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‘गीतिकाव्य’ की परिभाषा तथा परम्परा का संक्षिप्त परिचय देते हुए ‘विनयपत्रिका’ का तात्विक मूल्यांकन कीजिये ।
परिभाषा – सुश्री महादेवी वर्मा के शब्द में ” गीत का चिरन्तन विषय रागत्मिका वृत्ति से सम्बन्ध रखने वाली सुख-दुखात्मक अनुभूति से ही रहेगा साधारणा गीत व्यक्तिगत सीमा में सुख-दुखात्मक अनुभूति का वह शाब्द-रूप है, जो अपनी ध्वन्यात्मकत में गेय हो सके सुख-दुख की भावावेशमयी अवस्था का विशेषकर गिने-चुने शब्दों को स्वर-साधन के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीति है।” स्पष्ट है कि कवि की अन्तर्मुखी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गीति-काव्य सर्वाधिक उपयुक्त विधा है। संगीत काव्य का अनुयायी है इसीलिये गीति की शब्द-संयोजना में शब्द ध्वन्यात्मकता से युक्त होते हैं। इसी सुख-दुखात्मक वातावरण में प्रसूत ललित काव्य-अंश ‘गीति’ की परिभाषा में आते हैं। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
(क) ‘रुदन का हँसना ही तो गान।
रो रोकर गाती है मेरी हतंत्री की तान। (मैथिलीशरण गुप्त )
(ख) ‘एक अभावों की घड़ियों में,
भाव भरा में बोला।” (बच्चन)
(ग) ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़ कर आँखों से चुपचाप, वही होगी कविता अनजान।’ (पंत)
(घ) Our Sweetest songs are those that tell of saddest thoughts.’ (shelly)
(ङ) ‘गीतिकाव्य कवि की निजी भावनाओं का प्रकाश होता है। सहज शुद्ध भाव, स्वच्छन्द कल्पना, तर्कवाद और न्याय-मूलकता मुक्त विचार, ये ही गीतिकाव्य की विशेषताएँ हो सकती हैं।’ (रस्किन)
उपर्युक्त परिभाषाओं को दृष्टि में रखते हुए मूल्यांकन रूप में यह परिभाषा दी जा सकती है-“गीत में वैयक्तिक अनुरागात्मक तीव्र रागात्मक अनुभूति का सहयोग होता है। मानव के अन्तःकरण में दबे हुए भाव जब किसी बाह्य-साधन से टकरा-टकराकर एक साथ स्वभावतः ही गीति में फूट पड़ते हैं तो उसमें रागात्मकता एवं हार्दिकता होती है। जीवन में कुछ भाव दवे रहते हैं। ये दबे हुए रागात्मक भाव कुछ विशेष क्षणों में जाग्रत होकर हृदय को झकझोर देते हैं। वैयक्तिक रागात्मक अनुभूति की संगीतमयी अभिव्यक्ति ही गीति काव्य की वास्तविकता है। हृदय में न समा सकने पर जब अन्तर का आकुल उच्छ्वास अपनी सम्पूर्ण मादकता, तरलता, मार्मिकता और स्निग्धता के साथ संगीतात्मक अभिव्यक्ति बन कर फूट पड़ता है तभी वह गीतिकाव्य की कसौटी पर खरा उतरता है।”
गीतिकाव्य का संक्षिप्त इतिहास-
‘गीत’ शब्द का प्रयोग काफी पुराना है। हेमचन्द्र ने लिखा है- ‘गीत शब्दितगानयोः।’ श्री लोचन प्रसाद पाण्डेय ने सर्वप्रथम गीतिकाव्य का प्रयोग करते हुए अपनी पुस्तक ‘कविता-कुसुम माला’ में लिखा है- “काव्य के तीन प्रकार हैं- गीति काव्य, श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य गीतिकाव्य गीत शैली का नव्यतम विकास है। गीत और गीति-काव्य का विकास लोक गीतों से हुआ है।” संस्कृत में तो गीतिकाव्य का विकास वैदिक काल में ही आरम्भ हो गया था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र कुमार भावों की अभिव्यक्ति होने के कारण संगीतमय हैं, इसीलिये गेय हैं। वैदिक साहित्य के पश्चात् बौद्ध साहित्य की थेर-गाथाओं में गीतिकाव्य के अच्छे से अच्छे मार्मिक उदाहरण पाये जाते हैं। बाल्मीकि रामायण में (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्) आदि श्लोक गीतिमय ही तो हैं। संस्कृत साहित्य में ‘मेघदूत’ तथा जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ गीतकाव्य के उत्कृष्ण उदाहरण हैं।
हिन्दी साहित्य की शैशवावस्था में गीतिकाव्य का सूत्रपात वीरगीतों से आरम्भ होता है। वीरगाथाओं के काव्य का इस दृष्टि से विशेष महत्व है। गीतिकाव्य के विकासात्मक इतिहास का पर्यालोचन करें तो ‘विद्यापति’ का सर्वश्रेष्ठ स्थान निर्धारित होता है। ‘गीतगोविन्द’ की गीत योजना से प्रभावित होकर विद्यापति ने ‘पदावली’ की रचना की। विद्यापति की पदावली लोकधुनों पर आधारित है। इनमें प्रेम, सौन्दर्य तथा श्रृंगार का गंगा-यमुनी संगम है। विद्यापति ने गीति तत्व की दृष्टि से पद-साहित्य का सूत्रपात किया था। इस काव्य परम्परा को विकासात्मक रूप देने में सन्त कवियों-कबीर, दादू, नानक आदि का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है इन सन्तों के गीत विशेषतः भक्तिपरक हैं। ये गीत राग-रागिनियों में बंधे हुए होने के कारण सांगीतिक सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखते हैं। कबीर के गीतों में दार्शनिकता के साथ-साथ विरह विधुरा आत्मा का भी करुण क्रन्दन है। मूलतः गीति-काव्य का वास्तविक विकास भक्तिकाल की कृष्ण भक्ति काव्यधारा के अन्तर्गत ही हुआ है महात्मा सूरदास, नन्ददास, परमानन्द दास तथा मीराबाई आदि का विशेष स्थान है। इन भक्त कवियों ने कृष्ण चरित पर बहुत से पदों की रचना की है। ये सारे ही पद टेक सहित भावानुकूल विविध राग-रागनियों में बँधे हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में भक्ति-काल के पदावली-साहित्य का विशेष प्रभाव राम भक्ति काव्यधारा पर भी पड़ा। महात्मा तुलसीदास ने वैयक्तिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए ‘गीतावली’, ‘श्रीकृष्ण गीतावली’ तथा ‘विनय पत्रिका’ की रचना की। रीतिकाल की रीतियुक्त काव्यधारा में घनआनन्द प्रभृति कवियों ने गीतिकाव्य की इस परम्परा को प्रसार दिया। आधुनिक काल में भारतेन्दु, रत्नाकर, प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला आदि कवियों ने गीतिकाव्य को प्रसारित किया। छायावाद के कवियों पर पाश्चात्य गीतिकाव्य का भी विशेष प्रभाव पड़ा। “मूलतः उक्त गीतिकाव्य का प्रमुख तत्व ‘भाव’ है। भाव की प्रधानता गीतिकाव्य की विशिष्टता है। इसी तत्व के आधार पर गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं-1. आत्माभिव्यक्ति, 2. भावात्मकता, 3. स्वाभाविकता, 4. संगीतात्मकता, 5. कोमलकांत पदावली। ‘विनयपत्रिका’ में तुलसीदास का भक्तिप्रवण हृदय सहज ही वह गया है। इस ग्रन्थ के पदों में तुलसी की व्यक्तिगत भावुकता, दीनता एवं विवशता चित्रित है। अतः अब हम गीतिकाव्य के उक्त प्रमुख तत्वों के निष्कर्ष पर ‘विनय-पत्रिका’ की समीक्षा प्रस्तुत करेंगे।
गीतिकाव्य की दृष्टि से विनय पत्रिका-
आचार्य शुक्ल ने ‘विनय पत्रिका’ के रचना विधान का कारण निर्दिष्ट करते हुए लिखा है- “विनयपत्रिका के बनने का कारण यह बताया जाता है कि जब गोस्वामी जी ने काशी में राम-भक्ति की गहरी धूम मचाई तब एक दिन कलिकाल तुलसीदास जी को प्रत्यक्ष आकर धमकाने लगा और उन्होंने राम के दरबार में रखने के लिये यह पत्रिका या अर्जी लिखी।” उक्त कथन से स्पष्ट है कि तुलसीदास ने कलियुग की विषमताओं की चक्की में पिस रही मानवता को भक्ति भावना की ओर प्रेरित किया तथा माया में लिप्त जीव का तात्विक विश्लेषण करके उसकी यथार्थ स्थिति को सामने रखा। बात यों है कि जो भी उद्गार कवि के कंठ से फूटा वह समाज के दर्पण का विम्ब होते हुए भी कवि की निजी अनुभूति तथा अभिव्यक्ति था । अतः सुख-दुखात्मक अनुभूतियों से सन्निविष्ट होने के कारण तुलसी की ‘विनयपत्रिका’ गीति-काव्य का अन्यतम दृष्टान्त बन जाती है। गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों की दृष्टि से विनयपत्रिका का मूल्यांकन इस प्रकार है।
1. आत्माभिव्यक्ति— आत्माभिव्यक्ति साहित्य का प्रमुख तत्व है। साहित्य में जब तक कवि अथवा साहित्यकार अपने चिन्तन की अभिव्यक्ति में अपनत्व को समाहित नहीं कर देता उसमें विशेष प्रवाह अथवा लालित्य आ ही नहीं सकता। विनयपत्रिका के अधिकांश पद कवि के अन्तर्जगत से जुड़े हुए हैं। तुलसीदास ने आपबीती के रूप में अपने ही अन्ततल की सुख-दुखात्मक स्थितियों की व्यंजना की है। आत्म-निवेदनात्मक शैली में जो दीनता, विवशता एवं प्रभु के अनुग्रह की माँग है, उसके कारण गीतिकाव्य के प्राण तत्व ‘आत्माभिव्यंजन’ की रक्षा करने में तुलसीदास जी को अन्यतम सफलता मिली है। इस कलिकाल के दशों से पीड़ित भक्ति के रूप में तुलसी का आत्म-निवेदन हृदय की कसम भरी टीस है। तुलसी संसार के जीवन से निराश हो जाते हैं। उनका स्वभाव असन्तत्व से भरा है। भक्त की आत्म-पुकार है कि कब इस संसार के जंजाल से छूटकर संतों का साहचर्य कर पाऊँगा। केवल सन्तोष सुख की कामना है। वह दिन कब आएगा जब परहिताय मनसा, वाचा, कर्मणा में उत्सर्ग कर पाऊंगा। कब क्रोध पर विजय पाऊंगा। दूसरे के अग्नि के समान तेज शब्दों को भी सुनकर शान्त रहूँगा। दूसरों के दोषों के पाठ सीखूंगा। परहिताय अपनी देह पर हर प्रकार के कष्ट सहने की सामर्थ्य पाऊंगा। हे प्रभु ! कब वह दिन आएगा जब इन अमर तत्वों को प्राप्त करके अविचल राम भक्ति को प्राप्त करूँगा
“कबहुँक हौं यहि रहिन रहौंगो।
श्री रघुनाथ कृपालु कृपा तें संत-सुभाव गहौंगो ।
जथा लाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चलैंगो ।
परहित निरत निरन्तर मन क्रम-वचन नेम निबहाँगो ।
परुष वचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहाँगो ।
विगत मान, सम सीतल मन, पर-गुन नहिं दोष कहौंगो ।
परिहरि देह जनित चिन्ता, दुख-सुख सम बद्धि सहाँगो ।
तुलसीदास प्रभु यहिं पथरहि अविचल हरि भगति लहाँगो । “
श्री वियोगी हरि के शब्दों में- “इस पद में कवि सच्चे मनोराज्य में विचरण कर रहा है। यह राज्य कल्पना के वायुमंडल से कोसों दूर है। यहाँ सचमुच सत्य की पताका फहरा रही है। योगी इसे समाधिगत राज्य में प्राप्त करता है। भक्त भगवान के आगे आत्मसमर्पण करता हुआ इस राज्य का उत्तराधिकारी सहज ही बन बैठता है।” यह कवि की शुद्ध आत्माभिव्यक्ति है। आत्माभिव्यक्ति का ऐसा ही सहज उद्वार अधोलिखित पदों में द्रष्टव्य हैं।
गरैगी जीह जो कहाँ ओरे को हौं ।
जानकी जीवन ! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौर को हौं।”
और मोहि को हैं, काहि कहिहौं।
रंक राज ज्यों मन को मनोरथ केहि सुनाई जब लहिहौं।’
यो सम कुटिल मौल मनि नही जोग, तुम सम, हरि ! न हरन कुटिलाई।
तुम सम दीनबंधु, न दीन कोड मो सम सुनहु नृपति रघुराई।
कहाँ जाऊ कासों, कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम ग्रैवायों तेरे ही द्वार किंकर तेरे।”
भवात्मकता- भावात्मक गीतकाव्य की दूसरी प्रमुख विशेषता है। जब कवि अपने व्यक्तिगत सुख-दुःख से व्यथित अथवा पुलकित हो उठता है तब उसके हृदय में मानव हृदय की भावनाओं का स्पन्दन-सा होने लगता है। इस स्पन्दन में भावत्व ही अधिक रहता है। भावों की भीड़ में तैरता हुआ कवि अपनी अभिव्यक्ति को भावुक बना देता है। भावनात्मक परिवेश में निरत रह का महाकवि तुलसी ने अनेक पदों में अपने भक्ति-भाव का सात्विक प्रदर्शन किया है। भावात्मकता में कहीं भी तो अहं की गंध नहीं है। बस यदि कुछ है तो केवल दैन्य, सरस सरलता, एवं विवशता भाव-सम्पदा में डूबा हुआ कवि जिस तरफ उन्मुख हो जाता है उसी तरफ एकनिष्ठ होकर एकाग्र बन जाता है। देखिये राम-नाम जप महिमा, के महत्व का चित्रण करता हुआ कवि लिखता है
‘राम जपु जीह । जानि, प्रीति सो प्रतीत मानि,
राम नाम जपे जैहै जिय की जरनि ।
राम नाम सों रहनि राम नाम की कहनि, कुटिल कलि मल साके संकट हरनि।
राम नाम को पूभाउ पूजियत गराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि ।।’
भावावेश में कवि प्रभु की गुरुता तथा अपनी दीनता-विवशती का धाराप्रवाह कथन करता ही चला जाता है। अपने दैन्य-भाव को चित्रित करने के लिए जन-जीवन से दृष्टान्त ग्रहण करता है। कवि कहता है जब मालिक उदासीन हो जाता है तब नौकर विशेष का भी पतन हो जाता है फिर मेरी तो बात ही क्या ? मैं तो दुखों के प्रवाह में प्रवाहित हो रहा हूँ। जब इस संसार में ही सुख नहीं है तो परलोक में कहाँ होगा। मुझे किसी ऐश्वर्य की कामना नहीं है। मैं तो बस आपके चरणों की भक्ति मानता हूँ। मेरा निर्वाह आपके ही हाथ में है।
‘साहिब उदास भये दास खास खीस होत,
मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यौं हौं
लोक मैं न जाऊं परलोक को भरोसो कौन !
हौं तो बलि जाऊं राम नाम ही तें लह्यौं हौं।
रटत रटत लढ्यौ, जाति-पाँति घटयो,
जूठनि को लालची चहौं न दूध नाह्यौ हौं ।
तुलसी समुझि समुझाये मन बार बार,
अपनो सौ नाथ हूँ सौ काहि निरबह्यौ हौं ।
(3) स्वाभाविकता- गीतिकाव्य की तीसरी प्रमुख विशेषता स्वाभाविकता है। स्वाभाविकता से तात्पर्य है जो बात जैसे है उसका ठीक वैसा ही चित्रण। कहीं काव्य में ऐसा न हो कि काव्य यथार्थ से दूर जा पड़े। ज्यों ही कृथ्य यथार्थ से दूर हटने का प्रयास करता है उसमें कृत्रिमता आ जाती है। कृत्रिमता का समावेश होते ही काव्य का सहज लालित्य समाप्त हो जाता है। ‘विनयपत्रिका के पदों में निहित विचार तत्व सहज स्वाभाविक हैं। उनमें कहीं भी कोई तत्व ऐसा नहीं है जिसे यह कहा जाय कि तुलसी ने पांडित्य प्रदर्शन किया है अथवा तुलसी की अमुक रचना में कृत्रिमता है। तुलसी की दास्य- भक्ति बड़े ही स्वाभाविक ढंग से व्यंजित हुई है।
‘विनयपत्रिका’ में कवि ने तत्कालीन परिस्थितियों का चित्रण करते समय लिखा है कि कलियुग में वैराग्य, योग, यज्ञ, तप और त्याग है। इसी कारणा अशान्ति फैली है-
‘कलि न विराग, जोग, जाग, तप त्याग रे ।’
उस युग की परिस्थितियों का स्वाभाविक चित्रण करते हुए कहा गया है कि यह संसार पाप, दरिद्रता तथा दुःख से है। ब्रह्ममूर्ति ब्राह्मण भी क्रोध, राग, मोह, मद तथा लोभ का शिकार है। जन-समूह धर्म से च्युत है। सज्जन व्यक्ति दुखी है। खल | विलास का जीवन जी रहे हैं। कितना स्वाभाविक चित्रण है-
‘दीन दयाल दुरित दारिद दुख दूनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सब की सब सुख हानि भई है।
प्रभु के वचन वेद-बुध सम्मत मम मूरति महिदेव मई है।
जिसकी मति रिस राग मोह मद लोभ लालची लीली लई है।
सान्ति सत्य सुभ रीति गई घटि बढ़ी कुरीति कपट कलई है।
सीदति साधु साधुता सोचति, खल विलासत हुलसति खलई है।”
(4) संगीतात्मकता- गीतिकाव्य का प्रमुख विशेषता संगीतत्व है। प्रायः भक्तिकाल का जितना भी साहित्य उपलब्ध है वह सांगीतिक दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखता है। महाकवि तुलसीदास कृत ‘विनयपत्रिका’ का प्रत्येक पद शास्त्रीय संगीत-सौन्दर्य से पुष्ट है। प्रत्येक राग-रागिनियों में बंधा हुआ है। ‘विनयपत्रिका’ में असावरी, कान्हरा, मनाश्री, भरैव, मारू, बसंत, विभाग, सही, बिलावल, कल्याण, सोरठ, मलार, ललित, चचरी, जैतश्री, टोडी, विहाग भैरवी आदि राग-रागनियों की प्राण प्रतिष्ठा की है। डॉ० विमल कुमार जैन के शब्दों में- “विनय पत्रिका’ में यद्यपि तत्सम शब्दों का पूर्ण सामाजिक शैली से दुमहता हो गई है तथा यत्र-तत्र यतिभंग दोष भी प्रतिभासित होता है परन्तु वस्तुतः ताल और लय में कसे जाने पर गेयता में कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता।” कहने का तात्पर्य यह है कि ‘विनय पत्रिका’ में काव्यत्व एवं संगीतत्व का अनूठा योग है। इन्हीं प्रकृतियों की दृष्टि से | यह काव्य भक्तों एवं काव्यमर्मज्ञों दोनों के ही कंठ का हार बना हुआ है। संगीतात्मकता की दृष्टि से विनय का प्रतिनिधि पद यह है-
‘गाइये गनपति जगवंदन। संकर सुवन भवानी-नंदन !
सिद्धि सदन, गजवदन, विनायक । कृपा सिंधु सुन्दर, सब लायक।’
(5) कोमलकांत पदावली- गीतिकाव्य में भाषा शैली अथवा कवि की शब्द-योजना का भी विशेष महत्व रहता है। गीत क्योंकि हृदय के कोमल पक्ष की व्यंजना है इसलिए उसके भाव का वहन करने के लिए भाषा शैली भी कोमल वर्णों से युक्त ही होनी चाहिये। तुलसी की विनयपत्रिका में कोमलकांत पदावली की विशेष निबन्धना है। संगीत की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए कवि ने वर्ण-योजना में विशेष सतर्कता बरती है। विनयपत्रिका के पदों में- वर्णमैत्री, वर्ण-संगीत तथा वर्ण-संगति का विशेष ध्यान रखा गया है। प्रत्येक पद अनुप्रास के ललित सौन्दर्य से युक्त है। इन पदों में कवि ने अन्त्यानुप्रास की योजना भाव तथा प्रसंगानुकूल ढंग से की है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
‘दीनदयाल, दुरित दारिद-दुख दुनी दुमह तिहूँ ताप तई है ।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ।
राज-समाज कुसाज, कोटि कटु कलपित कलुप कुचाल नई है।’
नीति, प्रतीति प्रीति परामिति पति हेतुवाद हठि हेरि हई है ।”
उक्त पदों में क्रमश: ‘द’ ‘स’ ‘क’ ‘न’ ‘प’ आदि वर्णों की आवृत्ति करके कवि ने वर्ण संगति तथा वर्ण- मैत्री के साथ वर्ण-संगति को अधिक महत्व दिया है। प्रत्येक वर्ण कोमल है। इस कोमलकांत पदावली में कवि ने आत्माभिव्यक्ति, भावात्मकता, स्वाभाविकता तथा संगीतात्मकता का अनूठा समन्वय कर दिया है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि विनयपत्रिका गीति काव्य के मूलभूत तत्वों की कसौटी पर खरी उतरती है। डॉ० भगीरथ, मिश्र के शब्दों में- “यद्यपि गीतिकाव्य आधुनिक युग की देन है, फिर भी गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका में शुद्ध गीतिकाव्य का उत्कृष्ट नमूना रखा है। इतना ही नहीं यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और इसके द्वारा गीतियों में भी एक प्रकार का प्रबन्ध रूप प्रस्तुत किया गया है, जो अनुकरणीय है।”
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