दूर करने के लिए कोई दीर्घकालीन योजना नही बनाई गई है। साथ ही योजनाओं में भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय संसाधनों के उचित प्रयोग पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
(6) पीमा आर्थिक विकास- देश की पंचवर्षीय योजनाओं में आर्थिक विकास की गति धीमी रही है। परिणामस्वरूप देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं जुटाए जा सके हैं।
(7) कृषि का मौसमी तथा पिछड़ा व्यवसाय होना- भारत के कृषि प्रधान देश होने तथा लगभग 70% जनसंख्या के कृषि में संलग्न होने के बावजूद देश में कृषि व्यवसाय एक गौसमी तथा पिछड़ा हुआ व्यवसाय बना हुआ है। फलस्वरूप देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अल्प-रोजगार तथा अदृश्य बेराजगारी की समस्या विद्यमान है।
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