सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ
साहित्य के आचार्यों ने काव्य के दो पक्ष माने हैं- भाव-पक्ष और कलापक्ष सूर की कविता का मूल्यांकन हम इन्हीं के आधार पर करेंगे।
भाव पक्ष- सूर ने भगवान की शक्ति, शील और सौन्दर्य विभूतियों में से केवल सौन्दर्य को ही अपना वर्ण्य विषय बनाया है।
उन्होंने अपने आराध्य के बाल्य और यौवन से सम्बद्ध जीवन की झाँकियाँ ही प्रस्तुत की हैं, तुलसी की भाँति व्यापक जीवन को विविध दशाओं और परिस्थितियों का चित्रण नहीं किया। उनमें न तो तुलसी की भाँति लोक मर्यादा की प्रतिष्ठा भावना है और न कबीर की भाँति उपदेश की वृत्ति।
वात्सल्य और शृंगार के क्षेत्र में सूर की विशेषता यह है कि उनकी सीमा साहित्याचार्यों द्वारा गिनाये गए भावों और अनुभावों तक ही नहीं है। उन्होंने वात्सल्य रति को रस की कोटि तक पहुँचाया और श्रृंगार रस को रस राजत्व प्रदान किया। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में वात्सल्य रस का प्रसाद सूर की कविता भित्ति पर टिका हुआ है। इस सन्दर्भ में आचार्य शुक्ल का यह मत उपयुक्त होगा कि वात्सल्य और शृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना-कोना वे झाँक आये। उक्त दोनों रसों के प्रवर्तक रति भाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सकें उतना और कोई नहीं। इस प्रकार सूर वात्सल्य रस के प्रवर्तक और सम्राट हैं तथा शृंगार वर्णन में अप्रतिम हैं।
कृष्ण को माध्यम बनाकर सूर ने एक बालक के जिन बाल्य क्रिया-कलापों और अन्तः प्रकृति का चित्रण किया है, उसमें व्यापकता और मनोवैज्ञानिकता दोनों है। सूर के इस यथार्थवादी चित्रण को देखकर आश्चर्य होता है और उनके अन्धत्व पर सन्देह भी । हमारे सामने गुजरने वाली बालक की एक-एक रूप चेष्टा और मनोवृत्ति का इतना सटीक चित्रण पढ़कर लगता है। कि सूर ने बालक कृष्ण की इन एक-एक सूक्ष्म क्रियाओं को कैसे पद-बद्ध किया होगा। बालक की वे चेष्टायें, जिन पर हमारा ध्यान नहीं जाता, सूर के काव्य में मिलती हैं। ‘जहाँ न जाय रवि वहाँ जाय कवि’ की उक्ति सूर के सम्बन्ध में अक्षरश: चरितार्थ होती है।
‘मैया कबहि बढ़ेगी चोटी.. इस पद में बालक की स्वाभाविक वृत्ति ‘स्पर्धा’ के भाव की सूक्ष्म व्यञ्जना सूर ने की है, वह उन्हीं के सरल व्यक्तित्व के अनुरूप है। इसी प्रकार ‘खेलत में ही काको कोसैयाँ’ वाले पद में जिस स्वाभिमान और क्षोभ’ के भाव की विवृत्ति सूर ने की है, वह उनकी सखा भाव की भक्ति के अनुकूल है। सूर के पदों की यह मनोवैज्ञानिकता आज के मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का विषय हो सकती है। हमारा प्राचीन रस शास्त्र आज के मनोवैज्ञानिक की अपेक्षा मानव को सूक्ष्म वृत्तियों का अधिक व्यापक और गहन अध्ययन करने की क्षमता रखता है। सूर के इस मनोमुग्धकारी बाल-वर्णन में अपने आप रसनिष्पत्ति हो जाती है। एक पद लीजिए-
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नन्द के आंगन बिम्ब पकरिबे धावत ।।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह को, कर सौ प्रकरन चाहते ।।
किलकि हँसति राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ।।
इस पद में अपने मुख के प्रतिविम्ब को देखकर कृष्ण को उसे पकड़ने के लिए दौड़ना, छाया को हाथ से पकड़ने की इच्छा, इसी बीच हँसते हुए कृष्ण के दो छोटे दाँतों का चमकना, कमल के समान सुन्दर हाथ-पैरों का वर्णन एक ओर जहाँ बड़ा स्वाभाविक है वहीं दूसरी ओर बालकृष्ण की ये वृत्तियाँ उद्दीपन का भी कार्य करती हैं और यशोदा का नन्द को बुलाना, आँचल में ढक कर कृष्ण को दूध पिलाना और इन वृत्तियों को देखकर सुख प्राप्त करना अनुभाव है। यशोदा ही इस वात्सल्य रस की आश्रय है और कृष्ण आलम्बन इसी प्रकार ‘जसोदा हरि पालने झुलावे।” वाले पद में भी माँ का बच्चे को गीत गाकर सुलाने के लिए झुलाना, थपकी देना, चुप हो जाना और बालक को पुनः जागते हुए जानकर पुनः गाना आरम्भ कर देना आदि कितना स्वाभाविक, मनोमुग्धकारी और विनोदपूर्ण वर्णन है। सचमुच ऐसा लगता है, जैसे सूर ने अपने ज्ञान-नेत्रों से अपने ‘प्रभु’ की बाल लीलाओं को बड़े समीप से देखा हो।
“सोभित कर नवनीत लिये। मुटुवन चलत रेनु तम मंडित, मुख दधि लेप किये।” वाले पद में कृष्ण की बाल छवि का बड़ा मनोहारी चित्र उपस्थित हुआ है। सूर सागर कृष्ण की बाल लीला से सम्बद्ध पदों की खान है। कृष्ण के बाल रूप के वर्णन में सुर ने मुख, नेत्र, भुजा, केश, रोमावलि आदि सभी का बड़ा मनोहर चित्रण किया है। सूर के इन पदों से कृष्ण की बाल केलि, रूपचित्र, बुद्धिचातुर्य, उनके छिटके हुए बाल, नूपुर और करधनी का बजना, उनका गाना और नाचना, तोतली बोली, विशाल नेत्र, आभूषणों की शोभा-आदि के शत-शत चित्र भरे पड़े हैं, जिन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि अपने आराध्य की एक-एक लीला, शोभा और चेष्टा के दर्शन व इनके चित्रण के अतिरिक्त सूर के पास कोई कार्य ही नहीं था। यह भी सच है। सूर का सम्पूर्ण जीवन अपने आराध्य के लिए समर्पित था।
सूर के बाल-वर्णन की एक विशेषता यह भी है कि उनके वात्सल्य रस के आलम्बन (कृष्ण) अलौकिक और साक्षात् ब्रह्म हैं। वे बालक बनकर लीला मात्र कर रहे हैं। इसे नन्द, यशोदा, गोपियाँ सभी जानते हैं। इसे सूर सबसे अधिक जानते हैं, तभी तो लगभग प्रत्येक पद में उन्होंने ‘प्रभु’ आदि विशेषण डालकर कृष्ण का अलौकिकत्व ध्वनित कर दिया है। यशोदा आँचल के नीचे ढककर सूर के प्रभु को दूध पिलाती हैं। वात्सल्य भाव के अन्दर सूर ने कितनी कुशलता से अपनी भक्ति (दास्य) को निहित कर दिया है। बाल कृष्ण असुरों को मारकर, कालीय दमन कर और मुँह खोलकर माँ को विराट रूप दिखला कर स्वयं अपने अलौकिक होने का परिचय देते हैं। इसी अलौकिकता के कारण सूर कृष्ण की छोटी अवस्था में ही शृंगार रस का आरोप कर देते हैं। वे गोपियों से क्रीड़ा करते हैं और राधा से प्रेम चलाते हैं। ये सारी बातें बालकों के स्वाभाविक चित्रण की दृष्टि से दूषित हैं। पर अधिकांश पदों में सूर ने कृष्ण की साधारण बाल लीलाओं का ही चित्रण किया है। यशोदा उन्हें सहज बाल-क्रीड़ा के रूप में ही लेती हैं। इस प्रकार ऐश्वर्य का समावेश होते हुए भी बाल चित्रण अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक है। डा० रामरतन भटनागर के अनुसार, ‘भागवत में कृष्ण की बाल लीला का वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में तो इसका अभाव ही है। भागवत को आधार मानकर सूर ने अपनी प्रतिभा से एक बड़े अनुपम राज प्रासाद का ही निर्माण कर दिया है। विश्व साहित्य में शिशु क्रीड़ा-केलि और माता के हृदय की आशा आकांक्षा का इतना सूक्ष्म और विशद चित्रण और कहीं नहीं मिलता है।’
सूर का बाल-वर्णन कई रूपों में प्राप्त होता है। रूप-वर्णन, चेष्टाओं और क्रीड़ाओं का वर्णन, अन्तर्भावों, संस्कारों, उत्सवों और समारोहों का वर्णन आदि के रूप में। सूर की बाल लीला बज के सारे समाज और नन्दरानी के छोटे कुटुम्ब को समेट कर चलती हैं। रस पुष्टि से अधिक ध्यान सूर ने बालक की स्वाभाविक चेष्टाओं पर दिया है। स्वभाव चित्रण द्वारा रसोद्रेक में सूर सिद्धहस्त हैं। इस प्रकार सूर का वात्सल्य वर्णन कृष्ण जन्म से आरम्भ होकर कृष्ण दर्शन की लालसा से गोपी-गोपों का थाल सजाकर नन्द के घर जाना, स्वयं सूर बन्दी के वेश में उपस्थित होना, पालने का आयोजन, गोपियों का कृष्ण को गोद में लेना, बालक का उलट जाना, माँ का धन्य हो जाना आदि में समाप्त होता है। ‘जसोदा हरि पालने झुलावै।’ आदि का चित्रण करते हुए कृष्ण का घुटनों के बल चलना, तुतला कर माखन माँगना, देहरी लाँघना, अंगुली पकड़कर चलना, कहन लगे मोहन मैया मैया।’ भाई से झगड़ना आदि बाल प्रसंगों का चित्रण करते हुए समाप्त होता है। माँ बालक को दूध पीना छुड़ाती है। ‘जागियो गोपाल_भोर भयो प्यारे। साँझ भई घर आवहु प्यारे आदि के चित्रण भी बड़े मार्मिक हैं। सूर के बाल वर्णन में भी भक्ति और अध्यात्म का समावेश है। यशोदा में जन्म के लिये जो वात्सल्य रस है, वही सूर और भक्त के लिये भक्ति रस में। वात्सल्य रस में अद्भुत रस का भी समावेश है-‘कर पग गरि अंगूठा मुख मेलत…. । “
शृंगार रस- काव्य के आचार्यों ने शृंगार रस को दो भागों में विभाजित किया है- संयोग शृंगार और वियोग का विप्रलम्भ तुंगार | कृष्ण का गोकुल वास, वृन्दावन में गोप-गोपियों के साथ की क्रीड़ाएँ और राम लीलाएँ- संयोग शृंगार के अन्तर्गत आती हैं और कृष्ण के मथुरा गमन के बाद की सारी स्थितियों के चित्रण वियोग शृंगार के अन्दर आते हैं।
संयोग श्रृंगार- सूर के चित्रण में बाल लीला के बाद गोचारण का सुन्दर प्रसंग आता है, जो गोप जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है। प्रकृति के विस्तृत प्रांगण में विचरण करने का जितना अधिक अवकाश इस क्षेत्र में मिलता है, जीवन के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं। प्रकृति के इसी स्वच्छन्द जीवन के बीच कृष्ण और गोपियों के प्रेम का विकास होता है। सूर के कृष्ण और गोपियों का प्रेम कोई क्षणिक घटना नहीं है। उसमें सौन्दर्य प्रियता और साहचर्य का योग है। गोपियों कृष्ण के दिन प्रतिदिन निखरते सौन्दर्य को देखकर आकर्षित होती हैं और कृष्ण किशोरावस्था की स्वाभाविक चपलता के कारण गोपियों से छेड़-छाड़ करते हैं। इस हास-परिहास और छेड़-छाड़ के बीच प्रेम व्यापार का स्वाभाविक आरम्भ सूर ने दिखलाया है। नित्य एक-दूसरे से मिलते-जुलते, हंसते-बोलते कृष्ण और गोपियां एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। आचार्य शुक्ल ने इस प्रेम को ‘जीवनोत्सव के रूप में देखा है। उनके अनुसार ‘सूर के कृष्ण और गोपियां पक्षियों के समान स्वच्छन्द हैं। वे लोक बन्धनों से जकड़े हुए नहीं दिखाये गये हैं।”
कृष्ण और गोपियों की बाल-कीड़ा आगे चलकर यौवन क्रीड़ा के रूप में परिवर्तित हो जाती है। अभी तो गोपियां उद्धव से कहती हैं कि ‘लरिकाई को प्रेम कहाँ अलि, कैसे छूटै 2’ सूर का श्रृंगार वर्णन भी उनके वात्सल्य वर्णन की भाँति बड़ा स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी है। पास-पास रहने वाले दो व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाला प्रेम किसी से छिपा नहीं रहता है। कृष्ण और गोपियों के साथ यही होता है। राधा और कृष्ण के रूप का आकर्षण बाल्यावस्था से ही प्रारम्भ होता है-
‘खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी ।
गये श्याम रवि तनया के तद, अंग लसति चन्दन की खोरी ।।
औचक ही देखी तह राधा, नैन विशाल भाल दिये रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन, नैन मिलि परी उझैरी ॥
इसी प्रकार ‘बूझत श्याम कौन तू गोरी।’ वाले पद में भी राधा और कृष्ण के बीच एक लम्बा परिचयात्मक संवाद करवाकर सूर ने प्रेमोत्पत्ति का जो अनुपम ढंग अपनाया है वह उन्हीं जैसे समर्थ कवि के लिये सम्भव है।
कृष्ण के रूप सौन्दर्य का गोपियों पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इसका एक चित्र देखिये-
‘तरुणी निरखि नख इन्दु भूली, कोउ चरन जुग रंग ।।
कोउ निरखि नुपुर रही थकी कोड निरखि जुग जानु ।
कोउ निरखि जुग जंघ सोभा, करति मन अनुमानु ॥
कोउ निरखि पट पीत कछनी, मेखला रुचि कारि ।
कोउ निरखि हद नाभि की छवि डारि तन मन वारि ।।”
सूर के इस रूप चित्र में कितनी मोहकता, कुशलता और मनोवैज्ञानिकता है। कृष्ण के अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य को देखकर गोपियों का विवेक खो देना बड़ा स्वाभाविक है। कृष्ण के सुन्दर कमल-पद, उनके कपोलों पर झलकते स्वर्ण कुण्डल, अधरों पर रखी सुरीलो मुरली और उनकी त्रिभंगी मुद्रा ने गोपियों को उनकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखने के लिये विवश कर दिया है। उनके रक्ताभ अधर और उनकी मोहक छवि ने गोपियों की नींद हराम कर दी है। उनका मन घर के कामकाज में नहीं लगता। कृष्ण के सौन्दर्य और सहवास ने गोपियों पर जादू डाल दिया और इस प्रकार हरि रस (महारस) के आगे सारे रस फीके पड़ गये हैं-
‘तरुनी स्याम रस मतवारि ।
प्रथम जीवन रस चढ़ायो, अतिहि भई खुमारि ॥
महारस अंग अंग पुरन, कहाँ घर कहाँ बारि ।
सूर प्रभु के प्रेम पूरन, छकि रही ब्रज नारि ।।”
गोपियों की स्थिति की कल्पना कीजिये, जहाँ वे वन-वीथियों और नगर गलियों में हरि का नाम ही लेती घूमती हैं-
“वन-वीथिन निज पुर यत्नी, जहींतही हरि नाउँ ।
समुझाई- समुझत नहीं, सिख दै विथ क्यों गाउँ ।।”
यह तो रही गोपियों की स्थिति। इन गोपियों में एक राधा नाम की गोपी है। उसकी तो स्थिति ही विचित्र है। कृष्ण नागर हैं, तो वह नागरी है। उसका और कृष्ण का शरीर भिन्न है, पर प्राण एक है। जब से एक-दूसरे को देखा है, तब से विद्युत ‘नहीं संग दोउ बैठे सोवत जागत।’
कृष्ण के नेत्र, कपोल, मुख, पुतली, अधर, वक्षस्थल पर शोभित माला, चंचल दृष्टि, लोल कुंडल, नख कान्ति पीताम्बर- इन सबने मिलकर राधा पर जादू डाला और राधा के अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य ने कृष्ण पर ‘देखो भाई सुन्दरता की सागर’ तथा ‘प्रिया मुख देखी स्याम निहारि’ जैसे पदों में कृष्ण और राधा के रूप और आकर्षण का अदभुत वर्णन है। राधा जब कृष्ण की और देखती है तो रूप-राशि, गुण-राशि, यौवन-राशि, बाल-राशि, विद्या-राशि, रस-राशि और आनन्द राशि सिंधु में अपने को निमग्न पाती हैं। कृष्ण की क्षण-क्षण परिवर्तित रूप छवि उनके मन में बस गई है। तभी तो गोपियों के समझाने पर वह कहती हैं-
‘स्याम सो काहें की पहिचान।
निमिष-निमिष वह रूप न वह छवि रति कीजै जिय जानि।’
इस आकर्षण के बाद संयोग पक्ष के जितने भी क्रीड़ा-विधान हो सकते हैं, सूर ने उन सभी को लाकर एकत्र कर दिया हैं। पनघट प्रस्ताव कुंज बिहार, यमुना स्थान, जल केलि, पीट- मर्दन, गोदोहन, भरे आँगन में संकेत, घर के पीछे खरिक तथा वन में मिलना, हिंडोले पर झूलना, रास नृत्य आदि संयोग के अगणित प्रसंगों का सूर ने बड़ा प्रभावशाली चित्रण किया है। एक उदाहरण लीजिये-
‘स्याम अचानक आइ गये री।
मैं बैठी गुरुजन बिच सजनी, देखत ही मेरे नैन नये री ॥
तब इक बुद्धि करी मैं ऐसी, सो कर दास कियो री।
आप हँसे उत पाग भसक हरि, अन्तर्यामी भी जान लियो री।
भलै कर कमल अधर परसायो, देखि हरषि पुनि हृदय धरयोरी ।
चरण छुये दोउ नैन लजाये मैं अपने भुज अंग भरयोरी ||
इस पद में सूर ने सांकेतिक ढंग से संयोग श्रृंगार का कितना सुन्दर वर्णन किया है। कहीं-कहीं सूर ने जयदेव और विद्यापति के अनुकरण पर आलिंगन, चुम्बन और नखक्षत आदि के वर्णन द्वारा नग्न शृंगार का भी वर्णन किया है और कहीं राधा-कृष्ण के विहार के अवसर पर कुछ विशेषणों और अलंकारों के प्रयोग द्वारा संभोग श्रृंगार को औदात्य प्रदान किया है। जैसे-
नवल निकुंज, नवल नवला मिलि निकेतनि रुचिर बनाये।
विलसत विपिन विलास विविध वर वारिज वदन विकच सचु पाये ।।
सूर सखी राधा माधो मिलि क्रीड़त रति-पतिहि लजाये ||
वियोग श्रृंगार- संयोग की भाँति सूर का वियोग वर्णन भी वात्सल्य से आरम्भ होता है। बृज भूमि का कण-कण कृष्ण की लीलाओं से सुवासित था। चारों ओर सुख और शान्ति का साम्राज्य था। इसी समय कंस का निमन्त्रण लेकर अक्रूर का आवागमन वज्रपात के रूप में हुआ और पुत्र वियोग की आशंका से यशोदा का हृदय काँप उठा-
‘देखि अक्रूर नर-नारि बिलखे।”
महतारि व्याकुल दौरि-पाँइ गहि लै परी, नन्द उपनन्द संगजाहु लैके ।’
यशोदा का मातृ हृदय व्याकुल है कि अबोध कृष्ण गुरुजनों को प्रणाम भी करना नहीं जानते, राजसभा के नियमों को क्या जानें ? अतः उनके साथ नन्द स्वयं जायें। जिस कृष्ण के बिना यशोदा एक पल भी नहीं रह सकती उसे वह कैसे अक्रूर के साथ विदा कर सकती है। इसलिये कंस चाहे बन्दी बना लें, व अपनी आँखों के तारे कृष्ण को अलग नहीं कर सकतीं। चाहे प्राण ही क्यों न देने पड़े- “मेरो भाई निधनी कौ धन माधौ ।
‘निधनी को धन’ में मातृ हृदय की कितनी विवशता और निरीहता छिपी है और उसका मातृ हृदय तड़प ही उठता है-
‘है कोड ब्रज में हितू हमारी चलत गुपालहिं राखौ।’
कृष्ण के वियोग से नन्द भी व्याकुल हैं, पर उनका पुरुष हृदय मर्यादा का बांध नहीं तोड़ता। वे हृदय पर पत्थर रखकर यशोदा को समझाते हैं ।
यह तो रही मातृ हृदय (वात्सल्य वियोग) की दशा। अब गोपियों की स्थिति देखिये-
चलत जानि चितवति व्रज-जुवती, मानहुँ लिखी चितेरै।
जहाँ सु तहाँ एकटक रहि गई, फिरति न लोचन फेरै।
बिसरि गई गति भाँति देह की, सुनति न श्रवनन ढेरै। आदि।
संयोगावस्था में जो वस्तुएँ सुख देने वाली होती हैं, वियोगावस्था में वे ही कारण बनती हैं। वर्षा की सुन्दर फुहारें जो प्रमोद्रेक करती थीं, आज भाले और तीर का काम करती हैं। पावस के बादल उन्हें हाथी बनकर डराते हैं ‘देखियत चहुँ दिसि ते घन घोरे।’ उन्हें रात प्रिय के बिना नागिन लगती। कुंज और लताएँ आग की लपटें जैसी दीखते हैं।
कृष्ण ने अपने लौटने की जो अवधि दी थी वह बीत गई। प्रतीक्षा करते-करते गोपियों की आँखें लाल हो गयीं। गोपियाँ सोचती हैं कि जड़ प्रकृति भी समय पर लौटती है, मनुष्य अपनी प्रतिज्ञा को कैसे भूल जाता है।
(1) पिया बिनु नागिनि कारी रात
(2) बिनु गोपाल बैरिनि भई कुंजै।
(3) बरु ये बदरा बरसन आये।
(4) देखियत कालिंदी अति कारी ।
(5) निसि दिन बरसत नैन हमारे।
(6) मधुवन तुम कत रहत हरे।
आदि पद गोपियों की इन्हीं मार्मिक दशाओं का चित्र उपस्थित करते हैं।
इस प्रकार जिस निपुणता और रसिकता के साथ सूर ने संयोग शृंगार रस का चित्रण किया है, वही व्यापकता और गम्भीरता सूर के वियोग वर्णन में भी है।
भ्रमरगीत का यह प्रसंग उस समय उद्घाटित होता है जिस समय उद्धव कृष्ण का सन्देश लेकर मथुरा से गोपियों के पास जाते हैं। उद्धव का चरित्र पारस्परिक रूप से एक ऐसे व्यक्ति का प्रतीक है, जो ज्ञान मार्गी और अहंकारी है। जिसका विश्वास भक्ति में नहीं है। कृष्ण उद्धव को गोपियों की प्रेमाभक्ति से परिचित कराने और उनके ज्ञान के गर्व को चूर्ण कराने के बहाने से गोपियों के पास भेजते हैं और अन्ततः उद्धव अपने ज्ञान की गठरी ब्रज में ही छोड़कर प्रेम मार्ग के पथिक बन जाते हैं। इस प्रकार ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग ज्ञान पर भक्ति की विजय भी सूचित करता है। गोपियों को जो कुछ खरी-खोटी बातें कहनी होती है उन्हें उद्भव से सीधे न कहकर भ्रमर को सम्बोधित करके कहती हैं, जैसे-
‘मधुप कहा यहाँ निर्गुण गवाहिं
ए प्रिय कथा नगर-नारिन सो, कहहिं जहाँ कुछ पावहिं ॥
अतः विचित्र लरिका की लई, गुर दिखाई बौरावहिं ॥”
सूर के भ्रमर गीत प्रसंग में गोपियों ने भ्रमर को माध्यम बनाकर जितना कृष्ण के लिये उपालम्भ दिया है उससे कहीं। अधिक निर्गुण मार्गी उद्धव को खरी खोटी सुनाई है। इस प्रकार ज्ञान मार्ग पर भक्ति की विजय के लिये भ्रमर गीत की रचना सोद्देश्य है।
इसी प्रकार न जाने कितने पदों में निर्गुण मार्ग और योग-साधना की निन्दा और व्यंग्य किये गये हैं। निर्गुण मार्ग की इस आलोचना का कारण उसके निर्गुण पंथियों की असामाजिकता है, जिसके कारण लोग चमत्कारी क्रियाओं में विश्वास करके पथ भ्रष्ट हो रहे थे। सूर का यही दृष्टिकोण तुलसी में भी मिलता है। इसकी दृष्टि से वात्सल्य और श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों का चित्रण भी सूर ने कहीं-कहीं किया है, जिसमें भयानक, हास्य, करुण, वीर और शान्त आदि मुख्य हैं। भयानक रस का एक चित्र देखिये-
‘भहरात झहरात दावानल आयो।
घेरि चहुँ ओर, करि स्नेर आन्दोर बन, धरनि अकास चहुँ पास छायौ ।
अति अगिनि भंभार धुंधार करि, उचटि अंगार झंझार छायौ। आदि।
कला पक्ष- भाव यदि काव्य की आत्मा है, तो शैली उसका शरीर। कला पक्ष के अन्तर्गत शैली, भाषा, अलंकार आदि का विवेचन होता है। सर्वप्रथम हम सूर के काव्य की शैली सम्बन्धी विशेषताओं पर विचार करेंगे, जिसके अन्दर भाषा, अलंकार आदि अपने आप आ जाते हैं।
शैली- सूर काव्य के कला की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी रचना गेय पदों में की है। गीति काव्य की यह परम्परा न केवल भारतीय वाङ्मय की विशेषता है, अपितु सम्पूर्ण विश्व के साहित्य में भी प्राप्त होती है। इसका कारण प्रीति काव्य की संगीतात्मकता है। वैसे तो बिना संगीत का आश्रय लिये कविता जीवित ही नहीं रह सकती, पर यह संगीतात्मकता गीत के प्राण है। प्रबन्ध काव्य में इस तत्व पर बिना बल दिये भी रचना की जा सकती है। सच तो यह है कि भाव का जन्म ही गीत के रूप में होता है, प्रबन्धात्मकता तो उसका बाद का स्वरूप है। आदि कवि का भाव गीत में ही फूटा था। सामवेद के मन्त्रों का उच्चारण भी गीतों में होता था। मनुष्य का आरम्भिक जीवन गीतमय था, कृत्रिमता, संघर्ष और तनाव उसके जीवन में सामाजिक विकास के कारण आया और काव्य विधाओं का जन्म भी युगानुरूप हुआ। आज तो गीत भी अपनी गेयता और संगीतात्मकता छोड़कर विचार प्रधान और गद्यमय हो रहा है।
सूर को यह गीत शैली जयदेव और विद्यापति आदि कवियों द्वारा धरोहर के रूप में मिली थी। वीर गाथा काल में भी वीरों की प्रशंसा के गीत लिखे जाते थे, सूर पर उसका प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता। कबीर की वाणी का प्रभाव अवश्य सूर पर परिलक्षित होता है महाप्रभु वल्लभ के मिलने से पूर्व सूर जिन पदों को गाते थे, वे दैन्य भाव से युक्त सन्तों के से गीत थे। वल्लभ के आदेश के बाद सूर के गीतों में जयदेव और विद्यापति की कोमलकान्त पदावली का अधिक प्रभाव है। सूर की गीत शैली की सजीवता स्वाभाविकता, व्यंग्य, चित्रमयता और भाव गम्भीरता उन्हें विद्यापति आदि गीतकारों से अलग स्थान देती है। जैसे श्रीमद्भागवत के दशमस्कन्ध पर आधारित होते हुए भी सूर सागर में सूरदास की अपनी मौलिकता है, उसी प्रकार जयदेव और विद्यापति की गीत पद्धति पर रचना करते हुए भी सूर के गीतों की अपनी अलग विशेषतायें हैं। संगीतात्मकता सूर के गीतों का प्रथम गुण है। रस की दृष्टि से जैसे सूर ने वात्सल्य रस को जन्म दिया, गीतों के क्षेत्र में भी उन्होंने ऐसी राग-रागनियों को जन्म दिया, जिनकी प्राप्ति संगीत शास्त्र में नहीं होती। संगीत की जितनी राग-रागनियाँ हैं, उन सबकी प्राप्ति सूर सागर में होती है। चौरासी वार्ता से सिद्ध होता है कि सूर गायन कला के निष्प्राणत थे। इस सम्बन्ध में शिखरचन्द्र जैन लिखते हैं कि ‘संगीत विषयक इस ज्ञान की कसौटी पर जब सूर कसे जाते हैं तब वह बहुत ऊंचे उठ जाते हैं। वास्तव में यदि काव्य और संगीत का सच्चा समन्वय कोई प्रकृत रूप से कर सका है, तो वह सूर ही है।’ वे आगे लिखते हैं कि ‘जहाँ तुलसी की संस्कृत पदावली संगीत के माधुर्य को किन्हीं अंशों में कम कर देती है, वहाँ सूर की प्रकृत रूप से प्रसवित होने वाली शब्द-लहरी स्वाभाविकता, सादगी, अल्हड़पन और प्रसाद को समान रूप से लिये हुए आगे बढ़ती हैं।’
भावात्मकता सूर के गीतों की दूसरी विशेषता है। सूर के गीतों का मूल उत्साह यद्यपि कि श्रीमद्भागवत है, अतः उनमें कथात्मक क्रम है। पर सूर की वृत्ति प्रबन्ध काव्य के तत्वों- कथानक घटनायें, चरित्र आदि में रमती दिखाई नहीं पड़ती। आचार्य है शुक्ल ने सूर में भावुकता और सहृदयता की जो बात की है, उसका कारण यही है कि सूर में मार्मिक स्थलों के चुनाव और उनमें चित्रण की अपूर्व क्षमता है। सम्पूर्ण कृष्ण चरित से उन्होंने भावुक वात्सल्य और शृंगार स्थली को चुन लिया है और उन्हीं का कुशलतापूर्वक वर्णन किया है। डॉ० मुंशी राम शर्मा के अनुसार, ‘सूर सागर इसी अन्तस्तल का प्रसार है- भाव जगत की वस्तु है। उसमें घटनावली के प्रेरक भावों की राशि सन्निहित है मनोविकारों का साम्राज्य-सा फैला है और हृदय रूपी सहस्रदल कमल का चतुर्दिक विकास हो रहा है। भाव के इस भव्य भवन में सूर की अन्तर्दृष्टि ने जितना गम्भीर और विस्तृत अवलोकन किया है उतना विश्व का महान से महान कवि भी नहीं कर सका। इस दृष्टि से सूर सागर प्रबन्ध काव्य का स्पर्श करता हुआ मुक्त काव्य के अन्तर्गत भाव-भरित गीति काव्य के अन्तर्गत भाव-भरित गीति काव्य का सर्वोत्तम उदाहरण है।”
इस प्रकार संगीतात्मकता, आत्माभिव्यक्ति, रागात्मकता, जीवन की आंशिक अभिव्यक्ति, भावाभिव्यंजना संक्षिप्तता आदि गीति काव्य के सभी तत्व सूर के गीतों में बड़ी क्षमता के साथ प्राप्त होते हैं। इन विशेषताओं के अतिरिक्त सूर की शैली की अन्य विशेषताएँ भी हैं, जिनमें वर्णनात्मक शैली का स्थान मुख्य है। इस शैली का प्रयोग कवि ने भावात्मक स्थलों में न करके आख्यान और पौराणिक प्रसंगों के सन्दर्भ में किया है। इस शैली के द्वारा सूर ने भागवत के कथा प्रसंगों की ओर संकेत किया है इसी प्रकार दृश्यों, उत्सवों तथा अन्नप्राशनादि संस्कारों का वर्णन भी सूर ने इस शैली में किया है, जिनमें वस्तुओं और व्यापारों की लम्बी सूची के अतिरिक्त किसी काव्यगत सौंदर्य के दर्शन नहीं होते। वर्णनात्मक कथानकों जैसे कालियदमन-लीला, गोवर्धन लीला आदि में भी सूर को वृत्ति भी नहीं। कवि उन्हीं स्थलों का वर्णनात्मक संकेत करता है, जिनका वर्णन गेय शैली में कर चुका है। इस प्रकार भाव को दृष्टि से तो ये स्थल सुन्दर नहीं बन पड़े हैं पर छन्दों की नवीनता के कारण शैली में सौन्दर्य आ गया है दृष्टिकूट पद शैली का संकेत पीछे किया जा चुका है। इसका प्रयोग सूर ने चमत्कारप्रियता के कारण किया है। ‘साहित्य लहरी, तो पूर्ण रूप से दृष्टि कूट पदों से युक्त रचना द है, सूर सागर में भी इस शैली के दर्शन होते हैं। वास्तव में यह शैली भी सूर को परम्परागत रूप से मिली थी, जिसका प्रयोग रहस्यात्मक रभावों की अभिव्यक्ति में किया गया है। सूर ने भी इसका प्रयोग रहस्यात्मक सौंदर्य के निरूपण में किया है। राधाकृष्ण को अनेक भंगिमाओं, मुद्राओं और रतिक्रीड़ाओं के वर्णन में इसी शैली का प्रयोग किया गया है। इस शैली के प्रयोग में सूर ने यमक, रूपकातिश्योक्तिः आदि अलंकारों से काम लिया है।
भाषा- सूर की भाषा साहित्यिक बजभाषा है। सूर से पहले साहित्य में डिंगल या सघुक्कड़ी भाषा का प्रयोग मिलता है। जिस प्रकार तुलसी ने जायसी की अवधी को संस्कृत के मेल से साहित्यिक गरिमा प्रदान की, ठीक उसी प्रकार सूर ने भी ब की चलती बोली में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग करके उसे साहित्यिक स्तर प्रदान किया। पर तुलसी की अपेक्षा सूर में भाषा में अधिक स्वाभाविकता कोमलता, मधुरता और प्रवाहमयता है। सूर के द्वारा अपने साहित्यिक गौरव को प्राप्त करने के बाद ही ब्रज भाषा वैष्णव धर्म की संदेश वाहिका बनकर बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में अपनी सम्प्रभुता स्थापित कर सकी। संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त एक उदाहरण देखिए-
“गिरिधर, बजधर, माधवमुरलीधर, धरनीधर, पीताम्बरधर ।
संख चक्रधर, गदा पदाधर, सीसमुकुटधर अधर सुधाधर ।।
कम्मु कंठधर, कौस्तुभमनिधर, बनमालाधर मुक्तालालधर ।
सूरदास प्रभु गोपवेषधर कालीफन पर चरन कमल घर ।।
ठेठ ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग भी सूर ने किया है। जैसे- धाक, मौड़ा, चकडोरी, फरिया, अचगरी, कनियाँ, तनक आदि। इन शब्दों के प्रयोग से सूर की कविता में क्षेत्रीय संस्कृति का रूप बड़ी सुन्दरता से उभरा है। भाषा को व्यापक और प्रवाहमयी बनाने के लिये सूर ने अवधी, पंजाबी, गुजराती, बुन्देलखंडी और फारसी के भी शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे-मोर, तोर, हमार होइस, खोइस, आदि अवधी के तथा जहाज, सरताज, बाण, खसम, नफी ख्याल आदि फारसी के शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया है। इसी प्रकार पंजाबी के प्यारी, गुजराती के वियो और बुन्देलखण्डी के जहिबी साहिबी आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के अतिरिक्त तद्भव शब्दों का प्रयोग भी सूर ने बिना किसी हिचक के किया है। अंचरा, आँखर, खिन, बूड़त, सीवाँ, मूर्ति, लिलार, बिज्जु, तरुनाई, जुगुति, चबाई आदि शब्द इसी प्रकार के हैं। इसी प्रकार करनी, आँघट, डहकावे धुकधुकी, औचट, करतूति आदि ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी सूर ने किया है।
भाषा को सरल, व्यावहारिक और बोधगम्य बनाने के लिये लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग भी सूर की भाषा की विशेषता है।
अलंकार – रसों को यदि कविता कामिनी का शरीर माना जाय तो अलंकारों को उसका आभूषण समझना चाहिए शरीर को स्वस्थता और सुन्दरता के अभाव में आभूषणों का कोई महत्व नहीं, पर स्वस्थ और सुन्दर शरीर के ऊपर आभूषण उसकी सुषमा को द्विगुणित कर देते हैं। इसी प्रकार रसों के साथ अलंकारों का संतुलित योग कविता कामिनी के सौंदर्य में चार चाँद लगाता है। सूर, तुलसी और बिहारी की भाँति भाव-पक्ष और कला पक्ष का सन्तुलन स्थापित करने वाले कवि हैं वे न तो जायसी को भाँति अत्यधिक भाव प्रधान कवि हैं और न केशव आदि कालावादी कवियों की भाँति चमत्कारवादी कवि हैं। अलंकार उनको कविता में भावों को सुन्दर बनाने के लिये प्रयुक्त हुए हैं, चमत्कार प्रदर्शन के लिये नहीं। इसीलिये शब्दालंकारों की अपेक्षा उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा आदि अर्थ को सुन्दर बनाने वाले अलंकारों का प्रयोग सूर की कविता में प्रचुरता से मिलता है। शब्दालंकारों का प्रयोग कूट पदों में ही किया गया है। रूप या अंगों की शोभा के वर्णन में अर्थालंकारों का ही प्रयोग किया गया है। अंगशोभा और वेशभूषा के वर्णन में कभी-कभी उपमा और उत्प्रेक्षा का प्रयोग अतिरिक्त रूप से कर दिया गया है।
इस प्रकार सूर की कविता में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा के अतिरिक्त उपर्युक्त सभी अलंकारों तथा दृष्टांत, निदर्शना व्याजोक्ति, स्वाभावोक्ति, लोकोक्ति, अन्योक्ति, आक्षेप, विभावना, पर्यायोक्ति, विशेषोक्ति, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास, तद्गुण मीलित आदि अलंकारों का प्रयोग प्रचुर और सन्तुलित मात्रा में हुआ है। सूर का अत्यन्त प्रिय अलंकार उत्प्रेक्षा और सांग रूपक बाँधने की कला में भी वे सिद्ध हस्त हैं। सूर की अलंकारिक कल्पना के सम्बन्ध में डॉ० मुंशीराम शर्मा ‘सोम’ लिखते हैं कि ‘सूर को कल्पना अलंकारों का प्रयोग करती हुई किसी न किसी भाव या चेष्टा का निर्माण करती है। कहीं-कहीं वह निरावरण होकर भी भावाभिव्यंजना की साधिका बनी है। सूर के रचे हुए ये भाव चित्र चार सौ वर्षों से भावुक हृदयों को आकर्षित करते रहे हैं. कल्पनावैभव के इसी प्रकार के दृश्यों ने सूर को हिन्दी जगत् में सूर्य के समान देदीप्यमान कर दिया है।’
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