आधुनिक काल की उपलब्धियाँ
आचार्य शुक्ल ने आधुनिक काल (गद्यकाल) को तीन चरणों एवं तीन उत्थानों में विभक्त कर उन्हें युग निर्माता साहित्यकारों के प्रभावी व्यक्तित्व और कृतित्व के आधार पर उनके नामों से भी संबद्ध कर दिया है। प्रथम चरण व उत्थान के साहित्य को उन्होंने भारतेन्दु युग का नाम दिया। द्वितीय चरण व उत्थान के साहित्य को द्विवेदी युग के नाम से अभिहित किया है। इन्हें क्रमशः पुनर्जागरण काल तथा जागरण सुधार काल की संज्ञाओं से अभिलक्षित करना संगत प्रतीत होता है। क्योंकि उक्तकाल नव जागृति और परिष्कृति के युग हैं। शुक्ल जी ने तृतीय चरण व उत्थान काल के लिए किसी अन्य विशिष्ट नाम का प्रयोग नहीं किया है, जिसे कि छायावाद काल या प्रसाद काल कहा जा सकता है। इसके बाद के साहित्य के लिए अधिकतर विद्धानों ने छायावादोत्तर काल की संज्ञा दी है। इस काल में साहित्य की दो विभिन्न धाराओं का आविर्भाव हुआ- प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद। प्रयोगवाद 1953-54 में प्रायः निःशेष हो गया। इसके अनन्तर हिन्दी साहित्य में नव लेखन की अनेक नवीन गतिविधियों का द्रुतगति से विकास हुआ जिनमें यथार्थवादी जीवन प्रखरता स्पष्ट रूप से लक्षित होता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य युग जीवन के हर बदलाव के साथ बदला तथा उसमें अवांछित विस्तार व वैविध्य आये । साहित्य के दोनों क्षेत्रों-गद्य एवं पद्य में नये आयाम और नूतन क्षितिज उभरे। आधुनिक हिन्दी साहित्य की गतिविधियों के सम्पर्क अववोध के लिए इसे निम्नांकित भागों में विभक्त किया जा सकता है-
1. प्रथम चरण या उत्थान काल, भारतेन्दु युग, पुनर्जागरण काल 1857-1900 ई० ।
2. द्वितीय चरण या उत्थान काल, द्विवेदी युग, जागरण सुधार काल 1900-1918 ई० ।
3. तृतीय चरण या उत्थानकाल, प्रसाद युग, छायावाद काल (स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा) 1918-1938 ई० ।
4. छायावादोत्तर काल, प्रगतिवाद तथा (सामाजवादी यथार्थपरक काव्यधारा) तथा प्रयोगवाद काल (प्रगति-प्रयोगकाल) 1938-53 ई० । (व्यक्तिपरक यर्थाथवादी काव्यधारा)।
5. नव लेखन काल 1953 से अब तक जिसमें यर्थाथवादी जीवन की प्रखरता व सपाटवयानी की सूचक नानाविध नवीन काव्य धाराओं का अतीव त्वरित गति से विकास हो रहा है
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम समूचे हिन्दी साहित्य के नाम करण तथा काल विभाजन को संक्षेप में निम्नांकित रूप में दर्शा सकते हैं-
- प्रारंभिक काल (आदिकाल) वि० 1050 से 1375
- पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) वि० 1375 से 1700
- उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) वि० 1700 से 1900
- आधुनिक काल वि० 1900 से अब तक इसका विभाजन निम्नस्थ है।
(1) रीतियुग के निःशेष हो जाने के बाद, सन् 1850 से आधुनिक युग का आरंभ हुआ। उस समय अंग्रेजी शासन पूरी तरह से स्थापित हो चुका था। इस नवीन शासन के संपर्क के परिणाम स्वरुप भारत में एक नूतन साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक चेतना का उदय हुआ। भारतेन्दु युग अथवा आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रथम उत्थान काल में उक्त चेतना का स्पष्ट प्रतिफलन हुआ है। इस युग का साहित्य बहुत अंशों तक आधुनिक काल का संधि साहित्य है। यद्यपि इस युग के साहित्य का उद्देश्य परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार नवीन परंपराओं का प्रवर्तन था किन्तु साथ-साथ पुरातन परंपराओं का भी संरक्षण हुआ।
कविता के क्षेत्र में भारतन्दु युग के साहित्यकार के मन में नीवन के प्रति मोह के साथ-साथ प्राचीन के प्रति आग्रह भी बना रहा। अतः एक ओर वह प्राचीनता का प्रेमी बना रहा तो दूसरी ओर उसने नूतनता का सूत्रपात भी किया। इस साहित्य में देशभक्ति और राजभक्ति जैसी आभासतः दो विरोधी प्रवृत्तियाँ पायी जाती है। राजभक्ति के साथ-साथ भारतन्दु युग का कवि अंग्रेजी शासन के निर्मम शोषण के प्रति पर्याप्त जागरूक रहा है। अतः भारतेन्दु युग की राष्ट्रीयता के प्रति किसी प्रकार की संकुचितता का आरोप असमीचीन होगा। इस युग के साहित्य में जनजीवन का सजीव प्रतिबिम्ब है। इस युग के साहित्यकार ने निरंतर महामारी, अकाल, टैक्स, आर्थिक शोषण और राजनीतिक विषयों पर बहुत कुछ लिखा। इस युग के काव्य में सामाजिक दुरवस्था, कुप्रथाओं का खंडन, विधवाओं की दीन दशा, बाल-विवाह विरोध, अंधविश्वासों और रूढ़ियों के उन्मूलन, स्त्री शिक्षा और उसकी सामाजिक स्वतंत्रता आदि विषयों पर मनोयोगपूर्वक लिखा गया।
भारतेन्दु युग में कविता क्षेत्र में ब्रजभाषा और गद्य क्षेत्र में खड़ी बोली का उपयोग किया गया है। इस काल में छन्दों के क्षेत्र में भी आधुनिकता के समावेश का प्रयत्न किया गया। इस युग के साहित्य के विषय में संक्षेपतः कहा जा सकता है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारंभिक काल होने के कारण इसमें अपेक्षित परिपक्वता और अनुभूति की गहराई नहीं आ सकी है। इस युग के लेखक हिन्दी और हिन्दू जाति के उद्धार के लिए आन्दोलन करने वाले देश प्रेमी, पत्रकार और प्रचारक अधिक थे साहित्यकार कम थे।
खड़ी बोली गद्य का विकास इस युग की महत्वपूर्ण घटना है। नाटक, उपन्यास, कहानी, जीवनी, आलोचना, निबन्ध और पत्रकारिता आदि में उक्त गद्य का भरपूर प्रयोग मिलता है। इस युग का प्रत्येक लेखक किसी पत्र का संपादन कर रहा था। हिन्दी नाटक साहित्य और रंगमंच पर भारतन्दु जी का आगमन एक अविस्मरणीय घटना है। इन्होंने मौलिक, रूपांतरित और अनुदित सभी प्रकार के नाटक लिखे और एक नाटक मंडली की स्थापना की। इस युग के साहित्य के गद्य रूपों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें गोष्ठी साहित्य को सभी विशेषतायें और परिसीमायें हैं। इस काल के गद्य में अनेक शैलियों का प्रचलन तो हुआ किन्तु उनमें परिपक्वता की कमी बनी रही। भारतेन्दु काल में साहित्य के जिन रूपों और प्रवृत्तियों का उदय हुआ आगे चलकर द्विवेदी युग में उनमें वांछनीय विकास हुआ।
(2) संवत् 1950 से 75 तक का समय आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में दूसरा उत्थान या द्विवेदी युग के नाम से अभिहित किया जाता है। इस युग की समूची साहित्यिक चेतना के आधार पर स्वनामधन्य महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। उनकी सरस्वती पत्रिका और द्विवेदी अपने आप में एक संस्था थे। उन्होंने पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित कर उसके व्याकरण सम्मत परिष्कार एवं संस्कार को किया। विशेषतः कविता, आलोचना और कथा साहित्य में उक्त युग में काफी प्रौढ़ता आई। इस युग की कविता में भारतेन्दु युग की कविता की अपेक्षा राष्ट्रीयता अधिक मुखरित हुई यद्यपि उसका वह रूप इतना व्यापक नहीं था। इतिवृतात्मकता इस युग के साहित्य की मुख्य विशेषता है जिसे रीतिकालीन घोर शृंगार की प्रतिक्रिया का परिणाम समझना चाहिए। इस युग के साहित्य पर कांग्रेस के स्वतंत्रता आन्दोलनों का स्पष्ट प्रभाव है। द्विवेदीयुगीन साहित्यकार द्वारा कृपक व दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति और उसकी करुण कथा का मार्मिक अभिव्यंजन कांग्रेस के सामाजिक आदर्श की पूर्ति का प्रयास है। विज्ञान युग की बौद्धिकता ने भी प्रस्तुत साहित्य को प्रभावित किया है। फलतः साहित्य में प्राचीन धार्मिक रूढ़ियों का खंडन तथा नवीन मूल्यों व आदर्शों का समाकलन हुआ है। मैथलीशरण गुप्त तथा हरिऔद्य के राम और कृष्ण मानव रूप में इस धरा पर ही स्वर्ग स्थापना के लिए आए हैं। गुप्त की उर्मिला और यशोधरा तथा हरिऔध की राधा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सजीव इकाइयों के रुप में चित्रित की गई है। इतिवृतात्मक शैली में निरसता का आ जाना नैसर्गिक है किन्तु फिर भी गुप्त, हरिऔध और स्नेही की अभिव्यंजना शौली पर्याप्त सरस बन पड़ी है। इस युग का कवि किसी विशेष बाद के बन्धन में बंधकर नहीं चला है। फिर भी उसकी विचारधारा पर गांधीवाद का सर्वाधिक प्रभाव है। पुरातन धार्मिक आख्यानों को निज युग की अनुरूपता में ढालने का स्तुत्य प्रयास इस युग के कवि की मुख्य देन है। भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण किन्तु उपेक्षित पात्रों को व्यापक आलोक में लाना इस युग के कवि की एक अद्वितीय उपलब्धि है।
नाटक, उपन्यास, कहानी और निबन्ध के क्षेत्रों में भारतेन्दु कालीन परंपराओं का विकास किया गया है। नाटक के क्षेत्र में प्रस्तुत युग भारतेन्दु युग की अपेक्षा किसी भी दशा में उन्नत नहीं कहा जा सकता। गहमरी के जासूसी, देवकीनन्दन खत्री के तिलस्मी तथा किशोरीलाल के अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासों में प्रौढ़ता की कमी दिखाई देती है। नाटक क्षेत्रों में मौलिकता का अभाव है। इस युग में केवल बंगला, संस्कृत और अंग्रेजी के नाटकों का अनुवाद होता रहा। इस युग में आलोचना का सन्तोषजनक विकास हुआ है। द्विवेदी स्वयं एक अच्छे संपादक, आलोचक, निबन्ध लेखक और कवि थे। इस युग के आलोचकों में मिश्रबन्धु, पंडित पद्यसिंह शर्मा तथा कृष्ण बिहारी मिश्र के नाम उल्लेखनीय है। हिन्दी आलोचना को आधुनिक रुप प्रदान करने में इन लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है।
इतिवृत्तात्मक शैली अपनाने के कारण इस युग के कवि में भावना और कल्पना में ऊँची उड़ान भरने की क्षमता संभवतः बहुत कम थीं। अतः भारतेन्दु युग की तुलना में इस युग के लेखकों के भावों की अनुभूति कल्पना में गहराई तथा गंभीरता की कमी थी। इस युग में भाषा का परिमार्जन और परिष्कार अवश्य हुआ। निःसन्देह इस युग में खड़ी बोली में मधुरता, व्यंजना में गंभीरता और कोमलता आदि के गुण आ गये किन्तु फिर भी उसमें एक अटपटापन शेष था जिसका निवारण छायावादी काव्यधारा में हुआ।
(3) हिन्दी के बहुधा विद्धानों के आधुनिक हिन्दी साहित्य के तृतीय चरण को हिन्दी साहित्य का यौवन या प्रोढकाल कहा है। यह युग काव्य में छायावाद का युग है। उपन्यास क्षेत्र में प्रेमचन्द्र का, नाटक में प्रसाद का कहानी में प्रेमचन्द का तथा आलोचना व निबन्ध क्षेत्रों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का युग है। भारतेन्दु काल में जिन शैलियों का बीजवपन हुआ तथा द्विवेदी युग में जिनका पल्लवन हुआ इस युग में उनका पूर्ण विकास हुआ। भाषा, भाव और शिल्प विधान की दृष्टि से यह काल प्रौढतम काल है। इस काल में कामायनी, गोदान, पल्लव, युगवाणी, परिमल, अनामिका, दिपशिखा, नीरजा, रंगभूमि, प्रेम श्रय, कामना, आँसू, स्कन्दगुप्त, ग्राम्या, गीतिका, कुकुरमुत्ता, रश्मि, सांध्यगीत, आचार्य शुक्ल के प्रसिद्ध आलोचनात्मक ग्रंथ तथा अन्य अनेक श्रेष्ठ साहित्यकारों की महनीय रचनायें प्रकाश में आई है। हिन्दी की इन अमर रचनाओं पर हिन्दी जगत् को गौरव है । गरिमा में यह युग साहित्य भक्ति साहित्य की समकक्षता में आता है और कलात्मकता में रीतिकाल को भी पीछे छोड़ देता है।
कविता क्षेत्र में नव स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा- छायावाद का विकास और परिमार्जन हुआ। छायावाद को अंग्रेजी साहित्य की रोमांटिक काव्यधारा की मात्र अनुकृति मानना भ्रामक है। यह काव्यधारा इस देश की प्राचीन संस्कृति और पाश्चात्य काव्य के प्रभावों को ग्रहण करती हुई राष्ट्रीय जागरण की गोद में पनपी और बढ़ी। इस काव्यधारा में भावों की कोमलता, अनुभूति की गहराई और जीवन के प्रति एक संवेदना है। इसके अतिरिक्त इस काव्य की विषयगत प्रवृत्तियाँ हैं- गोचर और अगोचर की खोज, पार्थिव में दिव्य का अवतरण, मानवी भावनाओं के प्रति प्रकृति का योगदान तथा मानवी सीमाओं में असीम का दर्शन, दांपत्य जीवन क्षेत्र में हृदयवाद, साहित्य के क्षेत्र में व्यापक सौन्दर्यवाद, वेदना, अन्तर्मुखीपन, मानववाद तथा व्यक्तिवाद । इस धारा की शैलीगत प्रवृत्तियाँ हैं- लाक्षणिक अभिव्यंजना, मुक्तक गीतिशैली, मसृण कोमलकान्त पदावली, प्रतीकात्मकता तथा प्राचीन व नवीन अलंकारों का प्रचुर प्रयोग आदि। छायावादी मूलतः प्रयोगवाद के व्यक्तिवाद की कविता है। पर उसके व्यक्तिवाद में भी समष्टिवादी सन्निहित है। छायावादी व्यक्तिवाद प्रयोगवाद के व्यक्तिवाद के समान कुंठाग्रस्त नहीं है। प्रसाद, पन्त, निराला क्रमशः इस काव्यधारा के ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। सजल गीतों की गायिका महीयसी महादेवी प्रस्तुत काव्यधारा की आद्या शक्ति है जिसके स्वर में अन्तिम क्षणों तक छायावाद और आधुनिक रहस्यवाद मुखरित रहे हैं। रामकुमार वर्मा नवीन, मिलिन्द, माखनलाल चतुर्वेदी, भगवतीचरण वर्मा तथा सुभद्रा कुमारी चौहान आदि इस धारा के प्रमुख कवि हैं।
इस युग का कथा साहित्य यथार्थवादी है, नाटक साहित्य ऐतिहासिक और आलोचनात्मक साहित्यशास्त्रीय, गहन, मौलिक तथा भारतीय एवं पाश्चात्य पद्धतियों का समन्वय है। हिन्दी का आख्यान साहित्य प्रेमचन्द जैसे समर्थ कुशल शिल्पी के हाथों में पहुँचकर कृतार्थ हो गया। प्रेमचन्द्र जनजीवन के व्याख्याकार हैं और उनका दृष्टिकोण अत्यन्त उदार और व्यापक है। उनका साहित्य परिमाण में जितना प्रचुर है महत्ता, उदारता और व्यापकता में उतना ही गरिमाशाली है। इस युग के अन्य कृति आख्यानकार हैं- विश्वंभरनाथ कौशिक, सुदर्शन, जैनेन्द्र, भगवतीचरण वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, अश्क तथा यशपाल आदि ।
काव्य क्षेत्र की भाँति प्रसाद ने नाटक क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दी। इनके नाटक ऐतिहासिक हैं और उनके उच्च कोटि की साहित्यिकता है किन्तु इनकी रंगमंचीयता निर्विवाद नहीं है। प्रसाद ने एकांकी नाटकों का भी श्रीगणेश किया। रामकुमार वर्मा, प्रेमी, लक्ष्मीनारायण मिश्र, सेठ गोविन्ददास, उदयशंकर भट्ट तथा जगदीश प्रसाद माथुर इस युग के सफल नाटककार हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस युग की आलोचना की गतिविधियों के नियामक रहे हैं। उनमें भारतीय तथा पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्तों का समन्वय देखा जा सकता है। वे बड़ी खोज और परिश्रम के बाद किसी वस्तु का विवेचन वैज्ञानिक दृष्टि से करते थे । उनका हिन्दी साहित्य का इतिहास सूर, तुलसी तथा जायसी पर लिखी गई विस्तृत समीक्षायें इस तथ्य का सजीव उदाहरण हैं। शुक्ल जी की पैनी शास्त्रीय दृष्टी जितनी प्राचीन कवियों के विवेचन में उक्तयुक्त सिद्ध हुई है उतनी नवीन साहित्य की परीक्षा में नहीं। इस कमी की पूर्ति आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. शिवदान सिंह चौहान और डॉ० रामविलास शर्मा आदि के द्वारा हुई ।
(4) सामान्यतः हिन्दी साहित्य इतिहास लेखकों ने सन् 1916 से 1936 तक के समय को छायावादी युग कहा है किन्तु 1930 के लगभग कवियों की एक नयी पीढ़ी का उदय हुआ जिसे डॉ० नगेन्द्र ने छायावाद का उत्तरार्ध कहा है। इस पीढ़ी के कवि अधिकतर अहंवादी, नियंतवादी और अन्तर्मुखी थे। इस धारा का आरम्भ भगवतीचरण वर्मा से माना जा सकता है और इस धारा के पोषक हैं-बच्चन, अज्ञेय, अंचल तथा नरेन्द्र । बच्चन की कविताओं का नाम ही हालावाद पड़ गया। नरेन्द्र तथा अंचल में अपेक्षाकृत सामाजिक चेतना की तीवानुभूति अधिक है।
(5) इस प्रकार की प्रवृत्ति उस समय के कथा साहित्य में भी देखी जा सकती है। उस समय आख्यानकार मनोविशलेषण शास्त्र से प्रभावित होकर फ्रायड और एडलर की यौन संबधी स्थापनाओं को ही साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति करने लगा। इलाचन्द्र जोशी के उपन्यास ‘पर्दे की रानी’ और ‘प्रेत की छाया’ तथ अज्ञेय का ‘शेखर: एक जीवनी’ इसी कोटि के उपन्यास हैं।
(6) छायावादी काव्यधारा में हसोन्मुखी प्रवृत्तियों के आ जाने पर हिन्दी में एक नवीन काव्यधारा की प्रतिष्ठा हुई जिसे प्रगतिवाद कहा गया । राजनीति के क्षेत्र में जो साम्यवाद है साहित्य के क्षेत्र में वही प्रगतिवाद है। प्रगतिवाद, कार्ल मार्क्स के दर्शन का साहित्य में व्यावहारिक पक्ष है। प्रगतिवादी साहित्य में दलित, पीड़ित, शोषित तथा श्रमिक वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखाई देती है। इस काव्यधारा की विचारगत प्रवृत्तियाँ हैं- सामन्तशाही का विरोध, सभी प्रकार के शोषण का अन्त, सामयिक समस्याओं के प्रति सजगता, अन्तर्राष्ट्रीय भावना, जीवन का यथार्थ चित्रण, नारी स्वतंत्रता तथा मानवतावाद । प्रगतिवादी काव्य की शैलीगत विशेषतायें हैं- सरलता, व्यंग्यात्मकता, मुक्तक छंद, गीति शैली, अलंकारों के आडम्बर का बहिष्कार। इस प्रगतिवादी आन्दोलन से प्रेमचन्द पन्त और निराला के नाम विशेष रुप से संबद्ध हैं। इसके अतिरिक्त नरेन्द्र, अंचल, सुमन, दिनकर, गिरिजाकुमार माथुर आदि कवियों के नाम भी इस विषय में उल्लेखनीय हैं। प्रगतिवाद का कथा साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा।
यशपाल रांगेय राघव, भगवतशरण उपाध्याय तथा चन्द्रकिरण सौनरिक्सा की रचनायें प्रगतिवाद से प्रभावित हैं। प्रगतिवाद में कहीं-कहीं यथार्थ के नाम पर नग्नता तथा साम्यवादी सिद्धांतों के कोरे प्रचार को भी देखा जा सकता है।
(7) इसी दौरान में काव्य क्षेत्र में राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता धारा का प्रस्फुटन हुआ। इस कविता धारा में भारत राष्ट्र के प्रति प्रेम, भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध आस्था, सामाजिक, घात-प्रतिघात, दार्शनिक अनुभूतियों तथा स्वच्छन्दतावादी कविता की प्रवृत्तियाँ लक्षित होती हैं। इस धारा के मुख्य कवि हैं- बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त, उदयशंकर भट्ट तथा रामधारीसिंह दिनकर आदि।
(8) प्रयोगवाद का आविर्भाव सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित प्रथम तार सप्तक’ के प्रकाशन के साथ हुआ। जिसमें सात कवियों की रचनायें संगृहित थीं। इस काव्य धारा में व्यक्तिवाद की परिणति घोर अहंवादी स्वार्थ प्रेरित, असामाजिक उच्छृंखल और असंतुलित मनोवृत्ति के रूप में हुई। आरंभ में इस कविता को प्रयोगवादी, प्रतीकवादी, प्रत्ययवादी तथा नयी कविता आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया। इसमें विषय वस्तु और शैली के क्षेत्रों में प्रयोग, मात्र प्रयोग के लिये किये गये। इस काव्यधारा से मानवीय रागात्मकता तथा जीवन के प्रति घोर अनास्था, कुठाओं की विवृत्ति का उपक्रम, दुरुह संकेतात्मक भाषा, अस्वाभाविक अलंकार योजना और ओछे तल को वचन भंगिमा में चलता रहा है।
(9) अभिनव लेखन काल- प्रयोगवाद के पश्चात् तीसरे तारसप्तक के प्रकाशन के उपरांत आधुनिक हिन्दी साहित्य में एक अभिनव लेखन की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है। जिसमें यथार्थवादी जीवन की प्रखरता व सपाटबयानी की सूचक नानाविधि, नवीन काव्य विधाओं का अतीव त्वरित गति से विकास हो रहा है। कविता क्षेत्र में इसे साठोत्तरी हिन्दी कविता या नयी कविता की संज्ञा से अभिहित किया गया। इससे पूर्व इसे अकविता, न कविता, अस्वीकृत कविता, विद्रोही कविता, प्रसिद्ध कविता, शमशानी कविता, भूखी पीढ़ी की कविता आदि अनेक पाड़वों से गुजरना पड़ा। नयी कविता के समान आधुनिक हिन्दी साहित्य की अन्य अनेक विधाओं- आख्यान व नाटक आदि में आधुनिक जीवन बोध, वर्तमान जीवन की विसंगतियाँ, जीवन का अजनबीपन, अकेलापन, टूटन, झटकते हुए परिसंबंध नवजीवन की सौन्दर्य, नवीन शिल्प और सपाटबयानी आदि की प्रवृत्तियाँ द्रुत गति से उभर रही हैं। संक्षेपतः आज के अभिनव लेखन में एक नई मनःस्थिति का प्रतिबिम्ब है तथा एक नये रागात्मक संबंध का प्रतिफल मानवजाति और सृष्टि मात्र के संबंधों के व्यापक परिपार्श्व में मानव और मानवजाति के संबंधों की नवीन परिकल्पना आधुनिक अभिनव लेखन की विशिष्टता है। आज के नवप्रणीत साहित्य में सब कुछ है जो जीवन के लिए अपेक्षित है। इसके भाव और शैली पक्ष दोनों स्वस्थ व सुन्दर हैं।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के सिंहावलोकन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आधुनिक काल हिन्दी साहित्य की सर्वांगीण उन्नति का युग है। इस युग ने हिन्दी की सीमाओं का विस्तार किया और साहित्य के सभी रूपों का यथेष्ट विकास किया है। आधुनिक जीवन की यर्थाथाता, अनेकरूपता और विविधता का इसमें सम्यक् चित्रण हुआ है। यह साहित्य उत्तरोत्तर विकासशील रहा है भले ही इसमें अल्पकालिक हसोन्मुखता भी आई किन्तु वह विरस्थायिनी नहीं थी। परिणामतः आधुनिक हिन्दी साहित्य की नाना विधाओं में यथार्थवादी जीवन की अभिव्यक्ति अतीव ईमानदारी, प्रखरता और कलात्मकता से हो रही है।
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