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छायावादी काव्य की मूलभूत विशेषताएँ

छायावादी काव्य की मूलभूत विशेषताएँ
छायावादी काव्य की मूलभूत विशेषताएँ

छायावादी काव्य की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।

छायावादी काव्य की विशेषताएँ

छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव पद्धति है, जीवन के प्रति एक विशेष भावात्मक दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण का आद्येय नवजीवन के स्वप्नों और कुंठाओं के सम्मिश्रण से बना है। इसकी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी और मानवीय है। छायावाद की काव्यमत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. छायावादी काव्य में व्यक्तिवाद का प्राधान्य- छायावादी कवि वस्तुतः अहंनिष्ठ होकर भावभिव्यंजना करता है। डॉ० शिवदानसिंह चौहान ने इस संदर्भ में उचित ही कहा है-

‘कवि का मैं प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का ‘मैं’ था। इस कारण कवि की विषयगत दृष्टि ने अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत योजना शैली अपनाई, उसके संकेत और प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज और प्रेषणीय बन सके।

‘जयशंकर प्रसाद’ छायावाद के ब्रह्मा’

‘सुमित्रानन्दन पन्त’ छायावाद के ‘विष्णु’

‘और निराला छायावाद के ‘शंकर’ थे।

2. छायावादी काव्य में प्रकृति-चित्रण – एक समीक्षक ने मानव और प्रकृति के सम्बन्ध को ही छायावाद को संज्ञा दी है यह असन्दिग्ध रूप से सत्य है कि छायावादी साहित्य का प्रकृति के साथ अभिन्न सम्बन्ध है। प्रकृति के आलम्बन उद्दीपन अलंकार स्वरूप बिम्बग्राही ध्वन्यार्थव्यंजक तथा अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म सुकोमल एवं विकाल स्वरूप छायावादी साहित्य में अवलोक्य है। प्रकृति के साथ अपनी अन्तरंगता की स्मृति करता हुआ कवि इसीलिए तो गाता है-

“वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे,

जब सावन घन सघन बरसते,

इन नयनों की छाया भर थे।’

तो कभी प्रकृति में वह मानवीकरण की आशा देखता हुआ वह कह उठता है-

“बीती विभावरी जाग री,

अम्बर पनघट पर डुबो रही

ताराघट ऊपा नागरी।’

मानव के आन्तरिक सौन्दर्य का उद्घाटन छायावाद में प्रकृति के माध्यम से हुआ, अतः प्राकृतिक सौन्दर्य को विशेष महत्व मिला। यहाँ महादेवजी के शब्द स्मरणीय हैं- ‘छायावाद की प्रकृति, घट-कूप आदि से भरे जल की एकरूपता के समान अनेक रूपों से प्रकट एक महाप्राण बन गई। अतः अब मनुष्य के अश्रु मेघ के जल-कण और पृथ्वी के ओस बिन्दुओं का एक ही कारण, एक ही मूल्य है।’

इतना ही नहीं छायावादी कवियों में प्रकृति के प्रति अत्यधिक स्पृहणीयता थी। यही कारण है कि कविवर सुमित्रानन्दन पन्त तो प्रकृति को जननी माँ सहचरी, प्राण तक कहने लगे थे।

3. छायावादी काव्य में रहस्यात्मकता- कुछ विद्वान् रहस्यवाद को छायावाद का प्राण मानते हैं। महादेवीजी के अनुसार- “विश्व के अथवा प्रकृति के सभी उपकरणों में चेतना का आरोप छायावाद की पहली सीढ़ी है तो किसी असीम के प्रति अनुराग जनित आत्म विसर्जन का भार अथवा रहस्यवाद छायावाद की दूसरी सीढ़ी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो छायावाद को आध्यात्मिक भावमयी कविता के रूप में ही देखा है। रहस्यवाद की परिभाषा देते हुए उन्होंने लिखा है- ‘जो चिन्तन के क्षेत्र में अद्वैतवाद है वही भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद । परन्तु छायावादी कवियों का रहस्यवाद अत्यन्त भाव संकुलित है। यही कारण है कि एक ओर समित्रानन्दन पन्त कहते हैं-

‘न जाने नक्षत्रों से कौन,

निमन्त्रण देता मुझको मौन।’

तो दूसरी ओर प्रसादजी कहते हैं-

“तुम तुंग हिमालय शृंग और

मैं चंचल गति सुर सरिता।’

तो कहीं महादेवीजी कहती हैं-

‘सो रहा है विश्व पर प्रिय तारकों में जागता है।’

जब छायावादी कवि स्व से पर की ओर भाव लोक से विचरण करने लगता है तो वह एक अनन्त सत्ता की अनुभूति करता है। इतना ही नहीं एकान्त में उसके सामीप्य की कल्पना भी करता है यही कारण है कि वह भाव बलित होकर गाता है-

‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे,

जिस सागर के तट पर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी

निश्चल प्रेम कथा कहती हो, वज कोलाहाल के अवनीरे।’

इस प्रकार स्पष्ट है कि महादेवी के भाव लोक में रहस्य भावना की रमणीयता है, छायावादी कवियों का रहस्यवाद भावनात्मक है सन्त कवियों की भाँति साधनात्मक नहीं है।

4. नारी के सौन्दर्य एवं प्रेम का चित्रण- छायावादी काव्य में सौन्दर्य और प्रेम का अत्यन्त रमणीय एवं मधुरिमामय चित्रण है। कवि प्रकृति की अभिरामता के प्रति तो विशेष रूप से आकर्षित है ही साथ ही साथ मानवी सौन्दर्य और उसके प्रेमका मनोरम चित्रण करने का छायावादी साहित्य में स्तुत्य उपक्रम हुआ है। छायावाद के श्रेष्ठतम महाकाव्य कामायनी की नायिका श्रद्धा के सौन्दर्य का निरूपण करते हुए कविवर प्रसाद ने नारी को प्रेम और श्रेय दोनों ही रूपों में निरूपित किया है। जहाँ एक ओर नारी सौन्दर्य की साक्षात् प्रतिमा है यथा-

‘कुसुम कानन वैभव में मन्द

पवन प्रेरित सौरभ साकार

रचित रमाणु पराग शरीर

खड़ा हो ले मधु का आधार ।’

वह नारी श्रेय का स्वरूप बनकर श्रद्धा स्वरूपिणी हो जाती है। और मानव को सन्देश देती हुई कहती है-

‘जिसे तुम समझे थे अभिशाप

जगत की बाधाओं का मूल

ईश का वह रहस्य वरदान

इसे तुम कभी न जाना भूल।’

नारी का चरम आदर्श समर्पण है। छायावादी कवि की नारी भी समर्पण की भावनाओं का कितने रमणीय रूप में प्रतिपादित करती है-

दया माया ममता लो आज,

मधुरिमा लो अगाध विश्वास।

हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ,

तुम्हारे लिए खुला है पास।’

इस प्रकार नारी का कल्याणकारी स्वरूप छायावादी साहित्य में अंकित है।

(5) छायावादी काव्य में वेदना विवृत्ति- वेदना या पीड़ा काव्य के भार लोक में अपना अप्रतिम स्थान रखती है कि- ‘Our sweetest songs are those that tell of raddest thought’ अर्थात् ‘अच्छे होते वे गीत जिन्हें हम दर्द के स्वर में गाते हैं।’

यही कारण है कि कवियित्री महादेवी वर्मा कहती हैं-

‘पीड़ा में तुमको ढू

तुममें ढूंढ़गी पीड़ा।

यात्रा की भूमिका में तो उन्होंने यहाँ तक लिखा-

पीड़ा मेरे मानस से भीगे पट-सी लिपटी है।’

वेदना की यह अभिव्यक्ति छायावादी काव्य में अत्यधिक मार्मिक रूप में हुई है। यही कारण है कि महादेवी अपने जीवन को वेदना की प्रतिमूर्ति बताती हुई कहती है-

‘मैं नीर भरी दुःख की बदली,

विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना इतिहास यही,

उमड़ी कल थी मिट आज चली,

मैं नीर भरी दुःख की बदली।’

इस प्रकार छायावादी साहित्य में वेदना अपने चरम मार्मिक रूप में अभिव्यंजित हुई है।

6. छायावादी काव्य में राष्ट्रीय भावना- छायावादी कवियों में राष्ट्र प्रेम की प्रवृत्ति भी अवलोक्य है जहाँ एक और प्रसादजी की कारनेलिया ‘अरुण या मधुमय देश हमारा’ कहकर राष्ट्र प्रेम की भावनाओं का उद्घोष करती है वहीं अन्यत्र हमें कवि निराला ‘जागो फिर एक बार’ का उदघोष करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। तो माखनलाल चतुर्वेदी पुष्प की अभिलाषा में मातृभूमि प्रेम का गान करते हुए कहते हैं-

‘मुझे तोड़ लेना वन माली,

उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक।’

7. छायावादी काव्य में मानवतावादी दृष्टिकोण- छायावादी काव्य में रवीन्द्र और अरविन्द की मानवतावादी दृष्टि का विकास हुआ है। यही मानवतावाद कई रूपों में अभिव्यक्ति हुआ है। कहीं नारी के प्रति उच्च भवना के रूप में तो कहीं छायावादी कवि ने नवीन मानवतावादी दृष्टि से नारी को देखा है-

‘खोलो हे मेखला युगों की

कटि प्रदेश से तन से

अमर प्रेम हो उसका बन्धन

वह पवित्र हो मन से ।

निराला में शोषित वर्ग के प्रति गहरी संवेदना-

‘तुझे बुलाता कृषक अधीर…….

चूस लिया है उसका सार

हाड़-मांस ही है आधार।’

पन्त भी मानव सौन्दर्य निरीक्षण करते हुए कहते हैं-

‘मानव तुम सबसे सुन्दरम ।’

8. जीवन के प्रति बदलते हुए मूल्यों की अभिव्यक्ति- छायावादी कवियों में प्राचीनता के प्रति विद्रोह की भावना अभिव्यक्त हुई। थोथी नैतिकता तथा सामन्ती संस्कृति के मानदण्डों का भी विरोध अभिव्यंजित है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों मैं- “छायावादी कवियों में मानवीय आचारों, क्रियाओं, चेष्टाओं और विश्वासों के बदले हुए और बदलते हुए मूल्य अंगीकार करने की प्रवृत्ति थी।” यह विद्रोह काव्य विषय और भाषा शैली दोनों में ही दृष्टिगत होता है। जीवन के बदलते हुए मूल्यों की अभिव्यक्ति पन्तजी के काव्य में विशेषतः दृष्टव्य है-

“धर्म, नीति ओ सदाचार का मूल्यांकन है जनहित।

सत्य नहीं वह जनता से जो नहीं प्राण सम्बन्धित ॥’

9. छायावादी काव्य में शिल्प विधान की मौलिकता- छायावादी शिल्प विधान नितान्त मौलिक एवं वैदग्ध्यपूर्ण है। चित्रात्मकता, लाक्षणिकता एवं बिम्बग्राहिता के गुणों से युक्त भाषा प्रवाहमय और प्रभावोत्पादकता तो है ही साथ ही साथ उसमें अभिव्यंजना की अपूर्व क्षमता है। लाक्षणिक प्रयोगों के कुछ उदाहरण पन्तजी के पल्लव से दृष्टव्य है-

धूल की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान

मर्म पीड़ा के हास

कौन तुम अतुल अरूप अनाम

छायावादी कवि बिम्बग्राहिता एवं चित्रात्मक भाषा के वियोग में विदग्ध हैं। “छायावादी काव्य में प्रसाद ने यदि प्रकृतिः तत्व को मिलाया, निराला जीने उसे सुक्तक छन्द दिया, पन्त ने शब्दों को खराद पर चढ़ाकर सुडौल और सरल बनाया तो महादेवी जी ने उसमें प्राण डाल दिए, उसकी भावात्मकता को समृद्ध किया। “

छायावादी साहित्य का अलंकार विधान भी पर्याप्त समृद्ध है जब एक ओर प्रकृति के साथ मानवीकरण तथा सावयव रूपकों का सौन्दर्य है वहाँ दूसरी ओर प्रतीकों की सटीकता के कारण काव्य में मनोज्ञता का सन्निवेश हो गया है।

छायावाद का छन्द विधान भी अपूर्ण मौलिकतापूर्ण है। इस युग के कवियों ने परम्परागत छन्दों का परित्याग कर नूतन छन्द विधान अपनाया है। अभिनव गीतों की सर्जना की जिसमें संगीतात्मकता के अभिनव स्वर झंकृत होते हैं।

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Anjali Yadav

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