प्रयोगवाद के नामकरण तथा स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
नामकरण तथा स्वरूप
“छायावादोत्तर काल में प्रगतिवाद के समानान्तर हिन्दी कविता में व्यक्तिवाद की परिणति घोर अहंवादी स्वार्थ प्रेरित असामाजिक, उच्छृंखल और असंतुलित मनोवृत्ति के रूप में हुई।” कविता की इस विद्रूप प्रवृत्ति का शायद अभी तक अन्तिम रूप से नामकरण नहीं हो पाया है। यही कारण है कि इसे अनेक नामों से अभिहित किया जा रहा है। प्रयोगवाद, प्रतीकवाद, प्रपद्यवाद, रूपवाद और नयी कविता इसके विविध नाम हैं। प्रपद्यवाद को प्रारम्भिक अवस्था में “नकेनवाद” की संज्ञा से अभिहित किया गया। नलिन विलोचन शर्मा, केसरीकुमार तथा नरेश मेहता ने मिलकर अपने नामों के प्रथमाक्षर के आधार पर नकेलवाद का आविष्कार किया। डा० गणपतिचन्द्र गुप्त ने ‘प्रयोगवाद’, ‘प्रपद्यवाद’ तथा ‘नई कविता’ इन तीनों नामों को उक्त काव्यधारा के विकास की तीन अवस्थाएँ स्वीकार किया है। उनके अनुसार, ‘प्रारम्भ में जब कवियों का दृष्टिकोण एवं लक्ष्य स्पष्ट नहीं था, नूतनता की खोज के लिए केवल प्रयोग की घोषणा की गई थी तो इसे प्रयोगवाद कहा गया। इसी आन्दोलन की एक शाखा ने स्वर्गीय नलिन विलोचन शर्मा के नेतृत्व में प्रयोग को अपना साध्य स्वीकार करते हुए अपनी कविताओं के लिए प्रपद्यवाद का प्रयोग किया। दूसरी ओर डा० जगदीश गुप्त एवं लक्ष्मीकांत वर्मा ने इसे अधिक व्यापक क्षेत्र प्रदान करते हुए ‘नयी कविता नाम का प्रचार किया। सम्प्रति ‘नयी कविता’ नाम का ही अधिक प्रचलन है, किन्तु इसे भी एक अस्थायी नाम मानना चाहिए।” वस्तुतः यह काव्यधारा बड़ी द्रुत गति से नाम बदलने की प्रक्रिया में तत्पर है। नई कविता के समकाल या उसके कुछ आगे-पीछे इसने ‘कविता’, ‘स्वीकृत कविता’, ‘अस्वीकृत कविता’, ‘भूखी पीढ़ी’, ‘दिगम्बर पीढ़ी’, ‘ताजी अकविता’, ‘कबीर पीढ़ी”, “ठोस कविता’ आदि अनेक अजीबोगरीब नाम धारण किए हैं। न जाने आगे चलकर किसी अकल्पनीय नाम की उद्भावना कर लो जाये ? अभी तो यह नित्य नवीन केंचुले बदलती नये नामों की खोज में व्यस्त है। राजनीतिक दलों के समान इस काव्यधारा के कवि मानी लोग अपने अहं के विज्ञापनार्थ प्रचार के माध्यम में प्रकाशित मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, अर्धवार्षिक, पत्रिकाओं- ‘प्रतीक’, ‘पाटल’, ‘निकष’, ‘संकेत’, ‘नई कविता’, ‘ज्ञानोदय’, ‘धर्म युग’, ‘कृति’, ‘लहर’, ‘निष्ठा’, ‘शताब्दी’, ‘ज्योत्स्ना’, ‘आजकल’ तथा ‘कल्पना’ आदि के द्वारा अपने-अपने घोषणा-पत्रों द्वारा (Menifestos) अपने नेतृत्व और उत्कर्ष की स्थापना में संलग्न हैं। वे अपने अनुयायियों और उनके नारों का शोर मचाने वाले व्याख्याकारों और आलोचकों की खोज में हैं।
प्रयोगवाद के स्वरूप सम्बन्ध में इस कविता-धारा के उन्नायकों ने अपने भिन्न-भिन्न मतों को प्रकट किया है। प्रयोगवाद के प्रवर्तक आज्ञेय जी का कहना है कि “जो व्यक्ति का अनुभूत है उसे समष्टि तक कैसे सम्पूर्णता में पहुँचाया जाए।” कदाचित् उनके मतानुसार, प्रयोगवाद इस कार्य की पूर्ति करता है। आगे चलकर वे लिखते हैं-“प्रयोगशील कविता में नये सत्यों या नई यथार्थताओं का जीवित बोध भी है, उन सत्यों के साथ नये रागात्मक सम्बन्ध भी और उनको पाठक या सहृदय तक पहुँचाने यानी साधारणीकरण की शक्ति है।” अन्यत्र वे लिखते हैं-“इसलिए वह (कलाकार) व्यक्ति सत्य को व्यापक सत्य बनाने का सनातन उत्तरदायित्व अब भी निबाहना चाहता है।” धर्मवीर भारती इस विषय में लिखते हैं-“प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावना के आगे एक प्रश्नचिन्ह लगा है। इसी प्रश्नचिन्ह को आप बौद्धिकता कह सकते हैं। सांस्कृतिक ढाँचा चरमरा उठी है और यह प्रश्न चिन्ह उसी की ध्वनि मात्र है।” गिरिजाकुमार माथुर ने इस सम्बन्ध में कहा है-“प्रयोगों का लक्ष्य है व्यापक सामाजिक सत्य के खण्ड अनुभवों का साधारणीकरण करने में कविता को नवानुकूल माध्यम देना जिसमें व्यक्ति द्वारा इस व्यापक सत्य का सर्वबोधगम्य प्रेषण सम्भव हो सके।” डा० जगदीश गुप्त का कहना है कि “वह नई कविता उन प्रबुद्ध विवेकशील आस्वादकों को लक्षित करके लिखी जा रही है जिसकी मानसिक अवस्था और बौद्धिक चेतना नये कवि के समान है- बहुत अंशो में कविता की प्रगति ऐसे प्रबुद्ध भावुक वर्ग पर आश्रित रहती है।” उपर्युक्त उद्धरणों को देखते हुए कहा जा सकता है कि इनमें प्रयोगवादी या नई कविता पर लगाये गये आक्षेपों का उत्तर है, उसके स्वरूप के स्पष्टीकरण करने का कोई प्रयत्न नहीं है। हाँ, इन कथनों से इतना स्पष्ट विदित हो जाता है कि इस प्रयोगवादी या नई कविता में अत्यन्त पोर वैयक्तिकता, अति बौद्धिकता और अतिरिक्त यथार्थता है और इसके साथ है शैलीगत नवीन प्रयोग। अज्ञेय जी इस सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किये हैं, यद्यपि किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है, किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयाग हुए हैं उनसे आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी नहीं छुआ गया था, जिनको अभेद्य मान लिया गया है।” अज्ञेय जी के इस कथन से स्पष्ट है कि वे शैलीगत और विषयगत एकदम विलक्षण नवीन प्रयोगों के उत्कट इच्छुक हैं। लगता है जैसे उनका नारा हो “नया न हुआ, तो क्या हुआ ?” डा० गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में- “नई कविता, नये समाज के नये मानव की नई वृतियों की नई अभिव्यक्ति, नई शब्दावली में है जो नये पाठकों के नये दिमाग पर नये ढंग से नया प्रभाव उत्पन्न करती है।” हमारा अपना विचार है कि प्रयोगवादी काव्य में शैलीगत और व्यंजनागत नवीन प्रयोगों की प्रधानता है।
कुछ लोगों के प्रयोगवाद को रूपवाद या फार्मलिज्म का पर्यायवाची माना है। उनका कहना है, वह योरुपीय साहित्य की जूठन है- “प्रथम युद्धोत्तरकालीन पाश्चात्य साहित्य में जिस तरह का व्यक्तिवाद और अनेक साहित्यिक वादों और प्रवादों की दुहाई देता हुआ व्यक्त हुआ आर उसने काव्य की भाषा, वस्तु-विन्यास और व्यंजना में विचित्र बौद्धिक प्रयोग किए, कुछ उससे मिलती-जुलती या प्रभावित हिन्दी की तथाकथित प्रयोगवादी कविता भी है।” इस कविता पर इलियट, पाउण्ड तथा फ्रायड का प्रभाव स्पष्ट है, प्रयोगवादी काव्यधारा पर योरुप के साहित्य के अनेक वादों का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है। डा० गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार, “उक्त काव्यधारा पर पश्चात्य साहित्य के प्रतीकवाद, बिम्बवाद, दादावाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद तथा फ्रायड के यौन एवं कुण्ठावाद का प्रभाव पड़ा है। “
कतिपय विद्वानों ने प्रगतिवाद तथा प्रयोगवाद की सतही समानता को देखकर इसे प्रगतिवाद का एक रूप या शाखा कहने का अनुचित प्रयास किया है। प्रगतिवाद में सामाजिकता की प्रधानता है जबकि इसमें अहंनिष्ठ घोर वैयक्तिकता है। दूसर लोगों ने प्रयोगवाद को छायावाद की वैयक्तिकता का बढ़ावा माना है किन्तु ऐसा मानना नितान्त भ्रामक एवं असंगत है। छायावादी काव्य की वैयक्तिकता में जो उदात्त लोक-व्यापक चेतना और लोक-संग्रह की भावनाएं हैं वे इन छिछोरे बालकों के समान प्रयोगवादी कवि की केंचुए के समान अपने आप में सिमटी तथा दूषित वैयक्तिकता में कहाँ हैं । वस्तुतः कविता की प्रयोगवादी धारा छायावाद के ह्रासोन्मुख काल में प्रकट हुई, जिसमें व्यक्तिवाद की परिणति घोर अहंवादी, स्वार्थप्रेरित, असामाजिक, उच्छृंखल और असंतुलित मनोवृत्ति के रूप में हुई है।
कुछ विद्वानों ने प्रयोगवाद तथा नई कविता को भिन्न-भिन्न माना है, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि ये दोनों एक ही कविताधारा के विकास की दो अवस्थायें हैं। सन् 1943 से 1953 तक कविता में जो नवीन प्रयोग हुए, नयी कविता उन्हीं का परिणाम है। प्रयोगवाद उस कविताधारा की आरम्भिक अवस्था है और नयी कविता उसकी विकसित अवस्था प्रयोगवाद के जो उन्नायक हैं वे ही नयी कविता के कर्णधार हैं और साथ-साथ इन दोनों की काव्यगत प्रवृत्तियाँ भी समान हैं।
उद्भव के कारण- प्रयोगवादी कविता के उद्भव के कारणों का उल्लेख करते हुए श्री लक्ष्मीकान्त वर्मा ने लिखा है- “प्रथम तो छायावाद ने अपने शब्दाडंबर में बहुतत से शब्दों और बिम्बों के गतिशील तत्वों को नष्ट कर दिया था। दूसरे, प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर विभिन्न भाव-स्तरों एवं शब्द-संस्कारों को अभिधात्मक बना दिया था। ऐसी स्थिति में नये भाव-बोध को व्यक्त करने के लिए न तो शब्दों में सामर्थ्य था और न परम्परा से मिली हुई शैली में। परिणामस्वरूप उन कवियों को जो इनसे पृथक थे, सर्वथा नया स्तर और नये माध्यमों का प्रयोग करना पड़ा। ऐसा इसलिए और भी करना पड़ा क्योंकि भाव-स्तर की नयी अनुभूतियाँ विषय और संदर्भ में इन दोनों से सर्वथा भिन्न थीं।” उपर्युक्त कथन के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्मा जी ने प्रयोगवादी कविता को छायावाद और प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया स्वीकार किया है। उनके अनुसार, “इस नयी कविता या प्रयोगवाद को नवीन अभिव्यक्ति के लिए नवीन माध्यम और नवीन विषय चुनने पड़े और यह एक नयी दिशा की ओर अग्रसर हुई जो कि पहले निर्दिष्ट और अज्ञात थी। वह नयी दिशा है
(क) प्रयोगवाद ज्ञात से अज्ञात प्राचीनता से नवीनता की ओर आगे बढ़ता है।
(ख) प्रयोगवादी परम्परा से स्थापित सत्य से आगे बढ़ता है।
(ग) प्रयोगवादी का लक्ष्य परम्पराओं का खंडन करना ही नहीं, अपितु साहित्य में निर्जीव तत्व के स्थान पर नये सजीव तत्व का अन्वेषण करना है।
इस सन्दर्भ में श्री रामेश्वर शर्मा तथा डा. देवराज के मतों को उपन्यस्त करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। डा० देवराज का कहना है कि “पुरानी कविता रूढियस्त एवं अरोचक हो उठी है, दूसरे, काव्य-भाषा को जन-भाषा के निकट लाना है अथवा काव्य- निबद्ध अनुभूति को जनजीवन के सम्पर्क में लाना है, बदलते हुए जीवन की नयी सम्भावनाओं के उद्घाटन के लिए अथवा नये मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए नवीन प्रयोग करने हैं। इसलिए नई शैली का अर्थ है जीवन या अनुभव जगत् के नये पहलुओं को नयी दृष्टि से देखना और उन्हें नये चित्रों, प्रतीकों, अलंकारों द्वारा अभिव्यक्ति देना।”
श्री रामेश्वर शर्मा का मत है कि “प्राचीन रूढ़ियों और संस्कारों से जब मनुष्य ऊब जाता है तब वह नवीनता की ओर उन्मुख होता है। जीवन और जगत के सौन्दर्य के मानदण्डों के समान साहित्य-सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के मानदण्ड भी बदलते रहते हैं। नयी कविता से पहले की हिन्दी कविता रूढ़िबद्ध और परम्परायस्त हो चुकी थी। नयी कविता समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल रही थी, परिणामतः उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए नयी कविता का उद्भव हुआ। पुरानी कविता नये भावों के अभिव्यंजन के लिए सक्षम थी, अततः नयी कविता को शैली क्षेत्र में नवीन प्रयोग करने पड़े। सारांश रूप में कहा जा सकता है कि प्रयोगवाद या नयी कविता का जन्म नवीन वस्तु और नवीन शैली के आग्रह के फलस्वरूप हुआ, अतः इसमें नवीन उपमानों और नवीन प्रतीकों का ग्रहण हुआ।”
प्रयोगवाद या नयी कविता के जन्म के सम्बन्ध में दिये उपर्युक्त मतों का विश्लेषण करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उनके अनुसार इस नयी कविता के जन्म के कारण हैं –
(1) प्राचीन कविता अर्थात् छायावाद तथा प्रगतिवाद की परम्पराबद्धता और रूढ़ियस्तता
(2) बदलते हुए समाज के सत्यों और मूल्यों को उद्घाटित करने के लिए नवीन अभिव्यंजना की आवश्यकता ।
(3) जीवन या अनुभव जगत् के नये पहलुओं को नई दृष्टि से देखना और उन्हें नये चित्रों, प्रतीकों, अलंकारों द्वारा अभिव्यक्त करना ।
पुरानी कविता से कदाचित् प्रयोगवादी कविता के समर्थकों का अभिप्राय है-छायावाद और प्रगतिवाद। इन दोनों ने अपने-अपने युग में प्राचीनता का विरोध किया था। आश्चर्य होता है कि साहित्यिक जीवन की बीस वर्ष की छोटी सी अवधि में ये दोनों काव्य की क्रांतिमय धारायें इतनी घिस पिट और फीकी पड़ गई कि नये कवि को नया क्षेत्र ढूंढना पड़ा। लाक्षणिकता और उपचारवक्रता छायावादी काव्य की शैलीगत विशेषताएँ हैं, जिन्हें नई कविता के प्रशंसकों ने बदलते हुए समाज के सत्यों और मूल्यों की अभिव्यंजना के लिए अक्षम बताया है। इसके अनुसार प्रगतिवादियों की अभिधा-शैली भी इस कार्य के लिए असमर्थ है। समझ में नहीं आता है कि प्रयोगवाद के आलोचक प्रवरों को निबिड़ तिमिराच्छन्न-गहन-गुहानिहित त्रिलोकातिशायिनी काव्य-जगत् की कौन सी अपूर्व सरणि अभीष्ट है और साथ-साथ इस धारा के कवि-पुंगवों ने न जाने कोलम्बस के अमेरिका के समान कुण्ठाओं और दमित वासनाओं के किस अवचेतन लोक को खोज निकाला है जिसके विकृत सत्यों और मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए त्रिशंकु के समान उन्हें नवीन सृष्टि रचनी पड़ी है। सच यह है कि इन लोगों की “प्रयोगशीलता का आडम्बर तो केवल समाजद्रोही भावनाओं और जीवन के प्रति घोर अनास्था, कुण्ठा और विद्रूपात्मक उद्गारों को एक दुरूह ओछे-तल की वचन-भंगिमा में छिपाने का उपक्रम मात्र है। “
प्रयोगवाद का उद्देश्य- छायावाद की हासोन्मुख दशा में अहंनिष्ठ घोर व्यक्तिवादी कविता धारा, जिसका प्रारम्भिक रूप प्रयोगवाद की संज्ञा से अभिहित हुआ और विकसित रूप नयी कविता के नाम से, का लक्ष्य अब कुछ-कुछ निश्चित हो चला है। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार उस लक्ष्य के चार मूल तत्व ये हैं-
(1) नवीनता अर्थात् उसमें नवीन विषयों का वर्णन नवीन शैली में किया जाता है।
(2) मुक्त यथार्थवाद – अब तक जिस अश्लीलता, नग्नता और कामुकता का काव्य में बहिष्कार किया जाता था उसका चित्रण नयी कविता में पूर्ण रुचि के साथ किया जाता है।
(3) बौद्धिकता-नया कवि भावात्मकता की अपेक्षा बौद्धिकता को अधिक महत्व प्रदान करता है।
(4) क्षणिकता- इसमें चिरन्तन एवं स्थायी भावनाओं एवं समस्याओं की अपेक्षा क्षणिक अनुभूतियों का आदर किया जाता है। नया कवि एक क्षण के आनन्द की पूर्ण अनुभूति के लिए सम्पूर्ण जीवन के सुख-साधनों को खो देना श्रेयस्कर समझता है।
प्रयोगवादी कविता का विकास- उत्तर छायावादी काव्य की उक्त धारा के विकास क्रम को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (क) प्रयोग-काल (1943-53), (ख) विकास काल (1953 से अब तक)। 1943 में अज्ञेय जी के सम्पादकत्व में विभिन्न कवियों की कविताओं का संग्रह, तारसप्तक (प्रथम भाग) प्रकाशित हुआ। इन कविताओं में प्रवृत्तिगत साम्य को अपेक्षा पारस्परिक वैषम्य अधिक है। अज्ञेय जी उक्त पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं- “उनके तो एकत्र होने का कारण हो यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी मंजिल पर पहुँचे हुए नहीं हैं। अभी राही है-राही नहीं राहों के अन्वेषी।” प्रथम तारसप्तक के कवि हैं- श्री अज्ञेय, गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर और रामविलास शर्मा। 1951 में दूसरा तार सप्तक प्रकाशित हुआ, जिसमें भावनीशंकर मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश कुमार मेहता, रघुवीर सहाय तथा धर्मवीर भारती की कविताएँ संगृहीत हैं। इनके अतिरिक्त प्रयोगवाद के प्रवर्तक श्री अज्ञेय जी ने ‘प्रतीक’ नाम की पत्रिका निकाली, जिसमें समय-समय पर प्रयोगवादियों की कविताएँ प्रकाशित होती रहीं। पटना से निकलने वाले दो पत्र ‘दृष्टिकोण’ और ‘पाटल’ प्रयोगवादी कविता के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
सन् 1945 में डा. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रयोगवादी कवियों का अर्धवार्षिक संग्रह- “नई कविता” के नाम से प्रकाशित होने लगा। इसी समय से प्रयोगवादी कविता का नाम “नई कविता” पड़ गया। तार-सप्तक परम्परा के अतिरिक्त कुछ अन्य भी प्रयोगवादी कवि हैं जिनमें प्रसिद्ध है- चन्द्रकुंवर बर्त्वाल, राजेन्द्र यादव, सूर्यप्रताप और केदारनाथ सिंह। तार सप्तक परंपरा के सभी कवि प्रयोगवादी हों, ऐसी बात नहीं है। रामविलास शर्मा और भवानीप्रसाद मिश्र पर प्रगतिवाद का पर्याप्त प्रभाव है और कदाचित यही कारण है कि रामविलास शर्मा अपने अन्य साथियों की घोर वैयक्तिकता के स्वर में स्वर न मिला सके और अन्ततोगत्वा वे प्रयोगवाद के राही न बन सके।
प्रयोगवाद या नई कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, धर्मवीर भारती, गजानन माधव मुक्तिबोध, भारतभूषण अग्रवाल, भवानीप्रसाद मिश्र, लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, नेमिचंद्र जैन, प्रभाकर माचवे शकुन्तला माथुर तथा नरेश कुमार मेहता आदि। अज्ञेय जी के अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण-भर, बावरा अहेरी, इन्द्रधनुष रौंदे हुए थे, अरी ओ करुणा प्रभामय तथा आंगन के पार द्वार उल्लेखनीय हैं। गिरिजाकुमार माथुर के काव्य-संग्रह हैं-मंजीरनाश और निर्माण, धूप के धान तथा शिलापंख चमकीले आदि । धर्मवीर भारती को प्रकाशित रचनाओं में कनुप्रिया, ठंडा-लोहा और सात गीत वर्ष, अन्धा-युग आदि उल्लेखनीय हैं। मुक्तिबोध ने भी हिन्दी साहित्य को अनेक रचनायें प्रदान की हैं जिनमें उनकी प्रगतिशीलता का स्वर सदा उच्च बना रहा है। छवि के बन्धन, जागते रहो, मुक्ति-मार्ग आदि भारतभूषण अग्रवाल की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं का संग्रह ‘गीत फरोश’ के नाम से निकला है, जिसमें एक सच्चे एवं उच्च कोटि के कवि की आन्तरिक अनुभूतियों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। शकुन्तला माथुर की सुहाग वेला तथा कूडे से भरी गाड़ी प्रसिद्ध रचनायें हैं। नई कविता के नवीन राहियों में विजय देव नारायण, कुंवर नारायण, जगदीश गुप्त, दुष्यन्त कुमार, केदारनाथ सिंह, रमेश कुन्तल मेघ तथा हरिनारायण व्यास विशेष उल्लेखनीय हैं ।
प्रयोगवादी साहित्यकारों का कहना है कि साहित्य में प्रयोग आदिकाल से होते आये हैं। आधुनिकतम प्रयोगवाद साहित्य का आरम्भ वे निराला के कुकुरमुत्ता और नये पत्ते मानते हैं। सुमित्रानन्दन पन्त प्रयोगशील कविता का जन्म छायावादी काल से मानते हैं। उनका कहना है कि प्रसाद ने प्रलय की छाया और करुणा की कछार लिख कर वस्तु तथा छंद सम्बन्धी नवीन प्रयोग आरम्भ कर दिये थे । अस्तु, प्रयोगवादी साहित्य के उद्भव से पूर्व साहित्य में जो प्रयोग हुए उनमें आन्तरिक स्वास्थ्य के विकास का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया और जीवन को ही प्रयोग रूप में ग्रहण किया गया, किन्तु आज का प्रयोगवादी साहित्य आन्तरिक महत्व को प्रधानता न देकर बाह्य परिवर्तन में ही प्रयत्नशील है। “नवीन जीवन प्रेरणा को व्यक्त करने के लिए ही कला रूपों में नये प्रयोग सफल होते हैं, प्रयोग के लिए प्रयोग करके नहीं।” प्रयोगवादी कविता में प्रयुक्त प्रतीकों में लक्षणा और व्यंजना नामक शब्द-शक्तियों का प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है। इन प्रतीकों को केवल नये सौन्दर्य और आधुनिक बोध से सम्पन्न कविता का लेखक ही समझ सकता है। इन प्रतीकों में साधारणीकरण तथा भाव संप्रेषणीयता की मात्रा का सर्वथा अभाव है। नई कविता के प्रतीक केवल प्रतीकों के लिए आते हैं। इनका बोधगम्यता आदि से कोई सरोकार नहीं है। कला और साहित्य के क्षेत्र में नये प्रयोगों, प्रतीकों और विम्बों की सार्थकता तभी है जब वे सत्योन्मुख, जीवनोन्मुख, शिवोन्मुख और सुन्दरोन्मुख हो ।
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