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जायसी की काव्यगत विशेषताएँ
“प्रेम या रति भाव के अतिरिक्त स्वाभाविक वीर दर्प पतिव्रता तथा छोटे-छोटे भावों की व्यंजना अत्यन्त स्वाभाविक और हृदयग्राही रूप में जायसी ने कराई है, जिससे उनके हृदय की उदाल पूर्ति और कोमलता का परिचय मिलता है।
-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
भावपक्ष
पद्यावत के भाव पक्ष का जब हम अध्ययन करते हैं तब हमें निर्विवाद रूप से कहना पड़ता है कि भावपक्ष की गरिमा की दृष्टि से पद्मावत एक श्रेष्ठ मन्थ है। भाव एवं विचार हृदय की वस्तु होती है। प्रेमानुभूति एवं सौन्दर्यानुभूति हृदय से ही होती है। जायसी ने अपने काव्य में प्रेम की महत्ता को विशेष महत्व दिया है। उन्होंने जनता के समक्ष जीवन की मर्मस्पर्शी घटनाओं, समस्याओं एवं श्रम प्रधान घटनाओं को रखकर हिन्दू और मुसलमानों में रागात्मक सम्बन्ध स्थापित किया है। पद्मावत का नख – शिख वर्णन एवं बारह मासे के माध्यम से व्यक्त किया गया नागमती का वियोग वर्णन भाव पक्ष की दृष्टि अत्यन्त उत्कृष्ट है। हीरामन तोते से पद्मावती का नख-शिख वर्णन सुनकर रत्नसेन का मन उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठता है। वह कठिनाई का सामना करके भी पद्मावती को प्राप्त करना चाहता है और पद्मावती के प्रप्त हो जाने पर उनके सम्मान की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर देने में भी संकोच नहीं करता है। पद्मावती की यह विशेषता है कि वह अत्यधिक रूपवती है तथा पतिव्रत धर्म इतना है कि पति के न मिलने पर चिता पर बैठकर सती हो जाती है। वियोग की दृष्टि से भी जायसी का भाव पक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ है नागमती का विरह वर्णन बरबस पाठकों के मन को मोह लेता है। नागमती के विरह का एक उदाहरण दिखिए-
- नागमतिहि पिय-पिय रट लागी, निसि दिन तपै मच्छ विनि बाणी ।
- रोवति भई न साँस संभारा नैन चुवहि जस ओरति धारा ।
- अव अधियार परा असि लागी, तुम्ह बिनु कौन बुझावै आगी।
गोरा-बादल का युद्ध वर्णन भी हृदय विदारक है। गोरा अपने को नल नील से कम नहीं समझता है। वह अलाउद्दीन की यवन सेना को आगे न बढ़ने का संकल्प लेता है-
होइ नल-नील आजु हैं, देउं समुद्र मह मेढ़।
कटक साह कर टेकी, होइ सुमेरु रन बेड़ ॥
भावपक्ष की दृष्टि रत्नसेन का चरित्र भी अत्यन्त सराहनीय है। जब ‘पार्वती महेश खण्ड’ में स्वयं पार्वती अप्सरा का रूप धारण करके रत्नसेन के प्रेम की परीक्षा के लिये जाती हैं और रत्नसेन का पल्ला पकड़कर कहती हैं कि ‘मेरे जैसा सुन्दर रंग-रूप किसी का नहीं है’ ? मैं स्वर्ग की अप्सरा हूँ। तुम्हारा विलाप सुनकर इन्द्र ने मुझे पास भेजा है इसलिए तुम पद्मावती को भुला कर मेरे साथ जीवन भर भोग-विलास करो। इस पर रत्नसेन उत्तर देता है कि हे अप्सरे । भले ही तुम्हारा रंग-रूप सुन्दर हो परन्तु मुझे तो किसी दूसरी स्त्री से बात करना भी अच्छा नहीं लगता-
भलेहि रंग अछरी तोर राता, मोहिं दूसरे सौ भाव न बाता।
ओहि के बार जीउ नहि वारौ, सिर उतारि नेवछावर सारौ ।।
अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जायसी का भाव पक्ष अत्यन्त उत्कृष्ट है। उसमें संयोग का आनन्द, प्रेम की पीड़ा, मार्मिक व्यञ्जना तथा सौन्दर्यानुभूति विद्यमान है।
कला पक्ष
जायसी का भाव पक्ष जितना उत्कृष्ट है कलापक्ष भी उससे कम उत्कृष्ट नहीं है। कला पक्ष के अन्तर्गत भाषा, रस, छन्द तथा अलंकारों का वर्णन होता है, जो जायसी के काव्य में आद्योपान्त विद्यमान है।
भाषा- जायसी ने पद्मावत में ठेठ अवधी का प्रयोग किया है। जायसी को अवधी का महाकवि कहा जाता है पद्मावत की भाषा की प्रसंशा में डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है-
“जायसी की अवधी भाषा-शास्त्रियों के लिए स्वर्ग है, जहाँ उनकी रुचि की अपरिमित सामग्री सुरक्षित है। मैथिली के लिए जो स्थान विद्यापति का है। मराठी के लिए जो महत्व ज्ञानेश्वर का है, वही महत्व अवधी के लिए जायसी की भाषा का है।”
तुलसी के रामचरित मानस की भाषा भी अवधी है लेकिन मानस की भाषा का आधार संस्कृत तत्सम शब्दावली है और पद्मावत की भाषा का आधार संस्कृत की तत्सम शब्दावली है। इस सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि-
“जायसी की भाषा बोल-चाल की और सीधी-सादी है। समस्त पदों का व्यवहार उन्होंने बहुत कम किया है। जहाँ किया भी हैं वहाँ दो से अधिक पदों के समास का नहीं।”
इसके अतिरिक्त जायसी ने लौकिक के माध्यम से अलौकिक का संकेत करने के लिए प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग किया है। जायसी की भाषा में लोकोक्तियों, मुहावरों एवं सूक्तियों का प्रयोग भी सफलतापूर्वक हुआ है। लोकोक्ति का उदाहरण देखिये-
(1) सूधी अंगुरि न निकसै घीऊ (2) तुरय रोग हरि माथे जाये।
सूक्तियों के उदाहरण देखिये ।
बसै मीनजल धरती, अवाँ बसे आकास।
जो पिरीत रह दूब मंह, अन्त होहि एक पास।
छन्द- भाषा के पश्चात् कलापक्ष का एक अन्य महत्वपूर्ण अंश छन्द होता है। छन्द विधान की दृष्टि से ‘पद्मावत’ एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है। जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना दोहा और चौपाई नामक मात्रिक छन्द में की है। ‘पद्मावत’ की रचना में ‘मसनवी’ शैलो का प्रभाव है।
रस- सूफी साहित्य में प्रेम पर अधिक बल दिया जाता है, प्रेम का सम्बन्ध शृंगार रस से है। इसीलिए ‘पद्मावत’ में शृंगार रस का वर्णन प्रमुख रूप से किया गया है, गौड़ रूप में करुण, वात्सल्य, वीर, शान्त और बीभत्स रसों का भी वर्णन किया है। प्रमुखता शृंगार का एक चित्र देखिये-
“हुलसा बंदन ओप रवि पाई। हुलसि हिया कंचुकि न समाई।
हुलसे कुच बसना बद टूटे। हुलसी भुजा वलय कर फूटे ।।’
करुण रस का एक चित्र देखिये-
‘रोवहि मात-पिता और भाई। कोउ न टेक जौ कन्त चलाई।’
अलंकार- कलापक्ष का अन्य महत्वपूर्ण तत्व अलंकार है। ‘पद्मावत’ में भावाभिव्यंजना को अधिक तीव्र करने के लिए जायसी ने सदृश्यमूलक अलंकारों का अधिक प्रयोग किया है। अनुप्रास अलंकार का बहुत सुन्दर एवं सफल प्रयोग ‘पद्मावत’ में हुआ है। यथा-
“कुहू कुहू करि कोयल राखा “
यमक अलंकार का उदाहरण द्रष्टव्य है-
“जाति सूर और खाँड़े सूरा।’
उत्प्रेक्षा अलंकार का एक उदाहरण देखिए-
‘कंचन रेख कसौटी कसी। जनु धन-माँह दामिनि परगसी।
सरुज किरिन जनु गगन बिसोखी। जमुना माँह सरसुती देखी।’
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