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शुक्लोत्तर समीक्षा पद्धति की विवेचना कीजिए ।
शुक्ल युग से ही आलोचना के क्षेत्र में शोध की नवीन प्रवृत्ति के दर्शन हुए, जिसका प्रारम्भ शुक्ल जी ने किया, विकास डॉ॰ श्यामसुन्दरदास ने और पल्लवन विश्वविद्यालयों में लिखी जाने वाली पी० एच० डी० और डी० लिट० की थीसिसों के रूप में हुआ। शुक्लजी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ लिखकर जिस शोध कार्य का प्रारम्भ किया, उसका विकास डॉ. श्याम सुन्दर दास की तुलसी, भारतेन्दु, कबीर आदि के सम्बन्ध में गवेषणाओं में मिलता है। इसी प्रवृत्ति को एक व्यवस्थित रूप में विश्वविद्यालयों में प्रश्रय दिया गया और पी० एच० डी० तथा डीलिट के लिए लिखी जाने वाली थीसिसों में इस पद्धति का प्रौढ रूप देखने को मिला। यों तो हिन्दी में शोध कार्य का प्रारम्भ नाभादास के भक्तकाल से ही माना जा सकता है और इसका विधिवत् सूत्रपात शिवसिंह सेंगर के ‘शिवसिंह सरोज’ में मिलता है किन्तु इस प्रवृत्ति की परम्परा शुक्ल युग में ही मिलती है। डॉ० जगन्नाथ वर्मा ने ‘प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन’ प्रस्तुत करके इस परम्परा के उद्भव एवं विकास में योग दिया। इसके बाद तो भारत के अनेक विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य के विविध पक्षों का शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक विवेचन करने के लिए शोध कार्यों का तांता बँध गया। साहित्य का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन हुआ। आज आलोचना के क्षेत्र में शोध कार्य की प्रवृत्ति ही प्रमुख है। इस प्रवृत्ति के आधार- गवेषणात्मक खोज, तारतम्यिक तुलना, मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि एवं वैज्ञानिक विश्लेषण है। डॉ० जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल ने ‘ब्रजभाषा गद्य का विकास’ पर अत्यन्त उत्कृष्ट शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया है जिसमें लुप्तप्राय ब्रजभाषा गद्य ही सहस्त्रों रचनाओं का अनुसन्धान एवं विश्लेषण किया गया है।
शुक्लोत्तर समीक्षा-पद्धति
सांस्कृतिक समीक्षा शैली शुक्लोत्तर अथवा वर्तमान युग की सबसे महत्वपूर्ण आलोचना शैली सांस्कृतिक समीक्षा शैली है। इसे कुछ सुधी लोग स्वच्छन्दतावादी एवं सौष्ठववादी समीक्षा धारा के नाम से पुकारते हैं। इसमें शुक्ल जी की कवि अथवा पुस्तक की विशेषताओं एवं अन्तःवृत्तियों को परखने वाली सूक्ष्म दृष्टि के साथ ही रचनाओं का रचनाकारों के मानसिक तथा काव्यात्मक सौन्दर्य की ऐतिहासिक और परिवर्तनशील परिस्थितियों के बीच आँका गया है। पं० नन्ददुलारे वाजपेयी के शब्दों में, “इसे हम तटस्थ और ऐतिहासिक भूमिका पर उद्भावित साहित्यिक समीक्षा कह सकते हैं। जिससे विभिन्न युगों में सांस्कृतिक और दार्शनिक आदर्शों के आकलन के साथ रचना की मनोवैज्ञानिक और साहत्यिक विशेषताओं का अध्ययन का उपक्रम है। इसी का नया निदर्शन नए समीक्षकों ने उपस्थित किया। एक प्रकार से यह शुक्ल जी के समीक्षा कार्य को आगे बढ़ाने का उपक्रम था। इसकी प्रमुख विशेषता ऐतिहासिक और परिवर्तनशील परिस्थितियों के अध्ययन द्वारा रचनाकार के विशिष्ट काव्य-मूल को प्रतिष्ठित करना है।” एक अन्य स्थान पर इस सौष्ठववादी समीक्षा की चर्चा करते हुए बाजपेयी जी ने लिखा है कि ऐसे समीक्षकों ने ‘ऐतिहासिक विकास क्रम को ध्यान में रखते हुए कवियों की विशेषताओं का विवरण दिया है। उन्होंने रचनाओं तथा रचनाकारों के मानसिक तथा काव्यात्मक सौन्दर्य को भी परखने की चेष्टा की है। कवियों के मानसिक विकास के साथ उनके रचना सौन्दर्य की प्रगति उन्होंने धारावाहिक आकलन किया।” इस प्रकार की समीक्षा के उदाहरण के रूप में पं० नन्दुलारे बाजपेयी की ‘हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी’, ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य’, ‘आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी की ‘कबीर’ और शान्तिप्रिय द्विवेदी की ‘ज्योति विहग’ तथा डॉ० जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल की ‘महाकवि सूरदास’ आदि पुस्तकें प्रस्तुत की जा सकती हैं।
आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी की समीक्षा पद्धति : मूल्यांकन
आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी इस युग के प्रमुख आलोचक हैं। शुक्ल जी की भाँति इन्होंने भी आधुनिक आलोचना साहित्य को अपनी कृतियों एवं प्रेरणा से बहुत प्रभावित किया है। “आपकी पैनी दृष्टि, मौलिक सूझ, वैज्ञानिक विवेचना प्रभावकारी शैली से युक्त होकर पाठकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है। कबीर, हिन्दी साहित्य की भूमिका, मध्यकालीन धर्म साधना आदि आपकी आलोचना की उत्कृष्ट पुस्तकें हैं। इनमें हम स्पष्ट देखते हैं कि विद्वान् आलोचक द्विवेदी जी का महान् व्यक्तित्व युग की आलोचना को रूप देने का प्रयत्न कर रहा है। कवि अथवा पुस्तक के विवेचन में द्विवेदी जी ने साहित्य तथा समाज के घनिष्ठ सम्बन्ध को दृष्टिपथ में रखा है। कबीर के क्रान्तिकारी व्यक्तित्व का उन्होंने सुन्दर विश्लेषण किया है और कबीर की विविध रूपी परिस्थितियों का विवेचन करके उनके व्यक्तित्व की भावनाओं को स्पष्ट किया है। कबीर का इतना क्रान्तिकारी व्यक्तित्व क्यों है, क्योंकि द्विवेदी जी के शब्दों में- “कबीर परम्परा विरोधी कोटियों के मिलन बिन्दु पर खड़े थे जहाँ से एक ओर हिन्दुत्व निकल जाता है और दूसरी ओर मुसलमानत्व, जहाँ एक ओर ज्ञान निकल जाता है दूसरी ओर अशिक्षा, जहाँ एक तरफ निर्गुण भावना निकल जाती है दूसरी ओर भक्ति मार्ग, जहाँ प्रशस्त चौराहे पर वे खड़े थे। वे दोनों ओर देख सकते थे और परस्पर विरोधी दिशाओं में गए हुए मार्गों के गुण-दोष उन्हें दिखाई दे जाते थे ।” इन्हीं भगवद्दत्त परिस्थितियों के कारण कबीर युग प्रवर्त्तन कर सकते थे। इस प्रकार अपनी ‘मध्यकालीन धर्म साधना’ में आचार्य द्विवेदी जी ने मध्यकालीन धर्म साधना और साहित्य का निरूपण करने से अपूर्व कुशलता दिखाई है। उनके ‘हिन्दी कविता’ नामक समीक्षात्मक लेख में भी इस प्रवृत्ति का परिचय मिलता है।
डॉ० रामेश्वरलाल खण्डेलवाल जी के शब्दों में- “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के मूर्द्धन्य आलोचकों में से हैं। अपनी नितान्त मौलिक समीक्षा-दृष्टि, प्रगाढ़ जीवनावस्था, विशद मानव-सहानुभूति व स्वच्छन्द प्रतिपादन शैली के कारण वे शुक्लोत्तर हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में अनूठी महिमा से समन्वित होकर प्रतिष्ठित हैं। उनकी समीक्षा-दृष्टि आचार्य शुक्ल की लोक-मंगल की दृष्टि का प्रायः विशद व्याख्यान कही जा सकती है। जीवन-तत्व की गवेषणा का व्याख्यान में द्विवेदी जी की गहरी रुचि व प्रीति है । इस तत्व बोध में उनके भीतर का जिज्ञासु का रूप पूरा-पूरा खिला है। जीवन तत्व की उनकी उक्त जिज्ञासा कोरी ‘ऐकेडेमिक’ नहीं है। वह मानव, मानव समाज व संस्कृति को और उनके पारस्परिक अन्तःसूत्रों को समझने में सहायक हुई है। मानव को समझने का उनका प्रयास इतना हार्दिक है कि उसकी चरम परिणति में द्विवेदी जी साहित्य में मानवतावादी मूल्यों के एक शीर्षस्थ उन्नायक के रूप में अतुलनीय समझे जाते हैं। उनके सामने संस्कृति का एक अत्यन्त ही व्यापक रूप है। स्वयं साहित्य भी, जिसे हम प्रायः आत्म-पर्यवसित वस्तु मान बैठते हैं, उनकी दृष्टि में संस्कृति का ही एक रूप, अभिव्यक्ति या शैली है। इसीलिए वे साहित्यिक-असाहित्यिक की ज्यादा छँटनी करने के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ते। जो कुछ भी सांस्कृतिक व मानवीय महत्व में गर्भित है, वह सब कुछ उच्च कोटि की हार्दिकता से प्रेरित शैली में विन्यस्त होने पर कलात्मक साहित्य ही है। द्विवेदी जी की मूल दृष्टि मानवतावादी है। वर्ग-भेद को प्रश्रय देने वाली समाजशास्त्रीय दृष्टि से उनकी मानवीय सांस्कृतिक-समाजशास्त्रीय दृष्टि सहज ही पृथक करके देखी जा सकती है। द्विवेदी जी के समीक्षा-निकर्ष के निर्माण में जीवन-तत्व, मानवता संस्कृति व समाज-विषयक चिन्तन का पूरा-पूरा समावेश है। उच्च साहित्यिक गुणों के अतिरिक्त व्यापक मानव-संवेदना, जीवनावस्था, उच्च मूल्यों के प्रति गहरी निष्ठा, जीवन-स्वीकृति, दृढ़ता-स्पष्टता, उत्कट आशा, सहज औदार्य आदि व्यक्तिगत गुणों के रस में पगी उनकी उक्त व्याख्या अत्यन्त महिमाशालिनी बन गई है।”
उनकी गनवेषणात्मक कृतियाँ- इधर द्विवेदी जी ने गवेषणात्मक कार्य भी किया है जो विशेष महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य के आदिकाल’ के अन्धकारपूर्ण प्रकोष्ठ को अपनी गणवेषणात्मक आलोचना से प्रकाशित कर दिया है और इस प्रकार हिन्दी आलोचना के एक नवीन शिक्षा दी। अब तक आलोचना ने सं० 1050 से सं० 1375 के साहित्य रचनाकाल को वीरगाथाकाल नाम दे रखा था और इसी के आधार पर उस काल के साहित्य का अध्ययन होता था, द्विवेदी जी ने आदिकालीन साहित्य के सम्बन्ध में फैली इस भ्रान्ति का निराकरण करके आदिकाल की विविध प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन कराया और अब विद्वान् आलोचक आदिकाल में और अधिक नुतनता ढूँढ़ने को अप्रसर हैं। इसी प्रकार द्विवेदी जी ने ‘नाथ सम्प्रदाय’ में नाथ पंथ की मान्यताओं को शास्त्रीय विवेचन करके गवेषणा के कार्य को विशेष योग दिया है। द्विवेदी जी का नूतन प्रयास ‘हिन्दी साहित्य : उसका उद्भव और विकास’ नामक हिन्दी साहित्य का इतिहास है जिसमें पं० रामचन्द्र शुक्ल के कार्य को आगे बढ़ाया है। इस ग्रन्थ से भी द्विवेदी जी की सांस्कृतिक अथवा सौष्ठवादी आलोचना शैली है जो शुक्ल जी की व्यावहारिक आलोचना शैली का विकास है और मनोवैज्ञानिक दृष्टि को लेकर चलती है।
स्वर्गीय पं० नन्ददुलार बाजपेयी तथा शान्तिप्रिय द्विवेदी
सांस्कृतिक समीक्षा शैली के दूसरे महान् स्तम्भ स्वर्गीय पं० नन्ददुलारे वाजपेयी हैं जिन्होंने ‘हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी’ में कुछ कवि एवं लेखकों के व्यक्तित्व एवं कृतियों की सांस्कृतिक समीक्षा की है। प्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय शान्तिप्रिय द्विवेदी ने अपने नवीन पन्थ ‘ज्योति विहग’ में कविवर सुमित्रानन्दन पन्त की सांस्कृतिक समीक्षा पद्धति से आलोचना की है। यह आलोचना शैली शुक्लोत्तर युग की सबसे प्रौढ़ शैली है। डॉ० विजयेन्द्र स्नातक ने भी इस शैली को अपने समीक्षा साहित्य में अपनाया है ।
डॉ० सत्येन्द्र- समीक्षात्मक निबन्धकारों में डॉ० सत्येन्द्र का महत्वपूर्ण स्थान है। उनके निबन्ध सिद्धान्त विषयक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी साहित्य के आदियुग, मध्ययुग और आधुनिक युग से सम्बन्ध रखते हैं। इन समीक्षात्मक निबन्धों में उन्होंने विविध शैलियाँ प्रयुक्त की हैं; यथा-दार्शनिक विचारणा शैली, ऐतिहासिक परिचयात्मक शैली ऐतिहासिक विचार-प्रधान शैली, ऐतिहासिक विवेचना युक्त शैली, शास्त्रीय विचारणा शौली व्याख्यात्मक शैली, तुलनात्मक शैली, संवादात्मक शैली, प्रभाववादी शैली, सूत्र-विकास निरूपक शैली, प्रवृत्ति निरूपक शैली, मणिकांचनावलिक शैली और अध्ययनात्मक शैली। उनके 15 महत्वपूर्ण निबन्धों का संग्रह ‘समीक्षात्मक निबन्ध’ शीर्षक से 1962 में प्रकाशित हुआ है।
डॉ० नगेन्द्र – डॉ० नगेन्द्र ने समीक्षा का प्रारम्भ का स्फुट निबन्धों में किया। उनका पहला निबन्ध हंस में 1937 में प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने पन्त पर पुस्तककार समीक्षा लिखी। उन्होंने सैद्धान्तिक के रूप में ‘साहित्य में कल्पना का उपयोग’ विषयक निबन्ध लिखा। डॉ० नगेन्द्र पर फ्रायडीन प्रभाव उनकी छायावाद की परिभाषा’ निबन्ध में स्पष्ट है। ‘साहित्य की प्रेरणा’, ‘साहित्य में आत्माभिव्यक्ति’ में भी उनकी सैद्धान्तिक समीक्षा मिलती है। सन् 1948 में उन्होंने ‘भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र’ लिखा और ‘रीतिकाव्य की भूमिका’ और ‘देव और उनकी कविता पर शोध प्रस्तुत किया।
डॉ० नगेन्द्र के लेखन की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने आलोचना धर्म का दायित्व पूर्ण रूप से निभाते हैं। उनके शब्दों में, “प्रायः प्रतिष्ठित, या ऐसा काव्य ही जिसके स्थायी मूल्य स्पष्ट लक्षित हों, मेरी आलोचना का विषय रहा है- किसी प्रकृति को या कृतिकार को स्थापित करने की स्पृहा मेरे मन में नहीं आयी।” ‘कामायनी’ और ‘देव की कविता’ की समीक्षा उनके व्यावहारिक आलोचना के मानदण्ड प्रस्तुत करते हैं। अपने दृष्टिकोण में व्यक्तिवादी होने के कारण वे सामाजिक और ऐतिहासिक सन्दर्भ तथा युग-बोध की विवेचना नहीं करते हैं। वे कवि की सौन्दर्यानुभूति के स्वरूप पर दृष्टि स्थिर कर अभिव्यक्ति की सफलता-असफलता की दृष्टि से उसका विश्लेषण करते हैं। उनके कुछ निबन्धों पर फ्रायडीय प्रभाव के कारण मनोविश्लेषणात्मक व्याख्याएँ आ गई हैं जैसे तुलसी और नारी ‘देव और कविता’ आदि में। डॉ० नगेन्द्र के आलोचक की क्षमता प्रमुख रूप से शिल्प-विवेचन से व्यक्त हुई है। किस साहित्यकार या रचना की कौन-सी विशेषताएँ महत्वपूर्ण हैं, इस सम्बन्ध में उनकी पकड़ गहरी है। ‘कामायनी’, कुरुक्षेत्र और उर्वशी की समीक्षाओं की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है। शास्त्र ज्ञान ने उनकी व्यावहारिक समीक्षा को गम्भीरता और गरिमा दी है।
डॉ० नगेन्द्र ने आलोचना में शास्त्रीय चेतना की और व्यावहारिक आलोचक के रूप में सहृदयता और छायावाद की स्वरूप – व्याख्या की और उसके शिल्प पक्ष की सूक्ष्मताओं को प्रकट किया।
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