हिन्दी साहित्य

द्विवेदी युग का परिचय | द्विवेदी युग के प्रमुख कवियों का हिन्दी साहित्य में योगदान

द्विवेदी युग का परिचय | द्विवेदी युग के प्रमुख कवियों का हिन्दी साहित्य में योगदान
द्विवेदी युग का परिचय | द्विवेदी युग के प्रमुख कवियों का हिन्दी साहित्य में योगदान

द्विवेदी युग का परिचय

द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1918)

भारतेन्दु युग के अवसान के उपरान्त हिन्दी साहित्य जगत में भाषा के संस्कर और परिष्कार को नितान्त आवश्यकता थी साहित्य की जो बहु आयामी यात्रा भारतेन्दु युग से प्रारम्भ हुई थी। उसे व्यापक एवं सुसंस्कृत रूप में प्रस्तुत करने की नितान्त आवश्यकता थी। महामना द्विवेदी जी ने इस स्तुत्य कार्य को ‘सरस्वती’ के सम्पादन के साथ करके नवयुग का प्रवर्तन किया। कालावधि- सन् 1903 से लेकर सन् 1916 तक का समय द्विवेदी युग बताते हुए डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल ने हिन्दी कविता के इस काल को द्वितीय उत्थान के रूप में अभिहित किया है, जबकि डॉ० नगेन्द्र द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग की कालावधि सन् 1900 से 1918 प्रतिपादित की गई है।

द्विवेदी युग का नामकरण- डॉ० शिवकुमार शर्मा के शब्दों में, “परिवर्तन युग के सबसे महान युग के प्रवर्तक पुरुष एवं नायक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। इस युग का कोई भी साहित्यिक आन्दोलन गद्य अथवा पद्य का ऐसा नहीं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इससे प्रभावित न हुआ हो।’

महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम पड़ा। इन्हीं के सम्पादन काल में जिन हिन्दी कवियों का उदय हुआ उनसे निश्चित रूप से हिन्दी कविता गौरवान्वित तथा महिमाशाली बनी। द्विवेदी युग का परिवेश द्विवेदी युग के उदय का अवलोकन राजनयिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों के आधार पर निम्नांकित रूप में किया जा सकता है-

1. राजनयिक परिवेश- द्वितीय युग के अभ्युदय काल में भारतीय जनता ब्रिटिश सरकार के दमन चक्र, क्रूरता षड्यन्त्र एवं शोषण का शिकार हो रही थी, यद्यपि भारतेन्दुजी की राष्ट्रीय भावना ने स्वतन्त्रता का बिगुल बजा दिया था। परन्तु द्विवेदी युग में राष्ट्रीयता की यह धारा तुमुल घोपवती होकर व्यापक होने लगी। जिसका एकमात्र लक्ष्य अंग्रेजी की दासता से मुक्त होकर पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति की ओर अग्रसर होना था। द्विवेदी युग का उन्मेश ऐसे ही राष्ट्रीय चेतना के परिवेश में हुआ।

2. आर्थिक परिवेश- राजनीतिक चेतना के साथ ही इस अवधि में आर्थिक चेतना भी विकसित हुई। अंग्रेजों की आर्थिक नीति भारत के लिए अहितकर थी। अंग्रेजी सरकार देश का कच्चा माल बाहर भेजती थी और वहाँ के बने माल का उपयोग भारत में करवाती थी। देश का धन निरंतर बाहर जाने से भारत निर्धन हो गया। भारत के उद्योग-धन्धों के विकास की और सरकार ने ध्यान नहीं दिया। कुटीन उद्योग-धन्धों के नष्ट होने से एक के बाद एक पड़ने वाले दुर्भिक्षों ने देशवासियों की कमर तोड़ दी। अत्याचार, क्रूर दमन चक्र एवं सर्वतोन्मुखी विफलता का प्रमुख कारण परतंत्रता थी, जो आर्थिक विकास में बाधक थी। जनता ने पूर्ण स्वाधीनता की माँग की। सौभाग्य से ‘गोपाल कृष्ण गोखले’, ‘बाल गंगाधर तिलक’ जैसे क्रान्तिकारी एवं कर्मठ नेताओं का अभ्युदय हुआ। जिन्होंने ‘स्वराज्य’ एवं स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’ जैसे नारों का उद्घोष करते हुए अंग्रेजी सरकार का सिहासन डगमगा दिया। भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों ने भारत दुर्दशा पर केवल दुःख ही प्रकट किया किन्तु द्विवेदी कालीन मनीषियों ने उदित होकर देश की दुर्दशा के चित्रण के साथ-साथ देशवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रेरणा देकर आत्मोत्सर्ग एवं बलिदान का मार्ग भी दिखाया।

3. धार्मिक एवं सामाजिक परिवेश- जिस समय द्विवेदी युग का अभ्युदय हुआ उस समय आर्य समाज, ब्रह्म समाज, थियोसोफीकल सोसाइटी तथा इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के परिणामस्वरूप भारतीय सभ्यता, संस्कृति धर्म और समाज के पुनरुत्थान की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धान्द, मदनमोहन मालवीय जैसे नेताओं और निस्वार्थ समाजसेवियों ने स्वाभिमान को जगाने तथा अपनी गौरव परम्पराओं के प्रति निष्ठावान बनाने का सफल प्रयास किया।

द्विवेदी युग के अभ्युदय के समय आर्य समाज एवं सनातन धर्म दोनों का द्वन्द्व चल रहा था। उस समाज में छुआछूत की भावना चरम सीमा पर थी। धर्मोपदेशकों के साथ लोकमान्य तिलक न्यायमूर्ति रानाडे के चाय पी लेने पर समाज में तहलका मच गया और इन नेताओं को गोमूत्र के प्रासन से प्रायश्चित करना पड़ा। तभी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे क्रान्तिकारी नेता ने समाज में व्याप्त छुआछूत की प्रथा का अन्त किया। फलतः उदारता और सहिष्णुता की भावनाएँ समाज में परिव्याप्त हो उठी थी। ऐसे ही सुधारोन्मुख धार्मिक एवं सामाजिक परिवेश में द्विवेदी युग का अभ्युदय क्रान्तिकारी भावनाओं को पल्लवित एवं पुष्पित करते हुए राष्ट्र के अंचल में हुआ ।

4. शैक्षणिक परिवेश- द्विवेदी युग के अभ्युदय के समय ब्रिटिश सरकार के शोषण से बौद्धिक वर्ग असन्तुष्ट था। अंग्रेजी सरकार ने भारतीयों को किसी उद्देश्य से प्रेरित होकर अंग्रेजी की शिक्षा नहीं दी थी अपितु उनका प्रमुख लक्ष्य था भारतवासियों का ऐसा वर्ग तैयार करना था जो शरीर से भारतीय होते हुए भी मन से अंग्रेजों का गुलाम हो और जिनकी मानसिकता हो-

“हो भले सूरत हमारी इण्डियन

 विल हमा मेड इन इंग्लैण्ड है।”

‘लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा प्रणाली का सूत्रपात किया जिससे भारत में ही अंग्रेजी पढ़े क्लर्क उपलब्ध हो सकें और उनके शासन संचालन में सहायक हो सकें। यही अंग्रेजी शिक्षा भारतीयों के हृदय में वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न करने में सक्षम बनी। ऐसे वैचारिक क्रान्ति के उन्मेष में द्विवेदी युग का प्रादुर्भाव हुआ ।

5. साहित्यिक परिवेश- द्विवेदी युग का अभ्युदय जिस समय हुआ उस समय काव्य के क्षेत्र में शृंगार भगवद्भक्ति एवं देश भक्ति की धाराएँ प्रवाहित हो रही थीं। ‘भारतेन्दु काल’ में कार्य के क्षेत्र में ब्रज भाषा का एकछत्र साम्राज्य होने पर खड़ी बोली में भी काव्य रचना हुई। ऐसे ही परिवेश में जनता की आकांक्षाओं से परखी तथा दिशा निर्देशक आचार्य के रूप में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी का प्रादुर्भाव हुआ। फलतः विविध विषयों पर काव्य सृजन होने से खड़ी बोली का विकास हुआ। इस प्रकार हिन्दी कविता को शृंगारिकता से राष्ट्रीय, जड़ता से प्रगति तथा रूढ़ि से स्वच्छन्दता के द्वार पर खड़ा करने वाले बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दर्शकों का सर्वाधिक महत्व है।

द्विवेदी युगीन प्रमुख कवि- नाथूराम शर्मा शंकर, महावीर प्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, राय देवीप्रसाद पूर्ण, रामचरित उपाध्याय, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, प्रभूति कवियों ने द्विवेदी युग की काव्य समृद्धि में उल्लेखनीय योगदान दिया। प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि निम्न प्रकार हैं-

महावीर प्रसाद द्विवेदी- द्विवेदी युग की समूची साहित्य चेतना के सूत्रधार, युग के प्रधान पुष्प महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। आधुनिक हिन्दी साहित्य में द्विवेदी जी का व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावशाली है। आचार्य पण्डित विश्वनाथ प्रसाद ने द्विवेदी जी के आचार्यत्व की चर्चा करते हुए लिखा है- “आचार्य द्विवेदी वस्तुतः आचार्य थे। आचार्य का कार्य मार्गदर्शन होता है। द्विवेदी जी ने हिन्दी में भी रीति की प्रस्थापना का ही कार्य किया।’ इन्होंने केवल सरस्वती पत्रिका का ही सम्पादन नहीं किया वरन अपने समय के समस्त साहित्य का सम्पादन किया। इन्होंने स्वयं रचनाएँ लिखीं, दूसरों की रचनाओं का संस्कार किया तथा लेखकों को एक विशेष प्रकार के साहित्य सृजन की प्रेरणा दी। जयकिशन खण्डेलवाल के शब्दों में- ‘वे अपने युग के बिना डिगरी के आचार्य थे, बिना मुकुट के सरताज’ थे और एक महान युग के प्रवर्तक वे हिन्दी साहित्य की महान विभूति और साहित्य के महारथी थे।’

द्विवेदी जी एक सफल कवि, निबंधकार, अनुवादक, आलोचक और सम्पादक थे। उन्होंने अपने युग की साहित्यिक गतिविधियों का सूक्ष्मता से अनुशीलन किया। और कठोर परीक्षक अथवा सच्चे समालोचक की तरह साहित्य सृजन की गतिविधि” का नियंत्रण किया। ‘सरस्वती’ पत्रिका उन दिनों की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका थी, जिसके द्वारा द्विवेदी जी ने साहित्य के क्षेत्र में सुरुचि, सुशिक्षा और व्याकरण सम्मत भाषा का प्रचार किया।

श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शीजी द्विवेदी जी के समालोचक रूप का परिचय इन शब्दों में देते हैं-“द्विवेदी जी का एक बड़ा काम उनकी समारोजना है। उनके समय में ‘सरस्वती’ का पुस्तक परिचय महत्वपूर्ण था। द्विवेदी जी की सम्मति एक कठोर निरीक्षक की सम्मति थी । ‘

द्विवेदी ने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व से अपने युग के साहित्य को प्रभावित किया। वेंकटेशनारायण तिवारी के शब्दों में द्विवेदी जी की टक्कर का साहित्यिक संसार में अगर कोई महारथी दूसरा है, तो वह डॉक्टर जॉनसन ही हैं।’

इनके लिखे हुए मौलिक और अनुदित गद्य-पद्य ग्रन्थों की संख्या लगभग 80 है। मौलिक काव्य रचना की ओर इनकी विशेष प्रवृत्ति नहीं थी अनुदित काव्य कृतियाँ अधिक सरस हैं। गद्य लेखन एवं सम्पादन के क्षेत्र में इन्हें विशेष सफलता मिली। काव्य मंजूषा, सुमन कान्यकुन्ज अबला विलाप, (मौलिक पद्य) गंगा लहरी, ऋतुतरंगिणी, कुमारसम्भवसार आदि द्विवेदी जी की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। इन्होंने अपनी कविता में दो प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है। एक तो तत्सम प्रधान सम्मत भाषा का, दूसरे प्रचलित शब्दावली युक्त सरल भाषा का-

‘तुम्ही अन्नदाता भारत के सचमुच बैलराज ! महाराज ।

बिना तुम्हारे हो जाते हम दान-दाना को मोहताज ॥’

इन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए जो कार्य किया वह चिरस्मरणीय रहेगा। इनके प्रोत्साहन और मार्ग-दर्शन के परिणामस्वरूप कवियों और लेखकों की एक पीढ़ी का निर्माण हुआ। खड़ी बोली को परिष्कार तथा स्थिरता प्रदान करने वालों में वे अग्रगण्य हैं।

अन्त में जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल के शब्दों में हम कह सकते हैं ‘हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ शैलीकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व से आधुनिक हिन्दी साहित्य में एक नवीन चेतना का विकास किया। एक नवीन प्रवृत्तियों वाले साहित्य रचना काल का प्रवर्तन किया और मैथिलीशरण गुप्त, पं० रामनरेश त्रिपाठी, जैसे महान कवियों, प्रेमचन्द जैसे शिल्पकारों ने तथा पं० रामचन्द्र शुक्ल और बाबू श्यामसुन्दर दास जैसे निबन्धकार एवं आलोचकों के लिए उर्वर परिस्थितियों का निर्माण किया, जिसमें ये लेखक पल्लवित और पुष्पित हो सके।

मैथिलीशरण गुप्त – रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- “गुप्त जी के बिना द्विवेदी युग का कोई भी परिचय या विश्लेषण अपूर्ण और अधूरा रहेगा। युग की पूरी झलक हमें मैथिलीशरण गुप्त में मिलती है। वे हमारे प्रतिनिधि कवि हैं और भारत-भारती उस युग का दर्पण।

हिन्दी खड़ी बोली साहित्य जगत् में अपनी अभिनव मौलिक एवं नितनवोन्मेश शालिनी विचार सरणि को लेकर अवतीर्ण होने वाले स्वर्गीय राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त वस्तुतः लोक जीवन के साहित्यकार थे ।

उन्होंने जहाँ एक ओर दिव्य मानवों को, अतवारों को एवं इतिहास पुरुषों को अपने काव्य का प्रतिपाद्य बनाया है। वहीं दूसरी ओर उन्होंने इतिहास का माल अन्धानुसरण नहीं किया है। अपितु अपनी अभिनव मौलिक उद्भावनाओं के माध्यम से उन ऐतिहासिक पात्रों में जीवन्त धारणाओं का सन्निवेश किया है। विशेषतः उपेक्षित नारी पात्रों के सन्दर्भ में गुप्त जो ने अपनी अनिर्वचनीय प्रतिभा का परिचय दिया है।

गुप्त जी द्विवेदी काल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि थे। सर्वप्रथम इनकी प्रारम्भिक रचनाएँ कलकत्ता से प्रकाशित ‘वैश्योपकारक’ में प्रकाशित होती थी। तत्पश्चात् द्विवेदी जी से परिचय होने पर ‘सरस्वती पत्रिका’ में प्रकाशित होने लगी। इनकी प्रथम पुस्तक ‘रंग में भंग’ तथा इनकी ख्याति का मूलाधार ‘भारत-भारती’ हैं। मैथिलीशरण गुप्त प्रसिद्ध राम भक्ति कवि थे। हिन्दी में रामचरित मानस के बाद राम काव्य का दूसरा स्तम्भ मैथिलीशरण गुप्त प्रणीत ‘साकेत’ इन्होंने दो महाकाव्यों तथा 19 खण्डकाव्यों का प्रणयन किया। गुप्त जी के प्रमुख काव्य ग्रन्थ हैं-जयद्रथ वध, पंचवटी, झंकार, यशोधरा, द्वापर, जय भारत ‘विष्णुप्रिया’ प्रभृत्ति। प्लासी का युद्ध, मेघनाद वध आदि इनके द्वारा अनुदित काव्य हैं।

गुप्त जी का काव्य लोक संस्कार स्वरूप में विद्यमान है। डॉ० कमलकान्त पाठक ने गुप्त जी के विषय में लिखा है- गुप्त जी सिद्धान्त कला में उपयोगिता के तत्व को महत्व देते थे। उनका काव्य लक्ष्य विशम् है सुन्दरम् नहीं। वे सत्य को ग्रहण करते हैं और शिव को प्रतिपादित करते हैं। उनके काव्य में द्विवेदी युगीन नैतिकतावादी विचारणा निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यंजित हुई है-

‘निश्चेष्ट होकर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है।

न्यायर्थ अपने बन्धु को भी, दण्ड देना धर्म है ।।’

वहाँ दूसरी ओर उनके साहित्य में छायावादी काव्य शिल्प की झलक दृष्टिगत होती है-

‘वेदने तू भी भली बनी,

पायी मैने आज तुझी में अपनी चाह घनी’

गुप्त जी की भाषा नितान्त परिष्कृत एवं तत्सम पदावली पूर्ण है। ‘युगावतार’ गुप्त जी का अभ्युदय ही भाषा संस्कार काल में हुआ था। द्विवेदी जी व्याकरण सम्मत भाषा का संस्कार कर रहे थे। गुप्त जी ने उसमें विशेष योगदान दिया। गुप्त जी ने अपने काव्यों में अनेक छन्दों का प्रणयन किया है। महाकाव्यों की परम्परानुसार ‘साकेत’ महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग में एक प्रमुख छन्द का प्रयोग किया है तथा सर्ग के अन्त में छन्द परिवर्तित कर दिया है।

गुप्त जी के काव्यों की यह एकमात्र विशेषता है कि उन्होंने भारतीय इतिहास प्रख्यात पात्रों को मौलिक रूप में प्रस्तुत करने का स्तुल्य उपक्रम किया है। कैकेई, उर्मिला तथा यशोधरा जैसे पात्रों के चरित्र में कवि ने मौलिक उद्भावना का परिचय दिया है वह साहित्य जगत के लिए अभूतपूर्व देन है। कैकेई के चरित्र में दृष्टव्य है-

‘युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी ।

रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी ।।

निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा ॥

धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा ।।

गुप्त जी के काव्य का सूक्ष्मतः पर्यावलोकन करने पर परिलक्षित होता है कि गुप्त जी निःसन्देह हिन्दी के प्रतिनिधि कवि हैं। अचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- गुप्त जी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं, प्रतिक्रियावादी का प्रदर्शन करने वाले तद में झूमने वाले कवि नहीं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पुण्य भाव तथा नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है।

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Anjali Yadav

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