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हिन्दी कहानी का उद्भव एवं विकास
आधुनिक हिन्दी कहानी का आरम्भ बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से होता है। सन् 1903 ई० में ‘सरस्वती’ मासिक पत्रिका के प्रकाशन से आधुनिक कहानी का प्रारम्भ हुआ। कहानी बहुत कुछ जीवन के समीप आ गई। उसमें से अलौकिकता, देवी-संयोग अथवा आश्चर्यजनक घटनाओं की कमी होने लगी। कहानियों में सांकेतिकता और संक्षिप्तता आने लगी। अब कहानी का उद्देश्य उपदेश, मनोरंज, कौतूहल अथवा घटना- वैचित्र्य का चित्रण मात्र न रहकर मानव जीवन को स्वाभाविक अभिव्यक्ति रह गया। कहानी में विषय और शिल्प-विज्ञान दोनों ही दृष्टियों में नवीनता आ गई।
हिन्दी कहानी का विकास- हिन्दी-कहानी का विकास निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(i) पृष्ठभूमि काल (सन् 1900 से पहले);
(ii) प्रथम उत्थान काल (सन् 1900 से 1910 तक):
(iii) द्वितीय उत्थान काल (सन् 1911 से 1929 तक);
(iv) तृतीय उत्थान काल (सन् 1930 से अब तक)।
(1) पृष्ठभूमि काल (सन् 1900 से पहले) इस काल की कहानियों का महत्व इसलिए है कि इन्होंने पाठकों में कहानी पढ़ने की रुचि जागृत की। देवकी नन्दन खत्री की जासूसी कथाओं को पढ़ने के लिए बहुत से लोगों ने हिन्दी सीखी। उनकी ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ अपनी-अपनी अद्भुत कल्पना-शक्ति और कला विन्यास के कारण आज भी पाठकों को आकर्षित करती है। इसी समय किशोरीलाल गोस्वामी ने कई कहानियाँ लिखीं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इन्हीं को हिन्दी का प्रथम कहानीकार मानते हैं। तीसरे प्रमुख कथाकार श्री गोपालराम गहमरी ने भी अपनी जासूसी कथाओं से हिन्दी पाठकों की रुचि को आकर्षित किया। आपके द्वारा प्रकाशित ‘जासूस’ पत्र में मौलिक आख्यायिकाएँ भी प्रकाशित होती थीं।
इस प्रकार छोटी कहानियाँ, गल्प आख्यायिकाएँ पहले-पहल हिन्दी में बंगला से आई। इससे कुछ पहले श्री राधाचरण गोस्वामी ‘सौदामिनी’ नामक छोटी सी कहानी बंगला से अनुदित कर प्रस्तुत कर चुके थे।”
इस युग की कहानियों का हिन्दी कहानी का न तो कोई विकास हुआ और न कोई उसका भाग ही बना, किन्तु इतना अवश्य है कि इन कहानियों ने हिन्दी कहानी की पृष्ठभूमि तैयार की।
(2) प्रथम उत्थान काल (सन् 1900 से 1910 तक) सन् 1902 में ‘सरस्वती’ के प्रकाशन से हिन्दी कहानी का श्रीगणेश होता है। ‘सरस्वती’ के प्रथम वर्ष से ही छोटी-छोट कहानियाँ प्रकाशित होने लगीं। इनमें से अधिकांश बंगला कहानियों की अनुवाद थीं। अनुवादकों के पार्वतीनन्दन भट्टाचार्य, गिरिजा कुमार घोष, श्रीमती बंग महिला नाम के नाम से उल्लेखनीय हैं।
इन अनुवादों के साथ में मौलिक कहानियां भी प्रकाशित होने लगीं। सन् 1900 से किशोरीलाल गोस्वामी को मौलिक कहानी ‘इन्दुमति’ प्रकाशित हुई । इसको हिन्दी का सर्वप्रथम कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। इस कहानी पर ‘टेमपेस्ट’ की छाप है सन् 1903 में श्री रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ कहानी प्रकाशित हुई। यह कहानी के ढर्रे पर ही कही गई है। इसके पश्चात् गिरिजादत वाजपेयी की ‘पण्डित और पण्डितानी’ कहानी सामने आई, इस पर अंग्रेजी का प्रभाव है। इस काल में सर्वश्रेष्ठ समझी जाने वाली कहानी ‘दुलाई वाली’ सामने आई। इसकी लेखिका श्रीमती बंग महिला थीं। प्रसंगानुकूलता, कथोपकथन, स्वाभाविकता और मार्मिकता की दृष्टि से इससे असफल कहा कहा जा सकता है।
यह कहानी-काल हिन्दी कहानी का प्रयोग काल था। इसी समय श्री वृन्दावनलाल वर्मा ने ऐतिहासिक कहानी की परम्परा चलाई। उनकी ‘राखीबन्द भाई’ कहानी प्रकाशित हुई। मैथिलीशरण गुप्त ने सन् 1910 में ‘निन्यानवे का फेर’ कहानी लिखी।
प्रथम उत्थान काल की कहानियों की विशेषताएँ-
- इस काल की सभी कहानियाँ कथानक प्रधान हैं।
- कथानक में इतिवृत्तामकता, दैवी संयोग, आकस्मिकता तथा आश्चर्यजनक तत्व अधिक मिलते हैं।
- चरित्र-चित्रण और चरित्र-विकास गौण है।
- अधिकाशं कहानियाँ संस्कृत-नाटकों, शेक्सपियर के नाटकों और बंगला नाटकों से प्रभावित हैं।
(3) द्वितीय उत्थान काल (सन् 1911 से 1929 तक) कहानी के द्वितीय उत्थान का प्रारम्भ ‘इन्दु’ पत्रिका के प्रकाशन से होता है। इसमें प्रसाद जी की सबसे पहली कहानी ‘ग्राम’ सन् 1911 में प्रकाशित हुई। चार कहानियाँ और निकलीं, जिनका संग्रह ‘छाया’ नाम से सन् 1912 में प्रकाशित हुआ। प्रसाद जी की कहानियाँ सर्वथा मौलिक थीं। किन्तु उनकी भाषा के अलंकरण और वस्तु-विन्यास पर बंगला का प्रभाव स्पष्ट है। इस काल में हिन्दी के अनेक प्रमुख कहानीकार हुए। 1911 में जे० पी० श्रीवास्तव ने हास्य रस की कहानियाँ लिखीं। सन् 1912 में श्री विश्वरम्भरनाथ जिज्जा की ‘परदेशी’ कहानी प्रकाशित हुई। सन् 1913 में राधिकारमण सिंह की ‘कानों में कंगना’ सामने आई। इसी वर्ष कौशिक जी की ‘रक्षा बन्धन’ कहानी जिकली । सन् 1914 में चतुरसेन शास्त्री की ‘गृहलक्ष्मी’, सन् 1915 में गुलेरी जी की प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ तथा सन् 1916 में प्रेमचन्द की ‘पंच परमेश्वर’ कहानी प्रकाशित हुई। इनमें गोविन्दवल्लभ पन्त (सन् 1919), सुदर्शन (1920), रायकृष्णदास (1917), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (1917), बालकृष्ण शर्मा नवीन (1918), चण्डी प्रसाद हृदयेश (1919), भगतवीचरण वर्मा (1921), निराला (1927), भगवती प्रसाद बाजपेयी (1924), विनोदशंकर व्यास (1927), वाचस्पति पाठक (1927) आदि प्रमुख हैं।
हिन्दी कहानी का यह द्वितीय उत्थान बहुत महत्वपूर्ण है। इस काल में बहुत सी मौलिक कहानियाँ सामने आई हैं जो हिन्दी साहित्य की स्थायी निधि बन गई। इस युग में भावमूलक और यथार्थ वादी दो प्रकार की कहानियाँ लिखी गई। भाव-मूलक कहानियों में जनक प्रसाद जी उनके कथोपकथन कवित्वयम और हृदय को चुभने वाले हैं। उनमें प्राचीन समय की संस्कृति और वातावरण का सफल चित्रण हुआ है। प्रसाद जी की कहानियों का शिल्प-विधान सर्वथा मौलिक है। उनका प्रारम्भ इतना मनोवैज्ञानिक तथा नाटकीय होता है कि पाठक को वे स्वतः ही आकर्षित कर लेती है। उनका अन्त भी इतना प्रभावशाली और अप्रत्याशित होता है कि पाठक का मन झकझोर उठता है और वह एक समस्या पुनः सुलझाने लगता है। प्रसाद जी की कहानियों ने हिन्दी को एक नई दिशा प्रदान की और इस प्रकार की कहानियों की एक नवीन धारा ही प्रवाहित हो चली, जिसके कहानीकारों में रायकृष्णदास, वाचस्पति पाठक आदि प्रमुख हैं।
प्रेमचन्द जी की कहानियों ने चरित्र-चित्रण को समूचित स्थान दिया गया। वे वस्तुतः कलाकार थे। इसलिए उनकी कहानियाँ हमारे साधारण जीवन की एक झाँकी प्रस्तुत करती हैं। प्रसाद जी की कहानियों की तरह इनमें भावना का आधार नहीं लिया गया है। प्रेमचन्द जी ने जो कुछ भी अपने समय में देखा, उसी को उन्होंने कहानी का रूप दिया। प्रेमचन्द जी की कहानियों में राष्ट्रीय-भावना, दलितों ग्रामीणों के प्रति गहरी सहानुभूति, अत्याचारों के विरुद्ध ऊंची आवाज आदि भावनाएं ओत-प्रोत हैं। उनकी शैली यथार्थ और नाटकीय है।
हिन्दी कहानी की द्वितीय उत्थान की विशेषताएँ
1. प्रेमचन्द की कहानी कला का अनेक कहानीकारों ने अनुसरण किया। इनमें सुदर्शन, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, ज्वालादत्त शर्मा आदि प्रमुख हैं।
2. इस युग की सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘उसने कहा था’ है जो सन् 1915 में प्रकाशित हुई।
3. प्रसाद जी की कहानियों ने कहानी को एक नई दिशा दी। उनकी कहानियों में वैयक्तिकता अधिक है।
4. प्रेमचन्द जी इस युग के सबसे अधिक लोकप्रिय कलाकार हैं।
5. इस युग में प्रसाद और प्रेमचन्द एक दूसरे के पूरक हैं।
6. इस युग में कुछ प्रकृतिवादी कहानियाँ भी लिखी गईं। इनके लेखक ‘उप’ जी हैं।
7. इस युग की कहानियों में कथानक के साथ चरित्र के विकास का विशेष ध्यान दिया गया।
कहानियों के कथानक में दैवी-संयोग, आकस्मिक घटना अथवा आश्चर्यजनक तत्वों का समावेश न करके जीवन की स्वाभाविकता को लाया गया है।
हिन्दी कहानी के विकास में प्रसाद और प्रेमचन्द का महत्वपूर्ण योग है। परवर्ती सभी कहानीकारों ने प्रसाद या प्रेमचन्द का अनुसरण किया। प्रसाद जी की अधिकांश कहानियाँ भावमूलक हैं। इनमें अतीत और वर्तमान की विशद रसमयी परिस्थितियों में पात्रों और घटनाओं का चित्रण हुआ है। वातावरण की सजीवता प्रसाद जी की कहानियों में प्रमुख विशेषता है। प्रसाद जो की कहानियों में सर्वत्र नाटकीय तत्व मिलते हैं। प्रसाद जी का अनुसरण रायकृष्णदास, वाचस्पति पाठक, विनोदशंकर व्यास, चण्डीप्रसाद हृदयेश, कमलाकान्त वर्मा आदि की कहानियों में मिलता है। भाव-प्रवणता, अतिरंजना और वातावरण की प्रमुखता के कारण चतुरसेन शास्त्री, ऋषभचरण जैन, बेचन शर्मा ‘उग्र’ आदि को भी प्रसाद को श्रेणी में लिया जा सकता है।
हिन्दी-कथा-साहित्य में प्रेमचन्द का आगमन महत्वपूर्ण घटना है। प्रेमचन्द जी ने विविध परिस्थितियों में पड़े हुए मनुष्य का चित्रण तथा समाज के प्रत्येक स्तर के विवेचन को कहानी में स्थान दिया। हिन्दी की प्रगतिशील कहानियाँ प्रेमचन्द जी की परम्परा का ही बहुत कुछ विकास कही जा सकती है। विश्वम्भरनाथ शर्मा लिज्जा, जे० पी० श्रीवास्तव, राजा राधिकारमण सिंह, विश्वम्भरनाथ वर्मा कौशिक, पंडित ज्वालादत्त शर्मा, गोविन्दवल्लभ पंत, सुदर्शन, वृन्दावनलाल वर्मा और भगवतीप्रसाद वाजपेयी को प्रेमचन्द जी की ही श्रेणी में रख सकते हैं। बीसवीं शताब्दी के द्वितीय और तृतीय दशकों में हिन्दी कहानी की समस्त प्रवृत्तियाँ और शिल्प-विधियाँ प्रेमचन्द और प्रसाद जी से प्रभावित और अनुप्राणित रहीं ।
(4) तृतीय उत्थान काल (सन् 1930 से अब तक) – सन् 1930 के पश्चात, कहानी कला में परिवर्तन हुआ। वह अपने चरम विकास पर पहुँच गई। विषय की विविधता, भाव की गहनता, जीवन की मार्मिकता तथा शिल्प की नवीनता की दृष्टि से कहानी- साहित्य उन्नत हुआ ।
प्रगतिशील कहानियों में प्रेमचन्द जी की परम्परा का ही अनुसरण हुआ है, परन्तु प्रवृत्ति की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर आ गया है।
प्रगतिवादी कहानियों में सामाजिक समस्याओं का एक विशेष भौतिकवादी दृष्टि से चित्रण किया गया है। समाज की प्रगतिशील शक्तियों का स्पष्ट रूप से संकेत रहता है। बहुत-सी प्रगतिशील कहानियाँ अत्यन्त मार्मिक हैं।
इस युग की कहानी-साहित्य गाँधीवाद, साम्यवाद, फ्रायड के यौनवाद आदि से प्रभावित है। इन नई कहानियों में जहाँ बुद्धि का अतिरेक है, वहाँ व्यक्ति को लेकर विद्रोह, विस्फोट और चिन्तन की प्रवृत्ति भी मिलती है। आज का कहानीकार बाह्य जीवन से हटकर अन्तर्गत और अवचेतन की ओर मुड़ गया है।
आज की नई कहानियों बुद्धिधर्मी, सिद्धान्तमस्त और प्रयोगवादी हैं। उनमें जीवन की गहराई और व्यापकता की कुछ कमी है। इतने पर भी असंख्य नवीन सम्भावनाओं के जन्म के कारण कहानी का भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है। नये कहानीकारों में अज्ञेय, जैनेन्द्र कुमार, सियारामशरण गुप्त, इलाचन्द्र, यशपाल, पहाड़ी, उपेन्द्रनाथ अश्क, धर्मवीर भारती, अमृतलाल नागर, कमलेश्वर रेणु, हरिशंकर परसाई, विष्णु प्रभाकर, रमेश बख्शी, राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, ज्ञानरंजन आदि प्रमुख हैं। स्त्री कहानीकारों में सुभद्राकुमारी चौहान, होमवती, उशादेवी मिश्रा, महादेवी वर्मा, चन्द्रकिरण सौनरिक्सा, उपा प्रियवंदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी आदि प्रमुख हैं। इनकी कहानियों में पारिवारिक जीवन और नारी-जीवन की समस्याओं का विवेचन हुआ है।
मनोवैज्ञानिक कहानियाँ कहानी का एक नया रूप है। इस प्रकार की कहानियों का प्रारम्भ जैनेन्द्र जी से हुआ। इस कहानियों में किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य का विश्लेषण और विवेचन होता है। जैनेन्द्र जी का कहानियों में मानव-मन के रहस्यों, उनके मन की विविध प्रक्रियाओं का मार्मिक चित्रण मिलता है। जैनेन्द्र की ये कहानियाँ हिन्दी के कहानी साहित्य का गौरव बढ़ाने वाली है। अज्ञेयजी दूसरे मनोवैज्ञानिक कहानीकार है। इलाचन्द्र जोशी भी इसी क्षेत्र में आते हैं। मनोवैज्ञानिक कहानियां ऐतिहासिक कहानियों से पहले आती हैं।
सामाजिक यथार्थवादी कहानियों में श्रेणी के कहानीकारों में उपेन्द्रनाथ अश्क, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार और रामप्रसाद पहाड़ी आदि कहानीकार उल्लेखनीय हैं। इन कहानीकारों ने समाज की विभिन्न स्थितियों और समस्याओं का चित्रण किया है। श्री जी० पी० श्रीवास्तव द्वारा चलाई गई हास्य रस की कहानियों की परम्परा में अन्य उल्लेखनीय कहानीकारों के नाम हैं-वेदव, बनारसी, हरिशंकर शर्मा, कृष्ण प्रसाद गौड़, अजीम बेग चुगताई, अन्नपूर्णानन्द, बरसाने लाल चतुर्वेदी, रघुकुल तिलक आदि।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हिन्दी के नये कहानीकारों के साथ नई ‘अ’ सचेतन आदि विशेषताएँ लगाए हैं। श्री राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, रमेश बक्शी, नरेश मेहता की गणना नये कहानीकारों में की जाती है, तो भीष्म साहनी, अमरकांत, डॉ० महीपसिह, मनहर चौहन, सुखवीर, कुलभूषण और वेद राही आदि कहानीकार स्वयं के संचेतन कहानीकार कहलाना पसन्द करते हैं। कुछ नये कहानीकार अपनी कहानियों में ‘अकहानी’ की संज्ञा देते हुए प्रसिद्धि प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। कुछ अन्य कहानीकार जो इस अखाड़ेबाजी से मुक्त हैं, उनके नाम हैं- धर्मवीर भारतीय, लक्ष्मीनारायण लाल, सुदर्शन चोपड़ा, शैलेश मटियानी, फणीश्वरनाथ रेणु, कृष्ण सेवती, शिवानी मन्नू भंडारी, नरेन्द्र कोहली, उषा प्रियम्वद्रा, शान्ति मेहरोत्रा आदि।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि कहानी आजकल की प्रमुख साहित्यिक विधा है और हिन्दी कहानी के भण्डार की अभिवृद्धि होती जा रही है। वह हिन्दी साहित्य की एक अत्यन्त समृद्ध विधा का स्थान ग्रहण कर चुकी है।
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