हिंदी व्याकरण

रस – परिभाषा, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण, Ras in Hindi

Ras (रस)- रस क्या होते हैं? रस की परिभाषा

रस का सीधा संबंध आनंद से है। काव्य की अनुभूति से पाठक / श्रोता को जो असीम एवं अलौकिक आनंद (सुख, आस्वाद) प्राप्त होता है, वही रस कहलाता है। रस को काव्य की आत्मा भी कहा गया है। कहा गया है-‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ अर्थात रस से युक्त वाक्य का नाम ही काव्य है। रस अलौकिक है। वह अखंड-स्वप्रकाशनंद और चिन्मय होने से ब्रह्मास्वाद सहोदर है। वह लोकोत्तर चमत्कार है। रस में सुंदर एवं उदात्त विशिष्ट भाव होते हैं। रस की अनुभूति सामान्य लौकिक अनुभूति से भिन्न होती है। काव्यरस सामान्य इंद्रियज भौतिक आनंद से भिन्न सात्विक, परिष्कृत एवं उदात्त मानसिक भावानन्द होता है।

काव्य रस की अनुभूति हृदय की लौकिक राग-द्वेषपूर्ण दशा में नहीं होती अपितु व्यक्तिगत संबंधों, लौकिक योगक्षेम तथा राग-द्वेष से परे हृदय की सत्वोद्रेक अवस्था में होती है। डॉ० नगेंद्र के अनुसार-“रस न प्रत्यक्ष है न परोक्ष, न कार्य है, न ज्ञाप्य। सभी तरह की लौकिक परिभाषाओं से मुक्त होने के कारण वह अनिर्वचनीय है और अलौकिक है।” रस योगी की आत्मानंद विश्रांति या आत्म-शांति से काव्य-रस भिन्न है। वास्तव में, वैयक्तिक अनुभूति होते हुए भी रस समष्टिगत होता है। रस सामाजिक है। इसका अनुभव सभी सहृदय मानव समान रूप से कर सकते हैं।

आचार्य भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रस को परिभाषित करते हुए कहा है-

विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पतिः

अर्थात विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भाव के परस्पर संयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है।

अन्य विद्वानों के अनुसार रस की परिभाषा

आचार्य धनंजय के अनुसार रस की परिभाषा

विभाव, अनुभाव, सात्त्विक, साहित्य भाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से आस्वाद्यमान स्थायी भाव ही रस है।

साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रस की परिभाषा देते हुए लिखा है:

विभावेनानुभावेन व्यक्त: सच्चारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादि: स्थायिभाव: सचेतसाम्॥

डॉ. विश्वम्भर नाथ के अनुसार रस की परिभाषा:

भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम ही रस है।

आचार्य श्याम सुंदर दास के अनुसार रस की परिभाषा:

स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से आस्वादन करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक के हृदय में रस रूप में उसका आस्वादन होता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रस की परिभाषा-

जिस भांति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है। उसी भांति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।

रस को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है-

1. सोभित कर नवनीत लिए

घुटुरुन चलत रेनु तन मण्डित मुख दधि लेप किए।      – सूरदास

2. एक भरोसो एक बल एक आस विस्वास।

एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास ।।     – तुलसीदास

3. कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।

भरे मौन में करत हैं नैननु ही सौं बात ।।          – बिहारी

4. जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिवर कर हीना।

अस मम जीवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जियावै मोही ।।   – तुलसीदास

5. ऐल फैल खैल मैल खलक में गैल-गैल,

गजन की रेल-पेल सैल उलसत हैं।

तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि,

थारा पर पारा पारावार यों हलत है ।।  – भूषण

उपर्युक्त उदाहरणों में पाठक को भिन्न-भिन्न भावों की अनुभूति होती है और प्रत्येक अनुभूति की परम अवस्था है-उस अनुभव का आनंद । यही आनंद साहित्यिक भाषा में रस कहलाता है। इन उदाहरणों में निम्नलिखित भावों की निष्पत्ति हुई है-

– पहले उदाहरण में श्री कृष्ण के बाल्यरूप का मनोहारी चित्रण हुआ है। बाल्यावस्था में बालक की प्राकृतिक सुंदरता उसके रूप को निखार देती है। अतः इन पंक्तियों में वात्सल्य रस की अनुभूति होती है।

-दूसरे उदाहरण की पंक्तियों में तुलसीदास की ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। वे चातक को प्रेम और भक्ति का परम आदर्श मानते हैं और स्वयं को राम का भक्त कहा है। इन पंक्तियों में हमें ईश्वर के प्रति भक्ति भाव की अनुभूति होती है। अतः यहाँ भक्ति या निवेद रस की निष्पत्ति हुई है।

-तीसरे उदाहरण में बिहारी जी ने नायक-नायिका के हाव-भाव या चेष्टाओं का सूक्ष्मता से वर्णन किया है कि किस प्रकार वे भरे हुए भवन में आँखों से ही बातें कर रहे हैं। इन पंक्तियों से हमें प्रेम की गहनता की अनुभूति होती है। इसमें श्रृंगार रस है।

-चौथे उदाहरण में तुलसीदास राम के करुण विलाप का वर्णन करते हैं कि जिस समय लक्ष्मण को शक्ति वाण ने मरणासन्न कर दिया था उस समय श्री राम ने विलाप करते हुए कहा कि हे भाई तुम्हारे बिना मेरी वही गति है जो पखविहीन पक्षी की, फणिविहीन साँप की और सूँड़ के बिना हाथी की हो जाती है। इन पंक्तियों को पढ़कर हृदय में करुणा की भावना का उदय होता है। इसीलिए यहाँ करुण रस है।

– पाँचवें उदाहरण में भूषण युद्ध का सजीव वर्णन करते हुए वीर रस की अनुभूति करा रहे हैं कि किस प्रकार जब सेना पूरे जोश में वीरता की भावना से परिपूर्ण होकर प्रयाण करती है तो उस समय उठने वाली धूल के बवंडर में सूर्य एक छोटे तारे जैसा टिमटिमाता नजर आता है तथा पृथ्वी में चारों ओर खलबली मच जाती है। इन पंक्तियों से हमारे भीतर वीरता की भावना की निष्पत्ति होती है। इस दृष्टि से इसमें वीर रस का उद्गमन हुआ है।

उपर्युक्त परिचर्चा के प्रकाश में ‘रस’ को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-

परिभाषा- जो काव्य के आनंद का आस्वाद कराए, वही ‘रस’ है। यह ऐसा प्रवाहमान है कि एक हृदय से दूसरे हृदय तक प्रवाहित होता रहता है।

रस के अंग

रस के अंग

रस के अंग

1. स्थायी भाव

रस का आधार स्थायी भाव है। यह सहृदयों में संस्कार रूप से विद्यमान रहता है। ये भाव हमारे हृदय में सदैव जागृत या सुप्त अवस्था में रहते हैं। अपने संचरण काल में स्थायी भाव अनेक (संचारी) भावों को भी अपने में समा लेता है और परिस्थिति के अनुसार ये भाव जागृत होते रहते हैं।

रसों की संख्या के बारे में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं-

1. आचार्य भरत ने आरंभ में रसों की संख्या आठ बताई।

2. आचार्य उद्भट ने इसमें एक शांत रस की परिकल्पना की। इससे रसों की संख्या नौ हो गई।

3. आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य को भी एक अलग रस की संज्ञा दी। पहले यह रस शृंगार के तहत ही गिना जाता था।

4. आचार्य रूपगोस्वामी ने शृंगार के अंतर्गत आने वाले भक्ति रस को एक पृथक रस में गिनने का परामर्श दिया।

इन सभी आचार्यों की मानें तो वर्तमान में साहित्य में नौ की जगह ग्यारह रस हैं, जो इस प्रकार हैं-शृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, भयानक, करुण, वीभत्स, शांत, अद्भुत, वात्सल्य एवं भक्ति रस

11 स्थान स्थायी भाव ही, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से जाग्रत और पुष्ट होकर भिन्न-भिन्न रसों में परिणत हो जाते हैं। यथा- ‘रति’ स्थायी भाव शृंगार रस में ‘शोक’ करुण रस में ‘क्रोध’ रौद्र रस में ‘भय’ भयानक रस, ‘हास’ हास्य रस, ‘घृणा’ वीभत्स रस, ‘विस्मय’ अद्भुत, ‘शम’ या ‘निवेद’ स्थायी भाव शांत रस. ‘शिशु प्रेम’ वात्सल्य तथा ‘ईश्वर प्रेम’ भक्ति रस में परिणत हो जाते हैं।

स्थायी भाव व्यापक प्रमुख और प्रबल भाव होते हैं। स्थायी भावों के आश्रय वे रसत्व गुण रखते हैं, जो स्थायी भाव को हो पुष्ट करते हैं।

काव्य में जिन भावों की अनुभूति आचार्यों को व्यापक विस्तृत प्रबल, उदात्त और प्रमुख रूप में संभव प्रतीत हुई. उन्हें  स्थायी भाव माना गया और शेष संचारी भाव कहे जाते हैं।

स्थायी भाव एवं रस का संबंध इस तालिका द्वारा समझा जा सकता है-

क्र० सं०

सहज या मूल प्रवृत्ति

स्थायी भाव

रस

1. बचने की प्रवृत्ति भय भयानक रस
2. युद्ध-प्रवृत्ति, अहमन्यता, नव-निर्माण उत्साह (गर्वोत्साह, कर्मोत्साह, युद्धोत्साह), साहस वीर रस
3. शिशु-पालन-रक्षण की प्रवृत्ति वत्सल वात्सल्य रस
4. प्रिय-पालन-रक्षण एवं काम-प्रवृत्ति रति (दांपत्य-प्रेम) शृंगार रस
5. त्वरित-तीक्ष्ण, आवेगयुक्त प्रतिक्रिया क्रोध रौद्र रस
6. दीन-हीन-पालन एवं रक्षण प्रवृत्ति शोक करुण रस
7. जुगुप्सा, भद्दी, घिनौनी, अप्रिय वस्तु को देखना घृणा वीभत्स रस
8. निर्वेद या वैराग्य प्रवृत्ति शम शांत रस
9. जिज्ञासा-उत्सुकता विस्मय अद्भुत रस
10. हास्य हास हास्य रस
11. अधीनता, शरणागति, प्रार्थना, दैन्यता भगवत् प्रेम भक्ति रस

अतः स्थायी भाव के मूल लक्षण हैं-

1. भाव का सहृदय मात्र के लिए स्पृहणीय होना अर्थात भाव ऐसे रूप में प्रकट हो सके कि सबको वांछित हो, ग्राहय हो और सबकी आनंदानुभूति का विषय बन सके। आस्वाद्यता या स्पृहणीयता, प्रेषणीयता अथवा उदात्त रूप में सर्वग्राहय अनुभूति स्थायी भाव की कसौटी है।

पंडित जगन्नाथ के अनुसार जिस भाव का स्वरूप एक जैसे या भिन्न प्रकार के भावों से प्रभावरहित हो और तब तक उस रस का आस्वाद बना रहे जब तक वह मौजूद हो तो वह स्थायी भाव कहलाता है।

2. स्थायी भाव की दूसरी कसौटी है, उसका व्यापक एवं उत्कट रूप में स्वतंत्रता से प्रकट हो सकना। जिस भाव के स्वतंत्र विषय पाठक के सामने व्यापक रूप में प्रस्तुत हो सकें, जो भाव विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों की अनेक तरंगों से पुष्ट होकर हृदय पर उत्कट प्रभाव उत्पन्न करे वही भाव स्थायी भाव की संज्ञा पा सकता है।

अतः सरल शब्दों में कहा जा सकता है

परिभाषा- जो भाव व्यक्ति-चित्त में सदैव विद्यमान रहते हों और परिस्थितिनुसार उद्भूत हो, उन्हें ‘स्थायी भाव’ कहा जाएगा।

2. विभाव

स्थायी भाव को रस रूपता प्रदान करने में विभाव ही मूल कारण है। इसे इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-

परिभाषा- जो भाव व्यक्ति चित्त के स्थायी भावों को निष्पत्ति देते हैं या अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं, वे ‘विभाव’ कहलाते हैं।

भरतमुनि ने विभाव शब्द को कारण निमित्त हेतु इत्यादि का पर्याय कहा है।

उदाहरण-

1. मैं ठादी विरहन मग जोऊ, प्रियतम तुमरी आस।

छोड़े गेह नेह लगि तुम सो भई चरन लवलीन।

ताला बेलि होति घर भीतर जैसे जल बिन मीन।     – कबीर

2. जासों निर्दिया न आवै, हो नहि तन अलसाय।

पिया के बचन प्रेम सागर हो, चलू चली हो नहाय।।  – कबीर

3. सिर पै बैठ्यो काग, आँख वोड खात निकारत।

खेचत जीनहिं स्यार, आनंद उर धारत।।   – भारतेंदु हरिश्चंद्र

4. नैहर में दाग लगाय आय चुनरी

X       X      X        X       X

पहिरी ओढ़िकै चली ससुरिया, गाँव के लोग कहें बड़ी फूहरी।

कहँ कबीर सुनो भई साधी, बिना सतगुरु कबहू नहिं सुधरी।।   – कबीर

5. अर्ध राति गई कपि नहिं आयठ। राम उठाई अनुज उर लायउ।

मम हित लागि तजेहु पितु माता सहेहु बिपिन, हिम, आतप वाता।

उपर्युक्त उदाहरणों में स्थायी भाव को जाग्रत करने वाले कारणों की बात की गई है। इन्हें ही विभाव कहते हैं। यथा-

पहले उदाहरण में ईश्वर और जीवात्मा का संबंध दांपत्य प्रेम के माध्यम से बताया गया है। अतः स्थायी भाव-‘रति’ है तथा विरहावस्था को उद्बुद्ध करने वाले कारण अर्थात विभाव घर-बार छोड़ना, वियोग में मछली की भाँति तड़फना आदि हैं।

दूसरे उदाहरण में भी जीवात्मा और परमात्मा का संबंध दांपत्य प्रेम के माध्यम से बताया गया है। अतः स्थायी भाव ‘रति’ है तथा विभाव- प्रिय के संसर्ग में आलस्य और निद्रा को त्यागकर मिलन का सुख प्राप्त करना जैसी चेष्टाएँ हैं।

तीसरे उदाहरण में मरघट या युद्ध स्थल का चित्रण किया गया है। अतः स्थायी भाव-‘जुगुप्सा’ है तथा कौओं तथा सियारों द्वारा मांस का भक्षण करना विभाव है।

चौथे उदाहरण में संसार की मोहमाया को त्यागकर सतगुरु की कृपा से लोभ, मोह रहित जीवन को जीने को बात की गई है। अतः यहाँ स्थायी भाव ‘वैराग्य’ है; तथा चुनर रूपी शरीर परलोक रूपी ससुराल तथा सतगुरु रूपी धोबी विभाव हैं।

पाँचवें उदाहरण में लक्ष्मण पर शक्ति के प्रहार से उनका मूच्छित होना तथा राम का उनको लेकर चिंतित होने के प्रसंग को बताया गया है। अतः यहाँ स्थायी भाव- ‘शोक’ है तथा लक्ष्मण का मूच्छित शरीर, अर्ध रात्रि का समय विभाव है।

अतः उपर्युक्त उदाहरणों में क्रमश: शृंगार (वियोग) रस. शृंगार (संयोग) रस, वीभत्स रस, शांत रस तथा करुण रस की अभिव्यक्ति हुई है।

विभाव के पक्ष

1. आलंबन विभाव- आलंबन अर्थात वह मूल विषय वस्तु या व्यक्ति जो स्थायी भाव को जाग्रत करने का मूल भाव हो, आलंबन कहलाता है।

2. आश्रय- आश्रय अर्थात वह व्यक्ति या वस्तु जिसमें स्थायी भाव आलंबन के माध्यम से जाग्रत होता है।

3. उद्दीपन- उद्दीपन अर्थात प्रोत्साहित करने वाला या स्थायी भाव को उत्प्रेरित करने वाला तत्व उद्दीपन कहलाता है।

विभाव के तीनों पक्षों को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से भलीभांति समझा जा सकता है-

1. और देखा वह सुंदर दृश्य,

नयन का इंद्रजाल अभिराम

कुसुम-वैभव में लता समान,

चद्रिका से लिपटा घनश्याम

हृदय की अनुकृति बाह्य उदार,

एक लंबी काया, उन्मुक्त

मधु पवन क्रीड़ित, ज्यों शिशु साल,

सुशोभित हो सौरभ संयुक्त ।               – जयशंकर प्रसाद

यहाँ स्थायी भाव रति की अभिव्यक्ति हुई है, अतः शृंगार रस है। इन पंक्तियों में आश्रय विभाव मनु है, आलंबन विभाव श्रद्धा है तथा फूलों से भरी सुकुमार लता जैसी लगना, लंबा शरीर, शाल के छोटे पौधे के समान सुगंधित काया, जिसमें वासंती बयार अठखेलियाँ करते हुए सुगंध फैला रहा है, उद्दीपन विभाव है।

2. कहा आगंतुक ने सस्नेह

अरे, तुम इतने हुए अधीर

हार बैठे जीवन का दाँव

जीतते मरकर जिसको वीर।

तप नहीं केवल जीवन सत्य

करुण यह क्षणिक दीन अवसाद ।

तरल आकांक्षा से है भरा

सो रहा आशा का आह्लाद ।।     – जयशंकर प्रसाद

यहाँ निराश मनु को श्रद्धा आशावान बनाती है अतः यहाँ स्थायी भाव निर्वेद है और शांत रस की निष्पत्ति हुई है। मनु आश्रय विभाव है, श्रद्धा आलंबन विभाव है तथा श्रद्धा के प्रेरक कथन उद्दीपन विभाव हैं।

3. नयनों का नयनों से गोपन-प्रिय संभाषण,

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन;

काँपते हुए किसलय, झरते पराग- समुदाय

गाते खग नव-जीवन परिचय तरु मलय-वलय,

ज्योति प्रपात स्वर्गीय-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय;

जानकी-नयन कमनीय प्रथम कंपन तुरीय       – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

यहाँ राम की शक्ति पूजा में राम-रावण युद्ध के दौरान राम को होने वाली सीता के साथ प्रथम मिलन की स्मृति का चित्रण किया गया है। स्थायी भाव रति है अतः शृंगार रस है।

इन पंक्तियों में राम आश्रय विभाव, सीता आलंबन विभाव एवं प्राकृतिक वातावरण उद्दीपन विभाव को व्यक्त कर रहा है।

4. कर्ण और अर्जुन की जोड़ी,

ने मिलकर युद्ध दिशा थी मोड़ी,

नहीं किसी में न्यून पराक्रम,

नहीं किसी में जीवट थोड़ी।

यहाँ स्थायी भाव युद्धोत्साह है अतः वीर रस की अभिव्यक्ति हुई है।

इन पंक्तियों में कर्ण एवं अर्जुन दोनों ही कभी आश्रय विभाव हैं और कभी आलंबन विभाव। युद्ध के दौरान दिखाया जाने वाला पराक्रम उद्दीपन विभाव है।

5. ममता मूर्ति, अहिंसा-प्रतिमा,

स्थविर शांत थे, शांत पवन था।

चंचल कहीं नहीं था कुछ भी,

शांत शब्द था, शांत गगन था।

यहाँ शांत वातावरण की अभिव्यंजना है। स्थायी भाव निर्वेद है अतः शांत रस की अभिव्यक्ति हुई है।

इन पंक्तियों में अशोक आश्रय विभाव है; स्थविर अर्थात भिक्षु आलंबन विभाव है तथा शांत वातावरण को व्यक्त करने वाला “गगन” उद्दीपन विभाव है।

3. अनुभाव

अनुभाव का शाब्दिक अर्थ है-पीछे आने वाले भाव ।

अमरकोश के अनुसार- अनुभावो भावबोधकः’ अर्थात अनुभाव भावों का बोध कराने वाले तत्व हैं। अनुभाव को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से भलीभांति समझा जा सकता है-

1. वतरस लालच लाल की मुरली धरि लुकाय।

सौंह करें भौहनु हँसे, देन कहै कटि जाय।       – बिहारी

इन पंक्तियों में राधा या गोपियों द्वारा भौंहों से हँसने का भाव व्यक्त किया जाना अनुभाव है।

2. सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ?

झुरि-झुरि पीजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह ।।     – जायसी

यहाँ नागमती का सूख-सूखकर काँटे के समान होकर विरह की तीव्रतम अभिव्यक्ति करना अनुभाव है।

3. राजीव लोचन स्रवत जल, तन ललित पुलकावलि बनी।

अति प्रेम हृदयं लगाई अनुजहि मिले तब त्रिभुअन धनी ।।     – तुलसीदास

यहाँ श्री राम के भरत मिलाप का उल्लेख है। भरत को देखकर राम जी के आँखों से अश्रुओं का बहना तथा शरीर में पुलकित भावों का संचरित होना अनुभाव है।

4. बर दंत की पंगति कुंद कली, अधराधर पल्लव खोलन की।

चपला चमकें घन-बीच जगै छवि, मोतिन माल अमोलन की।    – तुलसीदास

यहाँ श्री राम की मधुर मुसकान तथा चितवन अनुभाव है।

5. और देखा वह सुंदर दृश्य,

नयन का इंद्रजाल अभिराम

कुसुम-वैभव में लता समान

चंद्रिका से लिपटा का घनश्याम

यहाँ मनु का श्रद्धा के सौंदर्य को अपलक निहारना अनुभाव है।

अतः अनुभाव को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-

परिभाषा – वे भाव जो विभाव का प्रत्यक्ष बोध कराते हैं, ‘अनुभाव’ कहलाते हैं।

अनुभाव काव्यगत आश्रय के ही प्रतिक्रिया रूप अंगादि व्यापार होते हैं। ये ऐसे काव्यगत आश्रय के व्यापार व्यवहार हैं. जिनसे हमारा सीधा तादात्म्य हो जाता है।

अनुभाव के भेद

भरत मुनि ने अनुभाव के तीन भेद बताए हैं- ‘वागगसत्व’ अर्थात वाचिक आगिक तथा सात्विक। भानुदत्त आदि परवर्ती आचार्यों ने पृथक नाम देते हुए चार भेद बताए- कायिक, मानसिक, आहार्य तथा सात्विक । शारदातनय ने अपने चार भेदों का नाम रखा- चित्तारंभक, गात्रारंभक, वागारंभक, बुद्द्यारंभक

अतः अनुभाव के भेद इस प्रकार है-

1. वाचिक, 2. सात्विक, 3. कायिक, 4. मानसिक 5. आहर्य

1. वाचिक- आश्रय की वाणी से जो कुछ व्यक्त होता है, वह वाचिक या वागारंभक अनुभाव कहलाता है। वाणी के रूप में प्रकट हुए अनुभाव शरीर की स्थूल चेष्टाओं की अपेक्षा सूक्ष्म और अधिक व्यापक होते हैं।

2. सात्विक शरीर की अत्यंत सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्त करने वाले भाव सात्विक अनुभाव कहलाते हैं। इसे  शारदातनय ने चित्तारंभक कहा है। ये आठ प्रकार के होते हैं-

(i) स्तंभ

(ii) स्वेद

(iii) रोमांच

(iv) स्वरभंग

(v) वेपथु (कंप)

(vi) वैवर्ण्य (चेहरे का रंग बदलना)

(vii) अश्रु

(viii) प्रलय (सुधबुध खोना, चेतनाशून्य होना या निष्चेष्ट होना )।

3. कायिक- शरीर की स्थूल चेष्टाएँ; जैसे-संकेत करना, मस्तक झुकाना, चीखना, भागना, भय में क्रोध में पात्र को मारना, युद्ध में तलवारादि शस्त्र चलाना आदि आगिक चेष्टाएँ कायिक अनुभाव कहलाते हैं। शारदातनय ने इन्हें गात्रारंभक कहा है।

4. मानसिक- आंतरिक स्तर पर उत्पन्न हुए विभिन्न भावों को मानसिक अनुभाव कहते हैं।

5. आहार्य- अभिनय आदि या काव्य में भी किसी विशेष अभिप्राय से वेशभूषा बदलना आहार्य अनुभाव कहा गया है; जैसे-जासूसी करने में वेश बदलना, कपटी शत्रु को नारी आदि का वेश बदलकर मारना आदि। बुद्धि योजना के कारण शारदातनय ने इन्हें बुद्धयारंभक अनुभाव कहा है।

4. संचारी भाव

संचारी का अर्थ है-संचरण करने वाला अर्थात जो एक स्थान पर स्थिर न होकर सदैव प्रकट या लुप्त होते रहते हैं।

संचारी भाव काव्यगत उस आश्रय के ही भाव होते हैं, जिससे तादात्म्य और साधारणीकरण के कारण सहृदय भी रसानुभूति प्राप्त करता है। काव्यगत आश्रय के अतिरिक्त ये संचारी भाव काव्य में कवि आश्रय के संचारी रूप में भी वहाँ प्रकट होते हैं जहाँ कवि अपनी प्रतिक्रिया शब्दों द्वारा प्रकट करता है।

मानव की प्रत्येक भाव-वृत्ति जब किसी स्थायी भाव को पुष्ट करने हेतु रचना में प्रकट होती है, तो वह साहित्य शास्त्र के पारिभाषिक शब्द ‘संचारी’ या ‘व्यभिचारी’ भाव की संज्ञा पाती है।

परिभाषा- वे अस्थायी भाव जो सभी रसों में संचरण करते हैं, ‘संचारी भाव’ कहलाते हैं।

मनुष्य की वृत्तियों का वैसे तो कोई अंत नहीं है फिर भी काव्यशास्त्रीय आचार्यों ने इनकी संख्या 33 बताई है-

1. निवेद 2. निद्रा 3. स्मृति 4. मरण या मूच्छा
5. विषाद 6. चिंता 7. दैन्य 8. असूया या ईर्ष्या
9. मति 10. क्रीड़ा या लज्जा 11. ग्लानि 12. शंका
13. उग्रता 14. व्याधि 15. वितर्क 16. उन्माद
17. मोह 18. हर्ष 19. चपलता 20. विबोध
21. दुराव-छिपाव 22. मद 23. श्रम 24. आलस्य
25. चिंता 26. धृति 27. आवेग 28. जड़ता
29. गर्व 30. औत्सुक्य 31. अपस्मार अर्थात स्मृति न रहना 32. स्वप्न
33. अमर्ष या क्रोध

उदाहरण-

1. अविराम आँखों से बरसता आँसुओं का मेह है।

है लटपटाती चाल उनकी, छटपटाती देह है।

गिरकर कभी उठते यहाँ, उठकर कभी गिरते वहाँ।

घायल हुए से घूमते हैं, वे अनाथ जहाँ-तहाँ।          -मैथिलीशरण गुप्त

-यहाँ विषाद, उन्माद, मूर्च्छा, व्याधि आदि संचारी भाव हैं।

2. सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,

हर धनुर्भंग को पुनवर ज्यों उठा हस्त,

फूटी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर,

फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर

यहाँ स्मृति, हर्ष, गर्व, मति, आशा जैसे संचारी भाव अभिव्यक्त हुए हैं।

3. नाते उस दिन जुड़े प्यार के प्रकृति पुरुष का आलिंगन था।

जैसे बाधाहीन पलों का पर्व, नहीं कोई बंधन था।

देवी और अशोक नहा मधुमास पर्व की रजनीगंधा।

रूप आरती-सी करता था, जब ऐसे में उतरी संध्या।

-यहाँ मद, आलस्य, क्रीड़ा, चपलता, हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी भाव हैं।

4. सबन के ऊपर ही ठाठो रहिबे के जोग

ताहि खरो कियो छ हजारिन के निथरे।

जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि मन

कीन्हो न सलाम, न बचन बोले सियरे।।   -भूषण

यहाँ ग्लानि, असूया, मद, अमर्ष, उग्रता आदि संचारी भाव हैं।

5. कह हुए मौन शिव, पवन तनय में भर विस्मय,

सहसा नभ में अंजना रूप का हुआ उदय।      – सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

यहाँ औत्सुक्य, जड़ता, हर्ष जैसे संचारी भाव हैं।

रस के प्रकार,Ras Ke Bhed

  1. श्रृंगार रस
  2. हास्य रस
  3. रौद्र रस
  4. करुण रस
  5. वीर रस
  6. अद्भुत रस
  7. वीभत्स रस
  8. भयानक रस
  9. शांत रस
  10. वात्सल्य रस
  11. भक्ति रस

विस्तार से Hindi में Ras

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Ras in Hindi – Index

हिन्दी में रस की संख्या नौ हैं – वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति रस को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सलता तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं। विवेक साहनी द्वारा लिखित ग्रंथ “भक्ति रस- पहला रस या ग्यारहवाँ रस” में इस रस को स्थापित किया गया है। इस तरह हिंदी में रसों की संख्या 11 तक पहुंच जाती है। Hindi में रस निम्नलिखित 11 Ras हैं-

  1. श्रृंगार रस – Shringar Ras in Hindi
  2. हास्य रस – Hasya Ras in Hindi
  3. रौद्र रस – Raudra Ras in Hindi
  4. करुण रस – Karun Ras in Hindi
  5. वीर रस – Veer Ras in Hindi
  6. अद्भुत रस – Adbhut Ras in Hindi
  7. वीभत्स रस – Veebhats Ras in Hindi
  8. भयानक रस – Bhayanak Ras in Hindi
  9. शांत रस – Shant Ras in Hindi
  10. वात्सल्य रस – Vatsalya Ras in Hindi
  11. भक्ति रस – Bhakti Ras in Hindi

1. शृंगार रस (Shringar Ras in Hindi)

 जब आपके मन में प्रेम की भावना जगती है इसका वर्णन शृंगार रस है। श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति हैं। नायक और नायिका का प्रेम होकर श्रृंगार रस रूप मे परिणत होता हैं।
उदाहरण –
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।

श्रंगार के दो भेद होते हैं

  • संयोग श्रृंगार – जब प्रेमी और प्रेमिका के बीच परस्पर मिलन,  स्पर्श आदि तब संयोग शृंगार रस होता है।
    • उदाहरण – बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
    • सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय।
  • वियोग श्रृंगार- जहां प्रेमी और प्रेमिका के बिछड़ने का वर्णन हो उसे वियोग श्रृंगार कहते है।

उदाहरण –राम के रूप निहारति जानकी, कंगन के नग की परछाई।

याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारत नाहीं।।”

2. हास्य रस (Hasya Ras in Hindi)

जब किसी व्यक्ति या वास्तु को देखकर असाधारण बात, कपडे  देखकर मन में हस भाव उत्पन्न  हो उसे हास्य रस कहते है।

उदाहरण –

काहू न लखा सो चरित विशेखा । जो सरूप नृप कन्या देखा ।
मरकट बदन भयंकर देही। देखत हृदय क्रोध भा तेही ॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि-पुनि उकसहिं अरु अकुलाही। देखि दसा हर-गन मुसुकाही ॥

3. रौद्र रस (Raudra Ras in Hindi)

जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति किसी दूसरे पक्ष या दूसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन  कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव क्रोध होता है।

उदाहरण –

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुवादी बालक वध जोगू॥
बाल विलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनहार भा साँचा॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
उत्तर देत छोडौं बिनु मारे। केवल कौशिक सील तुम्हारे ॥
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ भ्रम थोरे ॥

4. करुण रस (Karun Ras in Hindi)

 इसमें किसी अपने से दूर चले जाने का जो दुख उत्पन्न होता उसे करूँ रस कहते है। वियोग  शृंगार में भी दुःख का भाव है लेकिन उसमे दूर जाने के बाद दुबारा मिलने की आशा रहती  है।

उदाहरण –

रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के।
ग्लानि, त्रास, वेदना – विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके।

5. वीर रस (Veer Ras in Hindi)

वीरता का कोई चित्र  या मन में जोश भर देने वाली कोई काव्य रचना जिससे उत्साह भाव व्यक्त हो  और कुछ वीरता पूर्ण कृत्य करने का मन हो| वीर रस चार प्रकार के देखे जाते हैं –

  1. युद्धवीर
  2. दानवीर
  3. दयावीर
  4. धर्मवीर

उदाहरण – (Ras Ke Udaharan)

रस बताइए मैं सत्य कहता हूं सखे सुकुमार मत जानो | मुझे यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा मानो मुझे||

6. अद्भुत रस  (Adbhut Ras in Hindi)

अद्भुत रस का स्थायी भाव विस्मय है। विस्मय का साधारण रूप आश्चर्य से है। अर्थात किसी ऐसी चीज को देखकर जब आश्चर्य का भाव जागृत होता है वहां अद्भुत रस होता है।

उदाहरण के लिए समझे तो नट समूह के लोग कई ऐसे करतब करते हैं , जो सामान्य व्यक्ति के लिए दुष्कर होते हैं।

जैसे

  • रस्सियों पर दौड़ना ,
  • दोनों पैर आसमान की ओर करके हाथों के बल चलना या
  • तलवार अथवा डंडों से ऐसे करता प्रस्तुत करना जिसको देखते दर्शक दांतों तले अंगुली दबाने पर विवश हो जाता है।

7. वीभत्स रस (Veebhats Ras in Hindi)

जब  घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके बारे में विचार या उनके बारे  में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा वीभत्स रस कि पुष्टि करती है। तुलसीदास ने रामचरित मानस के लंकाकांड में युद्ध  में कई जगह इस रस का प्रयोग किया है।

उदाहरण- मेघनाथ माया के प्रयोग से वानर सेना को डराने के लिए कई वीभत्स कृत्य करने लगता है, जिसका वर्णन करते हुए तुलसीदास जी लिखते है।
‘विष्टा पूय रुधिर कच हाडा
बरषइ कबहुं उपल बहु छाडा’

8. भयानक रस (Bhayanak Ras in Hindi)

जब किसी विनाशकारी कृत्य को देख कर आपके रोंगटे खड़े हो जाये और हृदय में बेचैनी से भय का स्थायी  भाव उत्पन्न होता है उसे भयानक रस कहते है।
उदाहरण –
अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल॥
कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार ॥

9.शान्त रस (Shant Ras in Hindi)

जब इंसान को परम ज्ञान हासिल हो जाता है। जहाँ न दुख होता है, न द्वेष होता है। मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है शान्त रस कहा जाता है। इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) होता है।

शान्त रस साहित्य में प्रसिद्ध नौ रसों में अन्तिम रस माना जाता है – “शान्तोऽपि नवमो रस:।” इसका कारण यह है कि भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में, जो रस विवेचन का आदि स्रोत है, नाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वर्णन मिलता है।
उदाहरण –
जब मै था तब हरि नाहिं अब हरि है मै नाहिं
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं।

10. वात्सल्य रस (Vatsalya Ras in Hindi)

माता पिता  का बच्चे के प्रति प्रेम , बच्चे का माता पिता के प्रति प्रेम , बड़े भाइयों का छोटे भाइयो के प्रति प्रेम,  अध्यापक का शिष्य के प्रति प्रेम , शिष्य अध्यापक के प्रति प्रेम। यही स्नेह का भाव वात्सल्य रस कहलाता है।

उदाहरण –

बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवाति
अंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावति।

11. भक्ति रस (Bhakti Ras in Hindi)

जिसमे ईश्वर के प्रति अनुराग का भाव उत्पन्न हो उसे भक्ति रस कहते है।
उदाहरण –

अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई

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Anjali Yadav

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