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नई कविता का स्वरूप और परिवेश
डॉ० हरिचरण शर्मा के शब्दों में- “छायावादी काव्य में कल्पना और सौन्दर्य की जल राशि में जीवन के टीले ऊभ-जूभ रहे थे। प्रगतिवादी कवियों ने जो चश्मा पहन रखा था। उस पर मार्क्स हीगेल और लेनिन के कारखाने में ढले ग्लास लगे थे। वे जैसे ही उतरे तो प्रयोग के लिए नयी भूमि दिखाई दी और अब तक जहाँ दिखाई देने वाले टीले पूरे पर्वत का रूप लेकर आ खड़े हुए। प्रगतिवादियों की कमजोरी यह रही कि वे इन्हें समतल करके जीवन का रूप न दे सके। यह काम नयी कविता के नये कवियों ने किया।”
नई कविता आज के युग की कुक्षि से उत्पन्न काव्यधारा है। उसे बाह्य प्रभाव मात्र कहना अनुचित है। समाज के ढाँचे में पर्याप्त परिवर्तन हो गया है। नया कवि बड़ी सतर्कता से उसके साथ जुड़ रहा है। उसने यह अनुभव किया है कि कविता के माध्यम से जो कुछ भी कहा जाये वह पाठक के लिए विश्वसनीय हो । अतः नयी कविता युगीन सन्दर्भों में आधुनिक भाव बोध और सौन्दर्य बोध के स्तर पर बड़े मानवीय परिवेश के पूर्ण वैविध्य के साथ नये शिल्प में प्रस्तुत करने वाली काव्यधारा है। वह प्रत्येक क्षण लघु मानव और समकालीन जीवन से प्रेरित अनुभूतियों को मुक्त छन्द की पीठ पर नये ‘टेकनीक’ में पाठकों तक सम्प्रेषित आस्वाद्य बना रही है। उसने तुच्छ से तुच्छ, महान से महान, बाह्य और आन्तरिक, चेतन और अचेतन आदि सभी क्षेत्रों से प्रेरित अनुभूतियों को यथार्थवाहिनी भाषा और शैली के खोल में लपेटकर अभिव्यक्ति के द्वार पर लाकर खड़ा किया है।
कालावधि- सामान्यतः नयी कविता की कालावधि का प्रारम्भ 1950 के बाद से माना जाता है। लेकिन, इसे हम आत्यन्तिक रूप में स्वीकार इसलिए नहीं कर सकते, क्योंकि इस काल में प्रकाशित कविताएँ – (उदाहरणार्थ दूसरा सप्तक की कविताएँ)। प्रयोगवादी अधिक रही हैं। दूसरी इस काल सीमा के स्वीकार करने का कारण भी यही कविताएँ हैं। क्योंकि इनमें पहले की-सी निरी प्रयोगशीलता का आग्रह नहीं था तता कुछ ऐसे तत्व संस्स्थिति रूप में दिखाई पड़ने लगे थे, जिनके आधार पर बाद में नयी कविता में प्रौढ़ता दिखाई पड़ी। निष्कर्ष यही है कि इस काल को नयी कविता की शुरुआत का काल मान लेने में कोई विशेष आपत्ति दृष्टिगत नहीं होती।
कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में नयी कविता को स्वरूप, स्पष्टीकरण और विकास की दिशा में भी योगदान दिया। इस दिशा में 1950 से 52 तक दिल्ली से प्रकाशित मासिक ‘प्रतीक’ तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा पहले स्वतन्त्र रूप में और बाद में लक्ष्मीकान्त वर्मा के सहयोग से सम्पादित ‘नये पत्ते’ (1953) ने प्रारम्भिक वर्षों में विशेष भूमिका निभाई। इसके पश्चात् शुरू में डॉ. जगदीश गुप्त तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा बाद में विजयदेव नारायण साही के सहयोग से सम्पादित नयी कविता 1954 ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। अतः नयी कविता पचासोतरी कविता है।
नयी कविता का परिवेश
नयी कविता का अभ्युदय जिस राजनयिक, सामाजिक एवं साहित्यिक पर्यावरण में हुआ उसका अवलोकन करना नितान्त आवश्यक है।
1. राजनयिक परिवेश- नयी कविता के अभ्युदय काल में बौद्धिकता और विज्ञान के प्रति मानव का मोह जागृत हो चुका था। सामान्य बुद्धिजीवी जो अब तक स्वतन्त्रता के व्यामोह में फँसे थे अनुभव करने लगे कि उनका यह मोह सत्य के निकट नहीं है। भारतीय परतन्त्रता की श्रृंखलाएं टूट चुकी थीं। स्वातन्त्र्य सूर्य नयी किरणों की लालिमा के साथ उदित हो चुका था। भारतीय जन आकांक्षाओं के अनुरूप एक राष्ट्रीय संविधान लागू हो चुका था। इस प्रकार नयी कविता का राजनयिक परिवेश नितान्त भिन्न था हम स्वतन्त्र हुए, हमारे भाव स्वतन्त्र हुए, हमारे विचार स्वतन्त्र हुए, हमारे उद्योग और व्यापार स्वतन्त्र हुए।
फलतः हमें स्वतन्त्र परिवेश में नयी दृष्टि से चिन्तन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इसी परिवेश में नयी कविता अपने शैशव में खिलखिलाने लगी।
2. सामाजिक परिवेश- भारतीय स्वातन्त्र्य के साथ ही युवा पीढ़ी जागृत हो गई। उसने एक ओर तो रूढ़ियों और परम्पराओं के विरोध में विद्रोही स्वरों का बिगुल बजा दिया दूसरी ओर इस युवा पीढ़ी में वेदना, टूट, टकराव और सामाजिक विसंगतियों से जड़ित आर्थिक और राजनीतिक स्थिति उत्पन्न हुई। महँगाई, गरीबी, बेकारी, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार एवं बड़ों का अधिकार-भोग की लिप्सा समय के साथ बढ़ती, फलती-फूलती गयी। फलस्वरूप युवा पीढ़ी में निराशा और आक्रोश दोनों ही स्वर मुखरित हुए। विज्ञान की शक्ति का दुरुपयोग मानवीय मूल्यों का ह्रास अधिनायकवादी प्रवृत्ति व्यक्ति स्वातन्त्र्य की भावना, अस्तित्व की सजगता ने आधुनिक युवा वर्ग में तनाव, आक्रोश और क्रान्ति की आकांक्षा को जन्म दिया, यह था सामाजिक परिवेश ।
3. अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ- नयी कविता के परिवेश के लिए अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का अवलोकन अपरिहार्य है। जिनका प्रभाव नये कवि के जागृत मानस पर पड़ा। 1917 में रूस की समाजवादी क्रान्ति ने न केवल भारतवासियों में अपितु अखिल विश्व में ही एक नयी चेतना का उदय किया था। उधर इंग्लैण्ड में मजदूर दल की विजय के साथ प्रमुख राष्ट्र द्वारा संघ की स्थापना की। सन् 1947 में चीन की कृषक क्रान्ति को सफलता मिली। फलतः वहाँ जनवादी सरकार का जन्म हुआ जिससे मार्क्सवाद और लेनिनवाद में लोगों की आस्था बढ़ी। 1949 में भारत में ही समाजवादी राष्ट्रों से कई व्यापारिक समझौते किये तथा 1950 में नये संविधान के साथ ही भारत ने स्वयं को तटस्थ राज्य घोषित कर दिया। ऐसे परिवेश में विचार स्वातन्त्र्य के ज्वार को लिए हुए कवियों ने नया सृजन आरम्भ किया।
4. साहित्यिक परिवेश- रोमांसवाद का करुण अवसान हो चुका था। जागृत बौद्धिकता उसकी टाई पकड़कर गला घोंट रही थी। रोमांसवाद का सौन्दर्य बोध ” आडट ऑफ डेट” हो गया था। रोमांसवाद के सभी पत्ते झड़ चुके थे । अन्ततः रोमांसवाद की अर्थी उठ गयी। जो इसके पक्षपाती थे, वे पोस्टमार्टम के परिणामों की प्रतीक्षा के अतिरिक्त कुछ न कर सके।
मार्क्स और लेनिन के कर कारखानों की घण्टियाँ बजाता हुआ साम्यवाद तूफान की भाँति आया । उसने रोमांसवाद का पतझड़ कर दिया। साथ ही वर्ग संघर्ष की झनझनाहट देता हुआ साहित्य को झकझोरता चला गया।
ऐसे परिवेश में जागृत बौद्धिकतों को प्रोत्साहन मिला। भाववादी युग के स्थान पर वस्तुवादी युग के चरण पड़े। सभ्य जीवन के बनावटी तहों के नीचे कहीं पड़ा सोया प्रकृत-जीवन करवटें बदलने लगा, नग्न वास्तविकताएँ दहकने लगीं। ऐसे नये परिवेश में नयी कविता का उदय हुआ ।
सुमित्रानन्दन पन्त ने उचित ही लिखा है- “नयी कविता ने मानव भावना को छायावादी सौन्दर्य के धड़कते हुए पलने से बलपूर्वक उठाकर उसे जीवन-समुद्र की उत्ताल तरंगों में पैग भरने को छोड़ दिया। जहाँ वह साहस के सुख-दुःख आशा-निराशा के घात-प्रतिघातों के बढ़ते हुए युग जीवन के आँधी-तूफानों का सामना कर सके। इस प्रकार नयी कविता विश्ववर्चस्व से प्रेरणा ग्रहण करके तथा आज के प्रत्येक पल बदलते हुए युग पद को अपने मुक्त छन्दों के संकेत की तीव्र-मन्द गति लय में अभिव्यक्त कर युग मानव के लिए नवीन भावभूमि प्रस्तुत कर रही है। “
नामकरण एवं परिभाषाएँ- कतिपय समीक्षक प्रयोगवाद को ही नयी कविता मानते हैं। डॉ० सुरेश माथुर ने लिखा है- “मेरे विचार से ‘प्रयोगवाद’ तथा ‘नयी कविता’ में किसी प्रकार की भिन्नता स्वीकार करना उचित नहीं है। क्योंकि प्रारम्भ में जिस धारा का नाम प्रयोगवाद था कालान्तर में वही ‘नयी कविता’ के अभिधान में आई। सम्भवतः ऐसा हो सकता है जब प्रयोगवादियों की अत्यधिक भर्त्सना हुई, तब ये ही लोग अपनी कविता को ‘नयी कविता’ का परिधान पहिनाकर साहित्य जगत में लाये।”
कृष्ण चैतन्य भट्ट राकेश के शब्दों में- “सन् 1950 में लगभग इंग्लैण्ड, अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय देशों में विगत पन्द्रह वर्षों के नवीन काव्य रूप ‘न्यू पोइट्री’ नाम दिया गया, अतः आलोचना प्रत्यालोचन के तीखे प्रहारों से घिरे प्रयोगवादी निकाय से मुक्ति की छटपटाहट के लिए इन कविताओं ने ‘नयी कविता’ नामकरण द्वारा अपना वर्ग अलग स्थापित कर लिया, जिससे कला-साधना अविवादी बनकर आगे बढ़ सकें और वे निर्भर होकर अपने समुदाय की सम-सामाजिकता अक्षण अथवा अनालोच्यर कर सकें। “
हिन्दी के पुराने आचार्यों, प्रबुद्ध आलोचकों की दृष्टि में इस ‘नाम’ के अन्तर्गत जो कुछ भी लिखा जा रहा है, वह ‘यत्न बलित तिरश्मीन अभिव्यक्ति’ तथा प्रौढ़िहीन नवीनता के नाम पर बकवास की बहार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है; क्योंकि उनकी दृष्टि में ‘चाटुतुष्टि वाग विकल्प उक्ति चैनिश्य अपरिप्य भावनाओं की आपाधापी तथा दुरधिरोहिणी कल्पना ही’ नई कविता की उपलब्धि है। ऐसे लोग कविता की प्रत्येक नई धारा के प्रति अपनी नाक-भौं चढ़ाये ‘भू-भू’ करने के लिए अपने को प्रस्तुत रखते है।
(1) “घोष ने नई कविता का सम्बन्ध प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद से निकट का स्थापित किया है। नई कविता में प्रगति और प्रयोग दोनों की उपस्थिति स्वीकार की है।
(2) श्री लक्ष्मीकान्त वर्मा’ ने प्रयोगवाद के नये विकास को ही नई कविता स्वीकारा है।
(3) आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के अनुसार- “छायावादी काव्यधारा से भिन्न नई प्रवृत्तियों और नये तत्वों से समन्वित जो काव्यकृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। उन्हें हम नई कविता कह सकते हैं। ये कवितायें प्रगतिवादी नाम से भी पुकारी जाती हैं।”
(4) गजानन माधव मुक्तिबोध- “नई कविता में स्वयं कई भाव धारायें हैं- एक भावधारा में प्रगतिशील तत्व पर्याप्त हैं।”
(5) डॉo गणपति चन्द्र गुप्त के शब्दों में- “नई कविता, नये समाज के नये मानव की नई वृत्तियों की नई अभिव्यक्ति, नई शब्दावली में है जो नये पाठकों के नये दिमाग पर नये ढंग से नया प्रभाव उत्पन्न करती है।”
(6) डॉ० शम्भूनाथ सिंह के अनुसार- “नई कविता भावुकता और बौद्धिकता दोनों का समान रूप से विरोध करती है। उसने अपने भावुक वेदनाविह्वल उद्गारों, मञ्चीय भाषणों और प्रचारात्मक भोपूवादी, उद्घोषणाओं से मुक्त रखने की चेष्टा की है। उसमें शब्दों की शोखी शैली की चटक-मटक उक्तियों का ताजो अंदाज अति कल्पना शीलता या अनावश्क नखरेबाजी नहीं है ।”
(7) डॉ० राम दशरथ मिश्र के शब्दों में- “नये कवि की वास्तविकता और नयी कविता के विकासोन्मुख स्वरूप को पहचानना मुश्किल हो गया है। ये कवि अपने को नया अधिक और कवि को कम कहते फिरते हैं। कुछ मात्र तथ्य कथ्य को ही नयी कविता मानने लगे हैं। ये दोनों ही सच्चे प्रचारवादी अहम्मन्यता प्रधान नुस्खे घातक हैं।”
नई कविता का उदय
नई कविता का उदय अज्ञेय जी के तार सप्तकों के प्रकाशन से हुआ। कालावधि की दृष्टि से प्रथम तार सप्तक का उल्लेख प्रयोगवादी काव्यधारा में किया जा चुका है। द्वितीय तार सप्तक का प्रकाशन 1951 में हुआ और पचासोप्तरी कविता ही नई कविता है। अतः द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ तार सप्तक नयी कविता के अन्तर्गत ही आते हैं।
1951 में प्रकाशित द्वितीय तार सप्तक के कवि इस प्रकार हैं- भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय तथा डॉ. धर्मवीर भारती ।
1951 ई० में तृतीय तार सप्तक का प्रकाशन हुआ। जिसके कवि इस प्रकार हैं- प्रताप नारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन, केदार नाथ सिंह, कुँवर नारायण, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल ।
इस प्रकार अब तक तीन सप्तक प्रकाशित हुए हैं जिसमें इक्कीस कवियों की कविताएँ संग्रहीत है। तीनों सप्तकों में प्रत्येक कवि की कविताओं के आरम्भ में सम्बन्धित कवि का जीवन वृत्त तथा जीवन कृत दिया है। और सप्तकों के प्रारम्भ में अज्ञेय जी की भूमिकाएँ हैं।
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