कबीर और जायसी के रहस्यवाद की तुलना कीजिए।
रहस्यवाद का अर्थ है, निराकार ब्रह्म के साथ मानवीय सम्बन्ध की स्थापना कर मिलन और विरह की अनुभूतियों का वर्णन । वास्तव में रहस्यवाद के अन्तर्गत ब्रह्म को निराकार माना जाता है और उसे प्रिया अथवा प्रेमी मानकर उसके साथ आत्मा के संयोग व वियोग के समय के अनुभवों का वर्णन किया जाता है।
जायसी ब्रह्म को निराकार मानते हैं। ‘प्रेमिका’ या माशूक तथा ‘आत्मा’ की प्रेमी या आशिक मानकर उस ब्रह्म के साथ संयोग का प्रयत्न करते हैं, वह वियोग में दुःख का वर्णन करते हैं। कबीर भी ब्रह्म को निराकार मानते हैं, परंतु वे आत्मा को ‘स्त्री’ व ब्रह्म को ‘पति’ मानते हैं। अर्थात् जायसी व कबीर में ब्रह्म के साथ मानवात्मा के सम्बन्ध में अन्तर है। यद्यपि जायसी मैं एहि अरथ पंडितन बूझा।
व कबीर दोनों ने यहा के साथ प्रेम सम्बन्ध स्थापित किया है फिर भी उस प्रेम को व्यक्त करने की शैली में अन्तर कबीर ने जहाँ स्फुट पद और दोहों में उत्पन्न प्रेम व विरह लिखा है। वहीं जायसी ने दोहा चौपाइयों में ‘कहानी’ कही है तथा उस कहानी के पात्रों द्वारा बा के साथ प्रेम करने की शिक्षा दी है। पद्मावत में कुछ इसी प्रकार के रहस्यवाद की शिक्षा है। यथा-
कहा कि हम्प किछु और न सूझा।
तन चितडर मन राजा कीन्हा।
हियप्रसिंह वृधि पदमिन चीन्हा।
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा।
बिन गुरु जगत को निरगुन पावा। आदि।
उपर्युक्त उदाहरण की अन्तिम पंक्तियों में स्पष्ट है कि रतनसेन व पद्मावती की कथा के बहाने आध्यात्मिक तत्वों का उपदेश है। राजा रतनसेन ‘मन’ है और चित्तौड़ गढ़ ही ‘शरीर’ है। पद्मावती के बहाने बुद्धि या ब्रह्म का वर्णन किया गया है, हीरामन तोता ही गुरु है। रानी नागमती ही जगत् का बन्धन है। इस प्रकार जायसी ने ब्रह्म के साथ प्रेम की शिक्षा लौकिक कथा के द्वारा दी है। जायसी के रहस्यवाद में ‘पद्मावती’ का वर्णन ब्रह्म के समान हुआ है। जिस समय कवि उसके सौंदर्य का । वर्णन करता है, उसे सर्वव्यापी सौन्दर्य के रूप में दिखलाता है-
नयन जो देखा कमल भा, निरमल नीर शरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दमन ज्योति नगहीर
सूफी रहस्यवादी बस इसी पद्धति पर सृष्टि व्यापी ब्रह्म के सौन्दर्य का वर्णन करते हैं। वे ब्रह्म या खुदा को ‘सौन्दर्य’ ही माने हैं- प्रकृति के प्रत्येक कण-कण में उन्हें उसी प्रकार का दीदार होता है। जायसी ने इस सौन्दर्य का जितना मार्मिक वर्णन किया है उतना कबीर नहीं कर सके, फिर भी यत्र तत्र कबीर के पदों में ऐसे वर्णन मिलते हैं। यथा-
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ।।
जायसी में सौन्दर्य व प्रेम दोनों की बराबर प्रतिष्ठा है। जबकि कबीर ब्रह्म के सौन्दर्य के स्थान पर उसके प्रेम के अधिक प्यासे थे। पद्मावत में कबीर के विपरीत पद्मावती के सौन्दर्य-वर्णन के बहाने दिव्य सौन्दर्य की झलक का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया गया है। इसीलिए जायसी का रहस्यवाद आकर्षक व हृदय के अनुकूल है।
कबीर में प्रेम का भाव जायसी के समान ही प्रबल है विशेष कर विरह का वर्णन कबीर में मार्मिक है-
यह तन जारूँ मसि करूँ धूआँ जाय सरग्य ।
मति दै राम दया करै, बरसि बुझावे आग ।
नैना निर्झर लाइया, रहट घरी निसि जाम।
पपिहा ज्यों पिय पिव करै, कबहुँ मिलोगे राम ।
कबीर के ऐसे पद हैं जिनमें ब्रह्म-विरह का वर्णन ऐसा ही करुण है और जायसी में कवि ने नागमती, रतनसेन तथा नागमती के विरह-वर्णनों के बहाने ब्रह्म वियोग में तड़पती हुई मानवात्मा का वर्णन किया है- वियोग सृष्टि व्यापी हो जाता है- जगत् की प्रत्येक वस्तु उस विरह से व्यथित दिखाई पड़ती है-
आवत जग बालक जस रोवा
उठा रोय हो ज्ञान सो खोवा ।
पवन उसी ब्रह्म को छूना चाहता है पर नहीं छू पाता। जल की तरंगें उसी को पाने के लिए उठ रही हैं, परन्तु नहीं पाती- इस प्रकार सभी जगत् के पदार्थ विरह से पीड़ित हो रहे हैं।
जायसी के लिए विरह की आग में जलना एक साधना है, इससे ब्रह्म विषयक प्रेम दृढ़ होता है। विकार भस्म हो जाते हैं। जायसी का रहस्यवाद विरह मूलक रहस्यवाद है। विरह के दुःख का जायसी के यहां जो महत्व है, वह कबीर के यहां नहीं।
कबीर के यहाँ ‘योग’ या हठयोग की अधिकता है- कुण्डलिनी योग के रहस्यमय मार्गों का उलटबांसियों के द्वारा वर्णन है, कबीर इस हठयोग को अधिक महत्व देते हैं। अत: उनका रहस्यवाद ‘योगमूलक’ है। जायसी पर भी योग का प्रभाव है, परन्तु वह योग में प्रारम्भ में साधन के प्रथम सोपानों में आवश्यक है-विकारों के नाम के लिए अन्यथा योग प्रेम का साधन है, साध्य तो ब्रह्म-प्रेम ही है। कबीर योग द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करना चाहते हैं, केवल प्रेम उनके लिए काफी नहीं है। यह बहुत बड़ा अंतर है, जायसी बार-बार विरह का महत्व समझाते हैं-
आकासे मुखि औधा कुआँ-पाताले पनिहारि।
ताको पाणी को हँसा पीवै-विरला कोई विचारि ॥
पनिहारिनि ही कुण्डलिनी है, आँधा कुआँ हीं सहस्रार चक्र है, हंस ही आत्मा है, रस ही ब्रह्मानन्द है। शब्द ही अनहद नाद है।
इन योग के अनुभव का बार-बार वर्णन करके कबीर नहीं थकते; न जाने कितने रूपकों और टेढ़ी-मेढ उक्तियों उलटबांसियों ‘द्वारा कुण्डलिनी योग का वर्णन करते हैं। वह अधिकतर ब्रह्म के सौन्दर्य की आभा व प्रेम विरह का ही वर्णन करते हैं। अतः उनमें कबीर जैसी दुरूहता नहीं है। जायसी के रहस्यवाद में रस अधिक है। उन्होंने केवल हठयोग को ही लिया है। कबीर में ध्यानयोग, जपयोग, लययोग, नादयोग आदि योग के अनेक रूप मिलते हैं- बात यह है कि कबीर पर नाथ योगियों के योग-मूलक रहस्यवाद का प्रभाव अधिक था। गोरखनाथ, मछंदरनाथ आदि एक और तो प्राणायाम, यम, नियम आदि अष्टांग योग द्वारा कण्डलिनी शक्ति द्वारा चक्रों को बेधते थे और उस समय होने वाले विचित्र अनुभवों का वर्णन करते थे। दूसरी ओर किताबी ज्ञान के अभिमानी- जांतिपातिवादी, बाह्य आचारों के विन्यासी पंडित व मुल्ला वर्ग को गालियाँ देते थे विशेषकर पंडतों को, इसी परम्परा में कबीर हुए। अतः उन्होंने भी ‘हठयोग’ का वर्णन व पंडित मुल्ला वर्ग की उखाड़ पछाड़ बहुत की है।
कबीर का रहस्यवाद ‘उद्धव रहस्यवाद’ ‘अधिक है-उसमें आलोचना अधिक है-योग के अटपटे वर्णन अधिक हैं, जायसी के रहस्यवाद में सरसता है, सरलता है, आह है, आँसू है, प्रेम की मनुहार है, अंतर्दाह है। ब्रह्म की झलक देखकर मन के उत्साह का वर्णन है-साधक के मन की किलक अधिक है, उसमें हृदय अधिक रमता है, कबीर के रहस्यवाद में बौद्धिकता व साधन की जटिलता अधिक है; उनमें ‘गोरखधन्धा’ अधिक है, प्रेम का गौरव कम है, जायसी में ब्रह्म की झलक व प्रेम की तड़प आदि अधिक है। कवीर और जायसी दोनों के रहस्यवाद में गुरु की महत्ता अधिक है। यह गुह्य मार्ग है अतः गुरु ही सहायक है। साधना के प्रथम परिचय में जप का भी महत्व है, सन्त व सूफी दोनों माला फेरते हैं। सूफी संयास ले लेते हैं पर ‘सन्त’ गृह में रहकर भी संयासी के समान-निष्काम करते हैं। सूफी व सन्तों के रहस्यवाद में एक महान् अन्तर यह है कि सूफी जगत के प्रेम को बाह्य प्रेम का सोपान व सहायक तत्व मानते हैं। बिना सांसारिक प्रेम का आनन्द लिए, बिना सांसारिक प्रेमिका के वियोग में तड़पे ब्रह्म के मिलन के आनन्द का अनुमान कैसे होगा ? बिना लौकिक वियोग के दुःख का अनुभव किये बिना बह्य के वियोग के दुःख का अनुमान कैसा होगा ?
जगत् का प्रेम कबीर के लिए आवश्यक नहीं है बल्कि बाधक है। कबीर का सांसारिक भोग के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने जगत के भोगों की कठोर निन्दा की है तथा स्त्री की योनि को राक्षिसिनी कहा है- (भग राकसिनी तिहुँ लोक को खाया।) यह हठयोगियों का दृष्टिकोण है। अतः जायसी के रतनसेन को कबीर अवश्य गालियाँ सुनाते परन्तु जायसी के यहाँ माशूक की खोज आवश्यक है, संसार में प्रेम करो ताकि दिव्य प्रेम की शिक्षा मिले-जायसी का यह सिद्धान्त था। अतः जायसी के यहाँ पद्मावती व रतनसेन के विवाह के बाद ‘सम्भोग’ का उत्तेजित वर्णन जो अश्लील तक हो गया है; परन्तु यह स्मरणीय है कि जायसी इस सम्भोग या वस्ल का वर्णन इसलिए करते हैं ताकि मनुष्य को यह अन्दाज लग सके कि खुदा की पहिचान प्राप्त करने के बाद जो जीव व ब्रह्म का ‘वस्ल’ (मिलन) होगा वह कितना आनन्दमयी होगा।
कबीर निर्गुण भक्ति के अधिक समर्थक हैं। उनकी भक्ति में प्रेम का निवेदन अधिक रहता है। जायसी में भक्ति का यह आवेश कम है। वहाँ प्रेमी व प्रेमिका की नोक-झोंक अधिक हैं, प्रेमिका के सिवा सूफी किसी अन्य रूप में चिरन्तन सत्ता को नहीं देखना चाहते हैं। अतः कबीर को भोगी के साथ-साथ भक्त भी कहा गया है, परन्तु जायसी को भक्त कोई नहीं कहता क्योंकि भक्ति में ‘द्वैत’ आवश्यक है फिर भक्ति में प्रेमी-प्रेयसी का सम्बन्ध नहीं चलता, क्योंकि प्रेम-सम्बन्ध में बराबरी आ जाती है। कबीर में ‘राम’ को पिता, माता, स्वामी आदि रूपों में भी देखा गया है और पति रूप में भी।
वस्तुतः जहाँ कबीर ब्रह्म को पति के रूप में देखते हैं वहीं वह रहस्यवादी हैं-
दुलहिनी गावा मंगलाचार-मेरे घर आये राजा राम भरतार ।
अन्यत्र कबीर भक्ति हैं या योगी हैं पर तुलसी भक्त हैं। वह राम को स्वामी व अपने को सेवक मानते हैं अतः दीनता, दासता की भावनायें तुलसी में अधिक है। कबीर में यहाँ भावना मिलती है क्योंकि यह रामानन्द के शिष्य थे जो रहस्यवादी नहीं, भक्त थे-
हरि जननी में बालक तोरा।
यहाँ स्पष्ट ब्रह्म को ‘माता’ के रूप में देखा है, ऐसे पदों में कबीर भक्त हैं, रहस्यवादी नहीं ।
रहस्यवादी भी कई तरह के होते हैं-प्रेमवादी, रहस्यवादी, सौन्दर्यवादी। जायसी ऐसे ही रहस्यवादी हैं। जायसी में प्रकृतिवादी रहस्यवाद भी मिलता है अर्थात् प्रकृति के सौन्दर्य को ब्रह्म के सौन्दर्य की झलक मानकर वह आनन्दित हो उठते हैं।
कबीर ब्रह्म को पति मानक, आत्मा रूपी पत्नी के सुख-दुःख का वर्णन करते हैं अर्थात् वह कहीं रहस्यवादी दार्शनिक हैं, तो कहीं योगमूलक रहस्यवादी हैं और कहीं कहीं वास्तविक रहस्यवादी हैं। जायसी के रहस्यवाद का आधार भारतीय अद्वैतवाद है। अद्वैतवाद का अर्थ है, आत्मा व बड़ा दो नहीं एक है। जगत उसी ब्रह्म या आत्मा का प्रकाश अथवा ब्रह्म का सौन्दर्य ही जगत् के रूप में व्यक्त हो रहा है। भारतीय विचारकों ने ब्रह्म व आत्मा को एक माना है, किन्तु सूफी लोग जगत् को ब्रह्म का सौन्दर्य मानते हैं यह उनकी विशेषता है। कबीर आत्मा व बह्म को एक मानते हैं, जगत् को मिथ्या मानते हैं। अतः उनमें प्रकृति के सौन्दर्य का वर्णन नहीं मिलता है।
कबीर के यहाँ शैतान की कल्पना पर जोर नहीं दिया गया है हां उल्लेख जरूर हुआ है। जबकि सूफी धर्म में शैतान – आत्मा को भटका देता है। पद्मावत में ‘राघव’ को शैतान बताया गया है जो रतनसेन की प्रेम-साधना में विघ्न डालता है, अलाउद्दीन को बहकाता है। जायसी के यहाँ खुदा महबूब या माशूक है, गुरु या मुरसिद उसकी पहिचान कराता है। शरीयत (कुरान के नियमों का पालन), तरीकत (उपासना काण्ड), हकीकत (वास्तविक ज्ञान) के सोपानों को पार करके साधक या प्रेमी खुदा को पहचान लेता है और (मारफत) उससे प्रेम करता है तब “अलहक” सोऽहम (मैं ख़ुदा हूँ) की स्थिति आ जाती है। इस अन्तिम स्थिति का वर्णन कबीर व जायसी दोनों में एक है परन्तु साधना के सोपान भिन्न हैं। जायसी इस दुनिया को ख़ुदा व बन्दे के बीच परदा मानते हैं, यद्यपि यह पर्दा खूबसूरत है तथापि यह हमें खुदा से अलग करता है। मारफत के बाद यह पर्दा उठ जाता है और हमें सत्य का दीदार हो जाता है। इस दीदार में बड़ी बाधायें आती हैं। जायसी ने इन बाधाओं का विस्तार से वर्णन किया है। रतनसेन जोगी बनकर जब सिंघलगढ़ जाता है तो मार्ग समुद्र में उसके जहाज टूट जाते हैं। वह कष्ट उठाता है परन्तु अन्त में वह पद्मावती को प्राप्त करता है।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि जायसी के रहस्यवाद पर शैतान द्वारा प्रेम में बाधायें, ब्रह्म को प्रेयसी मानना, लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम का सोपान मानना आदि फारसी रहस्यवाद के तत्व हैं। कबीर पर सूफी रहस्यवाद का कुछ प्रभाव अवश्य है परन्तु वह केवल प्रेम व प्रेम के ढंग पर है। शेष बातों में कबीर भारतीय योग के अधिक निकट हैं। जायसी की प्रेरण भारतीय है तथापि उनकी वर्णन-पद्धति, प्रेमपद्धति विदेशी है उनमें प्रेम की पीर अधिक है जबकि कबीर में गम्भीर योग का चमत्कार है।
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