जेंडर, लैंगिकता एवं विकास की अवधारणा पर चर्चा कीजिए। जेंडर एवं लिंग के बीच क्या अंतर है?
मनुष्य दो रूप में जन्म लेता है-स्त्री और पुरुष जिसे प्रारंभिक अवस्था में बालिका तथा बालक कहा जाता है। बालक तथा बालिका की शारीरिक संरचना में ही अंतर नहीं होता बल्कि दोनों की रुचियों, अभिवृत्तियों तथा क्रिया-कलापों में भी अंतर होता है।
लिंग को वैयाकरणों द्वारा यह कहकर परिभाषित किया गया है कि जिससे किसी के स्त्री या पुरुष होने का बोध हो उसे लिंग कहते हैं ।
लिंग के निर्धारण में लैंगिक मापदण्डों का प्रयोग किया जाता है। इसे निम्न रूप में देख सकते हैं-
जैविक रूप में लिंग को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि जब स्त्री तथा पुरुष के XX गुणसूत्र मिलते हैं तब लड़की और जब एक स्त्री-पुरुष के XY गुण-सूत्र मिलते हैं। तों लड़का पैदा होता है । अर्थात् यह स्पष्ट है कि लिंग के निर्धारण में जैविक विचार महत्वपूर्ण है किंतु इस हेतु स्त्री या पुरुष किसी की इच्छा का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है। लिंग निर्धारण शरीर की ऐच्छिक क्रिया का परिणाम न होकर अनैच्छिक क्रिया है । अतः इस कारण किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता है। फिर भी लिंग के आधार पर भेद-भाव किया जाता है और बालक की तुलना में बालिकाओं को निम्नतर समझा जाता है। लिंग एक परिवर्तनशील धारणा है जिसमें एक ही संस्कृति, जाति, वर्ग तथा आर्थिक परिस्थितियों और आयु में एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति तथा एक सामाजिक समूह से दूसरे सामाजिक समूह में भी भिन्नताएँ होती हैं ।
लैंगिकता (Sexuality) : लैंगिकता से तात्पर्य स्त्री की प्रजनन क्षमता से है-जीव को जन्म देना । प्रकृति ने स्त्री को ही प्रजनन का सुख दिया है। अर्थात् केवल एक महिला ही माँ बन सकती है, कोई पुरुष नहीं। इसी कारण (सजीव को जन्म देने के कारण) महिला. में शुरू से ही प्यार, क्षमता, दया, सामाजिक जुड़ाव आदि गुण विद्यमान होते हैं जो कि समाज के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यौनिकता के माध्यम से स्त्री समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करती है। समाज में शादी के माध्यम से यौनिकता को वैधानिक रूप प्रदान किया जाता है । समाज में यौन संबंधी मापदंड में दोहरी नैतिकता रही है और ये स्त्री के हितों के प्रतिकूल ही रहे हैं । गर्दा लर्नर लिखती हैं कि स्त्री को पण्य/उपभोक्ता वस्तु नहीं बनाया गया वरन् उसकी योनि (sexuality) तथा प्रजनन क्षमता को व्यवस्था ने क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया । स्त्रियों की वर्ग स्थिति उसके यौन संबंधों के कारण ही बनी और मजबूत हुई । पितृ सत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्रियों को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर रखने का भरसक प्रयास किया। राज्य ने स्त्री-पुरुष समानता के लिए अनेक कानून बनाये किंतु समाज में स्त्रियाँ आज भी बराबरी के लिए संघर्ष कर रही हैं ।
विकास- विकास का अर्थ आकार में वृद्धि के साथ-साथ शरीर में गुणात्मक परिवर्तन से है। विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें नियमों के अनुसार शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते रहते हैं। जब एक अवस्था में बालक का विकास पूर्ण हो जाता है। तब वह दूसरी अवस्था के लिए तैयार होता है। विकास की निम्नलिखित अवस्थाएँ हैं- (1) गर्भकालीन अवस्था (2) शैशवावस्था (3) बचपनावस्था (4) बाल्यावस्था (5) किशोरावस्था तथा (6) प्रौढ़ावस्था।
बालक का मानसिक एवं शारीरिक विकास परिपक्वता और अधिगम के परिणामस्वरूप होता है व्यक्ति के वंशानुक्रम से संबंधित शारीरिक गुणों या क्षमता का विकास परिपक्वता माना जाता है जिसके कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होते हैं-
विकास की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) विकास प्रगतिशील श्रृंखला के रूप में होता है ।
(ii) विकास में क्रमिक परिवर्तन पाये जाते हैं। परिवर्तन में निरंतरता पाई जाती है जो अविराम गति से चलती रहती है ।
(iii) क्रमिक परिवर्तन एक दूसरे के साथ किसी-न-किसी रूप से संबंधित होते हैं।
(iv) विकास परिवर्तनों की गति भिन्न-भिन्न अवस्था में भिन्न-भिन्न होती है।
(v) विकास की गति गर्भकालीन अवस्था में सर्वाधिक और परिपक्व अवस्था के बाद मंद हो जाती है।
(vi) विकास के फलस्वरूप व्यक्ति में अनेक नई विशेषताएँ और क्षमताएँ उत्पन्न होती है।
जेंडर और लैंगिकता में अंतर : जेंडर से तात्पर्य किसी के स्त्री या पुरुष होने से हैं जबकि लैंगिकता (sexuality) से तात्पर्य स्त्री के प्रजनन क्षमता से है। स्त्री ही बच्चे को जन्म दे सकती है, पुरुष नहीं। यह स्त्री का जैविक गुण है।
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