हिन्दी साहित्य

आदिकाल के काल विभाजन और नामकरण की समस्या

आदिकाल के काल विभाजन और नामकरण की समस्या
आदिकाल के काल विभाजन और नामकरण की समस्या

आदिकाल के काल विभाजन और नामकरण की समस्या पर प्रकाश डालिए। 

हिन्दी साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का इतिहास जिन चार विभागों में विभक्त है उनमें आदिकाल का स्थान सर्वप्रथम है। हिन्दी साहित्य के आरम्भिक युग को आदिकाल नाम प्राप्त है। यद्यपि यह नाम विवादास्पद है, किन्तु अनेक विवादों एवं उलझनों के बावजूद यहाँ सही है कि हिन्दी साहित्य का प्रारम्भिक युग विषय वैविध्य, शैली वैचित्रय और प्रस्तुतीकरण के नये आधारों को समाविष्ट करके चला है। प्रारम्भिक युग में साहित्य की कोई भूमिका तो स्पष्ट होती ही थी, अतः विद्वानों और समीक्षकों ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल को अपने-अपने मतानुसार अलग-अलग नामों से पुकारा है। स्मरणीय तथ्य यह है कि हिन्दी साहित्य का आदिकाल अनेक अन्तर्विरोधों समस्याओं, जटिलताओं का युग रहा है। एक ओर इसमें वीरगाथा काल की काव्य धारा प्रवाहित है, दूसरी और श्रृंगारकाव्य का माधुर्य और प्रणय सन्दर्भों का आख्यान है। इसके अतिरिक्त यही वह काल जिसमें धार्मिक व आध्यात्मिक भावनाओं को पूरे वैभव के साथ प्रस्तुत किया गया है। सिद्धों, नाथों, बौद्धों और जैनियों द्वारा लिखित साहित्य अपनी धार्मिकता और आध्यात्मिकता में अकेला है। अतः इस साहित्य को किसी विशेष धारा में नहीं बांध सकते हैं, यह तो विभिन्न धाराओं में विवाहित होता हुआ अनेक सन्दर्भों और प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करता है।

आदिकाल का नामकरण- नामकरण के सामान्यतः जो आदर्श आधार माने गये हैं, वे युग विशेष, प्रवृत्ति विशेष युग के विशिष्ट व्यक्ति और कतिपय मूल भावों के आधार पर होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि हम जो भी नामकरण करें, वह संक्षिप्त और सारगर्भित होने के साथ-साथ औचित्यपूर्ण भी होना चाहिए। शीर्षक को अपना औचित्य प्रमाणित करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए। कारण जब तक शीर्षक का औचित्य प्रमाणित होता रहता है तब तक वह सार्थक बना रहता है। सामान्यतः शीर्षक या नामकरण तभी तक कारगर रह सकता है, जब तक कि उसमें छिपा हुआ अर्थ, अपना महत्व प्रमाणित करता रहा। स्पष्ट है कि नामकरण की समस्या सदैव एक जटिल समस्या रही है। इस समस्या का सम्बन्ध आदिकाल से गहराई से जुड़ा हुआ है।

विभिन्न नामकरण- हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग के सम्बन्ध में जो नाम प्रस्तावित किये गये हैं वे इस प्रकार हैं-

  1. वीरगाथाकाल,
  2. आदिकाल,
  3. आदि युग,
  4. चारण काल, सन्धिकाल,
  5. सिद्ध-सामन्त काल,
  6. अन्धकार काल

1. वीरगाथा काल- हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग को आचार्य शुक्ल ने वीरगाथा काल का नाम दिया है। उन्होंने इस नाम को सर्वाधिक उपयुक्त व सार्थक बताते हुए जो प्रमाण दिए हैं, वे इस प्रकार हैं-

(i) आलोच्य युग में वीरगाथाओं की प्रधानता है। इसमें जो प्रन्थ उपलब्ध होते हैं, वे वीरगाथात्मक और भी रसात्मक हैं।

(ii) आलोच्य युग में जो प्रामाणिक ग्रन्थ हैं उन्हीं के आधार पर निष्कर्ष निकाल कर नामकरण किया जा सकता है।

(ii) वीरगाथा काल में जो भाषा प्रयुक्त हुई है वह अपभ्रंश और हिन्दी का मिला रूप है। अपभ्रंश की प्रकृति या तो धार्मिक और आध्यात्मिक विशयों के अनुकूल हैं, अथवा फिर वीरगाथाओं के। ऐसी स्थिति में नामकरण का प्रश्न स्वतः ही हल हो जाता है।

आलोच्य युग में वीरगाथाओं के अतिरिक्त जो धार्मिक साहित्य मिलता है, वह आचार्य शुक्ल जी की दृष्टि में उपेक्षणीय है क्योंकि उनके अनुसार धार्मिक रचनाएँ साहित्यिक क्षेत्र में नहीं आती हैं।

शुक्ल जी के मत की समीक्षा- आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग को वीरगाथा काल नाम दे तो दिया, किन्तु उन्होंने यह भी विचार नहीं किया कि मैं जिन रचनाओं को आलोचना का आधार मान रहा हूँ, वे प्रमाणिक हैं अथवा नहीं। आचार्य शुक्ल ने जिन रचनाओं को प्रामाणिक माना है, उनमें आठ पुस्तकें तो ऐसी ही हैं जो देशी भाषा में लिखी हुई हैं बीसलदेव रासो, खुमान रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचन्द प्रकाश, जयमयंक जस चन्द्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ तथा विद्यापति की पटावली। इन आठ रचनाओं के अतिरिक्त चार रचनाएँ ऐसी भी हैं जिन्हें आचार्य शुक्ल ने साहित्यिक रचनाएँ माना है। चार रचनाएँ विजयपाल रासो, हमीर रासो, कार्तिलता और कीर्तिपताका। ये चारों रचनाएँ शुक्ल जी की दृष्टि में अधिक महत्वपूर्ण हैं। यो उन्होंने उपर्युक्त बाहर ग्रंथों के आधार पर ही इस काल का नामकरण किया है। ध्यान देने की बात यह है कि शुक्ल जी ने जिन रचनाओं को आधार बनाया है, उनमें कुछ तो ऐसी हैं जो अप्रामाणिक हैं कुछ ऐसी हैं जो वीरगाथात्मक नहीं हैं और कुछ ऐसी हैं जो वीरगाथाकाल की सीमाओं में नहीं आती हैं। ऐसी स्थिति में शुक्ल जी द्वारा दिया गया नाम विवादास्पद एवं शंकास्पद हो जाता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिन 12 प्रन्थों को प्रारम्भिक काल के लक्षण निरूपण और नामकरण के लिए चुना था, उनमें से अधिकांश संदिग्ध और अप्रामाणिक हैं, कुछ नोटिस मात्र हैं और कुछ ऐसे हैं जिनको हठात् सम्मिलित किया गया है। आधुनिक अनुसंधानों के आलोक में शुक्ल जी द्वारा चयनित ग्रन्थ व्यर्थ और महत्वहीन सिद्ध हो चुके हैं। शुक्ल जी ने मिश्र बन्धुओं द्वारा गिनाई गई दस पुस्तकों को जो जैन धर्म से सम्बन्धित हैं, उन्हें साहित्यिक रूप में नहीं रखा है। वास्तव में ऐसा नहीं है। ये पुस्तकें धार्मिक होते हुए भी साहित्यिकता से युक्त हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह मत उल्लेखनीय है। ” धार्मिक प्रेरणा या आध्यात्मिक उपदेश होना काव्य का बाधक तत्व नहीं समझा जाना चाहिए अन्यथा हमें संस्कृत की ‘रामायण’ महाभारत, भागवत एवं हिन्दी के रामचरित मानस अथवा सूरसागर आदि साहित्यिक सौन्दर्य संबलित अनुपम ग्रन्थरनों को भी साहित्य की परिधि से बाहर रखना पड़ जाएगा।

इन पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ अन्य अपभ्रंश भाषा की पुस्तकें प्राप्त हुई हैं जिनमें उच्च कोटि का उत्कृष्ट साहित्य उपलब्ध होता है। इनमें कुछ धर्म से सम्बद्ध हैं और कुछ लौकिक विषय प्रेमादि से जुड़ी हैं। ये पुस्तकें संख्या में बहुत अधिक हैं जिनमें प्रमुख हैं- संदेश रासक, भविसयत कथा, पउम चरिउ, हरिवंश पुराण, जसहर चरिउ, पाहुड़ दोहा आदि। ये पुस्तकें भी शुक्ल जी की दृष्टि में नहीं आई थी अन्यथा वे एकान्तिक रूप से इस काल का नाम वीरगाथा काल न रखते। सच तो यह है कि आदिकालीन साहित्य को देखते हुए हम निश्चित और अन्तिम रूप से किसी प्रवृत्ति की प्रधानता की ओर संकेत नहीं कर सकते। “शायद ही भारत के इतिहास में इतने विरोधी और व्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ अलंकत काव्य-परंपरा की चरम सीमा पर पहुँच गयी थीं दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि हुए जो अत्यन्त सहज सरल भाषा में अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में ही अपने मार्मिक मनोभाव प्रगट, करते थे। श्री हर्ष के नैषध चरित के अलंकृत श्लोकों के साथ खेमचन्द के व्याकरण में आये हुए अपभ्रंशों के दोहों की तुलना करने से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाएगी कि धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी महान् प्रतिभाशाली आचार्यों का उद्भव इसी काल में हुआ है और दूसरी तरफ निरक्षर सन्तों के ज्ञान के प्रचार का बीज भी इस काल में बोया गया था। यह काल भारतीय विचारों का मंथन काल है और इसलिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।”

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि आचार्य शुक्ल द्वारा दिया गया नाम प्रमाणिक व औचित्यपूर्ण नहीं है। ऐसी स्थिति में इस काल को वीरगाथाकाल नहीं मान सकते हैं। ऐसा लगता है कि स्वयं शुक्ल जी इस नाम को लेकर सन्तुष्टौ नहीं थे। यदि ऐसा होता तो वे यह क्यों लिखते – “इसी संक्षिप्त सामग्री को लेकर थोड़ा बहुत विचार हो सकता है उसी पर हमें सन्तोष करना पड़ता है।” वास्तविकता यह है कि संदिग्ध सामग्री के आधार पर दिया गया यह नामकरण भ्रांतिमूलक है।”

2. आदिकाल नामकरण : तर्क- हिन्दी साहित्य के आलोच्यय युग को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वीरगाथा काल नाम की अपेक्षा आदिकाल कहना अधिक उपयुक्त समझा है, उन्होंने इस नामकरण के पीछे जो तर्क प्रस्तुत किये हैं, उनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-

(अ) हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग को आदिकाल कहना इसलिए सार्थक है कि उसमें युग के प्रारम्भिक समय की सूचना व संवेदना का भाव है, यही वह काल है जहाँ से हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रारम्भ होता है, जो प्रारम्भ है, उसे अन्य विवादों से अलग-अलग रखकर आदि काल कहना समीचीन ही है।

(ब) आचार्य द्विवेदी की धारणा है कि धर्म और साहित्य दोनों का प्रवाह सम्बन्धित रहा है। धर्म ने साहित्य को गति दी है, तो साहित्य ने धर्म को प्रचारित, प्रसारित एवं शक्तिमत्ता से सम्बद्ध किया है। जब धर्म और साहित्य सहचर हैं तो फिर धार्मिक रचनाओं को साहित्य क्षेत्र से बहिष्कृत करने का क्या औचित्य है ? आचार्य शुक्ल ने धार्मिक ग्रन्थों को साहित्य की सीमा में प्रविष्ट नहीं होने दिया। उन्होंने आदिकाल साहित्य में उपलब्ध धार्मिक रचनाओं को यह कहकर निरादूत कर दिया है कि धार्मिक उपदेश और आध्यात्मिक प्रवचन साहित्य की रस पेशलता में बाधक हैं। आचार्य द्विवेदी ने शुक्ल के इस मत की कटु आलोचना की। उन्होंने कहा कि भारत जैसे धर्मप्राण देश में धर्म और आध्यात्म की उपेक्षा करके साहित्य सर्जना की कल्पना आकाश कुसुमवत् है ।

(स) आचार्य द्विवेदी ने जिन रचनाओं को प्रामाणिक माना है, उनमें धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ उन ग्रन्थों को भी मान-सम्मान दिया गया है, जो रासो साहित्य लौकिक साहित्य, या कतिपय अन्य फुटकर विषयों पर लिखी गई है। एक स्वस्थ आलोचक की दृष्टि से यही होनी चाहिए कि वह सभी पहलुओं पर विचार करे और निभ्रान्त दृष्टि से ऐसा मत प्रस्तुत करे कि कोई अन्य व्यक्ति अथवा समीक्षक उस पर प्रश्निल दृष्टि न जमा सके। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मन्तव्य ऐसा ही है जिसमें किसी अन्य के प्रति अवमानना के भाव नहीं, अपितु भ्रान्त धारणाओं का परिष्करण और सही मन्तव्य का आलेखन है।

3. चारणकाल और सन्धिकाल- हिन्दी साहित्य के आदिकाल के नामकरण के सम्बन्ध में डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपना मत प्रस्तुत किया है। उन्होंने इसे दो भागों में विभाजित करके सन्धिकाल और चारणकाल नाम दिया है। डॉ. वर्मा ने हिन्दी भाषा के मिलन बिन्दु को ही सन्धिकाल और चारण भाटों की रचनाओं को चारणकाल के अन्तर्गत रखा है। सामान्यतः डॉ. रामकुमार वर्मा की उपस्थितियाँ न केवल मौलिक हैं, अपितु सत्य के निकट भी दिखाई देती हैं, ऐसी स्थिति में वे एक सूक्ष्मचेता समीक्षक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उन्होंने चारण और भाटों द्वारा की गयी अभिशंसाओं के आधार पर इस युग के खण्ड को चारण काल कहा तो इसमें अनौचित्य नहीं लगता, किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि डॉ. वर्मा ने एक चारण कृति का उल्लेख नहीं किया है। लगता है कि उन्होंने यह मान लिया है कि इस काल में राजाओं के आश्रय में चारण भाट रहा करते थे। अतः वे जो भी लिखते और सुनाते थे वह सब का सब चारण साहित्य ही है। हाँ सन्धिकाल की कल्पना कुछ उपयुक्त लगती है। क्योंकि उसमें दो भाषाओं में एक के स्थान त्याग और दूसरे के ग्रहण की ध्वनि दिखलाई देती है। इतने पर भी इस काल के लिए डॉ. वर्मा द्वारा किया गया, नामकरण इसलिए उपयुक्त नहीं लगता कि उस युग विशेष की प्रमुख प्रवृत्तियों का परिज्ञान इस नाम से नहीं हो पाता है। इसके साथ ही सन्धिकाल और चारणकाल नाम से युग की आत्मा में स्पन्दित, अध्यात्म, दर्शन और रस की त्रिवेणी से हम परिचित नहीं हो पाते हैं।

4. सिद्ध सामन्त युग- राहुल जी ने आदिकाल को सिद्ध सामन्त नामक अभिधा से मन्डित किया है। उनकी धारणा है कि हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग में दो ही प्रमुख प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं। एक तो प्रसिद्ध पुरुषों की अमरवाणी और दूसरे सामन्तों का लवन। ऐसी स्थिति में उस युग को सिद्ध सामन्त काल कहना उपयुक्त है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है कि- “जब हम पुराने कवियों की भाषा को हिन्दी कहते हैं तो उस मराठी, उड़िया, बंगला, आसामी, गोखाली, पंजाबी, गुजराती, भाषा-भाषियों को आपत्ति हो सकती है। उन्हें भी उसे अपना कहने का उतना ही अधिकार है जितना हिन्दी भाषा भाषियों को वस्तुतः ये सारी आधुनिक भाषाएँ बारहवीं शताब्दी की अपभ्रंशों से आती होती दिखाई देती हैं। वस्तुतः इन सामन्तयुगीन कवियों की रचनाएँ उपर्युक्त सारी भाषाओं को सम्मिलित निधि है।” राहुल जी के इस कथन में एक आश्चर्यजनक असंगति दिखाई देती है। एक ओर तो वे अपभ्रंश को सभी भाषाओं की सम्मिलित सम्पत्ति मानते हैं और दूसरी ओर इस पर हिन्दी का एक ऐसा आधिपत्य स्वीकार करते हैं कि उसे पुरानी हिन्दी तक कह डालते हैं। डॉ. शिवकुमार शर्मा ने लिखा है कि हिन्दी प्रेम और भावुकता की दृष्टि से राहुल जी की पुरानी हिन्दी सम्बन्धी मान्यता और विश्वास भले ही ठीक हो परन्तु भाषाशास्त्र की दृष्टि से इसे नितान्त असंगत कहना होगा।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को बीजवपन काल और मिश्रबन्धुओं ने आदि युग कहा है। आदियुग नाम को ही आदिकाल में बदलकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रस्तुत कर दिया है। साहित्यिक प्रवृत्तियों की विविधता को देखते हुए भी इस काल को यह नाम नहीं दिया जा सकता है। यों भी इस काल में प्रायः अपने पूर्ववर्ती साहित्य की सभी काव्यरूढ़ियों और परम्पराओं का सफलतापूर्वक निर्वाह किया गया है। डॉ. कमल कुलश्रेष्ठ ने इस काल को अन्धकार काल कहा है जो उचित नहीं है। आज अनेक अनुसन्धानों के आलोक में इस काल की साहित्यिक, दार्शनिक, धार्मिक और राजनैतिक सामग्री स्पष्ट होती हैं। अतः अंधकरकाल के नाम का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है।

समस्याएँ और समाधान- उपर्युक्त सभी नामों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा दिया गया आदिकाल कुछ अधिक संगत रहता है। द्विवेदी जी ने इस काल को अन्तर विरोधी का साहित्य कहा है। उन्होंने एक साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर इस काल का नामकरण अनुपयुक्त बतलाया है और इसलिए आदिकाल नाम का प्रयोग किया है। इस नाम के प्रयोग के साथ ही उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि “वस्तुतः हिन्दी साहित्य का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्न, परम्परा विनर्गमयुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढिग्रस्त, किन्तु सचेत कवियों का काल है। यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहीं तो यह नाम “बुरा नहीं है।” आचार्य द्विवेदी जी मत का बुरा नहीं है प्रयोग यह ध्वनित करता है कि वे भी इस नाम को अधूरे मन से स्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में इस काल को हमारी दृष्टि में प्रारम्भिक काल कहना ही अधिक उचित है। किसी काल का प्रारम्भ किसी एक साँचे से बंधा बंधाया नहीं होता है। यह काल भी ऐसा ही है। इसमें भी अनेकता और विविधता है। अतः हिन्दी साहित्य का प्रारम्भिक काल नाम हमारी दृष्टि में अन्य नामों की अपेक्षा है अधिक उपयुक्त है।

जहाँ तक आदिकाल के नामकरण से सम्बन्धित समस्याओं का प्रश्न है, वे भी महत्वपूर्ण हैं। नामकरण की समस्या के कारण इस काल की सीमा निर्धारण सम्बन्धी, उपलब्ध सामग्री सम्बन्धी और नामकरण और प्रवृत्तियों सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उठ खड़ी होंगी। यह कहना अधिक उचित प्रतीत होता है कि साहित्य का यह काल अनेक प्रकार से विवादग्रस्त होते हुए भी एक बात में स्पष्टता लिए हुए है कि इसमें नाथों, सिद्धों, जैनियों और रासोकारों का साहित्य सम्मिलित है और विशिष्ट महत्व रखता है।

निष्कर्ष – समग्र विवेचन के पश्चात् कह सकते हैं कि, हिन्दी साहित्य के इस काल को प्रारम्भिक काल कहना ही उचित है। और काल की समस्याओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सर्वाधिक समस्या प्रधान और विवादास्पद काल है। इसमें विभिन्न प्रवृत्तियों का होना तो इस काल को और भी विवादास्पद बना देता है। सम्भवतः इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल के पुनः परीक्षण की आवश्यकता पर जोर दिया था।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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