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कबीर के काव्य रस का परिचय
तुलसीदास के सम्बन्ध में जिस प्रकार हम कह सकते हैं कि वे कवि तथा समाज सुधारक दोनों एक साथ थे, वही बात हम कबीर के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। कविता इन कवियों के लिए साधन थी, साध्य नहीं। किन्तु साध्य की पूर्ति का माध्यम उन्होंने कविता को ही चुना हैं।
हमें इन कवियों के दोनों रूपों को पृथक-पृथक करके नहीं देखना चाहिए। डॉ० बड़थ्वाल की पुस्तक “हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय” की भूमिका में श्री परशुराम चतुर्वेदी का कहना है कि डॉ० बड़थ्वाल ने इन सन्तों द्वारा रची गयी कविताओं को वस्तुतः कविता की श्रेणी में न मानकर उन्हें इनकी भावाभिव्यक्ति का एक साधन मात्र माना है। अभिव्यंजना हेतु अन्यान्य स्रष्टा जिस माध्यम को ग्रहण करते हैं, सन्त साहित्य का स्रष्टा उसे अपने विशेष उद्देश्य की सिद्धि में बाधक समझ कर उसका त्याग ही करेगा। श्री सतीशचन्द्र न्यायाधीश ने अपने एक निबन्ध ‘सन्त- साहित्य का ऐतिहासिक समन्वयवाद’ में इस पर अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि केवल उपदेशमूलक काव्य या साहित्य का मूल स्रोत आधिभौतिक है और उस श्रेणी की काव्य-रचना करने वाले के व्यक्तित्व में वह अखंड ईश्वर भक्ति नहीं होगी, जो सन्तों की विशेषता रही।
अपने प्रेम-संगीत स्वर पर ही टिप्पणी करते हुए कबीर ने कहा है कि “मैंने अपने शब्दों में आत्मोपलब्धि के साधनों का सार देकर उसकी व्याख्या की है”-
तुम्ह जिन जानौं गीत है, यह निज ब्रह्म विचार रे।
केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे ॥
कबीरदास में जो अपने प्रति और अपने प्रिय के प्रति एक अखंड अविचलित विश्वास था उसी ने उनकी कविता में असाधारण शक्ति भर दी है। उसके भाव सीधे हृदय से निकलते हैं और श्रोता पर सीधे चोट करते हैं।
सन्तों की साधना अन्तर्मुखी वृत्ति के आधार पर चलती थी और वे अधिकतर अपनी अनुमति की अभिव्यक्ति में ही लगे रहते थे। बाह्य जगत् की चर्चा छेड़ते समय भी वे प्रायः अहम्मन्य व्यक्तियों का, पाखंडियों आदि के विविध आचरणों का उल्लेख कर दिया करते थे तथा सामाजिक एवं धार्मिक भेदभावों के बाहुल्य पर अपनी टीका टिप्पणी कर उनसे बचने का उपदेश देते रहते थे । प्राकृतिक दृश्यों के प्रसंग वे केवल ऐसे अवसरों पर ही लाते थे जहाँ उन्हें सर्वव्यापी परमात्मा के प्रभाव एवं अस्तित्व की ओर संकेत करना रहता था। फिर भी कुछ प्रतिभाशाली सन्तों की रचनाओं में हमें प्रकृति चित्रण के बड़े सुन्दर उदाहरण मिल जाते हैं।
ये वस्तुतः आत्मविस्मृति के क्षण होते हैं। कबीर की रचनाओं में ऐसी आत्म-विस्मृति के क्षण अनेक स्थलों पर जाये जाते हैं, जब रूपकों का विधान आप से आप होने लगता है और जो-जो काल्पनिक चित्र कवि के मानस पटल पर चित्रित हुए रहते हैं वे ठीक-ठीक अपने मूल रंग एवं रेखा में ही पाठक व श्रोता के आगे प्रत्यक्ष हो जाते हैं। कबीर द्वारा वर्णित भादों मास की भयावनी रात का एक चित्र देखें-
गहन व्यंद कछू नहीं सूझे, आपन गोप भवौ आपन बूझै ।
और इस कोटि के सन्तों के प्रकृति-चित्रण ने भी उनके कवि होने में सहायता की है। जिन चित्रों का निर्माण वे इनके आधार पर करते हैं उनमें कला एवं उपदेश दोनों ही दृष्टियों से एक विशेष प्रकार का सौन्दर्य लक्षित होता है।
आध्यात्म चर्चा ही कबीर का लक्ष्य
(i) वास्तव में कबीर का लक्ष्य अध्यात्म चर्चा था न कि कविता करना। वे काव्य के लौकिक धरातल पर खड़े हो काव्य का सृजन नहीं करते रहे अपितु आध्यात्मिक आधार पर अपनी अनुभूतियों की यथासंभव भावमयी अभिव्यक्ति करते रहे हैं। अतएव ऐसी स्थिति में हम कबीर को अधिक-से-अधिक आध्यात्मिक कवि की संज्ञा दे सकते हैं।
(ii) डा० त्रिगुणायत का मत है कि हम कवियों को दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। लौकिक कवि तथा आध्यात्मिक कवि । लौकिक कवि उन्हें कहेंगे जिनमें काव्यशास्त्र में वर्णित गुण-दोष, अलंकार आदि की योजना होती है और आध्यात्मिक कवि उन्हें कहेंगे जिनमें छन्द, अलंकारों का कृत्रिम चमत्कार न होकर आत्मतत्व की अमृतरूपा अनुभूति होती है। कबीर ऐसी ही भावमयी अनुभूतियों के सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक कवि कहे जा सकते हैं।
(iii) इस प्रकार कबीर की कविता पर आचार्य मम्मट की काव्य सम्बन्धी परिभाषा लागू नहीं होती जिसमें कहा गया है कि शब्द और अर्थ का वह समन्वित रूप काव्य होता है जो दोष रहित हो, गुण तथा अंधकार सहित हो तथा कहीं-कहीं अलंकार स्पष्ट भी न हो। कबीर की वाणी पर तो भवभूति की परिभाषा ही चरितार्थ होती है जिसमें कहा गया है कि काव्य अमृतरूपा है और आत्मा की कला है। कबीर के काव्य में भी इसी आत्मरस का निरूपण है जिसे उन्हें हरिरस, राम-रसायन आदि कहा है-
“राम रसाइन प्रेमरस, पीवत अधिक रसाल।
कबीर पीवण दुलभ है, माँगे सीस कलाल ॥”
इस प्रकार कबीर को यदि कवि कहा जा सकता है तो इन्हीं अर्थों में कि उनकी वाणी में एक अलौकिक आध्यात्मिक आनन्द मिलता है, आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों के रहस्यमय वर्णन मिलते हैं। यह ऐसी राम-रसायन से सराबोर है कि जिसकी समता संसार के किसी रसायन से नहीं मिलती है। इस रसायन का पान करते ही ऐसी मस्ती या खुमार चढ़ता है कि समस्त भावनाएँ, कामनाएँ और वासनाएँ तृप्त होकर शाँत होने लगती हैं। यही तो काव्य का अलौकिक आनन्द है जिसकी अनुभूति कबीर के इस तथाकथित ‘ब्रह्म- विचार’ से भरपूर रूप में होता है।
कबीर व अन्य मध्ययुगीन कवि
मध्ययुगीन (भक्तिकाल ) अन्य कवियों ने भी कबीर की भाँति काव्यरचना की प्रतिज्ञा नहीं की थी। जिस प्रकार कबीर ने कहा था- ‘तुम जिनि गीत यह’
उसी प्रकार तुलसी ने भी कहा था-
“कवि न होऊं न चतुर कहाऊं ॥”
किन्तु कबीर और तुलसी में एक विशेष अन्तर था। जहाँ तुलसी, सूर आदि छन्द, अलंकार, गुण, रीति, रस- निरूपण से परिचित ही नहीं इनमें पूर्ण निष्णात थे वहाँ कबीर अशिक्षित ही नहीं थे बल्कि काव्य की इन परम्पराओं तथा पद्धतियों से अपरिचित थे। उनका परिचय केवल संत परम्परा में प्रयुक्त होने वाली वाक्यावली तथा तद्नुसार शैली से था अतएव इसी कारण उन्होंने, शब्द, साखियाँ, योगपरक, रूपक, आत्मोक्तियाँ, उलटवासियाँ लिखीं। ये शैलियाँ उनके कवि होने तथा वाणी में चमत्कार आने की द्योतक नहीं। इस कारण यदि कहा जाता है कि कबीर के काव्य में कला का अभाव है तो अनुचित नहीं। इसीलिए कबीर-वाणी में छंद, अलंकार, प्रतीक, रूपक, उलटवाँसियों भाषा आदि के चमत्कार की चर्चा करते हुए डा० गोविन्द त्रिगुणायत ने निष्कर्ष रूप में कहा है-
“कबीर ने काव्य को साहित्यिक बनाने की चेष्टा कभी नहीं की थी। उनके जीवन का लक्ष्य भवसागर में डूबते हुए लोगों के लिए साखी कहना था न कि रसिकों के लिए काव्य की चित्रकारी सजाना। साखियों में यदि हम छंद, गुण, अलंकार आदि साहित्यिक उपादानों को ढूँढ़ने का प्रयत्न करेंगे तो संभव है हमें निराश होना पड़े। उन्होंने अपनी उक्तियों पर गुण, अलंकाररों आदि का कृत्रिम मुलम्मा चढ़ाने की चेष्टा नहीं की थी। यह बात दूसरी है कि उक्ति और उपदेशों को प्रभावात्मक बनाने के प्रयत्न में अलंकारों की योजना स्वतः हो गई हो। अलंकार आदि कबीर के लिए साध्य नहीं स्वाभाविक साधन थे।”
अन्ततः हम कह सकते हैं कि कबीर काव्य कला की स्थिति में मध्य युग के सूर, तुलसी आदि कवियों से भिन्न हैं। इनमें आध्यात्मिक चर्चा के साथ-साथ कला भी है किन्तु कबीर में कला का अभाव है। उक्तियों में जो चमत्कार है वह सहज हो आया है। इतना सब होते हुए भी कबीर की वाणी को काव्य एवं साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान मिला है। प्रश्न है ऐसा क्यों हुआ ? क्या यह सत्य है कि कबीर ने काव्य लिखने की कोई प्रतिज्ञा नहीं की थी, किन्तु आध्यात्मिक रस की गगरी से छलकते हुए रस से काव्य कटोरी में कम रस इकट्ठा नहीं हुआ ?
क्या कबीर कवि हैं ?
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कला की दृष्टि से कबीर को कवि नहीं कहा जा सकता। यदि कविता का अभिप्राय छंद, अलंकार, गुण, रीति आदि की रमणीयता से है, जैसे मम्मट, विश्वनाथ आदि आचार्यों का मत है, तो कबीर को कवि सिद्ध करना असम्भव है। लेकिन यदि काव्य को भवभूति की भाँति, आत्मतत्व की अमृतमयी अनुभूति कहा जाये, तो कबीर इस कसौटी पर खरे उतरते हैं डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि-
“कबीर धर्म गुरु थे, इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद होना चाहिए पर काव्य-रूप में उसे आस्वाद न करने की प्रथा ही चल पड़ी है।”
डा० त्रिगुणायत कबीर को आध्यात्मिक कवि की श्रेणी में रखते हैं। मिश्र बन्धुओं ने तो उनकी गणना नवरत्नों में की है और कहा है कि “कविता की दृष्टि से इनकी उलटवाँसी बहुत प्रशंसनीय है। इनकी रचना सेनापति की श्रेणी की है। इनकी कविता में हर जगह सच्चाई की झलक दीख पड़ती है। इनके ऐसे बेधड़क कहलाने वाले कवि बहुत कम देखने में आते हैं। बाबू श्यामसुन्दर दास के अनुसार कबीर ने कविता के लिए कविता नहीं की। वे निरन्तर सत्य की खोज में आगे बढ़े। संसार की माया रूपी मृग-मारीचिका से व्याकुल प्राणियों को सन्मार्ग दिखाने के लिए उन्होंने जो वाणी कही वही कविता के रूप में हमारे सामने है।
यदि साधारण भाषा में उत्कृष्ट भावों को हृदयंगम करना कवित्व की सर्वश्रेष्ठ कसौटी माना जाय तो कबीर को कवि ही क्यों महाकवि कहना होगा। क्योंकि कबीर की भाषा में हृदय में प्रवेश करने की, चुटीली उक्तियों द्वारा हृदय को झंझोड़ कर प्रभावित करने की अथाह शक्ति है।
कबीर की भाषा का बहता नीर लोक समाज के हृदय तल को अपने प्रखर धारा से आप्लावित करता और सत्य तथा तथ्य को अपनी अक्खड़ प्रकृति एवं फक्कड़ाना मस्ती से कुछ ऐसे अनूठे ढंग से सामने लाता है कि अलंकार की कृत्रिम रमणीयत पिछड़ी-सी लगती है। इसलिए कबीर में भले ही बद्धमूल साहित्यिकता का अभाव हो किंतु अपनी वाणी द्वारा सत्य को उजागर करने की, हृदय को व्यंग्य द्वारा मथ डालने की अद्भुत शक्ति है। इसीलिए कहा गया है कि यदि प्रभाव से श्रेष्ठता मानें तो तुलसी के बाद कबीर का ही नाम आता है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो कबीर को हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य कवि माना है। उनका कथन है कि-
“कबीर में एक प्रकार की घरफूँक मस्ती और फक्कड़ाना लापरवाही के भाव मिलते हैं। उनमें अपने आपके ऊपर अखंड विश्वास था। उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान को, अपने गुरु को, अपनी साधना को सन्देह की दृष्टि से नहीं देखा। केवल बाह्याचारों के गट्ठर, केवल कुसंस्कारों के गड्ढे, साधारण हिन्दू गृहस्थ पर आक्रमण करते समय लापरवाह रहते हैं और इस लापरवाही के कारण ही उनके आक्रमण-मूलक पदों में एक सहज-सरल भाव और एक जीवंत काव्य मूर्तिमान हो उठा है। यही लापरवाही उनके व्यंग्यों की जान है। **** कबीर के भक्ति भाव में आत्म-समर्पण का भाव है और यही उनकी रचनाओं को श्रेष्ठ काव्य बना देता है। सहज सत्य को सहज ढंग से वर्णन करने में कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते।”
इस प्रकार कबीर के काव्य में जो घरफूँक मस्ती है, फक्कड़ाना लापरवाही का कवच और आत्म विश्वास का कृपाण है, सहज, सरल साल भाव लिये सहज सत्य को अभिव्यक्त करने वाला सहज ढंग हैं, अकथ कहानी को रूप देने की जैसी अद्भुत शक्ति है, अत्यन्त सीधी भाषा में गहरी चोट करने में जैसे वे सिद्धहस्त हैं उसे देखते हुए संत के साथ-साथ उन्हें कवि कहना भी उचित ही है। कबीर के महान् व्यक्तित्व के आधार पर ही डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें महाकवि मानते हैं।
“हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है, तुलसीदास ! मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और सब कुछ को झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक प्रकृष्ट करती है। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है। ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि न कहा जाये तो और कहा क्या जाये ?
इसके अतिरिक्त द्विवेदी जी यह भी लिखते हैं कि-
“कबीर को कवि रूप घलुए में मिली हुई वस्तु है। उन्होंने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी बातें नहीं कही थी । उनकी छंदयोजना, उक्तिवैचित्र्य और अलंकार विधान पूर्ण रूप से स्वाभाविक और अत्यन्त साधित हैं। काव्यगत रूढ़ियों के न तो वे जानकार थे और न कायल।”
कबीर के रहस्यवादी रूप की प्रशंसा करते हुए “एवेलिन आडरहिल” ने कहा है कि-
“आत्मविसमयकारी परम उल्लासमय साक्षात्कार के समय भी जो उनके पैर धरती पर जमे रहते हैं, उनमें जो महिमा-समन्वित और आवेगमय विचार हैं, वे जो बराबर और सजीव वृद्धि तथा सहज भाव द्वारा नियंत्रित होते हैं, इससे वे सच्चे भरमी कवि कहे जा सकते हैं।”
आज अधिकाँश आलोचक आचार्य सीताराम चतुर्वेदी के इस मत से कि “काव्य के साथ कबीर का गठबंधन जिन्होंने किया है उन्होंने न कवीर के साथ न्याय किया है न काव्य-रसिकों के साथ” – प्राय: सहमत नहीं हैं। कबीर केवल त्रिकुटी, कुँडलिनि, षट् चक्र आदि का परिचय देने वाले तथाकथित दार्शनिक नहीं जैसा कि आचार्य सीताराम चतुर्वेदी का मत है। कबीर ने काव्य रूढ़ियों को अपनाये बिना उक्तिवैचित्र्य की परम्परा का पालन किये बिना अपनी वाणी में जो प्रभाव उत्पन्न किया है, सहज सत्य को जिस प्रकार प्रतिभा से अभिव्यक्त किया है उससे केवल रस की ही अनुभूति नहीं होती, एक जीवंत दृष्टि भी उत्पन्न होती है जो कम महत्ता नहीं रखती। वास्तव में कबीर के कवि होने की कसौटी उनकी कविता और उसका वज्र प्रभाव है न कि काव्य के छंदों, अलंकारों की गली सड़ी रुढ़ियाँ ।
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