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भाषा का अर्थ एवं परिभाषा | भाषा की प्रकृति एवं विशेषताएँ

भाषा का अर्थ एवं परिभाषा | भाषा की प्रकृति एवं विशेषताएँ
भाषा का अर्थ एवं परिभाषा | भाषा की प्रकृति एवं विशेषताएँ

भाषा का क्या अर्थ है ? भाषा की परिभाषा दीजिए। भाषा की प्रकृति एवं विशेषताओं की विवेचना कीजिए। अथवा भाषा शिक्षण के अर्थ, प्रकृति एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

भाषा का अर्थ

‘भाषा’ शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु से बना है। ‘भाष’ का अर्थ है ‘बोलना’ या ‘कहना’ अर्थात् भाषा वह है, जिसे बोला जाए। बोलते तो संसार के प्रायः सभी प्राणी हैं। प्रत्येक जीवधारी गाय, बन्दर, कुत्ता, बिल्ली, चिड़िया आदि परस्पर विचारों एवं भावों के आदान-प्रदान हेतु किसी-न-किसी प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, परन्तु हम उनके विचार-विनिमय को भाषा नहीं कहते हैं। उनकी भाषा केवल सांकेतिक होती है जबकि मानव की भाषा का स्वरूप केवल सांकेतिक न होकर लिखित है। विचार और भाव-विनिमय के साधन के लिखित रूप को ही हम वस्तुतः भाषा कहते हैं। इस प्रकार मनुष्य के भावों, विचारों और अभिप्रेत अर्थों की अभिव्यक्ति के ध्वनि प्रतीकमय साधन को भाषा कहते हैं।

भाषा का निर्माण जिन व्यक्त ध्वनियों से होता है, उन्हें ‘वर्ण’ कहा जाता है। स्वर-विकार, मुख-विकृति, इङ्गिति आदि भी भाषा के अङ्ग हैं, जो असभ्य और पिछड़ी हुई जातियों की भाषा में पाये जाते हैं, किन्तु भाषा के विकास के साथ-ही-साथ कम होते चले जाते हैं।

भाषा शब्द का सामान्य अर्थ मानव-मात्र की भाषा से लिया जाता है। पशु-पक्षी भी अपनी बोली में भावाभिव्यक्ति करते हैं, किन्तु उनकी अस्पष्ट ध्वनियों को भाषा की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। इसी प्रकार इङ्गित, स्वर-विकार और मुख-विकृति से भी भाषाभिव्यक्ति होती है, परन्तु इसे भी भाषां नहीं कहा जा सकता। मानव के मुख से जो सार्थक ध्वनि-समूह निकलता है और जिसका कुछ-न-कुछ स्पष्ट अर्थ निकलता है, उससे सामान्य भाषा का निर्माण होता है।

किसी देश, देश-विभाग या बड़ी जाति की भाषा के लिए भी ‘भाषा’ शब्द प्रयुक्त होता है। इस अर्थ में तिब्बती, चीनी, फारसी आदि भाषाएँ भी ‘भाषा’ कहलाती हैं। एक भाषा में अनेक स्थानीय और प्रान्तीय भेद हो सकते हैं। ‘हिन्दी’ एक भाषा है, किन्तु इसमें अनेक स्थानीय और प्रान्तीय भेद हैं, किन्तु हिन्दी को अन्तरंग भाषाओं और बोलियों को बोलने वाले भी समझ सकते हैं।

‘भाषा’ शब्द का औपचारिक प्रयोग – मानव परस्पर विचाराभिव्यक्ति के लिए प्रायः वर्णात्मक भाषा का ही प्रयोग करता है। परस्पर विचार-विनिमय में वह मुखाकृति, चेष्टा और संकेतों का भी आश्रय लेता है, उन्हें ‘गूँगे-बहिरों’ की भाषा के नाम से पुकारा जाता । अमेरिका के इण्डियन लोगों में इसी प्रकार की सांकेतिक भाषा का प्रयोग होता है। भाषाविज्ञान का ऐसी भाषाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

कृत्रिम भाषा- ‘भाषा’ शब्द का प्रयोग कृत्रिम भाषा के लिए भी होता है। कृत्रिम भाषा उसे कहते हैं जिसे कुछ मनुष्य अपनी सुविधा या उद्देश्य से गढ़ लेते हैं। आजकल इस प्रकार की भाषा का प्रमुख उदाहरण एस्पेरेन्ते (Esperanto) नाम की भाषा है। इसके प्रेमी इसको अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बनाने की बात कहते हैं।

उपर्युक्त विवेचन में भाषा का व्यापक अर्थों में प्रयोग दिखाया गया है।

भाषा की परिभाषा

विभिन्न भाषाशास्त्रियों ने ‘भाषा’ के शास्त्रीय अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसकी भाषा निर्धारित करने का प्रयत्न किया है। इनमें भारतीय और पाश्चात्य, प्राचीन और आधुनिक सभी वर्गों के विद्वान हैं। इनमें प्रमुख मत इस प्रकार हैं-

(1) डॉ० मंगलदेव शास्त्री ने ‘भाषा’ की परिभाषा करते हुए लिखा है कि भाषा मनुष्य की उस चेष्टा या व्यापार को कहते हैं, जिससे मनुष्य अपने उच्चारणोपयोगी शरीरावयवों से उच्चारण किये गये वर्णात्मक या व्यक्त शब्दों के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करते हैं।  (तुलनात्मक भाषाशास्त्र)

(2) डॉo बाबूराम सक्सेना ने इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है, “एक प्राणी अपने किसी अवयव द्वारा दूसरे प्राणी पर कुछ व्यक्त कर देता है- यही विस्तृत अर्थ में भाषा है।”  (सामान्य भाषाविज्ञान)

(3) डॉ० श्यामसुन्दर दास ने भाषा की परिभाषा पर विचार करते हुए अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है कि, “मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं।”  (भाषाविज्ञान)

(4) आचार्य किशोरीदास बाजपेयी- “विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द-समूह ही – भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।”  (भारतीय भाषाविज्ञान)

(5) डॉ० भोलानाथ तिवारी- “भाषा, उच्चारणावयवों से उच्चरित मूलतः प्रायः यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी भाषा-समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।”  (भाषाविज्ञान)

(6) डॉo देवेन्द्रनाथ शर्मा के विचार में “उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा है।” अथवा “जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय या सहयोग करते हैं, उस यादृच्छिक, रूढ़, ध्वनि-संकेत की प्रणाली को भाषा कहते हैं।”       (भाषाविज्ञान की भूमिका)

भाषाविज्ञान के विदेशी विद्वानों ने भी भाषा सम्बन्धी जो परिभाषाएँ की हैं, उनका भी सारांश यही है कि भाषा विचाराभिव्यक्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, जिसमें ध्वनियों का व्यवहार किया जाता है। इन विद्वानों के मतानुसार भाषा व्यक्त ध्वनि संकेतों के द्वारा मानव-विचारों की अभिव्यक्ति है; यथा-

(1) ए0 एच0 गार्डिनर के मतानुसार, “The common definition of speech is the use of articulate sound symbols for the expression of thought.”  (Speech Language)

(2) हेनरी स्वीट के शब्दों में भाषा की परिभाषा यह है- “Language may be defined as expression of human thought, by means of speech, sounds or articulate sounds.”    (The History of Language)

(3) हैलिडे – “Language can be thought of as organised noise used in situations, actual social situations, or in other words contextualised systematic sound.”

भाषा की प्रकृति एवं विशेषताएँ

भाषा के लक्षण

भाषा की उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर ‘भाषा’ के मुख्य लक्षण इस प्रकार ठहरते हैं-

(i) मानव-मुख से निःसृत- मानव-मुख से निकलने वाले ध्वनि संकेतों की समष्टि अथवा व्यवस्था को ‘भाषा’ कहते हैं। पशु-पक्षियों की बोलियों, अंगादि द्वारा भाव-प्रकाशन तथा निरर्थक ध्वनि-समूह को भाषा नहीं कहा जा सकता है।

(ii) भाव-सम्प्रेषण का साधन- भाषा के अभाव में मनुष्य संकेतों के द्वारा ही अपने विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति कर सकता है। हम स्वयं कह सकते हैं कि गूँगे व्यक्ति की चेष्टाओं के समान ये संकेत भाव-प्रकाशन में सर्वथा अपर्याप्त ही रहते हैं। भाषा के द्वारा ही एक व्यक्ति अपने भावों को अभिव्यक्त करके दूसरों तक पहुँचा सकता है।

(iii) सार्थक एवं विश्लेषणीय ध्वनि- वे ही ध्वनियाँ भाषा के अन्तर्गत आती हैं जो सार्थक होती हैं, सार्थक शब्द-निर्माण करती हैं तथा जिनका विवेचन-विश्लेषण किया जा सकता है।

(iv) निश्चित ध्वनि-रूप- भाषा की आवृत्ति होती है, इस कारण ध्वनि-रूप में निश्चितता का होना अनिवार्य है। ऐसा न होने पर ध्वनियों के अर्थ बदलते रहते हैं और वे एक निश्चित प्रयोजन की अभिव्यक्ति न कर सकने के कारण भाषा नहीं कही जा सकती हैं।

(v) पूर्व निर्धारित अर्थ- भाषा के अन्तर्गत आने वाली ‘ध्वनि’ का अर्थ परम्परागत होता है। उदाहरण के लिए ‘काम’ शब्द को ही लेते हैं। संस्कृत और हिन्दी में इस शब्द का अर्थ एक के निश्चित रूप में स्वीकृत है- कार्य अथवा इच्छा। परन्तु अंग्रेजी में यही ध्वनि ‘काम’ एक भिन्न Calm ‘शांत’ की प्रतीति कराती है। स्पष्ट है कि ‘काम’ शब्द का अर्थ व्यवहृत परम्परा के अनुसार ही गृहीत होगा।

(vi) सामाजिकता- भाषा का उद्भव और विकास मनुष्य की सामाजिकता के फलस्वरूप हुआ है। पारस्परिक सहयोग, सम्पर्क और विचार-विनिमय की आकांक्षा ने ही भाषा का विकास किया है। भाषा व्यक्ति और समाज को जोड़ने वाली महत्त्वपूर्ण कड़ी है। मनुष्य समाज में रहकर ही भाषा का अर्जन, सम्वर्द्धन एवं विकास करता है।

(vii) अर्जित सम्पत्ति या सांस्कृतिक संचारण- भाषा मनुष्य को पैतृक सम्पत्ति के रूप में जन्म से ही प्राप्त नहीं होती है। माँ की कोख से कोई भी व्यक्ति भाषा विशेष की संरचना व्यवस्था से अनुकूलित होकर जन्म नहीं लेता। वह कौन-सी भाषा सीखेगा यह उसकी सांस्कृतिक परिस्थितियों एवं भाषा पर निर्भर करता बच्चे को अनुकरण और अभ्यास के द्वारा भाषा सीखनी पड़ती है। यदि किसी अंग्रेज बच्चे का लालन-पालन हिन्दीभाषी माता-पिता करें तो वह बच्चा हिन्दी-भाषी होगा, क्योंकि वह जन्म से कोई भाषा नहीं जानता है। वस्तुतः भाषा-अर्जन का कार्य तो अनवरत रूप से जीवनपर्यन्त चलता रहता है।

(viii) चिरपरिवर्तनशील- भाषा सदैव बदलती रहती है। भाषा का कोई रूप स्थिर या अन्तिम रूप नहीं होता है। भाषा में यह परिवर्तन ध्वनि, शब्द, वाक्य, अर्थ-सभी स्तरों पर होता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का ‘हस्त’ शब्द प्राकृत में ‘हत्थ’ होकर हिन्दी में ‘हाथ’ हो गया है। संस्कृत का ‘साहस’ शब्द हत्या, व्यभिचार आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता था। हिन्दी में उसका अर्थ अब ‘हिम्मत’ हो गया है। भाषा का शरीर प्रधानतः उन व्यक्त ध्वनियों से बनता है, जिन्हें ‘वर्ण’ कहते हैं। ‘वर्ण’ के सहायक अंग हैं- आँख, हाथ के इशारे, मुख-विकृति, आवाज की अवस्था अर्थात् लड़ना (Tone) इत्यादि ।

(ix) द्वयात्मकता या द्वैध संरचना- प्रत्येक भाषा में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ अंतर्निहित होती हैं- एक ध्वनि की व्यवस्था और दूसरी अर्थ की व्यवस्था। उदाहरणतया- वह पास हो गया। यह वाक्य तीन शब्दों से निर्मित है- ‘वह’, ‘पास’ तथा ‘हो गया’। इनमें से पहला प्राथमिक एकक निम्न द्वितीयक अथवा स्वन प्रक्रियात्मक एककों से निर्मित है-

/व्/+/अ्/+/ह्/+ अ/

इसी प्रकार से दूसरे व तीसरे प्राथमिक एकक क्रमशः निम्नलिखित स्वन प्रक्रियात्मक एककों से निर्मित हैं-

/ प्/+/आ/ +/स्/
/ह्/+/ओ/+/ग्/+/अ/+/य्/+/आ./

यद्यपि ऊपर प्राथमिक स्तर के एककों को सार्थक बताया गया है। यह बात सभी एककों के विषय में नहीं कही जा सकती। जैसे- मैंने चाहा मैं भी तैर लूँ।’ यहाँ ‘भी’ का उतना अर्थ नहीं है; जितना ‘चाहा’ का है तथा ‘कि’ का लगभग कोई अर्थ नहीं है।

(x) यादृच्छिकता- भाषा के अनेक लक्षण अननुमेय होते हैं तथा संकेत व वस्तु के बीच किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता। अर्थात् शब्द और अर्थ या ध्वनि और अर्थ का स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है, वह माना हुआ यादृच्छिक है। इसलिए एक भाषा में ध्वनियों के समूह का एक अर्थ होता है तो दूसरे में दूसरा हिन्दी में ‘आम’ का एक अर्थ है तो अरबी में दूसरा।

(xi) विस्थापन- भाषा का एक विस्मयकारी लक्षण यह है कि उसके द्वारा मानव वास्तविकता व अवास्तविकता, तथ्य एवं कल्पना, वर्तमान, भूत, भविष्य सभी के विषय में बात कर सकता है। भाषा के विषय में भी बात भाषा के ही द्वारा की जाती है।

निष्कर्ष- विचार की अभिव्यक्ति के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों के व्यवहार को ‘भाषा’ कहते हैं। भाषाविज्ञान सदैव इस बात का ध्यान रखता है कि भाषा एक सामाजिक क्रिया है, वह किसी व्यक्ति विशेष की कृति नहीं है। भाषा के मुख्यतः चार स्कन्ध हैं- वक्ता, श्रोता, शब्द और अर्थ । इन चारों स्कन्धों को स्पष्ट करते हुए भाषाविज्ञान का विद्यार्थी कह सकता है कि मनुष्य और मनुष्य के बीच, वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे ‘भाषा’ कहते हैं।

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Anjali Yadav

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