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जायसी के वियोग वर्णन की विशेषताएं | jaysi ke viyog varnan ki visheshtaye

जायसी के वियोग वर्णन की विशेषताएं | jaysi ke viyog varnan ki visheshtaye
जायसी के वियोग वर्णन की विशेषताएं | jaysi ke viyog varnan ki visheshtaye

जायसी के वियोग वर्णन की विशेषताएं

विरह जीवन की कसौटी है जिसके द्वारा मानव गतिशील रहता है। साहित्य में विरह की अभिव्यक्ति विशेष महत्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में वह जीवन और काव्य की मूल चेतना प्रतीत होती है। मध्ययुगीन भक्त कवियों ने भक्ति मार्गीय सिद्धान्तों में विरह को भक्ति का अनिवार्य तत्व माना है। ‘नारद भक्ति सूत्र’, ‘मीमांस दर्शन’ आदि ग्रन्थों में भक्ति की सभी शक्तियों में विरह को सर्वाधिक महत्व दिया है। साहित्य में विरह की अभिव्यक्ति रचनाओं को जीवन्त बनाती है। कवि पन्त ने विरह के सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है-

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।

उमड़कर आँखों में चुपचाप, वही होगी कविता अनजान ।।”

कवि उस्मान ने लिखा है कि-

विरह अगिनि जरि कुन्दन होई। निरमल तन पावे पै सोई।

इस प्रकार जीवन और काव्य दोनों में ही विरह की महत्ता असंदिग्ध है।

जायसी के पद्मावत में विरह वर्णन

प्रेमाश्रयी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि मलिक मुहम्मद जायसी ‘प्रेम की पीर’ लेकर ही हिन्दी साहित्य में अवतरित हुए थे। जायसी का ‘पद्मावत’ उनके ‘प्रेम की पीर’ की साकार मूर्ति है। प्रेम की परीक्षा विरह के ही अन्तर्गत होती है। जायसी ने भी नागमती के विरह वर्णन के द्वारा हिन्दी साहित्य को ‘प्रेम की पीर’ से सशक्त साहित्य प्रदान किया है। इसलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा-

‘नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। नागमती उपवनों के पेड़ों के नीचे रात-रात भर रोती फिरती है। इस दशा में पशु-पक्षी, पेड़-पल्लव जो कुछ सामने आता है उसे वह अपना दुखड़ा सुनाती है।’

जायसी का भावुक स्पंदनशील हृदय कवि विरह की वेदना में पूर्णतः आप्लावित है। पद्मावत के स्थलों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानों जायसी के हृदय में विरह वेदना स्वयं मूर्तिमान हो उठी है। पद्मावत में विरह के आलम्बन दो प्रकार के हैं-

1. रत्नसेन और नागमती 2. रत्नसेन और पद्मावती ।

रत्नसेन और नागमती विषयक विरह पद्मावत में कई स्थलों पर मिलता है- 1. नागमती वियोग खण्ड में, 2. नागमती संदेश खण्ड में, 3. चित्तौड़ अगामन खण्ड में, 4. पद्मावती-नागमती विलाप खण्ड में, 5. पद्मावती सती खण्ड में। इनमें दो खण्डों में अभिव्यक्ति विरह अत्यन्त मार्मिक है ।

पद्मावती रत्नसेन को आलम्बन बनाकर विरह की अवतारणा कवि ने चार स्थानों पर की है- (1) पूर्णानुराग-जनित विरह, (2) रत्नसेन के दर्शन से लेकर विवाह तक का विरह, (3) विवाह से लेकर रत्नसेन की मृत्यु तक का विरह (4) मृत्यु के पश्चात् का विरह ।

जायसी का विरह दर्शन- वियोग श्रृंगार के चार प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से स्वीकार किये गये हैं-

  1. पूर्वाराग-किसी के केवल गुण श्रवण से जो विरहानुभूति होती है विरह शृंगार में उसे पूर्वाराग कहा जाता है।
  2. मान-परस्पर मान अपमान या नोक झोंक या रूठ जाने को मान कहते हैं।
  3. प्रवास – प्रवास का कारण प्रियतम का प्रवासी होना है। जिससे कि नायिका के हृदय में विरह की तीव्र अनुभूति होती है।
  4. करुणा- करुणा में कारुणिक भावना का आधिक्य होने से किसी पक्ष में निर्वेद की स्थिति आ जाती है।

वेदना की प्रधानता- जायसी के विरह वर्णन में वेदना की अत्यधिक प्रधानता है। जायसी का भावुक हृदय नागमती के पवित्र आँसुओं में अवगाहन कर अपनी सुध-बुध विस्मृत कर बैठा है। नागमती का पति प्रेम विरहावस्था में प्रगाढ़ हो चला है। नागमती ने पति द्वारा प्रदत्त बिरह का हँसकर अभिनन्दन किया लेकिन जब प्रत्यागमन की आशा धूमिल हो उठी तो पतिपरायण नागमती के हृदय में विरह की तीव्र अनुभूति होने लगी। वेदना की ज्वाला में हृदय तन्तु टूट-टूट कर खंडित होने लगा और आजीवन प्रवास की आशंका उसके मन को व्यथित करने लगी। जायसी की लेखनी से इन भावों की कितनी मार्मिक और प्रभावशाली व्यंजना इन पंक्तियों में हुई है।

नागमती चितउर-पथ हेरा पिउ जो गये पुनि कीन्ह न फेरा ॥

नागर काह बस परा । तेइ मोर पिउ मोसों हरा ।।

सुआ काल होई लेइगा पीऊ। पिउ नहि जात वरु जीव ||

सारस जोरी कौन हरि, माहि बिआधा लीन्ह ?

झुरि-झुरि पींजर हौं भई, विरह काल मोहि दीन्ह ।।

भारतीया का गहन रंग जायसी की विरहानुभूति में भारतीय नारी की वेदना ही समाविष्ट है। नागमती रानी की भाँति विरह की अभिव्यक्ति न कर केवल एक सामान्य- भारतीय रमणी के समान आचरण करती है और बारह महीने तक विरह वेदना से व्यथित होते हुए पक्षियों से विरह संदेश पहुँचाने की याचना करती है। यद्यपि इस कथन और प्रसंग में अत्युक्ति अवश्य आ गई है फिर भी विरह अभिव्यक्ति में स्वाभाविकता का रंग भरने के लिये कवि जायसी की एक कुशल येष्टा है-

“कुहकि कुहुकि जसि कोयलि रोई। रक्त औंस घुंघची बन होई।

गे कर मुखी नैन रत राती को सिराव विरहा दुख ताती ।। “

तीव्रानुभूति — जायसी के विरह वर्णन में विरह की तीव्र अनुभूति सर्वत्र परिलक्षित है। नागमती के विरह प्रभाव की तीव्रता से मेघ श्याम वर्ण के हो जाते हैं, राहु और केतु झुलस गये हैं, सूर्य तपने लगा है, चन्द्रमा की समस्त कलाये खण्डित हो गयी हैं। इस प्रकार समस्त पृथ्वी का अब ही परिवर्तित दिखाई देता है, आकाश को कंपा देने वाले विलाप से नीड़ में बैठे हुए पक्षियों की निद्रा भंग हो गयी है-

“फिर-फिरि रेव, कोई नहि डोला। आधी रात विहंगम बोला।

तू फिरि-फिरि दाहै पाँखी । केहि दुख रैन न श्रवसि आँखी।

पक्षियों द्वारा प्रदर्शित दया और अनुभूति के शब्दों को सुनकर नागमती अपनत्व भाव से कहती है-

“चारिउ चक्र जार गये। कोई न संदेक टेक।

कहौं विरह-दुख आपन बैठि सुनहु दंड एक ॥”

विरह वर्णन में बारहमासा की अभिव्यक्ति – जायसी ने विरह वर्णन में बारहमासा की अभिव्यक्ति को है जो परम्परा से भिन्न है। कवि मंझन ने ‘मधुमालती’ में बारहमासा का प्रारम्भ सावन से किया है। जायसी ने आषाढ़ मास से इसका प्रारम्भ और अन्त दोनों से ही किया किया। जायसी के बारहमासा की एक अन्य विशेषता यह भी है कि उसमें भारतीयता का गहरा रंग, लोक-जीवन के विभिन्न उपकरण, अभिनय उपमानों की योजना तथा लौकिकता के सन्दर्भ में आध्यात्मिकता का आरोपित विशेष दर्शनीय है। आषाढ़ मास के आगमन पर नागमती के मन में विरह की तीव्र अनुभूति होती है-

“चढ़ा आषाढ़ गगन घन गाजा साजा विरह दुंद दल बाजा।

घूम श्याम घीरै घन आये। सेतु भुजा बगुपति देखाये ॥”

आषाढ़ के अतिरिक्त सावन और भादों महीनों की विरह- अभिव्यक्ति जायसी ने पूर्ण मनोयोग के साथ की है। सावन में सम्पूर्ण संतुति जल से आप्लावित है किन्तु नागमती विरह में शुष्क हो रही है।

“सावन बरिस मेह अति पानी भरनि भरइ हो विरह झुरानी।”

भादों के आगमन से नागमती की विरहानुभूति अत्यधिक बढ़ गयी है। यह मास दुस्सह और कठोर है। घन-चपला का है अप्रत्याशित प्रकाश एवं मेघ गर्जना नागमती को प्रकम्पित कर रही है। जायसी के शब्दों में-

‘भर भादों दुभर अविभारी, कैसे भरो रैन अधियारी ।’

इसी प्रकार अन्य ऋतुओं का भी उल्लेख क्रमिक रूप से जायसी ने किया है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी के विरह वर्णन की प्रसंशा करते हुए लिखा है-

“इसी नागमती के विरह वर्णन के अन्तर्गत वह प्रसिद्ध बारहमासा है, जिसमें वेदना का अत्यन्त निर्मल और कोमल स्वरूप हिन्दू दाम्पत्य जीवन के अत्यन्त मर्मस्पर्शी माधुर्य, अपने चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना तथा विषय के अनुरूप भाषा का स्निग्ध सरल, मृदुल और अप्रतिम प्रवाह देखने योग्य है। पर इन कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान जाने पर भी इसके सौन्दर्य का बहुत कुछ हेतु अनिर्वचनीय रह जाता है। “

नागमती की वियोग दशा के कुछ अन्य श्रेष्ठ उदाहरण देखिए-

‘पै लागि अब जेठ अषाढ़ी, मोहि पिउ बिन छाजनि भइ गाढ़ी ।।’

‘बरसे मेह चुवहि नैनाहाँ, छपर-छपर होइ रहि बिनु नाहीं ॥

‘कोरों कहा ठाठ नव साजा ? तुम बिनु कन्त न छाजनि छाजा ।।’

फारसी का प्रभाव- पद्मावत में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ जायसी ने विरह की अभिव्यक्ति फारसी पद्धति पर की है। पद्मावत से सम्बन्धित विरह की उक्तियों में कहीं-कहीं संवेदनशीलता अपने चरमोत्कर्ष पर है। पद्मावती रत्नसेन के मिलन का दिन बसन्त निश्चित हो चुका है। नायिका को न दिन में भूख है और न रात में नींद। यह उसी प्रकार जर्जर और खोखली हो रही हैं, मानों उसका हृदय कीट खाये जा रहा है। शरीर के रोम-रोम में जैसे चीटे लग गये। हे प्रियजनों तुम मलयागिरि चन्दन बनकर शीघ्र क्यों नहीं आते। वेदना की यह अभिव्यक्ति फारसी काव्यशास्त्र में वर्णित बेकरारी, इन्तजारी, कम-खुर्बनी और नीदे हराम की स्थितियों और अवस्थाओं के अधिक निकट है। पद्मावत की निम्नलिखित पंक्तियाँ उपर्युक्त कथन की साक्षी हैं-

“जब लगि अवधि चाह सो ओई। दिल जुग वर विरहिन कह जाई।

नींद भूख मह निसि गे दोऊ। हिए माझ जस कलपै कोऊ ।

शैवहि रोव लागे जनु चीटे। सोनहि हील वेधे मिस काटे ।।”

निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि जायसी प्रेम-काव्य परम्परा के प्रमुख कवि हैं। इन्होंने प्रेम कथा को रक्त की लेई से जोड़ा है, और गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगोकर गीला किया है। उनकी वर्णन कुशलता, रस-परिपाक, चरित्र-चित्रण, स्वभाव-चित्रण, अलंकार योजना सभी हिन्दी के लिए गौरव की सामग्री है।

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Anjali Yadav

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