हिन्दी साहित्य

अपभ्रंश साहित्य का परिचय तथा हिन्दी साहित्य में इसका योगदान व स्थान

अपभ्रंश साहित्य का परिचय तथा हिन्दी साहित्य में इसका योगदान व स्थान
अपभ्रंश साहित्य का परिचय तथा हिन्दी साहित्य में इसका योगदान व स्थान

अपभ्रंश साहित्य का परिचय तथा हिन्दी साहित्य में इसका योगदान व स्थान

अपभ्रंश का हिन्दी साहित्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि बिना इसकी पृष्ठभूमि लिए हिन्दी साहित्य का पूर्ण अध्ययन नहीं हो सकता। लगभग छठीं शताब्दी में ही अपभ्रंश भाषा का साहित्यिक भाषा के रूप में व्यवहार होने लगा था।

साहित्य-सृजन की दृष्टि से यह भाषा बहुत ही समृद्ध है। इसके साहित्य को मुख्यतः चार धाराओं में विभाजित किया जा सकता है-

  1. जैन साहित्य
  2. बौद्ध सिद्धों का साहित्य
  3. नाथ पंथियों का साहित्य
  4. लोक रस का साहित्य

(1) जैन साहित्य- आठवीं शताब्दी से ही जैन साहित्य की उपलब्धि होने लगती है। स्वयंभू इस धारा के सर्वप्रथम कवि माने जाते हैं। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘धम्म परीक्षा के आधार पर चतुर्मुख को इस धारा का सबसे प्राचीन और प्रथम कवि माना है। इस धारा के साहित्य में जैन सिद्धान्तों का काव्यमय शैली में प्रतिपादन किया गया है। इस धारा के प्रमुख कवियों में स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, मोतीन्दु, हेमचन्द, मेरुतुंग, सोमप्रभ सूर, नयनन्द के नाम उल्लेखनीय हैं।

(2) बौद्ध सिद्धों का साहित्य- बुद्ध भगवान् ने सामाजिक सुधार के लिए अनेक प्रशंसनीय प्रयत्न किए और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने प्रयत्नों में बहुत सीमा तक सफल भी हुए। किन्तु उनकी मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म में अनेक विकृतियाँ – आ गईं जिनके कारण वह अनेक समुदायों में बंट गया। इसमें दो सम्प्रदाय प्रमुख हैं-वज्रयान और सहजयान। वज्रयान शाखा में 84 सिद्धों का उल्लेख मिलता है। इन सिद्धों ने तान्त्रिक क्रियाओं को प्रमुखता दी, जिससे त्याग और संयम का स्थान भोग और सुख ने ले लिया निवृत्ति-परायण धर्म को अधिक मान्यता दी गई। इन्होंने नारी को पूज्य न मानकर भोग्या माना और भोगिनी के रूप में उसका खुलकर उपभोग भी किया।

अपनी इस भोग-विलासों की अभिव्यक्ति को इन्होंने अनेक प्रतीकों के द्वारा धार्मिक रूप देने के प्रयत्न किए। प्रतीकों की अधिकता होने के कारण इनकी भाषा ‘संध्या भाषा’ कहलाती है। इनके साहित्य में दो प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं-चर्यागीत और दोहाकोष । सिद्धों की रचनाओं का प्रमुख विषय धर्म हो रहा है। मोक्ष के लिए इन्होंने हठयोग की क्रियाओं को महत्ता प्रदान की है।

सरहया इस धारा के प्रमुखतम कवि हैं। इनके अतिरिक्त शवरपा, भुसुक (शांति) पा, लुईपा, जिनपा, गोम्लिपा, कुक्कुरिया, कमरिया कण्हपा आदि ऊंचे कवियों में गिने जाते हैं।

जैन-साहित्य की अपेक्षा परवर्ती हिन्दी-साहित्य पर इस धारा का प्रभाव अधिक है हिन्दी के पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल ) और उत्तर-मध्यकाल (रीति-काल) में जो गोपी लीला एवं अभिसार के वर्णन मिलते हैं, उनका पूर्वरूप सिद्ध-साहित्य में स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। इस धारा में अनेक सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के प्रतिपादन पर ही विशेष बल दिया गया है, फलतः उसमें मानव हृदय की रागात्मक अभिव्यक्ति नहीं मिलती। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उसमें कवित्व का एकदम अभाव है।

(3) नाथ पंथियों का साहित्य- बौद्ध-सिद्धों में जब लगातार भ्रष्टाचार चला गया तो उसके विरुद्ध नाथ सम्प्रदाय का जन्म हुआ। सहजयानी सम्प्रदाय ने स्त्री को भोग्या बताया। इसके विचार इस समुदाय से सहचर्य और वैराग्य की प्रधानता थी। इन्होंने जिनको अपना आराध्य माना और मेखला, सिंगी, सेली, गूदरी, खप्पर कर्णमुद्रा, वंशधर और झोला धारण किया। इसके नाम के अन्त में ‘नाथ’ शब्द जुड़ने का कारण ही इस सम्प्रदाय को ‘नाथ सम्प्रदाय’ कहा गया। इनमें नौ नाथ अत्यन्त प्रसिद्ध हुए जिनमें मत्स्येन्द्र नाथ सर्वोच्च कोटि के नाथ जाने जाते हैं। जलंधर नाथ तथा गोरखनाथ की गणना भी नौ नाथों में की जाती है। साहित्यिक दृष्टि से गोरखनाथ सबसे प्रसिद्ध हैं।

नाथ पंथियों के साहित्य में भी धर्म की प्रधानता है और उसकी अभिव्यक्ति प्रायः प्रतीकों द्वारा हुई है। हठयोग को वे भी मानते हैं और नाद, बिन्दु, चक्र, सुरति निरति आदि पर पूर्ण विवेचन होता है। इनके साहित्य में सदाचरण पर विशेष बल दिया गया। वैराग्य इनकी प्रधान साधना है। अतः जीवन और जगत् के प्रति उदासीन भाव रखने के कारण इनके काव्य में भावमयता का अभाव है।

(4) लोक-रस का साहित्य- यह साहित्य दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में सैद्धान्तिक साहित्य है-जैसे भोज का ‘सरस्वती कण्ठाभरण’, हेमचन्द का ‘प्राकृत पैंगलम्’ और ‘पुरातन प्रबन्ध संग्रह’ आदि। दूसरे भाग में श्रृंगार रस का साहित्य आता है- जैसे अब्दुर्रहमान का ‘संदेश-रासक’, विद्यापति की ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’। यह साहित्य अपने काव्यगत गुणों से ओत-प्रोत है। इसमें न तो उपर्युक्त धाराओं की भाँति धार्मिक विश्लेषण को प्रधानता देकर भावमयता का गला घोटा गया है और न किसी बनी हुई परम्परा पर चलने का आग्रह किया है।

योगदान व स्थान

अपभ्रंश साहित्य की इन धाराओं का परवर्ती हिन्दी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव निम्नलिखित शीर्षकों में रखा जा सकता है-

1. कथानकों का प्रभाव- अपभ्रंश में दो प्रकार के कथानक मिलते हैं-पौराणिक तथा लोक-प्रचलित । हिन्दी साहित्य पर इसके लोक प्रचलित कथानकों का प्रभाव पड़ा। जैसे पद्मावत। इसमें प्रयुक्त काव्य-रूढ़ियों की अपभ्रंश के साहित्य की तरह हैं।

2. काव्य रूपों का प्रभाव – अपभ्रंश में दो काव्यरूप मिलते हैं-प्रबंध और मुक्तक। हिन्दी-साहित्य में भी ये दोनों रूप उपलब्ध होते हैं।

3. विषयों का प्रभाव – हिन्दी-साहित्य के मध्यकाल में मुख्य विषय थे राजस्तुति शृंगार-भावना, नीति-विषयक फुटकर रचनाएँ इन पर पश्चिमी अपभ्रंश का प्रभाव है। पूर्वी अपभ्रंश का प्रभाव निर्गुण संतों की वाणियों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह मत युक्ति युक्त ही है कि डिंगल की वीरगाथाएँ, निर्गुणियां संतों की वाणियाँ, भक्तिमार्गी साधकों के पद, रामभक्ति की कविताएँ, सूफी कवियों के रोमांस आदि सभी विषक अपभ्रंश की ही देन हैं।

4. छन्दों का प्रभाव – अपभ्रंश के छन्दों को भी हिन्दी में खुलकर अपनाया गया। यथा-मात्रिक छन्द, दोहा, पद्धरिया, छप्पय, कुण्डलिया आदि ।

निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य के विकास में अपभ्रंश का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है। अपभ्रंश ने हिन्दी को जन्म ही नहीं दिया, बल्कि उसे अपने प्रभाव से प्रभावित करके पल्लवित पुष्पित भी किया है। अतः हिन्दी और अपभ्रंश का पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ट और अटूट है।

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Anjali Yadav

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