कृष्ण भक्ति काव्य की परम्परा और विकास
महाभारत में अनेक ऐसे स्थल देखे जा सकते हैं जहां कृष्ण के पूजे जाने का उल्लेख है। महाभारत के कृष्ण केवल नीति-विशारद न होकर धर्मात्मा भी हैं। अर्जुन और युधिष्ठिर उन्हें पूज्य बुद्धि से देखते हैं। वेद व्यास जैसे ऋषि ने कृष्ण को अपने से अधिक धर्म-धुरंधर स्वीकार किया है। महाभारत के पश्चात् शताब्दियों तक कृष्ण पूजा का प्रचलन अवश्य रहा। चौथी शताब्दी ईसा के पूर्व में मथुरा के आसपास कृष्ण पूजा के प्रचलन का उल्लेख मेगस्थनीज के यात्रा-विवरण में मिलता है। आगे चलकर जैनों और बौद्धों की प्रतियोगिता में भागवत धर्म के प्रचारकों ने विष्णु के अवतार राम-कृष्ण की उपासना एवं भक्ति का प्रचार किया। फिर भी मौर्य युग तक बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण कृष्ण-भक्ति का अधिक प्रचार नहीं हो सका । चौथी पांचवीं शताब्दी में गुप्त सम्राटों ने भागवत धर्म स्वीकार करके उसकी खूब उन्नति की। सातवीं-आठवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में कृष्ण भक्ति का प्रचार जोरों से हुआ। यहां के प्रसिद्ध आलवार भक्तों में से अनेक कृष्ण के भक्त थे। कृष्ण-भक्ति को अत्यंत आकर्षक रूप प्रदान करने वाले भागवत पुराण की भी दक्षिण में ही रचना हुई।
संस्कृत काव्यों में कृष्ण भक्ति का स्वरूप बहुत प्राचीन काल से विकसित हो गया था। अश्वघोष (प्रथम शताब्दी) के बुद्ध चरित में गोपाल कृष्ण की लीला का उल्लेख मिलता है। हाल सातवाहन (प्रथम शती) ने लोक-प्रचलित प्राकृत गाथाओं का संग्रह करवाया। उनमें कृष्ण, राधा, गोपी और यशोदा आदि का उल्लेख हुआ है। इन गाथाओं में कृष्ण की अनेक लीलाओं का उल्लेख है। यद्यपि इन गाथाओं में भक्ति भावना के दर्शन नहीं मिलते फिर भी इन गाथाओं का कृष्ण-भक्ति में काफी उपयोग हुआ। आलवार सन्तों में कृष्ण भक्ति के विकास के सम्बन्ध में हम पहले ही लिख चुके हैं। भट्टनारायण (8वीं शती) में अपने वेणीसंहार नाटक में नांदी के श्लोक में रास के अन्तर्गत राधा के केलि-कुपित होने पर कृष्ण के अनुनय का उल्लेख किया है। आनन्दवर्धन (9वीं शती) के ध्वन्यालोक तथा दसवीं शताब्दी के कविन्द्र-वचन समुच्चय में कृष्ण लीला सम्बन्धी पद उपलब्ध होते हैं। 12वीं शताब्दी में हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में राधा-कृष्ण सम्बन्धी दो पद उद्धृत किये हैं। इस बात के अनेक प्रमाण मिल चुके हैं कि 12वीं शती में राधा-कृष्ण सम्बन्धी अनेक नाटकों और काव्यों का प्रणयन हुआ। लीलाशुक का कृष्ण मत स्तोत्र इसी शताब्दी की रचना है। जयदेव का गीत-गोविन्द राधा-माधव के उद्दाम शृंगार का वर्णन करते हुए भी एक धार्मिक काव्य है। विद्यापति गीतगोविन्दकार से अत्यधिक प्रभावित दिखाई देते हैं। गीत-गोविन्द के अनुकरण पर संस्कृत साहित्य में अनेक कृष्ण काव्यों की रचना हुआ। 12वीं शताब्दी के बाद अनेक कृष्ण चरित्र सम्बन्धी प्रबन्ध काव्य लिखे गये। 16वीं शती में गौड़ीय वैष्णव मत के अनुयायी विद्वान पं० गोस्वामी ने नाटक-चन्द्रिका में केशव-सरित तथा उज्ज्वल नीलमणि में गोविन्द विलास के नामोल्लेख सहित उद्धरण प्रस्तुत किये। रूप-गोस्वामी की उज्ज्वल नीलमणि ने मध्यकालीन कृष्ण काव्य को अत्यधिक प्रभावित किया। डॉ० बजेश्वर वर्मा इस सम्बन्ध में लिखते हैं-“इस प्रकार आधुनिक भाषाओं में कृष्ण भक्ति साहित्य की रचना होने से पहले प्राकृत और संस्कृत साहित्य की एक लंबी परम्परा थी। इस साहित्य का लोक गीतों तथा लोक-गाथाओं से घनिष्ट सम्बन्ध था तथा वह अधिकतर गीति तथा मुक्तक रूप में था। जो रचनायें प्रबन्ध काव्य और नाट्य के रूप में हुई उनमें भी कदाचित् गीति भावना प्रधान रही होगी। संभवतः इसी कारण संस्कृत साहित्य में उन्हें अधिक गौरव का स्थान नहीं मिल सका परन्तु आगे चलकर परिस्थितियां बदल गई, जिसके फलस्वरूप काव्य की प्रेरणा, भावना, रूप और भाषा में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया। इस परिवर्तन के क्रम में हिन्दी-कृष्ण काव्य को जन्म मिला जिसकी प्रकृति मूलतः धार्मिक है।”
आठवीं नवीं शताब्दी में कुमारिल और शंकर के मायावाद के फलस्वरूप भक्ति आन्दोलन तेजी से नहीं चल सका, परन्तु आगे चलकर रामानन्द (11वीं शती), मध्य (1199-1303), निम्बार्क (12-13वीं शती), वल्लभ (1479 से 1530), चैतन्य (16वीं शती), हित हरिवंश (17वीं शती) आदि आचार्य हुए जिन्होंने भक्ति विरोधी सिद्धांतों का खंडन करके भक्ति का प्रचार किया तथा अपने-अपने संप्रदायों की स्थापना की। कृष्ण-भक्ति से सम्बन्धित संप्रदाय हैं-निम्बार्क, चैतन्य, वल्लभ और राधावल्लभ । हिन्दी के भक्तिकालीन कृष्ण काव्य पर वल्लभ संप्रदाय का बहुत ही अधिक प्रभाव पड़ा।
हिन्दी में कृष्ण-काव्य का आरंभ बहुधा विद्वानों ने विद्यापति से माना है किन्तु इस सम्बन्ध में समरण रखना होगा कि विद्यापति पदावली में राधा और कृष्ण के मादक शृंगारी चित्र हैं जिनमें भक्ति का अभाव है और वासना का रंग गहरा है। विद्यापति पदावली को विशुद्ध रूप से कृष्ण भक्ति काव्य के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है। यह सिद्ध हो चुका है कि विद्यापति शैव भक्त थे। कृष्ण काव्य में सरसता और प्राणों का संचार करने का श्रेय महाकवि सूरदास को है। सूर के द्वारा कृष्ण काव्य को अत्यंत लोकप्रियता मिली है। संभव है कि इसी लोकप्रियता के परिणामस्वरूप तुलसी ने अपनी ‘कृष्ण गीतावली’ में कृष्णा की सरस लीलाओं का चित्रण किया हो। पुष्टिमार्ग के अंतर्गत अष्टछाप के कवियों ने कृष्ण भक्ति के प्रसार एवं प्रचार में अमूल्य योगदान दिया। सूरदास इन कवियों में सर्वप्रथम हैं। सूरदास के अतिरिक्त अष्टछाप के अन्य कवि हैं-कुम्भनदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविन्द स्वामी, चतुर्भुजदास और नन्ददास। इनमें भी नन्ददास तथा कृष्णदास का साहित्यिक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है।
अष्टछाप के इन कवियों के अतिरिक्त कृष्ण भक्ति से सम्बद्ध अन्य संप्रदायों- राधावल्लभी संप्रदाय, गौड़ीय संप्रदाय के कवियों ने भी कृष्ण भक्ति काव्य के विकास में सक्रिय सहयोग दिया। इस दिशा में राधावल्लभी संप्रदाय अत्यंत महत्वपूर्ण है। गोस्वामी तुलसीदास हितहरिवंश राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक हैं और बहुत ही उच्च कोटि के कवि भी हैं। गदाधर भट्ट का सम्बन्ध गौड़ीय संप्रदाय से है जहां ये संस्कृत के महान पंडित थे वहां ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति को अत्यंत सरस कविता भी किया करते थे। स्वामी हरिदास निम्बार्क संप्रदाय के अनुयायी थे। ये गायन-विद्या में अत्यंत निपुण थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि बैजू बावरा इनका शिष्य था। स्वामी हरिदास में कविता और संगीत कला का अद्भुत सम्मिश्रण है। श्री भट्ट भी निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित थे। इनके कृष्ण की रस-रूपोपासना सम्बन्धी पदों में मधुर रस का अत्यंत उज्ज्वल छटा है।
इस दिशा में राजस्थान की प्रसिद्ध कवियित्री मीराबाई भी विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी भक्ति दांपत्य भाव की है और इन्होंने राधा का स्थान स्वयं ही महण कर लिया। इनका काव्य भक्ति के गाम्भीर्य, सरसता और तन्मयता को दृष्टि से अपूर्व बन पड़ा है। अकबर के समकालीन कवि सूरदास मदनमोहन और गौड़ीय संप्रदाय में दीक्षित थे। इनके कृष्ण भक्ति सम्बन्धी पद अत्यंत सरस हैं और वे सूर साहित्य में इस रूप में पुलमिल गये हैं कि उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता है। हरिराम व्यास राधावल्लभी संप्रदाय में दीक्षित थे। ये कृष्ण की रासलीला के बड़े प्रेमी थे। इनके राधा-विषयक पद अत्यंत हृदयहारी बन पड़े है। ध्रुवदास भी राधावल्लभी संप्रदाय के अनुयायी हैं। इन्होंने प्रेमाभक्ति विषयक सुन्दर पदों की रचना की है। सुदामा चरित के प्रसिद्ध लेखक-कवि नरोत्तम दास अपनी प्रेममयी रचना के लिए अत्यंत लब्धप्रतिष्ठ हैं। अकबर दरबार के कवियों में गंग, रहीम, रसखान, बीरबल और टोडरमल प्रमुख हैं। कृष्ण भक्त स्त्री कवयित्रियों में प्रवीण राय, कुंवरबाई साई, रसिक, बिहारी, इन्कुंवरि आदि ने कृष्ण भक्ति सम्बन्धी सुन्दर रचनायें की हैं। रीतिकाल के कृष्णोपासक कवियों में नागरीदास, अलवेली अलि जी, चाचा हितवृंदावन दास, भगवत रसिक, ललित किशोरी तथा सहचरीशरण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। रामधारीसिंह दिनकर का कहना है कि भक्तिकालीन कृष्ण भक्त कवियों में जो स्थान सूरदास का है रीतिकालीन कृष्ण भक्त कवियों में वही स्थान आनन्दघन का है। भक्तिकालीन कृष्ण-काव्य तथा रीतिकालीन कृष्ण काव्य में प्रेरणा और उद्देश्य का मौलिक अंतर है। आधुनिक काल में भारतेन्दु तथा द्विवेदी काल में कृष्ण सम्बन्धी रचनायें लिखी गई किन्तु उनमें भक्ति की अपेक्षा देश-प्रेम और सुधार की भावनाओं की अधिकता है। आधुनिक कृष्ण काव्य में मौलिकता बहुत कम है। पिष्टपेषण प्रायः सबमें पाया जाता है। आधुनिक कृष्ण काव्य में कृष्ण को मानव रूप में चित्रित किया गया है जो कदाचित बुद्धिवादी युग का प्रभाव है। आधुनिक कवियों में भारतेन्दु, जगन्नाथदास रत्नाकर, सत्यनारायण कविरल वियोगी हरि, अयोध्यासिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त तथा द्वारिका प्रसाद मिश्र व धर्मवीर भारती का नाम लिया जा सकता है।
उपर्युक्त अध्ययन के पश्चात् यह निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय धर्म-साधना, संस्कृति, साहित्य और कलायें बहुत प्राचीन काल से आज तक कृष्ण के विलक्षण व्यक्तित्व से अद्वितीय रूप से प्रभावित हुई हैं। यह प्रभाव ईसा की 15वीं-16वीं शताब्दी में कृष्ण भक्त कवियों में अत्यंत ही गहरा और लोकव्यापी हो गया है जो शायद ही कभी पहले इतना गहरा और व्यापक हुआ हो। हिन्दी के मध्यकालीन कृष्ण भक्त कवियों के साहित्य में सरसता, माधुर्य, तल्लीनता और काव्य-सुधा अनुपम है। वस्तुतः हिन्दी साहित्य को कृष्ण भक्त कवियों पर गर्व है।
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