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आधुनिक काल की प्रमुख काव्य धाराएँ

आधुनिक काल की प्रमुख काव्य धाराएँ
आधुनिक काल की प्रमुख काव्य धाराएँ

आधुनिक काल की प्रमुख काव्य धाराओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।

आधुनिक काल की प्रमुख काव्य धाराएँ

आधुनिक काल विविधताओं का काल है और ये विविधताएँ काव्य और गद्य दोनों ही क्षेत्रों में भरपूर मात्रा में दिखलाई देती है। जहाँ तक आधुनिक काल की प्रमुख काव्य धाराओं का प्रश्न है, उन्हें निम्नांकित शीर्षकों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है ।

भारतेन्दु युगीन काव्यधारा- भारतेन्दु युग का काव्य-फलक अत्यन्त विस्तृत है। एक ओर उसमें भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्तियाँ मुखरित हुई हैं। तो दूसरी ओर समकालीन परिवेश के प्रति जागरुकता भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। बालकृष्ण राव ने लिखा है कि “इस काल में कविता ने सामन्ती दरबारों की चहारदीवारी से निकलकर जनजीवन का वर्णन किया और साथ ही अपने मूल्यांकन अंगराग एवं आभरणों का तिरस्कार करके खुली हवा में सांस ली।” यह युग वर्तमान हिन्दी कविता का प्रारम्भिक स्वरूप प्रस्तुत करता है। इस काल की कविता में राष्ट्रीय चेतना की प्रमुखता रही। काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली का प्रयोग पूर्ण रूप से नहीं हो सका। भारतेन्दु पर ही बजभाषा का विशेष प्रभाव रहा। इस काल के कवि विशेष रूप से पत्रकार और सुधारक थे। सामयिक समस्याओं को भी कविता का प्रतिपाद्य बनाया गया। इस युग की विशेषतायें निम्नलिखित थीं।

  1. इस काल की कविता समाजोन्मुखी रही।
  2. इस युग की कविता में अनुवादों की प्रधानता रही।
  3. इस काल की कविता में सामाजिक एवं नैतिक दृष्टिकोण की प्रधानता रही।

द्विवेदी युगीन काव्यधारा- द्विवेदी युग में खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में व्यापक समर्थन मिला। कविवर अयोध्यासिंह उपाध्याय इसी युग के कवि थे । “प्रिय प्रवास” उनका ग्रन्थ है, जो खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है। मैथिलीशरण गुप्त भी इसी युग के कवि थे। इन सभी कविताओं का प्रकाशन द्विवेदी जी द्वारा सम्पादित “सरस्वती” में होता था। इस काल की कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित थीं-

  1. इस काल की कवितायें देश भक्ति प्रधान थीं ।
  2. इस युग की कविता में अनुवादों की प्रधानता रही।
  3. “प्रकृति चित्रण” भी इस काल की विशेषता थी।
  4. धीरे-धीरे कविता का झुकाव बौद्धिकता की ओर बढ़ा।
  5. इस काल की कविता में आदर्शवादिता की प्रधानता रही।

छायावादी काव्य धारा- छायावादी काव्य धारा का जन्म द्विवेदी युग की नीरसता और आदर्शवादिता की प्रक्रिया स्वरूप हुआ। छायावादी कविता प्रकृति प्रधान हुई। इसमें ब्रह्म वर्णन की अपेक्षा आन्तरिक वर्णन की प्रमुखता रही। इस काल में प्रतीकवादी कविता की प्रधानता रही। निराला, प्रसाद, पन्त, महादेवी वर्मा आदि प्रमुख छायावादी कवि थे। डॉ० नगेन्द्र ने छायावाद के स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना और इसे जीवन के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण बतलाया। वस्तुतः छायावाद कविता की ऐसी शैली थी, जिसमें प्रकृति का मानवीकरण किया गया। इसमें लक्षण शक्ति की प्रधानता रही। इसमें ध्वन्यात्मकता भी पर्याप्त रूप में प्राप्त होती है।

व्यक्तिपरक काव्यधारा- इस काव्यधारा का जन्म प्रगतिवाद के साथ-साथ ही हुआ है। जब प्रगतिवाद सन् 1935-36 में हिन्दी-साहित्य में अवतीर्ण हो रहा था, तो इसी समय कविवर हरिवंश राय “बच्चन” की व्यक्तिपरक कविताएँ अपार श्रोताओं को अपनी ओर आकृष्ट कर रही थीं और तत्कालीन कवि-सम्मेलनों में श्री बच्चन जब तक मधुशाला की स्वाइयों से पूर्णाहुति न दे देते, तब तक कवि-सम्मेलन-रूपी यज्ञ पूर्ण न हो पाते। चूँकि यह काव्यधारा प्रगतिवादी काव्यधारा के समानान्तर पनप रही थी, इसलिए यह न तो प्रगतिवादी काव्यधारा की प्रगति में साधिका बनी और न बाधिका। दोनों काव्यधारायें अपनी-अपनी शक्ति से अपने-अपने पथ पर निरन्तर अपसर होती रहीं। बच्चन के अतिरिक्त, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, भगवतीचरण वर्मा और आरती प्रसाद सिंह इस धारा के प्रमुख आधार स्तम्भ हैं। इस काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियों ये हैं- 1. प्रेम की मांसल अभिव्यक्ति 2. निराशावाद, 3. मृत्युपासना, 4. नियतिवाद, 5, भोगवाद, 6. आस्तिकता का अभाव, 7. व्यष्टि और समष्टि का संघर्ष ।

इस काव्य वृत्तियों के कारण इन कवियों को काव्य को समाज और साहित्य में वह समादर प्राप्त नहीं हुआ, जो किसी प्रभावशाली काव्य को मिलता है, वरन् इसे क्षयी कहकर प्रायः अनादृत ही किया गया है, परन्तु इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इन्होंने जीवन के जिस पक्ष को, भले ही वह अन्धकार पक्ष है, अपने काव्य में गृहीत किया है, उसे पूर्णतया यथार्थ और स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करके इन्होंने अपनी सरसता का परिचय दिया है। यह सरसता इस धारा के प्रत्येक कवि के कार्य में आद्योपान्त ओत-प्रोत है। यदि इन्होंने जीवन के उज्ज्वल पक्ष को भी उसी मात्रा में अपनाया होता, तो इनका काव्य निस्संदेह, हिन्दी भाषा और साहित्य का अमर तथा प्रेरणाप्रद गौरव होता।

प्रगतिवादी काव्यधारा- छायावादी कवियों ने जीवन से पलायन की नीति अपनायी। इसका परिणाम यह हुआ कि इस कविता का स्वरूप स्थायी नहीं बन सका । छायावादी कविता में सौन्दर्य और अभिव्यक्ति तो थी, किन्तु जीवन की पकड़ नहीं थी परिणामतः एक और नयी काव्यधारा का जन्म हुआ, जिसे प्रगतिवादी कहा गया। प्रगतिवादी कविता में जनजीवन का व्यापक महत्व प्रदान किया गया। प्रगतिवादी कवियों ने शोषितों की जोरदार शब्दों में वकालत की और पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति अपना विद्रोहात्मक स्वर प्रकट किया। वास्तव में प्रगतिवाद कविता पर साम्यवादी दर्शन का सर्वाधिक प्रभाव था। शिवमंगल सिंह “सुमन” नागार्जुन, रांगेय राघव आदि कवि इस काव्यधारा के उन्नायकों में से थे। इस काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियों इस प्रकार हैं-

(1) परम्पराओं का विरोध किया गया।

(2) सामान्य वर्ग विशेष रूप से मजदूर वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण स्वर प्रकट हुआ ।

(3) साम्यवाद विचारधारा का व्यापक प्रभाव प्रगतिवादी कविता पर लक्षित हुआ।

(4) इस काल की कविता में क्रान्ति भावना की प्रधानता रही।

प्रयोगवादी काव्यधारा- प्रगतिवादी काव्य धारा में मार्क्सवाद का अंधदुणयान किया गया। इस अंध भक्ति के काव्य का क्षेत्र और महत्व दोनों ही सीमित हो गये। परिवर्तन की एक ओर लहर आयी और इसी लहर को एक नया नाम दिया गया। जिसे प्रयोगवाद कहा गया। प्रयोगवादी कवि के मानस में साम्यवाद के विरुद्ध लिप्तता की भावना थी और नवीनता के प्रति आग्रह था। फलस्वरूप कविता का स्वरूप कुछ अन्य दिशा में ही विकसित हुआ। इस कविता में व्यक्तिवादिता भी थी और बौद्धिकता भी नये उपमानों का प्रयोग भी था और मुक्त छन्द शैली भी अश्लीलता के पकिल चित्र भी थे और प्रेरणास्पद भाव सुमन भी। यह कविता नयी कविता के नाम से जानी गयी। इसी विकास प्रक्रिया से गुजरते हुए कविता ने आधुनिक कविता का रूप धारण किया। आज अज्ञेय, गिरजा कुमार माथुर, नरेश मेहता, कीर्ति चौधरी नयी कविता के प्रतिनिधि हस्ताक्षर माने जाते हैं। यह स्मरणीय तथ्य है कि प्रयोगवादी कविता और नई कविता में व्यापक अन्तर है। प्रयोगवादी कविता नई कविता की प्रारम्भिक स्थिति थी। नई कविता में दोष नहीं है जो प्रगतिवादी कविता में मौजूद थे। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) व्यक्तिवादिता की प्रधानता थी।

(2) अश्लील एवं भदेस शब्दों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया।

(3) जीवन के वास्तविकता से भरे चित्र उपस्थित किये गये।

(4) बुद्धिवादिता और उपमानों की नवीनता के प्रति विशेष आग्रह रहा ।

नयी कविता- अन्य नवीन प्रवृत्तियों की तरह आरम्भ में नयी कविता भी पुराने आचार्यों द्वारा विरोध हुआ, किन्तु 1960 ई. तक आते-आते नयी कविता की “काव्य प्रकृति साहित्य जगत् में स्वीकार कर ली गयी।” अब सामान्य तौर से सभी यह स्वीकार करते हैं कि छायावाद के बाद आधुनिक हिन्दी काव्य का सबसे महत्वपूर्ण अंग नयी कविता है, परन्तु प्रसाद और निराला के साथ अज्ञेय तथा मुक्तिबोध भी अब आधुनिक हिन्दी के श्रेष्ठ कवियों में स्वीकृत कर लिये गये हैं। उनकी रचनाओं पर शोध कार्य होने लगे। यद्यपि नयी कविता की ठीक-ठीक परिभाषा देना कठिन कार्य है, तथापि कुछ कवियों ने इसकी परिभाषा दी है। नयी कविता पर आरोप लगाया था कि वह कविता ने कुण्ठा, अनास्था और व्यक्तिगत अहं की कविता है। यह भी कहा गया है कि इसमें पश्चिम की प्रेरणा प्रधान है। ये आरोप खण्ड सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं।

प्रयोगवाद और नयी कविता का विकास दूसरे महायुद्ध में हुआ था। युद्ध के भयानक विनाश ने आधुनिक मनुष्य के मन में जो अनास्था और कुण्ठा उत्पन्न की है, उसका प्रभाव नयी कविता पर है। लघु मानव और क्षणवाद के जो विचार आन्दोलन विकसित हुए हैं, उनके पीछे भी शायद यही प्रभाव था, किन्तु नयी कविता में अनास्था के साथ-साथ अपने देश के प्रति लगाव की प्रवृत्तियाँ भी प्रकट होती रही हैं। नयी कविता के अनेक कवियों ने अपने प्राकृतिक परिवेश का प्रभावशाली अंकन किया है। छायावाद को प्रकृति प्रधान काव्य कहा जाता है, किन्तु प्रकृति काव्य की दृष्टि में नयी कविता की उपलब्धियाँ छायावाद में काफी अलग और विशिष्ट है। छायावाद तथा प्रकृतिवाद का भाव क्षेत्र सीमित था, किन्तु नयी कविता का भाव क्षेत्र मनुष्य का सम्पूर्ण भाव जगत है। अभिव्यक्ति के क्षेत्र में भी कविता में विविध प्रकार के प्रयोग दिखाई देते हैं।

नवगीत – कालक्रम की दृष्टि में यद्यपि “नवगीत” नयी कविता के बाद का आन्दोलन है, किन्तु प्रवृत्ति की दृष्टि से नवगीत नयी कविता का समानान्तर तथा पूरक काव्यान्दोलन है। नवगीत की चर्चा हिन्दी में 1960 ई० के लगभग आरम्भ हुई। 1964 ई० में अलवर से “कविता” पत्रिका में ओम प्रभाकर के सम्पादन में नवगीत का प्रथम समवेत संकलन प्रकाशित हुआ। तब तक नवगीत की पहचान एक काव्य प्रवृत्त के रूप में होने लगी थी और इस संकलन के प्रकाशन के बाद उसके पक्ष-विपक्ष में लेख लिखे जाने लगे। नवनीत की चर्चा चाहे 1960 के बाद आरम्भ हुई किन्तु नवगीत की रचना बहुत पहले से होने लगी थी। अब सभी यह मानते हैं कि नवगीत के पहले कवि “निराला” 1940 के लगभग से ही नवगीत लिख रहे थे “तार सप्तक” और “दूसरा “तार सप्तक” के कवियों ने भी भावशाली गीत रचना की। इस तरह नवगीत का विकास नयी कविता के समानान्तर ही होता रहा। नयी कविता के लगभग सभी प्रमुख कवियों ने “मुक्तिबोध को छोड़कर” प्रभावशाली गीत रचना भी की है।

नवगीत की प्रमुख विशेषता लोक परिवेश के प्रति गहरा लगाव है। कवि सम्मेलन में गाये जाने वाले गीतों की रूढ़ उपमान योजना और रूढ़िबद्ध अभिव्यंजना शिल्प ग्रहण किया गया है। नवगीतकारों ने छन्द और लय को स्वीकार करते भी छन्द के रूढ़िबद्ध सांचे को तोड़ा। समान चरण वाले अनुच्छेद और सम मात्रिकता के बन्धन को छोड़कर उन्होंने लय को प्रमुख आधार बनाया। नयी कविता पर कुण्ठा, अनास्थ, विदेशी प्रेरणा आदि के आरोप लगाये जाते थे, किन्तु नवगीत पूरी तरह भारतीय लोक जीवन की अभिव्यक्ति था।

अकविता- साहित्य के इतिहास में बार-बार यह देखने को मिलता है कि एक प्रवृत्ति जो पुरानी रूढ़ियों को तोड़ने के लिए आती है, कालान्तर में वह स्वयं रूढमस्त हो जाती है और तब उसकी रूढ़ियों को तोड़ने के लिए अन्य नयी प्रकृति सामने आती है। नयी कविता आरम्भ में रूढ़ि-भंजक होकर आई थी, किन्तु 1960 ई० तक आते-आते स्वयं उसमें रूढ़ियों का विकास होने लगा। नयी कविता में अनुभूति की ईमानदारी पर बहुत जोर था, किन्तु कालान्तर में नयी कविता के नाम पर भी एक बंधे ढांचे की तरह होने लगी थी। इसी स्थिति में नई कविता की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। 1965 ई० के बाद नयी कविता की प्रतिक्रिया में “अकविता” का आन्दोलन सामने आया। 1966 में दिल्ली के कुछ कवियों ने “अकविता” काव्य-पत्रिका प्रकाशित की। ” अकविता’ का आन्दोलन मुख्यतः नियोधात्मक था। नयी कविता की प्रतिक्रिया में उन्होंने एक क्रूर और कुत्सित दुनिया का चित्रण किया। अकवियों का भाव-बोध कुछ महानगर तक सीमित था। महानगरों के जीवन में व्यापक भय, अर्थहीनता, कुण्ठा, भोग-विलास और निराशा आदि का चित्रण ही उन्होंने अपनी कविताओं में किया, किन्तु जिन्दगी के इस एक रूप को ही उन्होंने जिन्दगी का एक मात्र रूप मान लिया ।

इसी सन्दर्भ में यह प्रश्न भी उठता है कि क्या अकविता नयी कविता के बाद की स्थिति है ? इसका उत्तर देते हुए नयी कविता नये धरातल के लेखक डॉ. हरिचरण शर्मा ने लिखा है कि हमारी दृष्टि में नहीं। इसका कारण यह है कि “ताजी कविता की स्थिति तभी सम्भव है जब नयी कविता या तो एकदम वासी हो जाये या उसमें कोई ठहराव की स्थिति आ जाय। आज भी सर्वेश्वर, अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, लक्ष्मीकान्त वर्मा उतने ही नये लगते हैं- जितने की “अकविता” का दम्भ भरने वाले कवि बल्कि उनसे भी एकदम आगे ही हैं। ‘नयी कविता” का प्रयोक्ता जीवन की माँग को खुलेपन के साथ “डायरेक्ट” भोगना चाहता है। अकविता तभी कामयाब हो सकती है जब उसके कवि नयी कविता को “निर्दिया” सकें। वास्तविकता यह है कि “अकविता” भी नयी कविता का लेबिल हटाकर तैयार किया हुआ एक ऐसा इन्जेक्शन है जिसका निर्माता भले ही बदल गया हो पर उसका असर वही पुराना है क्योंकि सारे सिस्टम्स” वे ही हैं।

साठोत्तर अथवा प्रतिवद्ध कविता- अकविता काव्य चर्चा और काव्य रचना के केन्द्र में अधिक समय तक नहीं रही। नयी कविता के विरुद्ध प्रतिक्रिया दो दिशाओं से आरम्भ हुई थी, एक दिशा अकविता की थी और दूसरी दिशा साठोत्तरी कविता, युवा कविता और प्रतिबद्ध कविता की थी। यह दूसरी दिशा अकविता के विपरीत कुछ भिन्न काव्य मूल्यों को लेकर आगे बढ़ी थी।

1964 ई० में मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद उनकी जो रचनायें प्रकाश में आईं, उनसे इस काव्य की प्रवृत्तियों को बड़ा बल मिला। आज मुक्तिबोध हिन्दी कविता के केन्द्र में स्थित हो गये हैं और उनकी कृतियों के आधार पर भी साठोत्तरी कविता का मूल्यांकन किया जा रहा है। इस कविता की मुख्य विशेषता है, अपने समकालीन संसार के प्रति जागरूकता, समकालीन समाज तथा राजनीति के अन्तसूत्रों की खोज तथा समझ और उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति । नयी कविता व्यक्ति केन्द्रित थी, साठोत्तर कविता समाज केन्द्रित है। नयी कविता का मुख्य विषय कवि स्वयं था। (जैसा छायावाद में था) साठोत्तरी कविता का मुख्य विषय समकालीन संसार है।

सन् 1960 के बाद की कविता में असन्तोष व अस्वीकृति और विद्रोह का स्वर काफी साफ सुनाई देता है। यह स्वर कहीं तो व्यंग्य बनकर आया है और कहीं खुले रूप में साठ के बाद इस स्वर ने तीखे व्यग्य का रूप धारण कर लिया था. क्योंकि जीवन की टूटती मूर्तियों ने संवेदनशील कलाकारों को एक ओर तो अस्वीकार और निषेध का स्वर साँप दिया था और दूसरी ओर व्यंग्य का। डॉ० रामदरश मिश्र ने साठोत्तर कविता में प्राप्त होने वाले विद्रोह के सम्बन्ध में लिखा है कि “आज की कविता में विद्रोह नाम से जो कवितएं आ रही हैं उनमें अधिकांश निलक्ष्य या यौन विकृतिलक्षी है। निलक्ष्य होने से ये कविताएँ सुविधा का विद्रोह करती हैं। यानि जहाँ विद्रोह करने में खतरा अनुभव हो वहाँ नहीं जहाँ सुविधा हो वहाँ विद्रोह करती हैं। इन्हीं इससे बड़ी विसंगति सेक्स में दिखती है या शरीर की वीभत्सता में।’

वस्तुतः इन कवियों ने एक ओर जीवन की विकसित चेतना और जटिलता को भोगा है तो दूसरी ओर यह भी देखा है कि नयी कविता के फार्मूले बनने लगे हैं उसके प्रतीक और रूढ़ बनते जा रहे हैं। प्रतीकों की अन्धी गुफा में बन्द होकर कविता सर्वथा अन्तर्मुखी और निस्पन्द होती जा रही है। इसी ठहराव को तोड़ने के लिए तथा कविता को जीवन के करीब लाने की दृष्टि से साठोत्तर अथवा प्रतिबद्ध कविता का विकास हुआ है। साठोत्तर कविता के द्वारा कविता एक निजी अनुभूति और अभिव्यक्ति से आगे बढ़कर समकालीन समाज का अंग बन गयी है। साठोत्तर कविता समकालीन समाज का वर्णन करने वाली तटस्थ कविता नहीं, वह समाज में परिवर्तन लाने वाली शक्तियों के साथ है। पहले कविता का निजी मामला समझा जाता था। अब कविता को सामाजिक बदलाव का माध्यम समझा जाता है ।

निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि आधुनिक काल कविता के धरातल पर अनेक काव्य धाराओं से परिपूर्ण है। इस काल का आरम्भ भारतेन्दु युगीन काव्यधारा से हुआ और फिर क्रमशः द्विवेदीयुगीन काव्यधारा, छायावादी काव्यधारा, व्यक्तिपरक काव्यधारा, प्रगतिवादी काव्यधारा, प्रयोगवादी काव्यधारा, नई कविता धारा, नवगीत कविता और साठोत्तर कविता के रूप में हुआ है। आज समकालीन कविता और आज की कविता के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि नवीन प्रवृत्तियाँ निरन्तर विकसित हो रही हैं और व्यक्ति उनमें अपने-आपको सही ढंग से अनुभव करता हुआ प्रत्येक के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास कर रहा है। इस प्रकार आधुनिक काल की प्रमुख काव्यधाराएं इस काल की काव्य प्रवृत्तियों की समृद्धि की सूचक हैं।

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Anjali Yadav

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